ग़ज़ल 050 : ढूँढते ढूँढते ख़ुद को मैं कहाँ जा निकला........
ढूँढते ढूँढते ख़ुद को मैं कहाँ जा निकला
एक पर्दा जो उठा दूसरा पर्दा निकला !
मंज़र-ए-ज़ीस्त सरासर तह-ओ-बाला निकला
गौ़र से देखा तो हर शख़्स तमाशा निकला !
एक ही रंग का ग़म खाना-ए-दुनिया निकला
ग़मे-जानाँ भी ग़मे-ज़ीस्त का साया निकला !
इस राहे-इश्क़ को हम अजनबी समझे थे मगर
जो भी पत्थर मिला बरसों का शनासा निकला !
आरज़ू ,हसरत-ओ-उम्मीद, शिकायत ,आँसू
इक तेरा ज़िक्र था और बीच में क्या क्या निकला !
जो भी गुज़रा तिरी फ़ुरक़त में वो अच्छा गुज़रा
जो भी निकला मिरी तक़्दीर में अच्छा निकला !
घर से निकले थे कि आईना दिखायें सब को
हैफ़ ! हर अक्स में अपना ही सरापा निकला !
क्यों न हम भी करें उस नक़्श-ए-कफ़-ए-पा की तलाश
शोला-ए-तूर भी तो एक बहाना निकला !
जी में था बैठ के कुछ अपनी कहेंगे ’सरवर’
तू भी कमबख़्त ! ज़माने का सताया निकला !
-सरवर-
शनासा = परिचित ,जाना-पहचाना
नक़्स-ए-कफ़-ए-पा = पाँवों के निशान
हैफ़ ! = हाय !
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