ग़ज़ल 051 : हो गई मेराज-ए-इश्क़........
हो गई मेराज-ए-इश्क़-ओ-आशक़ी हासिल हमें
पहले दर्द-ए-दिल मिला ,बाद उसके दाग़े-दिल हमें !
बन्दगान-ए-आरज़ू में कर लिया शामिल हमें
आप ने ,शुक्र-ए-ख़ुदा ! समझा किसी क़ाबिल हमें !
कम-निगाही ,तंग दामानी ,वुफ़ूर-ए-आरज़ू
ज़िन्दगी! तेरी तलब में यह हुआ हासिल हमें !
इस क़दर आसूदा-ए-राहे-मुहब्बत हो गये
ढूंढती फिरती है हर सू शोरिश-ए-मंज़िल हमें !
लम्हा-लम्हा लह्ज़ा-लह्ज़ा वो क़रीब आते गये
रफ़्ता-रफ़्ता कर गए ख़ुद आप से ग़ाफ़िल हमें !
बन गया ख़ुद अपना हासिल आलम-ए-ख़ुद रफ़्तगी
देखती ही रह गई दुनिया-ए-आब-ओ-गिल हमें
दीदा-ए-बीना दिल-ए-ख़ुश्काम फ़िक्र-ए-बेनियाज़
अब कोई मुश्किल नज़र आती नहीं मुश्किल हमें !
खु़द को ही तारीख़ दुहराती है जब "सरवर’ तो फिर
क्यों नज़र आया नहीं माज़ी में मुस्तक़्बिल हमें ?
-सरवर
शोरिश =हंगामा.झगड़ा.फ़साद
हर सू =हर तरफ़
मेराज-ए-इश्क़ =प्रेम की उच्चता
वुफ़ूर-ए-आरज़ू = तीव्र-इच्छा
कम निगाही =उपेक्षा
तंग-दामानी = ग़रीबी
आसूदा = तृप्त होना/सन्तुष्ट होना
शोरिल =उन्माद
आब-ओ-गिल =पानी-मिट्टी
मुस्तक़्बिल =भविष्य
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