ग़ज़ल 017
इक सोज़-ए-आशिक़ी बनी,इक साज़ बन गई !
सौदा न कम हुआ सर-ए-मक़्सूद-ए-आशिक़ी
क्या इन्तिहाये-आरज़ू आग़ाज़ बन गई ?
यारों !ये क्या हुआ कि सर-ए-बज़्म-ए-ज़िन्दगी?
जो भी ग़ज़ल कही ,शरार-अन्दाज़ बन गई !
कैसी तलाश ,किस की तमन्ना,कहाँ की दीद
ख़ुद मेरी ज़ात मेरे लिये राज़ बन गई !
वा-मांदगी-ए-बाल-ओ-पर-ए-फ़िक्र ?अल-अमां !
हद से बढ़ी तो हिम्मत-ए-परवाज़ बन गई
यूँ आश्ना-ए-कूचा-ए-आवारगी रहे
हर ना-मुरादी शौक़-ए-तग-ओ-ताज़ बन गई
जब मैनें बढ़ के उसकी नज़र को किया सलाम
झुक कर वो फ़ित्ना-ज़ा ग़लत अन्दाज़ बन गई !
"सरवर" ये फ़ैज़-ए-’राज़’ है कि तेरी शायरी
हुस्न-ए-सुख़न से गुलशन-ए-शिराज़ बन गई !
-सरवर-
दमसाज़ =दोस्त
सोज़-ए-आशिक़ी =प्रेमाग्नि
शरार-अन्दाज़ = चिंगारी जैसी अन्दाज़
गुलशने-शिराज़ = शिराज़ के बाग(इरान का एक शहर जो
अपने बागों के लिए मशहूर है
बहुत सुंदर गजल
जवाब देंहटाएंजब मैनें बढ़ के उसकी नज़र को किया सलाम
जवाब देंहटाएंझुक कर वो फ़ित्ना-ज़ा ग़लत अन्दाज़ बन गई !
bahut khub
shekhar kumawat
http://kavyawani.blogspot.com/