ग़ज़ल 027 : मुझे ज़िन्दगी पे अपनी अगर ....
मुझे ज़िन्दगी पे अपनी अगर इख़्तियार होता
तो मैं राह-ए-आरज़ू में यूँ खराब-ख़्वार होता ?
तुझे मेरा ,मुझ को तेरा अगर ऐतिबार होता
न तू शर्मसार करता ,न मैं शर्मसार होता !
किया तूने ये गज़ब क्या, दिया खोल राज़-ए-हस्ती?
न मैं आशकार होता ,न तू आशकार होता !
ग़म-ए-आरज़ू में जां पर मिरी यूँ अगर न बनती
कोई और तेरा साथी ,दिल-ए-बेक़रार ! होता ?
सर-ए-बज़्म मेरी जानिब जो तू उठती गाह गाहे
मुझे तुझ से शिकवा फिर क्यूँ ऐ निगाह-ए-यार!होता?
न मैं तुझसे आश्ना हूँ, न ही ख़ुद से बा-ख़बर हूँ
ये मज़े कहाँ से मिलते अगर होशियार होता ?
मिरी फ़िक्र दिल-कुशा है मिरी बात बे-रिया है
तुझे फिर भी ये गिला है मैं वफ़ा शि’आर होता
है ख़ता यह इश्क़ लेकिन ,ये गुनाह तो नहीं है!
मैं ख़ता से तौबा करता तो गुनहगार होता !
ग़म-ए-आशिक़ी हुआ है ग़म-ए-ज़िन्दगी में शामिल
: मुझे क्या बुरा था मरना अगर एक बार होता :!
तिरी इक ग़ज़ल भी ’सरवर’ किसी काम की जो होती
तो ज़रूर शायरों में तिरा भी शुमार होता !
-सरवर-
ख़्वार =दीन-हीन
आश्कार =सरे आम ,जाहिर
गाहे-गाहे =कभी-कभी
दिल-कुशा =मनोहर
बे-रिया =मुख़्लिस.दिल का साफ
वफ़ा-शि’आर=वफ़ा करने वाला
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है ख़ता यह इश्क़ लेकिन ,ये गुनाह तो नहीं है!
जवाब देंहटाएंमैं ख़ता से तौबा करता तो गुनहगार होता !
बाज़ औक़ात
ग़ज़ल में फल्सेफाना किनाए
कितना गहरा इस्तेआरा साबित हो जाते हैं
ये बात आपके अश`आर पढ़ कर
समझी जा सकती है ...
खूबसूरत अंदाज़....
दिलकश शाइरी....
आप ही ने तो कहा है . . .
"मीर"-ओ-’इक़्बाल’से,"ग़ालिब"से ये पूछें साहेब
शायरी चीज़ है क्या ,शे’र की अज़मत क्या है