शनिवार, 17 अप्रैल 2010

वाकियाती शायरी क्या है........किस्त ३(अंतिम किस्त)

[इस आलेख के २-भाग आप इसी ब्लोग पर पढ़ चुकें हैं ,प्रस्तुत है इस लेख की अन्तिम कड़ी)

(ब) इबारत क्या ! इशारत क्या ! अदा क्या !
मिर्ज़ा ग़ालिब का शे’र है
बला-ए-जां है उसकी हर बात
इबारत क्या ! इशारत क्या ! अदा क्या !

अब ज़रा ये अश’आर देखिये.इन पर तब्सिरा तहसील-ए-लाहासिल(कुछ कहना कुछ भी हासिल न होने ) की हैसियत रखता है.हर शे’र अपनी जगह एक बे-बहा नगीना है और ऐसी खूबसूरती का हामिल है कि उसको "ज़मीनी" शे’र कहने को बेसाख़्ता( बेहिचक) जी चाहता है.आप भी पढ़िए और सर धुनिये

इक कमीने की रोटियाँ खा कर
सख़्त बीमार हो गया हूँ मैं (प्रवीण कुमार ’अश्क)

रोग मत पाल ग़ज़ल का ऐ "अश्क’
तुझको यह लड़की न पागल कर दे (प्रवीण कुमार ’अश्क)

मिरे ही पास थे तख़्लीक़ के मन्सब सभी कल भी
मैं माँ हूँ किस तरह से मैं दर्द-ए-ज़ेह नहीं सकती (मसर्रत ज़ेबा)
ज़मीनी मसाइल और उनकी शिकायत से इन्कार नहीं है :दर्द-ए-ज़ेह: और वो भी ग़ज़ल में ? ला-हौल-वा-लाकुव्वत!(राम राम! राम !) मह्व-ए-हैरत हूँ( मैं तो हैरान हूँ)कि दुनिया क्या से क्या हो जायेगी !

यूँ तो सेहत मिरी रहती है बहुत ठीक मगर
एक तकलीफ़ है जल्दी मुझे होने वाली

अब्र उमड़ता हुआ आता है गुज़र जाता है (अब्र=बादल)
एक बारिश तो मुझे चाहिए होने वाली

फ़ँसना तो मछलियों का मुक़द्दर की बात है
दर्या में अपना जाल तो डाला ही करते हम

इस शहर से जो कूच ना करते अभी कुछ और (कूच=प्रस्थान)
लोगों की पगड़ियाँ तो उछाला ही करते हम

बे-ज़ायक़ा ही रह गया ख़्वान-ए-सुख़न ’ज़फ़र’
थोड़ा सा और तेज़ मसाला ही करते हम !

बहुत ज़ियादा ज़रूरी है मछलियों की तरह
ये रात-दिन मिरी आँखों का का आब में होना

ये अश’आर भी अपना जवाब आप ही हैं.अगर शायरी इसी का नाम है तो इसको दूर से ही सलाम करना बेहतर है

रौशनी का बदन हुआ रेज़ा
रूह पर गर्द रात का रेज़ा

आज ये किस ने दिल पे दस्तक दी
मेह्वर-ए-ज़ीस्त में अटा रेज़ा (मुहम्मद वसीम)

टूटे अगर हवा तो अन्धेरे का गुल झड़े
मक्तूब ले गई है सवेरे के नाम का (जावेद नासिर)

एक लट्टू की तरह घूम रहा हूँ अब तक
जैसे ख़ुद को किसी चक्कर से निकाला है कहीं

इन अश’आर को पढ़ कर हमारा सर भी लट्टू की तरह घूम रहा है.चूँकि इस सूरत-ए-हाल में बेहतरी की उम्मीद नहीं है इसलिए आइए अब आगे चलें !
(स) नातिक़ा सर-बा-गरेबाँ है
इस उन्वान के तहत जो अश’आर दिए गए हैं वो हर क़िस्म की तशरीफ़-ओ-तौज़ीह से बाला-तर हैं.इनकी अन्दरुनी नाज़ुक-ख़याली ,नुद्रत-ए-फ़िक्र-ओ-बयान,रदीफ़-ओ-क़वाफ़ी का ताल-मेल अपनी तफ़्सीर ख़ुद ही फ़राहम करते हैं.आप भी मुलाहिज़ा फ़र्माइए कि ये मस्वाक़ी बार बार कहाँ मयस्सर आते हैं

उलझे दाढ़ी चोटी में
खेलो फाग लंगोटी में

बिकते देखा है इन्सान
दो बोटी, दो रोटी में

आज ’मुज़फ़्फ़र’ चाँद हुए
कल तक थे कजलौटी में (मुज़फ़्फ़र हन्फ़ी)

ज़मीन कम है तो जा कर आसमां पर चूमना है
जहाँ वो हो नही सकता वहाँ पर चूमना है

जो ना-मुम्किन है वो मुम्किन भी हो सकता है इक दिन
कभी उस बे-निशां के हर निशां पर चूमना है

झलक हमको नज़र आती है इसमें साफ़ उनकी
हमें अपने ही रंग-ए-रायगां पर चूमना है.

हबाब-आसा अगर यह ज़िन्दगानी है तो हर वक़्त
किसी के मेहराम-ए-आब-ए-रवां पर चूमना है

मैं उसमें आप भी गायब सा होने लगता हूँ
गु़बार जो मिरे मेहताब से निकलता है

गु़रूब होता हूँ जब मैं खुले समन्दर में
वो बन्द होते हुए बाब से निकलता है

चिराग़ सा जो किसी बुतकदे में बुझता हूँ
दुआ दरीचा-ए-मेहराब से निकलता है

देखे जो मैने ख़्वाब वो चिल्ली के ख़्वाब थे
आँखों में फिर रही है वो यादों की कहकशाँ (समर टुकरवि)

ये भूख बीच में आख़िर कहाँ से आई है ?
ये रोटियाँ भी तिरे हैं ,शिकम भी तेरे हैं (अक़ील शादाब)

तुम्हारे बिन मिरा परदेश में अब दिल नहीं लगता
मैं दिन जाने की गिनती हूँ कैलेन्डर सामने रख कर (मसर्रत ज़ेबा)

(द) आते हैं गै़ब से ये मज़ामीन ख़याल में !
जैसे कि उन्वान से ज़ाहिर है ये अश’आर हमारे सर पर से गुज़र गये.!चूँकि इनकी इफ़्हाम-ओ-तफ़्हीम( समझने और समझाने) का ताल्लुक़ किसी और ही दुनिया से मालूम होता है हम इन पर तफ़्सीली राय देने से बिल्कुल क़ासिर हैं.अगर आप को भी यही परेशानी लाहक़ हो तो हम किसी वाक़ियाती शायर से इनकी तफ़्सीर और रुमूज़ हासिल करने की कोशिश करेंगे

बड़ी लतीफ़ थी वो बात जिस को सुनने से
लहू बदन में हुआ है उबाल-आमादा (ख़ालिद बसीर)

कब तक मैं किवाड़ों को लगाए हुए रखता ?
दिन उगते ही अहवाल-बयानी निकल आई (अहमद कमाल परवाज़ी)

मैं वाक़िफ़ हूँ तिरी चुप-गोईयों से
समझ लेता हूँ तेरी अनकही भी (सुलेमान ख़ुमार)
आजकल फ़ारसी का इल्म उमूमी तौर से ज़वाल-पज़ीर है.नए लिखने वाले ख़ास तौर से इसमें कमज़ोर हैं.ये बात ज़ाहिर है कि अच्छी शायरी के लिए थोड़ी बहुत फ़ारसी आनी चाहिए.इसका सुबूत हर अच्छे शायर के कलाम में मिल जायेगा.!लेकिन ऊपर के अश’आर में जो फ़ारसी के तराकीब इस्तेमाल की गई है वो ला-जवाब हैं.इनकी तख्लीक़ के लिए जो ज़ेहन चाहिए वो हर एक को वदीयत (प्राप्त)नहीं हुआ है.यही हाल ज़फ़र इक़्बाल के अश’आर का है.

मौजूदगी सी जैसे किसी और की भी है
मंज़र जो बन रहा है तिकोना किसी के साथ

एक ही बार होने में ताम्मुल था मगर
अब पड़ा है उसी हालात में दोबारा होना

कुछ समझ में ही न आना मिरी और फिर हर बार
और का और उन आँख़ों का इशारा होना

जहाँ क़ियाम है उसका वहाँ से हट कर है
कि है ज़मीन पे ही लेकिन ज़मीन से हट कर है

गु़बार-ए-हवाब है दोनों में एक सा लेकिन
वो बाग़-ए-बोसा बाहिश्त-ए-बरीं से हट कर है

ज़फ़र महाज़-ए-मुहब्बत से अपनी पासपायी
किसी भी क़ाफ़िला-ए-वापसीं से हट कर है
चन्द और :-
कुछ हासिले वैसे भी थे आपस में ज़ियादा
कुछ ख़्वाब तुम्हारे थे हमारों से बहुत दूर

यूँ उसने सभी जमा किए एक जगह पर
और फेंक दिया हौ मुझे सारों से बहुत दूर

ख़ल्वत-कदा-ए-दिल पे ज़ुबूँ -हाली-ए-बिसयार
है सूरत-ए-गंजीना-ए-अल्फ़ाज़-ओ-मानी (ऐन तबिश)

ख़ुश्क-ओ-तार ज़र्द हरी फ़स्ल का अस्फ़-अम-माकूल
अब किसी ख़्वाब से चस्पा नहीं ताबीर कोई

गै़र मर्बूत गुमान-वस्फ़ मुहर्रफ़ मुबहम
यानी हर शख़्स हुआ आयत-ए-इंजील कोई (सलीम शह्ज़ाद)

शायद था इक बगूले में तन्हाइयों का ग़म
’ज़ेबा’जो दिल के गमले में कैक्टस लगा मुझे (मसर्रत ज़ेबा)

बो दी थी मैं ने अपनी दसों उँगलियाँ जहाँ
पैरों में आ रहा है वही रास्ता सा फिर (राशिद इम्कान)

(य) ग़लती-हाये-मज़ामीन न पूछ !
इस उन्वान के तहत चन्द वाक़ियाती शायरों के कुछ अश’आर दिए जा रहे हैं.इनके पढ़ने के बाद ये शो’अरा "ज़मीनी’ शायरी की धुन में उर्दू सर्फ़-ओ-नाह्व ,उसूल-ए-ज़बान-ओ-बयान और फ़साहत-ओ-बलाग़त की इब्तदाई मालूमात से बेगाना हो गये हैं.ऐसा मालूम होता है कि इस इल्म को हासिल करने के लिये इनको किसी ’रसूमियाती: उस्ताद-ए-फ़न से रुजू करने की सख़्त ज़रूरत है.कोई साहेब-ए-ज़बान ऐसी फ़ाश ग़ल्तियाँ नहीं कर सकता.और अगर उस से इनका सुदूर हो भी जाए तो वह ऐसे कलाम को शाये कव्वाने की हिम्मत यक़ीनन नहीं कर सकता है .

हर ग़म को सहने की ताक़त देना मुझे
कोई भी ग़म इससे पहले मत देना मुझे

ऐसा मत करना जीते जी मर जाँऊ
मरने से पहले शोहरत देना मुझे (मुहम्मद अल्वी)

अब अपनी चीख़ ही क्या ,अपनी बे-ज़बानी क्या
महज़ अमीरों की ज़िन्दगानी क्या (अज़्रा परवीन)

वो दर्मियान-ए-रोज़-ओ-शब वक़्फ़ा है क्या ?
ज़ेर-ए-उफ़ुक मेरी तरह जलता है क्या ? (शफ़क़ सौपुरी)

ये कश्फ़ सबके लिए आम भी नहीं होता
अगर्चे शायरी इल्हाम भी नहीं होता
शायरी और "होता"? बेसोख़्त अक़्ल बा-हैरत कि ईंचे बुल-अजाबी अस्त ?

अभी मुन्कशिफ़ होना है पहली बार हम पर
अभी हम ने नक़्श-ए-निहाँ पर चूमना है

ज़फ़र हम ने अभी ग़र्क़ाब हो जाने से पहले
कहीं अपने दरीदा बादबाँ पर चूमना है
अहल-ए-ज़बान "ने" माज़ी के लिए लिखते हैं न कि हाल और मुस्तक़्बिल के लिए !यहाँ हम "ने"की बजाय हम"को" होना चाहिए.देखिये गा़लिब क्या कहते हैं:-

हमने माना कि तगा़फ़ुल न करोगे लेकिन
ख़ाक हो जाएंगे हम तुम को ख़बर होने तक !

और यह भी दीदा-ए-इब्रत निगाह से देखिए
आँखों के आईने तो सुबुक्सार थे यहाँ
दिल के निवाह में ही गिरानी का रंग था

ऊपर से चल रही थी हवाएं भी तेज़-तेज़
ख़ाशाक-ए-ख़ूँ पे शोला बयानी का रंग था

मैं जिस जगह नहीं था वहाँ दूर-दूर तक
आब-ओ-हवा पे मेरी नैशानी का रंग था
ख़ुदा-रा (हे भगवान !) कोई बताये कि यह " आँखों के आइने की सुबुक्सारी", "ख़ाशाक-ए-खूँ पे शोला बयानी का रंग",और "आब-ओ-हवा पे नैशानी का रंग" किस चिड़िया का नाम है.?
इस हक़ीक़त से तो इन्कार मुम्किन नहीं है कि ज़माने के हालात बदलते रहते हैं जैसा कि किसी ने क्या ख़ूब कहा है :-

साबात एक तग़इय्युर को है ज़माने में
सुकूँ मुहाल है क़ुदरत के कारखाने में

इस लिए अदब-ओ-शे’र के लिए भी ज़माने के साथ चलना ज़रूरी है.अगर ऐसा नहीं होगा तो कल ज़माना कहीं का कहीं पहुँच चुका होगा और अदब-ओ-शे’र जुमूद का शिकार होकर आहिस्ता-आहिस्ता गायब हो जायेंगे..सोचना यह है कि क्या ग़ज़ल इन बदलती क़द्रों की साथ बदल कर अपना रंग और मिज़ाज क़ायम रख सकती है?यह भी तो मुम्किन है कि ग़ज़ल बहुत सी ज़मीनी मज़ामीन बयान करने से क़ासिर है और वह अपनी फ़ितरत मेम इन्सानी जज़्बात-ओ-एह्सासात को भी बेहतर बयान कर सकती है.वाक़ियाती मसाइल की दाद-रसी के लिए दूसरी अस्नाफ़(विधायें) मौजूद हैं जिनको इस्तेमाल करना और इनमें नए तजीर्बे करना मुस्तहसिन है. ग़ज़ल का हुलिया बिगाड़ कर यह मक़्सद हासिल नहीं हो सकता है.:

तय कर चुका हूँ राह-ए-मुहब्बत के मरहले
इस से ज़ियादा हाज़त-ए-शर्ह-ओ-बयां नहीं (राज़ चांदपुरी)

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(समाप्त)

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