शनिवार, 10 अप्रैल 2010

ग़ज़ल 016 : मुहब्बत आशना हो कर.......

ग़ज़ल 016 

मुहब्बत आशना हो कर वफ़ा ना-आशना होना
इसी को तो नहीं कहते कहीं काफ़िर-अदा होना ?

ये तपती दोपहर में मुझसे साए का जुदा होना
ज़ियादा इस से क्या होगा भला बे-आसरा होना ?

यकीं आ ही गया हमको तुम्हारी बे-नियाज़ी से
बुज़र्गो से सुना था यूँ तो बन्दों का खु़दा होना !

न जाने कौन से मन्ज़िल है जो बेगाना-ए-ग़म हूँ
मुझे रास आ गया क्या इश्क़ में बे-दस्त-ओ-पा होना ?

ख़ुदी और बे-ख़ुदी में फ़र्क़ है तो सिर्फ़ इतना है
मुहब्बत आशना होना ,मुहब्बत में फ़ना होना !

कोई सीखे तो सीखे आप से तर्ज़े-खुदावन्दी
मिरी बे-चारगी पर आप का यूँ ख़ुद-नुमा होना !

ये सुबह-ओ-शाम की उलझन ये रोज़-ओ-शब के हंगामे
क़ियामत हो गया क़र्ज़े-मुहब्बत का अदा होना

ये सोज़ो-साज़े-उल्फ़त और ये जज़्बो-जुनूँ ’सरवर’
मुबारक हो तुझे शाइस्ता-ए-हर्फ़े-वफ़ा होना

-सरवर-
बे-दस्त-ओ-पा होना = बेबस/लाचार होना
शाइस्ता-ए-हर्फ़े-वफ़ा होना = वफ़ा के का़बिल होना

4 टिप्‍पणियां:

  1. सरवर साहब की एक और उम्‍दा ग़ज़ल से नवाज़ने के लिये तहेदिल से शुक्रिया।

    न जाने कौन से मन्ज़िल में शायद टंकण त्रुटि हुई है 'से' की जगह 'सी' होना चाहिये।

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  2. ये सोज़ो-साज़े-उल्फ़त और ये जज़्बो-जुनूँ ’सरवर’
    मुबारक हो तुझे शाइस्ता-ए-हर्फ़े-वफ़ा होना


    bahut sundar rachna

    shekhar kumawat

    http://kavyawani.blogspot.com/

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  3. आ० तिलक राज जी/श्यामा जी/शेखर जी
    आप लोगों का बहुत-बहुत धन्यवाद
    सादर
    आनन्द.पाठक

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