शनिवार, 10 जुलाई 2010

गज़ल 026 : इलाही हो गया आखिर

ग़ज़ल  026: इलाही!हो गया क्या आख़िर इस ज़माने को ?


इलाही!हो गया क्या आख़िर इस ज़माने को ?
समझ रहा है कहानी मिरे अफ़साने को !

ख़याल-ओ-ख़्वाब की बस्ती अजीब बस्ती है
हज़ार बार बसायी ,मगर मिटाने को !

दिलाओ याद पुरानी ,दुखाओ मेरा दिल
कोई तो अपना हो दिल-बस्तगी जताने को !

तिरी तलाश में अपनी ही राह भूल गया
ख़ुदा ही समझे दिल-ए-ज़ार से दिवाने को

न आरज़ू ,न तमन्ना,न हसरत-ओ-उम्मीद
मुझे जगह न मिली फिर भी सर छुपाने को

गुमां से आगे जो बढ़ कर यकीन तक पहुँचा
पता चला कि तमाशा है सब दिखाने को

मैं और ग़ैर का रहम-ओ-करम? मआज़ अल्लाह!
उठूँ और ख़ुद ही जला डालूँ आशियाने को

बना बना के तमन्ना मिटाई जाती है
कहाँ से लाऊँ जी,"सरवर" मैं मुस्कराने को ?

-सरवर
दिल-बस्तगी =दिल बहलाना
दिल-ए-ज़ार =रोता हुआ दिल
म’आज़-अल्लाह =ख़ुदा ख़ैर !

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ग़ज़ल 027 : सब मिट गये, माँगे है मगर तेरी नज़र और



सब मिट गये, माँगे है मगर तेरी नज़र और
अब लायें कहाँ से बता दिल और ,जिगर और?

कम ख़ाक-ऐ-ग़रीबां-ए-मुहब्बत को न जानो
उठ्ठेंगे इसी ख़ाक से कल ख़ाक-ब-सर और

हर ज़र्रे में बस एक ही ज़र्रा नज़र आये
गर चश्म-ए-तमाश को मिले हुस्न-ए-नज़र और

कब बैठ सके मंज़िल-ए-हस्ती को पहुँच कर
आगे जो बड़ा इस से है वो एक सफ़र और

दुनिया में मुहब्बत की कमी है तो बला से
आबाद-ए-मुहब्बत करें आ ! शाम-ओ-सहर और

क्या तुमको तकल्लुफ़ है मिरी चारागरी में ?
इक तीर-ए-नज़र,तीर-ए-नज़र,तीर-ए-नज़र और

ये क्या कि फ़कत ख़ार ही क़िस्मत में लिखे हैं
ऐ खाना-बरन्दाज़-ए-चमन !कुछ तो इधर और

"सरवर" की कटी किस तरह आख़िर शब-ए-हि्ज्रां ?
कुछ तू ही बता क़िस्स-ए-ग़म दीदा-ए-तर! और !

-सरवर
गरीबां-ए-मुहब्बत =मुहब्बत के मारे लोग
ख़ाक-ब-सर = सर में मिट्टी डाले हुए,दीवाने
ख़ाना-बरअंदाज़-ए-चमन ! = चमन को उजाड़ने वाला

1 टिप्पणी:

  1. बहुत ख़ूब!
    आज पहली बार आप से त'आर्रुफ़ हुआ, बल्कि आपकी ग़ज़लों से हुआ - अभी ठीक से त'आर्रुफ़ हुआ भी कहाँ है?
    बहुत ख़ूब। आता रहूँगा।

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