उर्दू शायरी का एक ऐब : शुतुरगर्बा
डा0 शम्शुर्रहमान फ़ारुक़ी ने अपनी क़िताब " अरूज़ आहंग और बयान’ में लिखा है -
शे’र में ’ग़लती’ और”ऐब’ दो अलग अलग चीज़ हैं। ग़लती महज़ ग़लती है ।न हो तो अच्छा ।
मगर इसकी मौजूदगी में भी शे’र अच्छा हो सकता है ।जब कि ’ऐब’ एक ख़राबी है और शे’र की मुस्तकिल [स्थायी]
ख़राबी का बाइस [कारण] हो सकता है ।
शायरी [ शे’र ] में कई प्रकार के ऐब का ज़िक्र आता है जिसमें एक ऐब " शुतुर्गर्बा का ऐब" भी शामिल है ।
शुतुर्गर्बा का लग़वी [शब्द कोशीय ] अर्थ "ऊँट-बिल्ली" है यानी शायरी के सन्दर्भ में यह ’बेमेल" प्रयोग के अर्थ में किया जाता है
[शुतुर= ऊँट और गर्बा= बिल्ली । इसी ’शुतुर’ से शुतुरमुर्ग भी बना है । मुर्ग= पक्षी । वह पक्षी जो पक्षियों ऊँट जैसा लगता हो या दिखता हो--]
ख़ैर
अगर आप हिन्दी के व्याकरण से थोड़ा-बह्त परिचित हों तो आप जानते हैं
उत्तम पुरुष सर्वनाम-मैं-
एकवचन बहुवचन
मूल रूप मैं हम
तिर्यक रूप मुझ हम
कर्म-सम्प्रदान मुझे हमें
संबंध मेरा,मेरे,मेरी हमारा.हमारे.हमारी
मध्यम पुरुष सर्वनाम-’तू’
एकवचन बहुवचन
मूल रूप तू तुम
तिर्यक रूप तुझ तुम
कर्म-सम्प्रदान तुझे तुम्हें
संबंध तेरा-तेरे--तेरी तुम्हारे-तुम्हारे-तुम्हारी
अन्य पुरुष सर्वनाम-’वह’-
एकवचन बहुवचन
मूल रूप वह वे
तिर्यक रूप उस उन
कर्म-सम्प्रदान उसे उन्हें
संबंध उसका-उसकी-उसके उनका-उनके-उनकी
अन्य पुरुष सर्वनाम-यह-
एकवचन बहुवचन
मूल रूप यह ये
तिर्यक रूप इस इन
कर्म-सम्प्रदान इसे इन्हें
संबंध इसका-इसकी-इसके/ इनका-इनकी-इनके
कभी कभी शायरी में बह्र और वज़न की माँग पर हम लोग -यह- और -वह- की जगह -ये- और -वो- वे- का भी प्रयोग ’एकवचन’
के रूप में करते है -जो भाव के सन्दर्भ के अनुसार सही होता है
शे’र में एक वचन-बहुवचन का पास [ख़याल] ्रखना चाहिए । व्याकरण सम्मत होना चाहिए।यानी शे’र में सर्वनाम की एवं तत्संबंधित क्रियाओं में "एक रूपता" बनी रहनी चाहिए
ख़ैर
दौर-ए-हाज़िर [वर्तमान समय ] में नए शायरों के कलाम में यह दोष [ऐब] आम पाया जाता है । अजीमुश्शान शायर [ प्रतिष्ठित शायर] के शे’र भी ऐसे
ऐब से अछूते नहीं रहे हैं। हालाँ कि ऐसे उदाहरण इन लोगों के कलाम में बहुत कम इक्का-दुक्का ही मिलते है ।
’ग़ालि’ब’ का एक मशहूर शे’र है। आप सबने सुना होगा।
मैने माना कि तग़ाफ़ुल न करोगे लेकिन
ख़ाक हो जायेंगे हम तुमको ख़बर होने तक
-ग़ालिब-
इस शे’र में बह्र और वज़न के लिहाज़ से कोई ख़राबी नहीं है मगर ’शुतुरगर्बा’ का ऐब है। कैसे ?
पहले मिसरा में "मैनें और दूसरे मिसरा में ’हम’ --जो अज़ रूए-क़वायद [ व्याकरण के हिसाब से ] दुरुस्त नहीं है
अगर शे’र में ’मैने’ की जगह ’हमने" कह दिया जाय तो फिर यह शे’र ठीक हो जाएगा । हो सकता है कि ग़ालिब के किसी मुस्तनद दीवान
[प्रामाणिक दीवान ] में शायद यही सही रूप लिखा हो ।”
’मोमिन’ की एक मशहूर ग़ज़ल है --जिसे आप सभी ने सुना होगा । ---तुम्हें याद हो कि न याद हो ---। नहीं नहीं मैं आप की बात नहीं कर रहा हूँ । यह तो उस ग़ज़ल की ’रदीफ़’ है । इस ग़ज़ल को कई गायकों ने अपने बड़े ही दिलकश अन्दाज़ में गाया है
यदि आप ने इस ग़ज़ल के मक़्ता पर कभी ध्यान दिया हो तो मक़्ता यूँ है
जिसे आप कहते थे आशना,जिसे आप कहते थे बावफ़ा
मैं वही हूँ मोमिन-ए-मुब्तिला ,तुम्हें याद हो कि न याद हो
-मोमिन-
यह शे’र बह्र-ए-कामिल की एक खूबसूरत मिसाल है । इस शे’र में भी बह्र और वज़न के हिसाब से कोई नुक़्स नहीं है
पहले मिसरा में ’आप’ और दूसरे मिसरा में ’तुम्हें’ --यह शुतुरगर्बा का ऐब है
मगर यह कलाम इतना कर्ण-प्रिय , दिलकश और मक़्बूल है कि हम लोगों का ध्यान इस तरफ़ नहीं जाता ।
मगर ऐब है तो है --और चला आ रहा है ।
[नोट - अगर मिसरा सानी मे थोड़ी सी तरमीम कर दी जाये तो मेरे ख़याल से मिसरा सही हो जायेगा
जिसे तुम भी कहते थे आशना ,जिसे तुम भी कहते थे बावफ़ा
’आप ’ [ 2 1] की जगह ’तुम भी [ 2 1 ] यानी ’भी ’ मुतहर्रिक ---मेरे ख़याल से वज़न और बह्र अब भी बरक़रार है ] शे’र की तासीर में क्या फ़र्क पड़ा -नहीं मालूम ]
एक बात और
सिर्फ़ असंगत सर्वनाम के प्रयोग या वचन के प्रयोग से ही यह ’ऐब’ होता हो नहीं । कभी कभी इससे सम्बद्ध ’क्रियाओं’ के असंगत प्रयोग से भी यह दोष उत्पन्न होता है
ग़ालिब का ही एक शे’र लेते हैं
वादा आने का वफ़ा कीजिए ,यह क्या अन्दाज़ है
तुम्हें क्या सौपनी है अपने घर की दरबानी मुझे ?
-ग़ालिब-
मिसरा उला मे "कीजिए" से ’आप’ का बोध हो रहा है जब कि मिसरा सानी में ’तुम्हें’ -कह दिया
है न असंगत प्रयोग ? जी हां ,यहाँ शुतुर गर्बा का ऐब है ।
एक मीर तक़ी मीर का शे’र देखते हैं
ग़लत था आप से ग़ाफ़िल गुज़रना
न समझे हम कि इस क़ालिब में तू था
-मीर तक़ी मीर-
वही ऐब । पहले मिसरे में ’आप’ और दूसरे मिसरे में ’तू’ " ग़लत है ।ऐब है॥शुतुरगर्बा ऐब।
अगर आप क़दीम [पुराने ] शो’अरा के कलाम इस नुक़्त-ए-नज़र से देखेंगे तो ऐसे ऐब आप को भी नज़र आयेंगे।
किसी का ’ऐब’ देखना कोई अच्छी बात तो नहीं ।मगर हाँ -- ऐसे दोष को देख कर आप अपने शे’र-ओ-सुखन में इस दोष से बच सकते हैं
और ख़ास कर अपने नौजवान साथियों से ,शायरों से यह निवेदन है कि अपने कलाम में शे’र-शायरी में ऐसे ’ऐब’ से बच सकें।
सादर
-आनन्द.पाठक-
डा0 शम्शुर्रहमान फ़ारुक़ी ने अपनी क़िताब " अरूज़ आहंग और बयान’ में लिखा है -
शे’र में ’ग़लती’ और”ऐब’ दो अलग अलग चीज़ हैं। ग़लती महज़ ग़लती है ।न हो तो अच्छा ।
मगर इसकी मौजूदगी में भी शे’र अच्छा हो सकता है ।जब कि ’ऐब’ एक ख़राबी है और शे’र की मुस्तकिल [स्थायी]
ख़राबी का बाइस [कारण] हो सकता है ।
शायरी [ शे’र ] में कई प्रकार के ऐब का ज़िक्र आता है जिसमें एक ऐब " शुतुर्गर्बा का ऐब" भी शामिल है ।
शुतुर्गर्बा का लग़वी [शब्द कोशीय ] अर्थ "ऊँट-बिल्ली" है यानी शायरी के सन्दर्भ में यह ’बेमेल" प्रयोग के अर्थ में किया जाता है
[शुतुर= ऊँट और गर्बा= बिल्ली । इसी ’शुतुर’ से शुतुरमुर्ग भी बना है । मुर्ग= पक्षी । वह पक्षी जो पक्षियों ऊँट जैसा लगता हो या दिखता हो--]
ख़ैर
अगर आप हिन्दी के व्याकरण से थोड़ा-बह्त परिचित हों तो आप जानते हैं
उत्तम पुरुष सर्वनाम-मैं-
एकवचन बहुवचन
मूल रूप मैं हम
तिर्यक रूप मुझ हम
कर्म-सम्प्रदान मुझे हमें
संबंध मेरा,मेरे,मेरी हमारा.हमारे.हमारी
मध्यम पुरुष सर्वनाम-’तू’
एकवचन बहुवचन
मूल रूप तू तुम
तिर्यक रूप तुझ तुम
कर्म-सम्प्रदान तुझे तुम्हें
संबंध तेरा-तेरे--तेरी तुम्हारे-तुम्हारे-तुम्हारी
अन्य पुरुष सर्वनाम-’वह’-
एकवचन बहुवचन
मूल रूप वह वे
तिर्यक रूप उस उन
कर्म-सम्प्रदान उसे उन्हें
संबंध उसका-उसकी-उसके उनका-उनके-उनकी
अन्य पुरुष सर्वनाम-यह-
एकवचन बहुवचन
मूल रूप यह ये
तिर्यक रूप इस इन
कर्म-सम्प्रदान इसे इन्हें
संबंध इसका-इसकी-इसके/ इनका-इनकी-इनके
कभी कभी शायरी में बह्र और वज़न की माँग पर हम लोग -यह- और -वह- की जगह -ये- और -वो- वे- का भी प्रयोग ’एकवचन’
के रूप में करते है -जो भाव के सन्दर्भ के अनुसार सही होता है
शे’र में एक वचन-बहुवचन का पास [ख़याल] ्रखना चाहिए । व्याकरण सम्मत होना चाहिए।यानी शे’र में सर्वनाम की एवं तत्संबंधित क्रियाओं में "एक रूपता" बनी रहनी चाहिए
ख़ैर
दौर-ए-हाज़िर [वर्तमान समय ] में नए शायरों के कलाम में यह दोष [ऐब] आम पाया जाता है । अजीमुश्शान शायर [ प्रतिष्ठित शायर] के शे’र भी ऐसे
ऐब से अछूते नहीं रहे हैं। हालाँ कि ऐसे उदाहरण इन लोगों के कलाम में बहुत कम इक्का-दुक्का ही मिलते है ।
’ग़ालि’ब’ का एक मशहूर शे’र है। आप सबने सुना होगा।
मैने माना कि तग़ाफ़ुल न करोगे लेकिन
ख़ाक हो जायेंगे हम तुमको ख़बर होने तक
-ग़ालिब-
इस शे’र में बह्र और वज़न के लिहाज़ से कोई ख़राबी नहीं है मगर ’शुतुरगर्बा’ का ऐब है। कैसे ?
पहले मिसरा में "मैनें और दूसरे मिसरा में ’हम’ --जो अज़ रूए-क़वायद [ व्याकरण के हिसाब से ] दुरुस्त नहीं है
अगर शे’र में ’मैने’ की जगह ’हमने" कह दिया जाय तो फिर यह शे’र ठीक हो जाएगा । हो सकता है कि ग़ालिब के किसी मुस्तनद दीवान
[प्रामाणिक दीवान ] में शायद यही सही रूप लिखा हो ।”
’मोमिन’ की एक मशहूर ग़ज़ल है --जिसे आप सभी ने सुना होगा । ---तुम्हें याद हो कि न याद हो ---। नहीं नहीं मैं आप की बात नहीं कर रहा हूँ । यह तो उस ग़ज़ल की ’रदीफ़’ है । इस ग़ज़ल को कई गायकों ने अपने बड़े ही दिलकश अन्दाज़ में गाया है
यदि आप ने इस ग़ज़ल के मक़्ता पर कभी ध्यान दिया हो तो मक़्ता यूँ है
जिसे आप कहते थे आशना,जिसे आप कहते थे बावफ़ा
मैं वही हूँ मोमिन-ए-मुब्तिला ,तुम्हें याद हो कि न याद हो
-मोमिन-
यह शे’र बह्र-ए-कामिल की एक खूबसूरत मिसाल है । इस शे’र में भी बह्र और वज़न के हिसाब से कोई नुक़्स नहीं है
पहले मिसरा में ’आप’ और दूसरे मिसरा में ’तुम्हें’ --यह शुतुरगर्बा का ऐब है
मगर यह कलाम इतना कर्ण-प्रिय , दिलकश और मक़्बूल है कि हम लोगों का ध्यान इस तरफ़ नहीं जाता ।
मगर ऐब है तो है --और चला आ रहा है ।
[नोट - अगर मिसरा सानी मे थोड़ी सी तरमीम कर दी जाये तो मेरे ख़याल से मिसरा सही हो जायेगा
जिसे तुम भी कहते थे आशना ,जिसे तुम भी कहते थे बावफ़ा
’आप ’ [ 2 1] की जगह ’तुम भी [ 2 1 ] यानी ’भी ’ मुतहर्रिक ---मेरे ख़याल से वज़न और बह्र अब भी बरक़रार है ] शे’र की तासीर में क्या फ़र्क पड़ा -नहीं मालूम ]
एक बात और
सिर्फ़ असंगत सर्वनाम के प्रयोग या वचन के प्रयोग से ही यह ’ऐब’ होता हो नहीं । कभी कभी इससे सम्बद्ध ’क्रियाओं’ के असंगत प्रयोग से भी यह दोष उत्पन्न होता है
ग़ालिब का ही एक शे’र लेते हैं
वादा आने का वफ़ा कीजिए ,यह क्या अन्दाज़ है
तुम्हें क्या सौपनी है अपने घर की दरबानी मुझे ?
-ग़ालिब-
मिसरा उला मे "कीजिए" से ’आप’ का बोध हो रहा है जब कि मिसरा सानी में ’तुम्हें’ -कह दिया
है न असंगत प्रयोग ? जी हां ,यहाँ शुतुर गर्बा का ऐब है ।
एक मीर तक़ी मीर का शे’र देखते हैं
ग़लत था आप से ग़ाफ़िल गुज़रना
न समझे हम कि इस क़ालिब में तू था
-मीर तक़ी मीर-
वही ऐब । पहले मिसरे में ’आप’ और दूसरे मिसरे में ’तू’ " ग़लत है ।ऐब है॥शुतुरगर्बा ऐब।
अगर आप क़दीम [पुराने ] शो’अरा के कलाम इस नुक़्त-ए-नज़र से देखेंगे तो ऐसे ऐब आप को भी नज़र आयेंगे।
किसी का ’ऐब’ देखना कोई अच्छी बात तो नहीं ।मगर हाँ -- ऐसे दोष को देख कर आप अपने शे’र-ओ-सुखन में इस दोष से बच सकते हैं
और ख़ास कर अपने नौजवान साथियों से ,शायरों से यह निवेदन है कि अपने कलाम में शे’र-शायरी में ऐसे ’ऐब’ से बच सकें।
सादर
-आनन्द.पाठक-
अच्छी जानकारी दी आपने
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