गज़ल 018 : न सोज़ आह में मिरी..............
न सोज़ आह में मिरी, न साज़ है दिल में
मैं लाऊँ कौन सी सौग़ात तेरी महफ़िल में ?
मैं आईना हूँ कि आईना-रू नहीं मालूम
ये वक़्त आया है इस आशिक़ी की मंज़िल में
ख़ुदी कहूँ कि इसे बेख़ुदी बताओ तुम
मैं अपने आप चला आया कू-ए-क़ातिल में
हमारे ज़ब्त ने रख्खा भरम ख़ुदाई का
ज़बां पे आ ही गई थी जो बात थी दिल में
न अपने दिल की कहो तुम ,न दूसरों की सुनो
अजीब रंग यह देखा तुम्हारी महफ़िल में
हरम के हैं ये शनासा ,न दैर से वाकि़फ़
रखा है क्या भला इन मुफ़्तियान-ए-कामिल में?
यक़ीं गुमान में बदला ,गुमां अक़ीदे में
हमें तो बस ये मिला तेरे ख़ाना-ए-गिल में
फ़राज़-ए-इश्क़ ने इस मर्तबे को पहुँचाया
रहा न फ़र्क़ कोई राह और मंज़िल में
ख़रोश-ए-मौजा-ए-तूफ़ां ने लाख दावत दी
उलझ के रह गये लेकिन फ़रेब-ए-साहिल में
अभी मिला भी न था हसरतों से छुटकारा
उम्मीद डाल गई आ के और मुश्किल में
कोई मुझे ’सरवर’ ! कहे न दीवाना
शुमार मुझको करो आशिक़ान-ए-कामिल में !
-सरवर-
सौग़ात = उपहार
ख़ाना-ए-गिल =(मिट्टी का घर),ये दुनिया
आइना-रू =आइना जैसा
शनासा =जाना-पहचाना
मुफ़्तीयाने-कामिल = पूरा मुफ़्ती
अक़ीदा =श्रद्धा/विश्वास
आशिक़ान-ए-कामिल = पूरा आशिक़
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यक़ीं गुमान में बदला ,गुमां अक़ीदे में
जवाब देंहटाएंहमें तो बस ये मिला तेरे ख़ाना-ए-गिल में
-वाह!! दोनों गज़ले पढ़ना बहुत सुखद रहा. आभार आपका प्रस्तुत करने के लिए.
न अपने दिल की कहो तुम ,न दूसरों की सुनो
जवाब देंहटाएंअजीब रंग यह देखा तुम्हारी महफ़िल में
वाह. बहुत-बहुत धन्यवाद, इतनी खूबसूरत गज़लों को हम तक पहुंचाने के लिये.
नमस्कार
जवाब देंहटाएंखुशकिस्मती से आज इस ब्लॉग के बारे में
मालूम हुआ ....
सरवर साहब की बानगी , लहजा और इनफरादियत
ग़ज़ल की उम्दा तारीख़
और
ग़ज़ल की अज़मत-ओ-वक़ार कo तसदीक़ करती है...
उन्हें पढ़ना हमेशा हमेशा इक तज्रबा रहता है
आपका बहुत बहुत शुक्रिया .
जनाब समीर जी./माननीया वन्दना जी/जनाब मुफ़लिस जी
जवाब देंहटाएंसरवर साहेब की ग़ज़ल की सराहना के लिए धन्यवाद
वस्तुत: "सरवर" साहब उर्दु या "रोमन" उर्दू में लिखते हैं जिनका हिन्दी तर्ज़ुमा (सरवर साहब के आशीर्वाद से)वास्ते हिंदी दाँ दोस्तों की खिदमत में पेश करता हूँ/आप सभी लोगों का शुक्रिया
तालिब-ए-दुआ
आनन्द.पाठक