शुक्रवार, 7 जनवरी 2011

ग़ज़ल 031 : तमाम दुनिया में ढूंढ आया ......

ग़ज़ल  031: तमाम दुनिया में ढूंढ आया .....

तमाम दुनिया में ढूँढ आया मैं ग़म-शुदा ज़िन्दगी की सूरत
मिली तो अक्सर हयात-ए-मुज़्तर,मगर मिली अजनबी की सूरत

सबक़ तो सीखा हम अहल-ए-दिल ने ये इज्ज़ की सर-बलन्दियों से
कि एक सजदा है काफ़ी लेकिन हो बन्दगी बन्दगी की सूरत

अजीब दस्तूर-ए-आशिक़ी है न मैं ही मैं हूँ न तुम ही तुम हो
न दोस्ती दोस्ती की सूरत ,न दुश्मनी दुश्मनी की सूरत

ख़बर, तसव्वुर,ख़याल ,ईमां ,गुमां, यक़ीं,फ़िक्र ,इल्म,हिकमत
मक़ाम-ए-ख़ुद-आगाही के आगे ,सवाद-ए-कम-आगाही की सूरत

बरहना-पा, आब्ला-गज़ीदा, शिकस्ता-दिल ,पैरहन- दरीदा
मक़ाम-ए-सिद्रा पे सोचता हूँ कोई है परदा-दरी की सूरत

मिला सर-ए-राह ख़ुद से जब मैं अजीब ही अपना हाल देखा
किसी की आंखें, किसी का चेहरा ,नज़र किसी की,किसी की सूरत

न मुझसे पूछो कि मैं कहाँ हूँ ,मुझे तो कुछ भी पता नहीं है
कि अपनी सूरत में आ रही है नज़र मुझे हर किसी की सूरत

यह सच है दुनिया में और भी हैं जमील-ओ-ख़ुशरू हसीन-ओ-दिलबर
पसंद आयी मगर हमें तो जनाब-ए-मन ! आप ही की सूरत

न जाने कब से खड़ा था ’सरवर’ इक आस्तीन-ए-उम्मीद थामे
वो निकला ख़ुद से ही ग़ैर हाज़िर, हुई अजब हाज़िरी की सूरत

-सरवर
मुज़्तर =बेचैनी
बरहना-पा =नंगे पाँव
आब्ला-गज़ीदा = छाला सहित
पैरहन-दरीदा =चिथड़े लपेटे
मक़ाम-ए-सिद्रा = ऊचाईयों के अन्तिम पड़ाव पर
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