फ़िराक़ साहब की एक ग़ज़ल है ----
ये तो नहीं कि ग़म नहीं
हाँ मेरी आँख नम नहीं
तुम भी तो तुम नहीं हो आज
हम भी तो आज हम नहीं
नश्शा सँभाले हैं मुझे
बहके हुए क़दम नहीं
क़ादिर-ए-दो जहाँ है ,गो
इश्क़ के दम में दम नहीं
मौत अगरचे मौत है
मौत से ज़ीस्त कम नही
अब न ख़ुशी की है ख़ुशी
ग़म भी अब तो ग़म नहीं
मेरी निशश्त है ज़मीं
ख़ुल्द नहीं ,इरम नहीं
-फ़िराक़ गोरखपुरी-
एक मंच पर मेरे किसी मित्र ने इस ग़ज़ल की बह्र जाननी चाही थी। उनका कहना था कि चूँकि यह ग़ज़ल ’फ़िराक़’ साहब की
है तो यक़ीनन यह किसी न किसी बह्र में होगी
------------------------------------------
यह आलेख उसी सन्दर्भ में लिखा गया है
अगर शायर ने अपनी ग़ज़ल की ’बह्र’ न लिखी या न बताई हो तो ग़ज़ल की बह्र निकालना अपेक्षाकृत एक मुश्किल काम है ।
वैसे आज भी किसी भी ग़ज़ल -संग्रह में ग़ज़ल के ऊपर " बह्र’ लिखने का प्रचलन नहीं है ।ज़माना-ए-क़्दीम
में भी नहीं था ।कारण मालूम नहीं ।
हो सकता है , पुराने ज़माने में जिन लोगों को शायरी का ज़ौक़-ओ-शौक़ था या अदब आशनाई थी वो
बह्र के मुत्तालिक़ मज़ीद मालूमात रखते रहे हों और किसी शायर की कही हुई ग़ज़ल पहचान लेते हों और उन्हे मालूम
था कि ग़ज़ल बह्र से कहाँ ख़ारिज़ हो रही है या कहाँ वज़न पर नहीं है।यह मेरा जाती ख़याल है ।आप का इससे मुतफ़्फ़िक़ होना ज़रूरी नहीं
यह समस्या आज भी है । मेरे एक मित्र ने बताया कि लोग आजकल ’ग़ज़ल’ सुनते है ,सुनाते है
जो बह्र या अरूज़ जानते पहचानते हैं उनके लिए बह्र लिखने की ज़रूरत नहीं और जो नहीं जानते हैं उनके लिए लिखने का कोई फ़ायदा
नहीं।
ख़ैर
लिखी हुई ग़ज़ल का बह्र निकालना [ अगर वह सामान्य मशहूर , मक़्बूल प्रचलित आम बह्र में नहीं है तो] अपेक्षाकृत इसलिए मुश्किल है
कि बह्र अपनी माँग पर [कुछ शर्तों के साथ ] हर्फ़ का वज़न गिराना माँगती है ।कहाँ हर्फ़ का वज़न गिराना है और कहाँ नहीं गिराना है यह बह्र जानने
के बाद और ’तक़्तीअ” करने के बाद ही पता चलेगा --पहले नहीं
इसका एक सरल उपाय यह है कि ग़ज़ल का हम वह ’मिसरा’ [या शे’र] का इन्तख़ाब करेंगे जिसमे किसी हर्फ़ का वज़न न गिराया गया हो और यदि
गिराया भी गया हो तो कम से कम जायज तरीके से गिराया गया हो। हम यहाँ मिसरा इस लिए कह रहे है कि यदि मिसरा का सही वज़न या बह्र निकल गया तो
फिर शे’र क्या पूरी की पूरी ग़ज़ल उसी बह्र और वज़न में होगी । इसे आप "रिवर्स इंजीनियरिंग " कह सकते हैं
अब ’फ़िराक़’ साहब की ग़ज़ल पर आते है
यह ग़ज़ल मैने और मेरे मित्र दोनो ने ’राजपाल ’ ्प्रकाशन से फ़िराक़ साहब की ग़ज़लों पर प्रकाशित एक संग्रह से नकल किया है।
वस्तुत: यह ग़ज़ल एक लम्बी ग़ज़ल है [ दो ग़ज़लें -एक ही ज़मीन ,एक ही रदीफ़ और एक ही हम क़ाफ़िया पर कही गई है ।इसमें लगभग 30-अश’आर हैं]
हमने यहाँ अपने मक़सद के लिए चन्द अश’आर ही नकल किए हैं।
हम इस ग़ज़ल की एक मिसरा का इन्तेखाब करते है
" खुल्द नहीं ,इरम नहीं "----कारण कि इस मिसरा में हर्फ़ का वज़न गिराने की नौबत ही नही है ।’सेफ़-गेम’
इस मिसरा का वज़न ठहरता है
2 1 1 2 / 1 2 1 2 = 2112---1212
खुल द नहीं / इ रम नहीं
[ अब आप कहेंगे ’इरम’ को आप ने ’इर म [ 21] के वजन पर क्यों नहीं लिया। वज़ह साफ़ है इरम का तलफ़्फ़ुज़ ’इ रम ’[1 2 ] है न कि ’इर म ’ है [ 2 1 ] ख़ैर]
अब हमें इस मिसरा का वज़न 2112---1212 मिल गया
एक बात तो साफ़ हो गई यह कोई ऐसा शे’र है जिसमे मिसरा में दो और शे’र में 4- अर्कान मुस्तमिल है ] और इसमें से कोई सालिम रुक्न इस्तेमाल नहीं हुआ है अत:
यह कोई ;मुरब्ब: और मुज़ाहिफ़ बह्र है
किस सालिम रुक्न का मुज़ाहिफ़ वज़न " [यानी किस सालिम रुक्न पर ज़िहाफ़ लगा है।
थोड़ा सा ध्यान से देखे 2 1 1 2 --- यह कहीं 2 2 1 2 [ मुस तफ़ इलुन ] पर तो कोई ज़िहाफ़ नहीं लगा है
जी हाँ ,लगा है”मुस तफ़ इलुन ’[2 2 1 2 ] पर अगर ’तय्यी’ का ज़िहाफ़ लगा दें तो वज़न बरामद होगा --2 1 1 2 [ मुफ़ त इलुन ---यहाँ -ते- और -ऐन- मुतहर्रिक है
और इसे ’मुत्तवी’ कहते हैं
तो फिर 1 2 1 2 क्या है ?- यदि "मुस तफ़ इलुन" [ 2 2 1 2 ] पर ख़ब्न का ज़िहाफ़ लगा दें तो बरामद होगा ’मफ़ा इलुन [1 2 1 2 और इसे मख़्बून कहते है
और मख़्बून आम ज़िहाफ़ भी है यानी यह शे;र के किसी मुक़ाम पर आ सकता है और यह यहाँ ’अरूज़’ और जर्ब के मुक़ाम पर आया है
अब यह बात तो साफ़ हो गई कि उक्त दोनो अर्कान सालिम रुक्न [मुस तफ़ इलुन = 2 2 1 2 ] का ही मुज़ाहिफ़ शकल है और यह "बह्र-ए-रजज़" का बुनियादी रुक्न है
अत: हम कह सकते हैं कि इस ग़ज़ल की बह्र है
"बह्र-ए-रजज़ मुरब्ब: मुतव्वी मख़्बून "
अब एक-दो शे’र की तक़्तीअ कर के और जाँच कर लेते हैं
2 1 1 2 / 1 2 1 2 = 2 1 1 2 - 1 2 1 2 = मुफ़ त इलुन ---मफ़ा इलुन
ये तो नहीं / कि ग़म नहीं
2 1 1 2 / 1 2 1 2 =2 1 1 2 - 1 2 1 2 = मुफ़ त इलुन ---मफ़ा इलुन
हाँ मेरी आँ /ख नम नहीं
[ध्यान दें-- यहाँ -ये- [2] मुस के वज़न पर लिया गया है । अगर कहीं किसी अन्य ग़ज़ल में ’बह्र’ की माँग होती तो यही -ये- [ मुतहर्रिक 1 ] की वज़न पर लिया जाता ।और -मेरे को ’मि री ” [दोनो मुतहर्रिक 1 1 ] के वज़न पर किया है जो अज रू- ए- अरूज़ ऐन मुताबिक़ भी है
दूसरा शे’र देखते हैं
2 1 1 2 / 1 2 1 2 = 2 1 1 2 - 1 2 1 2 = मुफ़ त इलुन ---मफ़ा इलुन
नश श: सँभा/ ले हैं मुझे
2 1 1 2 / 1 2 1 2 = 2 1 1 2 -- 1 2 1 2 = मुफ़ त इलुन ---मफ़ा इलुन
बह के हुए / क़ दम नहीं
अब एक शे’र और [ जो परेशानी का सबब बना हुआ है ]
2 1 1 2 / 1 2 1 2 =2 1 1 2 - 1 2 1 2 = मुफ़ त इलुन ---मफ़ा इलुन
अब न ख़ुशी /की है ख़ुशी
2 1 2 / 1 2 1 2 = 2 1 2 ----1 2 1 2 [ पहले रुक्न 212 में -एक मुतहर्रिक कम आ रहा है
ग़म भी अब / तो ग़म नहीं
यक़ीनन मिसरा सानी वज़न में नहीं आ रहा है । कहीं कुछ कमी तो है
चूँकि हमने यह ग़ज़ल ’देवनागरी’ [हिंदी वर्जन] से नकल किया है अत: हो सकता है
उर्दू वर्जन में शायद यह शे’र सही नकल हो -कह नहीं सकता।
यदि किसी सज्जन को उर्दू वर्जन का सही शकल दस्तयाब हो सके तो बराय मेहरबानी इस हक़ीर को आगाह कराइएगा ताकि इस शे’र की सही तक़्तीअ पेश की जा सके ।
चलते चलते एक बात और---
यदि मेरे इस मज़्मून में कोई ग़लतबयानी हो गई हो तो दस्तबस्ता गुज़ारिश है कि बराय मेहरबानी उसकी निशानदिही ज़रूर कर दें ताकि आइन्दा अपने आप को दुरुस्त कर सकूँ
सादर
-आनन्द.पाठक-
ये तो नहीं कि ग़म नहीं
हाँ मेरी आँख नम नहीं
तुम भी तो तुम नहीं हो आज
हम भी तो आज हम नहीं
नश्शा सँभाले हैं मुझे
बहके हुए क़दम नहीं
क़ादिर-ए-दो जहाँ है ,गो
इश्क़ के दम में दम नहीं
मौत अगरचे मौत है
मौत से ज़ीस्त कम नही
अब न ख़ुशी की है ख़ुशी
ग़म भी अब तो ग़म नहीं
मेरी निशश्त है ज़मीं
ख़ुल्द नहीं ,इरम नहीं
-फ़िराक़ गोरखपुरी-
एक मंच पर मेरे किसी मित्र ने इस ग़ज़ल की बह्र जाननी चाही थी। उनका कहना था कि चूँकि यह ग़ज़ल ’फ़िराक़’ साहब की
है तो यक़ीनन यह किसी न किसी बह्र में होगी
------------------------------------------
यह आलेख उसी सन्दर्भ में लिखा गया है
अगर शायर ने अपनी ग़ज़ल की ’बह्र’ न लिखी या न बताई हो तो ग़ज़ल की बह्र निकालना अपेक्षाकृत एक मुश्किल काम है ।
वैसे आज भी किसी भी ग़ज़ल -संग्रह में ग़ज़ल के ऊपर " बह्र’ लिखने का प्रचलन नहीं है ।ज़माना-ए-क़्दीम
में भी नहीं था ।कारण मालूम नहीं ।
हो सकता है , पुराने ज़माने में जिन लोगों को शायरी का ज़ौक़-ओ-शौक़ था या अदब आशनाई थी वो
बह्र के मुत्तालिक़ मज़ीद मालूमात रखते रहे हों और किसी शायर की कही हुई ग़ज़ल पहचान लेते हों और उन्हे मालूम
था कि ग़ज़ल बह्र से कहाँ ख़ारिज़ हो रही है या कहाँ वज़न पर नहीं है।यह मेरा जाती ख़याल है ।आप का इससे मुतफ़्फ़िक़ होना ज़रूरी नहीं
यह समस्या आज भी है । मेरे एक मित्र ने बताया कि लोग आजकल ’ग़ज़ल’ सुनते है ,सुनाते है
जो बह्र या अरूज़ जानते पहचानते हैं उनके लिए बह्र लिखने की ज़रूरत नहीं और जो नहीं जानते हैं उनके लिए लिखने का कोई फ़ायदा
नहीं।
ख़ैर
लिखी हुई ग़ज़ल का बह्र निकालना [ अगर वह सामान्य मशहूर , मक़्बूल प्रचलित आम बह्र में नहीं है तो] अपेक्षाकृत इसलिए मुश्किल है
कि बह्र अपनी माँग पर [कुछ शर्तों के साथ ] हर्फ़ का वज़न गिराना माँगती है ।कहाँ हर्फ़ का वज़न गिराना है और कहाँ नहीं गिराना है यह बह्र जानने
के बाद और ’तक़्तीअ” करने के बाद ही पता चलेगा --पहले नहीं
इसका एक सरल उपाय यह है कि ग़ज़ल का हम वह ’मिसरा’ [या शे’र] का इन्तख़ाब करेंगे जिसमे किसी हर्फ़ का वज़न न गिराया गया हो और यदि
गिराया भी गया हो तो कम से कम जायज तरीके से गिराया गया हो। हम यहाँ मिसरा इस लिए कह रहे है कि यदि मिसरा का सही वज़न या बह्र निकल गया तो
फिर शे’र क्या पूरी की पूरी ग़ज़ल उसी बह्र और वज़न में होगी । इसे आप "रिवर्स इंजीनियरिंग " कह सकते हैं
अब ’फ़िराक़’ साहब की ग़ज़ल पर आते है
यह ग़ज़ल मैने और मेरे मित्र दोनो ने ’राजपाल ’ ्प्रकाशन से फ़िराक़ साहब की ग़ज़लों पर प्रकाशित एक संग्रह से नकल किया है।
वस्तुत: यह ग़ज़ल एक लम्बी ग़ज़ल है [ दो ग़ज़लें -एक ही ज़मीन ,एक ही रदीफ़ और एक ही हम क़ाफ़िया पर कही गई है ।इसमें लगभग 30-अश’आर हैं]
हमने यहाँ अपने मक़सद के लिए चन्द अश’आर ही नकल किए हैं।
हम इस ग़ज़ल की एक मिसरा का इन्तेखाब करते है
" खुल्द नहीं ,इरम नहीं "----कारण कि इस मिसरा में हर्फ़ का वज़न गिराने की नौबत ही नही है ।’सेफ़-गेम’
इस मिसरा का वज़न ठहरता है
2 1 1 2 / 1 2 1 2 = 2112---1212
खुल द नहीं / इ रम नहीं
[ अब आप कहेंगे ’इरम’ को आप ने ’इर म [ 21] के वजन पर क्यों नहीं लिया। वज़ह साफ़ है इरम का तलफ़्फ़ुज़ ’इ रम ’[1 2 ] है न कि ’इर म ’ है [ 2 1 ] ख़ैर]
अब हमें इस मिसरा का वज़न 2112---1212 मिल गया
एक बात तो साफ़ हो गई यह कोई ऐसा शे’र है जिसमे मिसरा में दो और शे’र में 4- अर्कान मुस्तमिल है ] और इसमें से कोई सालिम रुक्न इस्तेमाल नहीं हुआ है अत:
यह कोई ;मुरब्ब: और मुज़ाहिफ़ बह्र है
किस सालिम रुक्न का मुज़ाहिफ़ वज़न " [यानी किस सालिम रुक्न पर ज़िहाफ़ लगा है।
थोड़ा सा ध्यान से देखे 2 1 1 2 --- यह कहीं 2 2 1 2 [ मुस तफ़ इलुन ] पर तो कोई ज़िहाफ़ नहीं लगा है
जी हाँ ,लगा है”मुस तफ़ इलुन ’[2 2 1 2 ] पर अगर ’तय्यी’ का ज़िहाफ़ लगा दें तो वज़न बरामद होगा --2 1 1 2 [ मुफ़ त इलुन ---यहाँ -ते- और -ऐन- मुतहर्रिक है
और इसे ’मुत्तवी’ कहते हैं
तो फिर 1 2 1 2 क्या है ?- यदि "मुस तफ़ इलुन" [ 2 2 1 2 ] पर ख़ब्न का ज़िहाफ़ लगा दें तो बरामद होगा ’मफ़ा इलुन [1 2 1 2 और इसे मख़्बून कहते है
और मख़्बून आम ज़िहाफ़ भी है यानी यह शे;र के किसी मुक़ाम पर आ सकता है और यह यहाँ ’अरूज़’ और जर्ब के मुक़ाम पर आया है
अब यह बात तो साफ़ हो गई कि उक्त दोनो अर्कान सालिम रुक्न [मुस तफ़ इलुन = 2 2 1 2 ] का ही मुज़ाहिफ़ शकल है और यह "बह्र-ए-रजज़" का बुनियादी रुक्न है
अत: हम कह सकते हैं कि इस ग़ज़ल की बह्र है
"बह्र-ए-रजज़ मुरब्ब: मुतव्वी मख़्बून "
अब एक-दो शे’र की तक़्तीअ कर के और जाँच कर लेते हैं
2 1 1 2 / 1 2 1 2 = 2 1 1 2 - 1 2 1 2 = मुफ़ त इलुन ---मफ़ा इलुन
ये तो नहीं / कि ग़म नहीं
2 1 1 2 / 1 2 1 2 =2 1 1 2 - 1 2 1 2 = मुफ़ त इलुन ---मफ़ा इलुन
हाँ मेरी आँ /ख नम नहीं
[ध्यान दें-- यहाँ -ये- [2] मुस के वज़न पर लिया गया है । अगर कहीं किसी अन्य ग़ज़ल में ’बह्र’ की माँग होती तो यही -ये- [ मुतहर्रिक 1 ] की वज़न पर लिया जाता ।और -मेरे को ’मि री ” [दोनो मुतहर्रिक 1 1 ] के वज़न पर किया है जो अज रू- ए- अरूज़ ऐन मुताबिक़ भी है
दूसरा शे’र देखते हैं
2 1 1 2 / 1 2 1 2 = 2 1 1 2 - 1 2 1 2 = मुफ़ त इलुन ---मफ़ा इलुन
नश श: सँभा/ ले हैं मुझे
2 1 1 2 / 1 2 1 2 = 2 1 1 2 -- 1 2 1 2 = मुफ़ त इलुन ---मफ़ा इलुन
बह के हुए / क़ दम नहीं
अब एक शे’र और [ जो परेशानी का सबब बना हुआ है ]
2 1 1 2 / 1 2 1 2 =2 1 1 2 - 1 2 1 2 = मुफ़ त इलुन ---मफ़ा इलुन
अब न ख़ुशी /की है ख़ुशी
2 1 2 / 1 2 1 2 = 2 1 2 ----1 2 1 2 [ पहले रुक्न 212 में -एक मुतहर्रिक कम आ रहा है
ग़म भी अब / तो ग़म नहीं
यक़ीनन मिसरा सानी वज़न में नहीं आ रहा है । कहीं कुछ कमी तो है
चूँकि हमने यह ग़ज़ल ’देवनागरी’ [हिंदी वर्जन] से नकल किया है अत: हो सकता है
उर्दू वर्जन में शायद यह शे’र सही नकल हो -कह नहीं सकता।
यदि किसी सज्जन को उर्दू वर्जन का सही शकल दस्तयाब हो सके तो बराय मेहरबानी इस हक़ीर को आगाह कराइएगा ताकि इस शे’र की सही तक़्तीअ पेश की जा सके ।
चलते चलते एक बात और---
यदि मेरे इस मज़्मून में कोई ग़लतबयानी हो गई हो तो दस्तबस्ता गुज़ारिश है कि बराय मेहरबानी उसकी निशानदिही ज़रूर कर दें ताकि आइन्दा अपने आप को दुरुस्त कर सकूँ
सादर
-आनन्द.पाठक-
ग़म का भी अब तो ग़म नहीं
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत शुक्रिया सरवर साहब
जवाब देंहटाएंआप मुतमईन हैं कि उर्दू version में ऐसा ही है ?
तो अपने उस दोस्त को और मंच के दीगर मेम्बरान को आगाह कर दूँ ताकि इस शे'र की सही शकल और नकल से वाकिफ हो सके। --🙏🙏🙏