ग़ज़ल 016
इसी को तो नहीं कहते कहीं काफ़िर-अदा होना ?
ये तपती दोपहर में मुझसे साए का जुदा होना
ज़ियादा इस से क्या होगा भला बे-आसरा होना ?
यकीं आ ही गया हमको तुम्हारी बे-नियाज़ी से
बुज़र्गो से सुना था यूँ तो बन्दों का खु़दा होना !
न जाने कौन से मन्ज़िल है जो बेगाना-ए-ग़म हूँ
मुझे रास आ गया क्या इश्क़ में बे-दस्त-ओ-पा होना ?
ख़ुदी और बे-ख़ुदी में फ़र्क़ है तो सिर्फ़ इतना है
मुहब्बत आशना होना ,मुहब्बत में फ़ना होना !
कोई सीखे तो सीखे आप से तर्ज़े-खुदावन्दी
मिरी बे-चारगी पर आप का यूँ ख़ुद-नुमा होना !
ये सुबह-ओ-शाम की उलझन ये रोज़-ओ-शब के हंगामे
क़ियामत हो गया क़र्ज़े-मुहब्बत का अदा होना
ये सोज़ो-साज़े-उल्फ़त और ये जज़्बो-जुनूँ ’सरवर’
मुबारक हो तुझे शाइस्ता-ए-हर्फ़े-वफ़ा होना
-सरवर-
बे-दस्त-ओ-पा होना = बेबस/लाचार होना
शाइस्ता-ए-हर्फ़े-वफ़ा होना = वफ़ा के का़बिल होना
सरवर साहब की एक और उम्दा ग़ज़ल से नवाज़ने के लिये तहेदिल से शुक्रिया।
जवाब देंहटाएंन जाने कौन से मन्ज़िल में शायद टंकण त्रुटि हुई है 'से' की जगह 'सी' होना चाहिये।
Bahut khub
जवाब देंहटाएंये सोज़ो-साज़े-उल्फ़त और ये जज़्बो-जुनूँ ’सरवर’
जवाब देंहटाएंमुबारक हो तुझे शाइस्ता-ए-हर्फ़े-वफ़ा होना
bahut sundar rachna
shekhar kumawat
http://kavyawani.blogspot.com/
आ० तिलक राज जी/श्यामा जी/शेखर जी
जवाब देंहटाएंआप लोगों का बहुत-बहुत धन्यवाद
सादर
आनन्द.पाठक