ग़ज़ल 021
रब्त आख़िर क्यों हमारे दरमियां होता नहीं ?
दिल पे जो गुज़रे है नज़रों से अयां होता नहीं
हाये क्या कीजिए कि क़िस्सा ये बयां होता नहीं
आशिक़ी में मातम-ए-आशुफ़्तगां होता नहीं ?
आप ही कह दें कि ऐसा कब कहाँ होता नहीं?
दिल बदलते देर क्या लगती है अहल-ए-देह्र को
क्या बतायें हम तुम्हें क्या क्या यहाँ होता नहीं
हम समझते थे कि फ़िक्र-ए-ज़िन्दगी मिट जायेगी
चारासाज़-ए-ज़ीस्त क्यों सोज़-ए-निहाँ होता नहीं
एक दुनिया देखिये नग़्मा-सरा-ए-ऐश है
क्यों ग़म-ए-इंसां में कोई नौहा-ख़्वां होता नहीं?
एक हर्फ़-ए-दिलदिही या इक निगाह-ए-इल्तिफ़ात
तुझ से इतना भी तो ऐ जान-ए-जहां होता नहीं
बे-तलब ही जान दे देते हैं अहल-ए-आरज़ू
सज्दा-ए-उल्फ़त रहीन-ए-सद-अज़ाँ होता नहीं
जान ही देनी है तो क्या हिज़्र और कैसा विसाल
आशिक़ी में तो ख़याल-ए-ईं-ओ-आं होता नहीं
इस क़दर मानूस दुनिया की सुख़न साज़ी से हूँ
बात सुन लेता हूँ लेकिन सर-गिरां होता नहीं
वहशत-ओ-आशुफ़्तगी में हद्द-ए-इम्कां से गुज़र
फ़ाश वरना हुस्न का सिर्र-ए-निहां होता नहीं
वक़्त वो आया है जब कोई नहीं पुरसान-ए-हाल
तेरी सूरत पर भी अब तेरा गुमां होता नहीं
क्या गया मेरा दिल -ए-बेताब हाथों से निकल ?
कल जहाँ था दर्द प्यारे ! अब वहाँ होता नहीं
आ ही जाता है लबों पर शिकवा-ए-आज़ूर्दगी
दिल दु्खे "सरवर" तो फिर ज़ब्त-ए-फ़ुगां होता नहीं
-सरवर
तसव्वुर = ध्यान में
रब्त =सम्बन्ध
अयाँ =जाहिर
आशुफ़्तगां =दुखी लोग
नग़्मा-सरा-ए-ऐश =ख़ुशी के गीत गाने वाले
अहल-ए-देह्र =दुनिया वाले
नौहा-ख़्वां =मातम करने वाला
ज़ब्त-ए-फ़ुगां =रोने पर क़ाबू
रहीन-ए-सद-अज़ां =सौ (१००) अज़ानों की वज़ह से
सर्र-ए-निहाँ =छुपी हुई बात.राज़,भेद
हर्फ़-ए-दिलदिही =सान्त्वना के दो बोल
निगाह-ए-इल्तिफ़ात =प्यार में कनखियों से देखना
ईं-ओ-आँ = ये और वो
मानूस =माना हुआ ,जानकार
सर-गिरां = नाख़ुश/ख़फ़ा
वहशत-ए-आशुफ़्तगी = (इश्क़ में) पागलपन और परेशानी
हद्द-ए-इम्कां =संभावनाओं की हद तक
पुरसान-ए-हाल =हाल-चाल पूछने वाला
शिकवा-ए-आज़ूर्दगी = उदासी की शिकायत
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