सोमवार, 19 अक्तूबर 2020

ग़ज़ल 052 : दामन-ए-तार-तार ये.......

 ग़ज़ल 052 : दामन-ए-तार-तार ये.......


दामन-ए-तार-तार ये,सदक़ा है नोक-ए-ख़ार का
शुक्र-ए-ख़ुदा कि मुझसे कुछ रब्त तो है बहार का!

तेरे मक़ाम-ए-जब्र से मेरे मक़ाम-ए-सब्र तक
सिलसिला-ए-आरज़ू रहा दीदा-ए-अश्कबार का

क़िस्सा-ए-दर्द कह गया लह्ज़ा-ब-लह्ज़ा नौ-ब-नौ
"पर भी क़फ़स से जो गिरा बुल्बुल-ए-बेक़रार का"

मंज़िल-ए-शौक़ मिल गई कार-ए-जुनूं हुआ तमाम
इश्क़ को रास आ गया आज फ़राज़ दार का !

ज़ीस्त की सारी करवटें पल में सिमट के रह गईं
सदियों का तर्जुमां था लम्हा वो इन्तिज़ार का

ज़िक्र-ए-हबीब हो चुका फ़िक्र-ए-ख़ुदा की ख़ैर हो !
चाक रहा वो ही मगर दामन-ए-तार-तार का !

सोज़-ओ-गुदाज़-ए-ज़िन्दगी अपना ख़िराज ले गया
नौहा-कुनां में रह गया हस्ती-ए-कम-अयार का

हुस्न की सर-बुलंदियाँ इश्क़ की पस्तियों से हैं
सोज़-ए-खिज़ां से मोतबर साज़ हुआ बहार का

नाम-ए-ख़ुदा कोई तो है वज़ह-ए-शिकस्त-ए-आरज़ू
यूँ ही तो बेसबब नहीं शिकवा ये रोज़गार का ?

नाम-ओ-नुमूद एक वहम और वुजूद इक ख़याल !
अपने ही आईने में हूँ अक्स मैं हुस्न-ए-यार का !

हर्फ़-ए-ग़लत था मिट गया अपने ही हाथ मर गया
अब क्या ख़बर कि क्या बने "सरवर’-ए-सोगवार का !


-सरवर-

रब्त =संबंध 
नौ-ब-नौ =नया-नया
अश्कबार =रोनेवाला 
क़फ़स =पिजड़ा
फ़राज़ दार =ऊँची फाँसी का तख़्ता 
सोज़-ओ-गुदाज़=सुख-दुख,रस
ख़िराज =महसूल’
हस्ती-ए-कम-अयार=बेकार की ज़िन्दगी 
पस्तियां =लघुता,विनम्रता
मोतबर =ऐतबार के क़ाबिल 
नुमूद =प्रगट,अवतार
सोगवार =शोकग्रस्त

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