रविवार, 20 अप्रैल 2014

ग़ज़ल 042 : अजीब कैफ़-ओ-सुकूँ.....

ग़ज़ल 042

अजीब कैफ़-ओ-सुकूँ तेरी जुस्तजू में था
गुमां-नवर्द मैं सेहरा-ए-आरज़ू में था

न शायरी में,न ही जाम-ए-मुश्कबू में था
वो लुत्फ़ जो तिरे अन्दाज़-ए-गुफ़्तगू में था

इक उम्र मैं रहा सदफ़िक्र-ए-ला-इलाह में गुम
मगर अयाँ तू मिरी एक ज़र्ब-ए-हू में था

रहा हमेशा मुहब्बत की आबरू बन कर
वो इज़्तिराब जो मेरी रग-ए-गुलू में था

तिरे ख़याल ने कब फ़ुर्सत-ए-नज़ारा दी
हज़ार कहने को दुनिया-ए-रंग-ओ-बू में था

जहां में किसको मिला शौक़-ओ-जज़्बा-ए-मंसूर
ये  एहितिराम-ए-मुहब्बत किसू किसू में था

खु़द अपने आप से बेगाना कर गया मुझको
सुरूर-ओ-कैफ़-ए-ख़ुदी जो तिरे सुबू में था

नमाज़-ए-इश्क़ में "सरवर" कहाँ पे जा पहुँचा
वो काबा-रू था जहाँ मंज़िल-ए-वुज़ू में था !

-सरवर-
शब्दार्थ

क़ैफ़-ओ-सुकूँ =नशा और शान्ति
गुमां-नवर्द =गुमान की कश्मकश
            सहरा-ए-आरज़ू =आशा का रेगिस्तान
सद =सैकड़ों
अयाँ =जाहिर
ज़र्ब-ए-हू =दिल से निकली आवाज़
रग-ए-गुलू = गले की नस
जज़्ब-ए-मंसूर       = मंसूर की जज़्बात की तरह
                                (मंसूर एक वली जिन्होंने ’अनलहक़’ कहा था और इस अपराध में
                                 उनकी गर्दन उड़ा दी गई थी)
काबा-रू में =परम पवित्र स्थिति में
मंज़िल-ए-वुज़ू में =इबादत का पहला क़दम

1 टिप्पणी:

  1. बहुत सुन्दर प्रस्तुति।
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    आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल सोमवार (22-04-2014) को ""वायदों की गंध तो फैली हुई है दूर तक" (चर्चा मंच-1590) पर भी होगी!
    --
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
    --
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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