एक ज़मीन तीन शायर : ’ग़ालिब’ ’दाग़’ और ’अमीर’ मिनाई
-सरवर आलम राज़ ’सरवर’
हम सब मिर्ज़ा ’ग़ालिब’ की मशहूर ग़ज़ल " ये न थी हमारी क़िस्मत कि विसाल-ए-यार होता’ से बाख़ूबी वाक़िफ़ हैं.न सिर्फ़ इस को सैकड़ो बार पढ़ चुके है बल्कि कितने ही गुलू-कारों ने अपनी आवाज़ के जादू से इस को जाविदां बना दिया है.ये ग़ज़ल अपने ज़माने में भी काफी मक़्बूल हुई थी."अमीर" मिनाई के शागिर्द मुमताज़ अली ’आह’ने अपनी किताब
"सीरत-ए-अमीर अहम्द ’अमीर’ मिनाई " में लिखा है कि गो मिर्ज़ा का कलाम जिन अनमोल जवाहरों से मलामाल है उन के सामने ये ग़ज़ल कुछ ज़ियादा आब-ओ-ताब नहीं रखती मगर इस का बहुत चर्चा और शोहरत थी.अमीर’ मिनाई उस ज़माने में(लगभग १८६० में) नवाब युसुफ़ अली ख़ान’नाज़िम’ वाली-ए-रामपुर के दरबार से मुन्सलिक थे.नवाब साहेब की फ़रमाईश पर उस ज़माने एमं उन्होने भी एक ग़ज़ल कही थी.जो ग़ज़ल-१ के तहत नीचे दी गई है."अमीर’मिनाई बहुत बिसयार-गो थे(यानी लम्बी लम्बी ग़ज़लें लिखा करते थे).उन्होने इसी ज़मीन में एक और ग़ज़ल भी कही थी.जो यहाँ "ग़ज़ल-२" के नाम से दी जा रही है.मिर्ज़ा ’दाग़’ ने भी नवाब रामपुर की फ़रमाईश पर इसी ज़मीन में ग़ज़ल कही थी.वो भी पेश-ए-ख़िदमत है. !उम्मीद है कि यह पेश-कश आप को पसन्द आयेगी.
मिर्ज़ा अस्दुल्लाह खान ’ग़ालिब’
यह न थी हमारी क़िस्मत कि विसाल-ए-यार होता
अगर और जीते रहते यही इन्तिज़ार होता !
तिरे वादे पे जिए हम तो यह जान झूट जाना
कि खु़शी से मर न जाते अगर ऐतिबार होता
तिरी नाज़ुकी से जाना कि बँधा था अह्द बूदा
कभी तू न तोड़ सकता अगर उस्तवार होता
कोई मेरे दिल से पूछे तिरे तीर-ए-नीमकश को
यह ख़लिश कहाँ से होती जो जिगर के पार होता ?
यह कहाँ कि दोस्ती है कि बने हैं दोस्त नासेह
कोई चारा साज़ होता, कोई ग़म गुसार होता !
रग-ए-संग से टपकता वो लहू कि फिर न थमता
जिसे ग़म समझ रहे हो वो अगर शरार होता
ग़मअगर्चे जां गुसल है पे कहाँ बचें कि दिल है
ग़म-ए-इश्क़ गर न होता ,ग़म-ए-रोज़गार होता !
कहूँ किस से मैं कि क्या है,शब-ए-ग़म बुरी बला है
मुझे क्या बुरा था मरना अगर एक बार होता !
हुए मर के हम जो रुस्वा,हुए क्यों न ग़र्क़-ए-दर्या
न कभी जनाज़ा उठता ,न कहीं मज़ार होता
उसे कौन देख सकता कि यगाना है वो यकता
जो दुई की बू भी होती तो कहीं दो-चार होता
ये मसाइल-ए-तसव्वुफ़ ,ये तिरा बयान ’ग़ालिब’
तुझे हम वली समझते जो न बादा-ख़्वार होता
विसाले-ए-यार = प्रेमिका से मिलन तीरे-ए-नीमकश = आधा खिंचा हुआ तीर
अह्द = प्रतिग्या ख़लिश = दर्द
उस्तुवार = पक्का चारासाज़ =उपचार करने वाला
ग़मगुसार =ग़म में सहानुभूति दिखाने वाला रग-ए-संग =पत्थर की नस
जां गुसिल = जान लेने वाला यगाना/यकता = एक ही ,अद्वितीय
मसाइल-ए-तसव्वुफ़= अध्यात्मिकता की समस्यायें
बादाख़्वार =शराबी नासेह =प्रेम त्याग का उपदेश देने वाला
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नवाब मिर्ज़ा ख़ान "दाग़’ देहलवी
अजब अपना हाल होता जो विसाल-ए-यार होता
कभी जान सदक़े होती कभी दिल निसार होता
कोई फ़ित्ना ता-क़ियामत ना फिर आशकार होता
तिरे दिल पे काश ज़ालिम मुझे इख़्तियार होता
जो तुम्हारी तरह हमसे कोई झूटे वादे करता
तुम्हीं मुन्सिफ़ी से कह दो ,तुम्हें ऐतिबार होता
ग़म-ए-इश्क़ में मज़ा था जो उसे समझ के खाते
ये वो ज़हर है कि आख़िर मय-ए-ख़ुशगवार होता
न मज़ा है दुश्मनी में ,न ही लुत्फ़ दोस्ती में
कोई गै़र गै़र होता ,कोई यार यार होता !
ये मज़ा था दिल लगी का,कि बराबर आग लगती
न तुझे क़रार होता ,न मुझे क़रार होता
तिरे वादे पर सितमगर ! अभी और सब्र करते
अगर अपनी ज़िन्दगी का हमें ऐतिबार होता
ये वो दर्द-ए-दिल नहीं है कि हो चारासाज़ कोई
अगर एक बार मिटता तो हज़ार बार होता
गये होश तेरे ज़ाहिद !जो वो चश्म-ए-मस्त देखी
मुझे क्या उलट न देता जो न बादा-ख़्वार होता ?
मुझे मानते सब ऐसा कि उदू भी सजदा करते
दर-ए-यार काबा बनता जो मिरा मज़ार होता
तुझे नाज़ हो ना क्योंकर कि लिया है ’दाग’ का दिल
ये रक़म ना हाथ लगती,ना ये इफ़्तिख़ार होता !
फ़ित्ना = फ़साद उदू =बड़े लोग भी
आशकार = जाहिर होना रक़म =धन-दौलत
इफ़्तिख़ार = मान-सम्मान
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अमीर अहमद ’अमीर’ मिनाई
ग़ज़ल - १
मिरे बस में या तो यारब ! वो सितम-शि’आर होता
ये न था तो काश दिल पर मुझे इख़्तियार होता !
पस-ए-मर्ग काश यूँ ही मुझे वस्ल-ए-यार होता
वो सर-ए- मज़ार होता ,मैं तह-ए-मज़ार होता !
तिरा मयक़दा सलामत ,तिरे खु़म की ख़ैर साक़ी !
मिरा नश्शा क्यूँ उतरता मुझे क्यूँ ख़ुमार होता ?
मिरे इत्तिक़ा का बाइस तो है मेरी ना-तवानी
जो मैं तौबा तोड़ सकता तो शराब-ख़्वार होता !
मैं हूँ ना-मुराद ऐसा कि बिलक के यास रोती
कहीं पा के आसरा कुछ जो उम्मीदवार होता
नहीं पूछता है मुझको कोई फूल इस चमन में
दिल-ए-दाग़दार होता तो गले का हार होता
वो मज़ा दिया तड़प ने कि यह आरज़ू है यारब !
मिरे दोनो पहलुओं में दिल-ए-बेक़रार होता
दम-ए-नाज़ भी जो वो बुत मुझे आ के मुँह दिखा दे
तो ख़ुदा के मुँह से इतना न मैं शर्मसार होता
जो निगाह की थी ज़ालिम तो फिर आँख क्यों चुरायी?
वो ही तीर क्यों न मारा जो जिगर के पार होता
मैं ज़बां से तुमको सच्चा कहो लाख बार कह दूँ
उसे क्या करूँ कि दिल को नहीं ऐतिबार होता
मिरी ख़ाक भी लहद में न रही ’अमीर’ बाक़ी
उन्हें मरने ही का अब तक नहीं ऐतिबार होता !
सितम-शि’आर =जुल्म करने की फ़ितरत पस-ए-मर्ग = मरने के बाद
इत्तिक़ा =संयम बाइस =वज़ह ,कारण
मलक =फ़रिश्ते लह्द-फ़िशार= मुसलमानों के धर्म के अनुसार पापी
मनुष्यों को क़ब्र बड़े ज़ोर से खींचती है
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ग़ज़ल - २
नयी चोटें चलतीं क़ातिल जो कभी दो-चार होता
जो उधर से वार होता तो इधर से वार होता
तिरे अक्स का जो क़ातिल! कभी तुझ पे वार होता
तो निसार होने वाला येही जाँ निसार होता
रही आरज़ू कि दो-दो तिरे तीर साथ चलते
कोई दिल को प्यार करता,कोई दिल के पार होता
तिरे नावक-ए-अदा से कभी हारता न हिम्मत
जिगर उसके आगे होता जो जिगर के पार होता
मिरे दिल को क्यूँ मिटाया कि निशान तक न रख़्खा
मैं लिपट के रो तो लेता जो कहीं मज़ार होता !
तिरे तीर की ख़ता क्या ,मिरी हसरतों ने रोका
ना लिपटतीं ये बलायें तो वो दिल के पार होता
मैं जियूँ तो किसका होकर नहीं कोई दोस्त मेरा
ये जो दिल है दुश्मन-ए-जां यही दोस्तदार होता
मिरे फूलों मे जो आते तो नये वो गुल खिलाते
तो कलाईयों में गजरे तो गले में हार होता
तिरे नन्हें दिल को क्यों कर मिरी जान मैं दुखाता
वो धड़कने क्या न लगता जो मैं बेक़रार होता ?
मिरा दिल जिगर जो देखा तो अदा से नाज़ बोला
यह तिरा शिकार होता ,वो मिरा शिकार होता
सर-ए-क़ब्र आते हो तुम जो बढ़ा के अपना गहना
कोई फूल छीन लेता जो गले का हार होता
दम-ए-रुख़्सत उनका कहना कि ये काहे का है रोना ?
तुम्हें मिरी क़समों का भी नहीं ऐतिबार होता ?
मैं निसार तुझ पे होता तो रक़ीब जान खोता
मैं तिरा शिकार होता ,वो मिरा शिकार होता
शब-ए-वस्ल तू जो बेख़ुद नो हुआ ’अमीर’ चूका
तिरे आने का कभी तो उसे इन्तिज़ार होता !
नावक-ए-अदा =तीर चलाने का अंदाज़
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समाप्त
प्रस्तुतकर्ता : आनन्द.पाठक
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