गुरुवार, 19 दिसंबर 2019

उर्दू बह्र पर एक बातचीत : क़िस्त 66 [ अल्लामा इक़बाल की एक ग़ज़ल की तक़्तीअ’ बह्र-ए-कामिल]

इक़बाल साहब की एक बहुत मशहूर ग़ज़ल है 

कभी हक़ीक़त-ए-मुंतज़र नज़र लिबास-ए-मजाज़ में
कि हज़ारों सज्दे तड़प रहे हैं मिरी जबीन-ए-नियाज़ में
तरब-आशना-ए-ख़रोश हो तो नवा है महरम-ए-गोश हो
वो सरोद क्या कि छुपा हुआ हो सुकूत-ए-पर्दा-ए-साज़ में
तू बचा बचा के रख इसे तिरा आइना है वो आइना
कि शिकस्ता हो तो अज़ीज़-तर है निगाह-ए-आइना-साज़ में
दम-ए-तौफ़ किरमक-ए-शम्अ ने ये कहा कि वो असर-ए-कुहन
तिरी हिकायत-ए-सोज़ में मिरी हदीस-ए-गुदाज़ में
कहीं जहाँ में अमाँ मिली जो अमाँ मिली तो कहाँ मिली
मिरे जुर्म-ए-ख़ाना-ख़राब को तिरे अफ़्व-ए-बंदा-नवाज़ में
वो इश्क़ में रहीं गर्मियाँ वो हुस्न में रहीं शोख़ियाँ
वो ग़ज़नवी में तड़प रही वो ख़म है ज़ुल्फ़-ए-अयाज़ मैं
मैं जो सर-ब-सज्दा हुआ कभी तो ज़मीं से आने लगी सदा
तिरा दिल तो है सनम-आश्ना तुझे क्या मिलेगा नमाज़ में
[रेख्ता के सौजन्य से ]
शब्दार्थ 
1-ईश्वरीय प्रेम का साधक 5- ईश्वर की नज़र में 
2-सांसारिक प्रेम का चोला 6-शरण ,शान्ति
3-श्रद्धानत माथा 7-गुनाह
4-टूटा  8-क्षमा करुणा कॄपा
9- ग़ज़नवी के एक नजदीक़ी गुलाम ’अयाज़’ के घुँघराले बालों में 

यह ग़ज़ल बहुत ही फ़लसफ़ाना और बुलन्द मयार का है
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मेरे एक मित्र ने अनुरोध किया था कि "उर्दू बह्र पर एक बातचीत: क़िस्त8 में वर्णित
बह्र-ए-कामिल कुछ ख़ास समझ में नहीं आया और कहीं कहीं उन्हें कुछ समझने में दुविधा
भी थी ।
मैने सोचा कि बह्र-ए-कामिल की तफ़्सीलात किसी ख़ास ग़ज़ल से की जाय तो शायद मेरे मित्र को
बह्र-ए-कामिल समझने में कुछ सुविधा हो ।
इस लिए मैने अल्लामा इक़बाल साहब की एक मशहूर ग़ज़ल --कभी ऎ हक़ीक़त-ए-मुन्तज़िर---" लिया है
जो बह्र-ए-कामिल की एक उम्दा मिसाल है ।
यह आलेख उसी सन्दर्भ में लिखा गया है ।...
...
 अरूज़ में निम्न लिखित दो बह्रें  ऐसी हैं जो अरबी अदब -ओ-अरूज़ से उर्दू शायरी में आई है
1-बह्र-ए-कामिल जिसका बुनियादी रुक्न ’मु त फ़ाइलुन [ 1 1 212 ] है और जिसमें  -मीम [1]- और -ते [1]- मुतहर्र्रिक हैं यानी इन दोनो हरूफ़ पर ’हरकत’ है 
2-बह्र-ए-वाफ़िर  जिसका बुनियादी  रुक्न ’मफ़ा इ ल तुन [ 12 1 1 2 ] है जिसमें -ऐन[1]- और -लाम[1]-मुतहर्रिक है यानी इन दोनों हरूफ़ पर ’हरकत’ है 

इन दोनों बह्र के बाबत  कुछ दिलचस्प बातें भी है ।दर्ज-ए-ज़ैल है [नीचे लिखी हैं]
[1] यह दोनो बह्रें अरबी  अरूज़ से आईं हैं
[2] क्लासिकल अरूज़ के 8-सालिम अर्कान में यही दो अर्कान ऐसे हैं जिसमे ’दो मुतहर्रिक’[ 1 1 ] एक साथ आते हैं
[3] यही दो अर्कान ऐसे है जिसमें ’फ़ासिला’ का प्रयोग करना पड़ता है वरना सभी रुक्न में "वतद और सबब’ से काम चल जाता है । काम तो ख़ैर वतद और सबब से इस में भी चल जायेगा
      [ फ़ासिला --वो चार हर्फ़ी कलमा जिसमे हरूफ़ ’हरकत +हरकत+हरकत+ साकिन" के क्रम में हो उसे "फ़ासिला सग़रा" कहते हैं जैसे शब्द "हरकत" खुद ही फ़ासिला सुग़रा है।इसी प्रकार ’बरकत’ भी
  फ़ासिला की एक शकल और है जिसे "फ़ासिला कबरा" कहते है जिसमे 5-हरूफ़ एक् साथ [ हरकत+हरकत+हरकत+हरकत+साकिन] वाले कलमा हो । उर्दू शायरी "फ़ासिला कबरा" को
सपोर्ट नहीं करती।ख़ैर
[4] उर्दू शायरी में जो ज़िहाफ़ात लगभग 50-के आसपास है उसमें से 11-ज़िहाफ़ तो सिर्फ़ इन्ही दो अर्कान पर लगते है । मगर खूबी यह कि कोई शायर इस बह्र में 2-4 ज़िहाफ़ से ज़्यादा प्रयोग नहीं करता
कारण कि बह्र-ए-कामिल का मुसम्मन सालिम आहंग खुद ही इतना आहंगखेज़ और दिलकश है कि अन्य कोई आहंग आजमाने की ज़रूरत ही नहीं पड़ती । यहाँ तक कि लोग मुसद्दस सालिमऔर मुरब्ब ्सालिम
में भी ग़ज़ल नहीं कहते हैं । और करते भी होंगे तो आटे में नमक के बराबर ।
[5]  यह दोनो रुक्न आपस में ’बरअक्स’ [ Mirror Image ] हैं । देखिए कैसे ?

मु त फ़ाइलुन [ 1 1 2 1 2 ] = फ़ासिला सुग़रा [1 1 2 ]+वतद मज़्मुअ’[ 1 2]---कामिल का रुक्न
मफ़ा इ ल तुन [ 1 2 1 1 2 ]= वतद मज़्मुअ’ [ 1 2 ] + फ़ासिला सुग़रा [ 1 1 2 ]-- वाफ़िर का रुक्न
देखिए दोनो रुक्न में फ़ासिला या वतद location ! Mirror image लगता है कि नहीं ?

[6]   बह्र-ए-कामिल में तो अमूमन सभी शायरों ने ग़ज़ल कही .मगर बह्र-ए-वाफ़िर में बहुत कम ग़ज़ल कही गई लगभग न के बराबर । शायद बह्र-ए-वाफ़िर के रुक्न की बुनावट ही ऐसी हो जो आहंगखेज न हो।दिलकश न हो।
हाँ आप या कोई अन्य बह्र-ए-वाफ़िर में शायरी करना चाहे तो मनाही भी नही । यह आप का फ़न होगा।
 [7] इन दो-अर्कान में 3-हरकत एक साथ आ रहे है मगर ख़याल रहे इन पर तस्कीन-ए-औसत का अमल नहीं होगा ? कारण ? कारण यह कि तस्कीन-ए-औसत का अमल हमेशा ’ मुज़ाहिफ़ रुक्न" पर होता है
’सालिम रुक्न’ पर कभी नहीं होता।
चूंकि इसमे 3-हरकत एक साथ आ रहे हैं तो ्यहाँ सारा खेल ’मुतहर्रिक ’ हर्फ़ का है
ज़रूरी नहीं कि जिस हर्फ़ पर ’ज़बर ’ का अलामत लगा हो --मात्र वही हर्फ़ मुतहर्रिक हों जिस हर्फ़ पर ’ज़ेर’ और ’पेश’ ’[यानी स्वर ]  की अलामत लगा होता है या दो-चस्मी के साथ हो  वह भी मुतहर्रिक होता है जैसे -कि- कू- के --भी--थी--

ब इक़बाल साहब की ग़ज़ल की तक़्तीअ’ पर आते हैं
1   1  2  1  2 / 1  1  2  1  2   /  1  1  2  1 2  /1  1  2 1 2 = 1 1 2 1 2---1 1 212---1 1 2 1 2 ---1 1 2 1 2
क भी ऎ हक़ी /क़ ते मुन त ज़िर  / न ज़ (र आ)  लिबा / से म जाज़ में 
1   1   2 1  2    / 1 1  2  1 2  / 1 1  2    1 2  / 1 1   2 1 2 = 1 1 2 1 2---1 1 212---1 1 2 1 2 ---1 1 2 1 2
कि ह ज़ारों सिज/ द त ड़प रहे / है ,मि (री ) जबी /ने -नि याज़ में

[ ध्यान देने की बातें --- तक़्तीअ के बारे में
एक बात तो यह  कि जहाँ इज़ाफ़त-ए-कसरा होता है वहाँ इज़ाफ़त के ठीक पहले वाला हर्फ़ मुतहर्रिक माना जाता है । यही बात ’अत्फ़’ [ जैसे रंज-ओ-ग़म ] के साथ भी है।
उदाहरण - दर्द-ए-दिल --में दूसरा हर्फ़ [दाल]-द- मुतहर्रिक हो जाता है वरना तो दर्द में दूसरा -द- साकिन ही होता है
ग़म-ए-दिल -में  -म- [मीम] को मुतहर्रिक हो जाता है  वरना सिर्फ़ लफ़्ज़  ’ग़म’ में -मीम- साकिन ही होता है
उसी प्रकार हक़ीक़त-ए-मुन्तज़िर  में -त- [ते-] मुतहर्रिक हो जाएगा वरना तो मात्र हक़ीक़त शब्द में -त- तो साकिन ही होता है।
यहीं एक बात और वाज़ेह कर दूँ
1-उर्दू में हर लफ़्ज़ का पहला हर्फ़ ’मुतहर्रिक’ होता है और आखिरी हर्फ़ ’साकिन’ पर गिरता है । यानी उर्दू का कोई लफ़्ज़ साकिन से शुरु नहीं होता ,। हिन्दी में भी नहीं होता
2- दूसरी बात वस्ल की है --नज़र आ लिबास---में न ज़ (र+आ} --यानी -रे- के साथ -अलिफ़ मद्द- का वस्ल होकर तलफ़्फ़ुज़ न ज़ रा का सुनाई देगा यानी 1 1 2 का वज़न आयेगा और यही लिया भी  गया है
यही बात --है मेरी इक --के साथ भी है ।  मि (रिक)  -रे-के साथ -इक- का वस्ल हो कर -रिक-की आवाज़ दे रहा है यानी 2 [सबब-ए-ख़फ़ीफ़] का वज़न दे रहा है
3- हज़ारों - में -रों-- मुतहर्रिक है ।सिज़्दे में -दे- मुतहर्रिक है
4- एक बात और--बहुत से लफ़्ज़ आप को ऐसे दिखाई दे रहे होंगे जिन्हे सबब-ए-ख़फ़ीफ़ [2]  होना चाहिए मगर बह्र की माँग पर उसे मुतहर्रिक लिया जा रहा है [ मगर कुछ शर्तों के साथ]
यानी तलफ़्फ़ुज़ के हिसाब से तक़्तीअ में लिया जायेगा
5-अरबी में  जबर--ज़ेर--पेश बड़े ही वाज़ेह तरीक़े से लिखते है और दिखाते हैं जिससे पता चलता है कि कौन सा हर्फ़ मुतहर्रिक है मगर न जाने क्यों उर्दू में यह अलामत अब धीरे धीरे कम क्यों दिखी जाने लगी है जिससे मुतहर्रिक हर्फ़ पहचानने
में ज़रा मुश्किल पेश आती है ।यही बात हिंदी में भी देखी जा सकती है । संस्कृत से हिंदी में आये कुछ  तत्सम  शब्दों में [ जैसे  अकस्मात् --अर्थात् ---श्रीमान्--पश्चात् ---] हिंदी में ’हलन्त’ का न लगाना भी ऐसा ही है ।  मगर अनुभव और प्रैक्टिस मश्क़ के साथ साथ मुतहर्रिक और् साकिन्  हर्फ़ समझना आसान हो जाता है । मोटा-मोटी  साकिन् हर्फ़्--हलन्त् व्यंजन् के equivalent समझिए।

अब एक दूसरा शे’र लेते हैं
1  1  2  1  2  / 1  1  2  1  2  / 1  1   2 1 2  / 1 1  2 1 2
तू ब चा ब चा / के न रख इ से / ,ति रा आइना / है वो आइना
1   1     2  1   2   / 1 1   2 1  2    / 1 1   2 1    2   / 1 1  2 1 2
कि शि कस् त: हो / तो अ ज़ी ज़ तर / ,है नि गाह--आ / इ न: साज़  में

ध्यान् देने की बात --तक़्तीअ’ के बारे में
-तू-- के-ति--रा--वो --यह सब मुतहर्रिक शुमार होंगे । जो उर्दू लिपि जानते है वह इसे बा आसानी समझ सकते है
हम हिंदी वालों की मुश्किल यह है कि देवनागरी में लिखे होने के कारण ज़रा समझना मुश्किल हो जाता है
जैसे --आइना--आईना--आइन: [ हम हिंदी में कभी आइन: नही लिखते ] यही कारण है कि इस शे;र में बह्र की माँग पर
-ना- न: के दो अलग अलग वज़न -एक सबब-ए-ख़फ़ीफ़ [2] और दूसरा -न: [1] - मुतहर्रिक लिया गया है

बाक़ी अश’आर के  तक़्तीअ’  आप इसी तरह कर सकते हैं

चलते चलते एक बात और--आप के लिए

मोमिन की एक मशहूर ग़ज़ल है 

वो जो हम में तुम में क़रार था ,तुम्हें याद हो कि न याद हो
वही यानी वादा निबाह का ,तुम्हें याद हो कि न याद हो

वो जो लुत्फ़ मुझ पे थे पेशतर ,वो करम कि था मेरे हाल पर
मुझे याद सब है ज़रा ज़रा , तुम्हें याद हो कि न याद हो

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जिसे आप कहते थे आशना ,जिसे आप कहते थे बावफ़ा
मैं वहीं हूँ मोमिन-ए-मुबतिला ,तुम्हें याद हो कि न याद हो

[ मक़्ता वाले शे’र में एक ’ऐब’ है --आप बताएँ कि वह कौन सा ऐब है ?

या बशीर बद्र साहब की एक ग़ज़ल है

युँ ही बेसबब न फिरा करो ,कोई शाम घर भी रहा करो
वो ग़ज़ल की सच्ची किताब है ,उसे चुपके चुपके पढ़ा करो

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अभी राह में कई मोड़ हैं ,कोई आएगा कोई जाएगा
तुम्हे जिस ने दिल से भुला दिया उसे भूलने की दुआ करो


या इस हक़ीर की एक ग़ज़ल के चन्द अश’आर भी बर्दाश्त कर लें

वो जो चढ़ रहा था सुरूर था  ,जो उतर रहा है ख़ुमार है
वो नवीद थी तेरे आने की  , तेरे जाने की  ये पुकार  है

ये जुनूँ नहीं  तो  है और क्या . तुझे आह ! इतनी समझ नहीं
ये लिबास है किसी और का ,ये लिबास तन का उधार है

आप बताएँ कि तमाम अश’आर की बह्र क्या है ? जी बिल्कुल सही
ज़रा तक़्तीअ’ कर के भी जाँच लें  तो बेहतर
उमीद करता हूँ कुछ हद तक मैं अपनी बात स्पष्ट कर दिया हूँगा
अगर कोई ग़लतबयानी हो गई हो तो आप से दस्तबस्ता गुज़ारिश है कि मुझे आगाह कर दें जिससे मैं आइन्दा
अपने आप को दुरुस्त कर सकूँ

सादर
-आनन्द.पाठक-

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