ग़ज़ल 054 : दिल ही दिल में डरता हूँ...........
दिल ही दिल में डरता हूँ कुछ तुझे ना हो जाए
वरना राह-ए-उल्फ़त में जाए जान तो जाए
मेरी कम नसीबी का हाल पूछते क्या हो
जैसे अपने ही घर में राह कोई खो जाए
गर तुम्हे तकल्लुफ़ है मेरे पास आने में
ख़्वाब में चले आओ यूँ ही बात हो जाए
झूठ मुस्कराए क्या आओ मिल के अब रो लें
शायरी हुई अब कुछ गुफ़्तगू भी हो जाए
ये भी कोई जीना है?खाक ऐसे जीने पर
कोई मुझ पे हँसता है ,कोई मुझको रो जाए
मेरे दिल के आँगन में किस क़दर अँधेरा है
काश ! चाँदनी बन कर कोई इसको धो जाए
याद एक धोखा है ,याद का भरोसा क्या
तुम ही खु़द यहाँ आकर ,याद से कहो जाए
देख कर चलो ’सरवर’! जाने कौन उल्फ़त में
फूल तुमको दिखला कर ,ख़ार ही चुभो जाए
-सरवर-
तकल्लुफ़ =तकलीफ़
ख़ार = काँटा
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