रविवार, 18 अप्रैल 2010

गज़ल 017 : उम्मीद-ओ-आरज़ू मिरी.......

ग़ज़ल 017

उम्मीद-ओ-आरज़ू मिरी दमसाज़ बन गई
इक सोज़-ए-आशिक़ी बनी,इक साज़ बन गई !

सौदा न कम हुआ सर-ए-मक़्सूद-ए-आशिक़ी
क्या इन्तिहाये-आरज़ू आग़ाज़ बन गई ?

यारों !ये क्या हुआ कि सर-ए-बज़्म-ए-ज़िन्दगी?
जो भी ग़ज़ल कही ,शरार-अन्दाज़ बन गई !

कैसी तलाश ,किस की तमन्ना,कहाँ की दीद
ख़ुद मेरी ज़ात मेरे लिये राज़ बन गई !

वा-मांदगी-ए-बाल-ओ-पर-ए-फ़िक्र ?अल-अमां !
हद से बढ़ी तो हिम्मत-ए-परवाज़ बन गई

यूँ आश्ना-ए-कूचा-ए-आवारगी रहे
हर ना-मुरादी शौक़-ए-तग-ओ-ताज़ बन गई

जब मैनें बढ़ के उसकी नज़र को किया सलाम
झुक कर वो फ़ित्ना-ज़ा ग़लत अन्दाज़ बन गई !

"सरवर" ये फ़ैज़-ए-’राज़’ है कि तेरी शायरी
हुस्न-ए-सुख़न से गुलशन-ए-शिराज़ बन गई !

-सरवर-
दमसाज़ =दोस्त
सोज़-ए-आशिक़ी =प्रेमाग्नि
शरार-अन्दाज़ = चिंगारी जैसी अन्दाज़
गुलशने-शिराज़ = शिराज़ के बाग(इरान का एक शहर जो
अपने बागों के लिए मशहूर है

2 टिप्‍पणियां:

  1. जब मैनें बढ़ के उसकी नज़र को किया सलाम
    झुक कर वो फ़ित्ना-ज़ा ग़लत अन्दाज़ बन गई !

    bahut khub


    shekhar kumawat

    http://kavyawani.blogspot.com/

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