ग़ज़ल039
कूचा कूचा नगर नगर देखा
ख़ुद में देखा उसे अगर देखा!
किस्सा-ए-ज़ीस्त मुख़्तसर देखा
जैसे इक ख़्वाब रात भर देखा
दर ही देखा न तूने घर देखा
ज़िन्दगी तुझको खूबकर देखा
कोई हसरत रही न उसके बाद
उस को हसरत से इक नज़र देखा
हम को दैर-ओ-हरम से क्या निस्बत
उस को दिल में ही जल्वा-गर देखा
दर्द में ,रंज-ओ-ग़म में,हिरमां में
आप को ख़ूब दर-ब-दर देखा
हाल-ए-दिल दीदनी मिरा कब था?
देखता कैसे? हाँ ! मगर देखा
सच कहो बज़्म-ए-शे’र में तुम ने
कोई "सरवर" सा बे-हुनर देखा?
-सरवर
निस्बत =मतलब
हिर्मां में =बदक़िस्मती में
दीदनी =देखने की लायक