गुरुवार, 18 मार्च 2010

ग़ज़ल 015 : खेल इक बन गया ज़माने का --

ग़ज़ल 015 : खेल इक बन गया ज़माने का ...... 

खेल इक बन गया ज़माने का
तज़करा मेरे आने जाने का

ज़िन्दगी ले रही है हमसे हिसाब
क़तरे क़तरे का ,दाने दाने का

क्या बताए वो हाल-ए-दिल अपना
"जिस के दिल में हो ग़म ज़माने का"

हम इधर बे-नियाज़-ए-सूद-ओ-ज़ियाँ
शौक़ उधर तुम को आज़माने का

दिल फ़िगारी से जाँ-सुपारी तक
मुख़्तसर है सफ़र दिवाने का

ज़िन्दगी क्या है आ बताऊँ मैं
एक बहाना फ़रेब खाने का

बन गया ग़मगुसार-ए-तन्हाई
ज़िक्र गुजरे हुए ज़माने का

दिल्लगी नाम रख दिया किसने
दिल जलाने का जी से जाने का

हम भी हो आएं उस तरफ ’सरवर’
कोई हीला तो हो ठिकाने का

-सरवर-

तज़्करा = चर्चा
बेनियाज़ी-ए-सूद-ओ-ज़ियाँ =हानि-लाभ से रहित
दिल फ़िगारी = ज़ख़्मी दिल
जाँ सुपारी तक =जान सौपने तक
हीला =बहाना
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4 टिप्‍पणियां:

  1. ढूँढते ढूँढते ख़ुद को मैं कहाँ जा निकला
    एक पर्दा जो उठा दूसरा पर्दा निकला !


    -दोनों गज़लें बहुत उम्दा!

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  2. bahut umda ghazle pesh ki pathak sahab,
    bahut,bahut shukriya. aapki pasand bhi qabil-e-daad hai.

    -mansoor ali hashmi
    http://aatm-manthan.com

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  3. जनाब सरवर साहब की ग़ज़लें, कुछ कहने को नहीं रह जाता। बेहतरीन कलाम, दिल में बसने वाला।

    हम इधर बे-नियाज़-ए-सूद-ओ-ज़ियाँ
    शौक़ उधर तुम को आज़माने का
    में शायद तुम को के बाद कोमा छूट गया।

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  4. आ० समीर जी/जनाब मन्सूर अली साहेब /तिलक राज जी
    आप सभी लोगों का बहुत बहुत शुक्रिया
    तिलक राज साहब ने सही फ़र्माया एक कोमा छूट गया था
    उस मिस्रा की सही शक़्ल यूँ होगी
    " शौक उधर तुमको ,आज़माने का !
    मुख़्लिस
    आनन्द.पाठक

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