गुरुवार, 22 मई 2014

ग़ज़ल 044 : लरज़ रहा है दिल....

ग़ज़ल 044

लरज़ रहा है दिल-ए-सौगवार आँखों में
खटक रही है शब-ए-इन्तिज़ार आँखों में !

ज़रा न फ़र्क़ ख़ुदी और बेख़ुदी में रहा
न जाने क्या था तिरी मयगुसार आँखों में

यह दर्द-ए-दिल नहीं,है बाज़गस्त-ए-महरुमी
ये अश्क-ए-ग़म नहीं, है ज़िक्र-ए-यार आँखों में

सुरूर-ए-ज़ीस्त से खाली नहीं ख़िज़ां हर्गिज़
मगर है शर्त  रची हो बहार आँखों में

ज़रा ज़रा से मिरे राज़ खोल देता है
छुपा है कौन मिरा राज़दार  आँखों में ?

मक़ाम-ए-शौक़ की सरमस्तियां, अरे तौबा !
सुरूर-ए-आशिक़ी दिल में ख़ुमार आँखों में

क़दम क़दम पे तिरी याद गुल खिलाती है
यह किसने भर दिया रंग-ए-बहार आँखों में?

नबर्द-आज़मा दुनिया से क्या हुआ "सरवर"
कुछ और बढ़ गया अपना वकार आँखों में !

-सरवर

लरज़ रहा है =काँप रहा  है
बाज़गस्त        =प्रतिध्वनि/गूँज
सरमस्तियां -उन्माद
नवर्द-आज़्मा =लड़ाकू
वकार -इज्ज़त

2 टिप्‍पणियां: