उर्दू बह्र पर एक बातचीत :क़िस्त 43 [ बह्र-ए-वाफ़िर की सालिम बहूर]
[क्षमा याचना : इस क़िस्त के विलम्ब हेतु क्षमा प्रार्थी हूँ कारण कि 1-महीने के लिए अपने गॄह जिला -" गाजीपुर" [उ0प्र0] प्रवास पर चला गया था ।
Disclaimer Clause--वही जो क़िस्त 1 में हैं---
बह्र-ए-वाफ़िर का बुनियादी रुक्न है -- ’मफ़ा इ ल तुन ’
कामिल = मुतफ़ाइलुन = सबब-ए-सक़ील [मु त] + सबब-ए-ख़फ़ीफ़ [फ़ा] + वतद-ए- मज्मुआ [ इलुन] से बना है। उसी तरह
वाफ़िर = मफ़ा इ ल तुन =मफ़ा [ वतद-ए-मज्मुआ] + इ ल [ सबब-ए-सक़ील] + तुन [ सबब-ए-ख़फ़ीफ़] से बना है
अगर आप ध्यान दे देखें तो इन दोनों बह्रों में ’वतद मज्मुआ’ का स्थान बदला है । कामिल -में यह आखिरी ’जुज’ [टुकड़ा] है जब कि वाफ़िर- में यह पहला टुकड़ा है । इसी लिए क्लासिकल अरूज़ की किताबों में ’वाफ़िर’ की चर्चा पहले की गई है जब कि कामिल-की चर्चा बाद में की गई है। ख़ैर ,इस से कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता।
कामिल और वाफ़िर दोनो ही ’अरबी[ बह्रें है जो अरबी शायरी से उर्दू शायरी में आई है । जब कि दोनों ही बह्रें -अरबी शायरी की काफी मानूस और लोकप्रिय बहर हैं मगर न जाने क्यों ’वाफ़िर’ उर्दू शायरी में उतनी लोकप्रिय न हो सकी जितनी ’कामिल’ हुई जिसकी सालिम बह्र में अमूमन कई शायरों ने एक से बढ़ कर एक उम्दा कलाम कहे हैं। ख़ैर--
एक दिलचस्प बात और-
ऊपर तो हमने इन दोनो रुक्न को ’वतद’ और ’सबब ’ से विश्लेषण [ तजज़िया ] कर के दिखा दिया और सन्तोष जनक ढंग से दिखा दिया ,मगर अरब वाले इसे ’ फ़ासिला’ से दिखाते है
अब आप कहेंगे उअह ’फ़ासिला’ कहाँ से आ गया । घबराइए नहीं - ’फ़ासिला’ पर भी एक चर्चा कर लेते हैं । हालाँ कि ज़रूरत तो नही है--मगर जानने और समझने में कोई हर्ज भी नहीं है
गुज़िस्ता अक़सात में [ [पिछले क़िस्तों में ] वतद और सबब की चर्चा चुका हूँ -
फ़ासिला - चार [4] हर्फ़ी कलमा को फ़ासिला कहते हैं
इसके दो भेद होते है
[1] फ़ासिला-ए-सुग़रा : - वो चार हर्फ़ी कलमा जिसमे -शुरु के तीन हर्फ़ तो मुतहर्रिक [ मय हरकत ] हो और आख़िरी हर्फ़ ’साकिन’ हो। यानी [हरकत+हरकत+हरकत+साकिन] जैसे --हरकत---बरकत---अबज़द--अमजद---
उर्दू का हर ’लफ़्ज़’ आप जानते है कि हरकत से शुरू होता है[यानी पहला हर्फ़ मुतहर्रिक होता है ] और साकिन पर ख़त्म होता है । कहीं कहीं इसे फ़ासिला-ए-सूलत भी कहते है
[2] फ़ासिला-ए-कबरा :- वो पाँच हर्फ़ी कलमा जिसमे शुरू के तो चार हर्फ़ तो मुतहर्रिक [मय हरकत के] हों और आख़िर हर्फ़ [हर्फ़ उल आखिर] साकिन हो । ख़ैर आखिरी हर्फ़ साकिन तो होगा ही होगा।
यानी [हरकत + हरकत+हरकत+हरकत+साकिन] कभी कभी इसे फ़ासिला-ए-ज़ब्त भी कहते है
ख़ैर--अब इस परिभाषा से -जो अहल-ए-अरब ने बताए हैं
बहर-ए-कामिल = फ़ासिला-ए-सुग़रा + वतद-ए-मज्मुआ
बहर-ए-वाफ़िर = वतद -ए-मज्मुआ + फ़ासिला-ए-सुग़रा
आप ध्यान से देखें तो ये दोनो बह्रें -आपस में ’बर अक्स’ [ Mirror Image] हैं
बहर-ए-कामिल = फ़ासिला-ए-सुग़रा + वतद-ए-मज्मुआ
= [हरकत+हरकत+हरकत+साकिन] + वतद -ए-मज्मुआ
हम जानते हैं कि सबब-ए-सक़ील की परिभाषा ही है दो-हर्फ़ी कलमा जो हरकत+हरकत की बुनावट में हो
और सबब-ए-ख़फ़ीफ़ वो दो हर्फ़ी कलमा हो हरकत+साकिन की बुनावट में हो
= [ (सबब-ए-सक़ील) + (सबब-ए-ख़फ़ीफ़)] + वतद-ए-मज्मुआ
=मु त + फ़ा + इलुन = मुतफ़ाइलुन = 1 1 212 जो बहर-ए-कामिल का बुनियादी रुक्न है । उसी तरह
बह्र-ए-वाफ़िर = वतद-ए-मज्मुआ+ फ़ासिला सुग़रा
= वतद-ए-मज्मुआ + [हरकत+हरकत+हरकत+साकिन]
= वतद-ए-मज्मुआ+[ सबब-ए-सक़ील+ सबब-ए-ख़फ़ीफ़]
= मफ़ा + इ ल + तुन = मफ़ा इ ल तुन = 12 112 = जो वाफ़िर की बुनियादी रुक्न है
एक बात और - अरबी में बहुत से अल्फ़ाज़ /कलमा ऐसे हैं जो 3-मुतहर्रिक या 4- मुतहर्रिक तक आसानी से support कर लेते है मगर उर्दू में बहुत कम ऐसे अल्फ़ाज़ है जो 3-या-4 मुतहर्रिक तक ’सपोर्ट’ करते है ।-नाम मात्र क॥
तो फिर बहर-ए-वाफ़िर में उतने अश’आर क्यों नहीं कहे गए
शायद एक कारण तो यह हो सकता है कि वाफ़िर के ’मफ़ा इ ल तुन ’ में जो बीच में तीन मुतहर्रिक [ ऐन--लाम--ते] आ गया है जो शे’र के लय /प्रवाह/आहंग को तोड़ देता है -नामानूस बना देता हो
और दूसरी बात यह कि शायरों को ’वाफ़िर’ तक आते आते इतने आहंगख़ेज़ अर्कान [जैसे रमल--हज़ज--मुतक़ारिब--मुतदारिक और इनके मुज़ाहिफ़ शक्लें ] मिल जाते है कि शायरी करने के लिए कि शायरों ने इधर कोई ख़ास ध्यान देने की ज़रूरत ही न समझी हो । मगर मैदान खुला है --मनाही नहीं है--अगर आप में इस बह्र में शायरी कर सकते है तो अच्छा ,वरना तो यह बहर फिर अरूज़ कि किताबों में ही रह जायेगी
ऊपर जो कुछ मैने लिखा [ एक दिलचस्प बात और----------से लेकर--------अरूज़ की किताबों में ही रह जायेगी----तक] बस आप की जानकारी के लिए लिख दिया वरना तो उर्दू के तमाम अर्कान ’सबब’ और वतद’ से विश्लेषित के जा सकते है ।फ़ासिला के बारे में न भी जाने तो कोई हर्ज नहीं-काम चल जायेगा। ख़ैर----
अब हम वाफ़िर के बह्र/वज़न पर चर्चा करते है
[1] वाफ़िर मुरब्ब: सालिम
मफ़ा इ ल तुन---मफ़ा इ ल तुन [ शे’र में 4 बार ]
12 1 1 2 ------1 2 1 1 2
उदाहरण डा0 आरिफ़ हसन ख़ान साहब के हवाले से
न चाहा कभी किसी को सनम
तुम्हारे सिवा ,तुम्हारी क़सम
तक़्तीअ कर के देख लेते हैं
1 2 1 1 2 / 1 2 1 1 2
न चा हा कबी / किसी को सनम [ चाहा के ’ह’ पर हरकत है यानी मुतहर्रिक है [1]
1 2 1 1 2 / 1 2 1 1 2
तुमा रे सिवा / ,तुमा री क़सम [ यहा -रे- और -री- मुतहर्रिक है [1] का वज़न है
[2] वाफ़िर मुसद्दस सालिम
मफ़ा इ ल तुन---मफ़ा इ ल तुन -------मफ़ा इ ल तुन [ शे’र में 6 बार ]
12 1 1 2 ------1 2 1 1 2 -------1 2 1 1 2
उदाहरण ; कमाल अहमद सिद्दिक़ी साहब के हवाले से
बहुत पी चुका हूँ ज़ह्र-ए-हयात पीर-ए-मुग़ाँ
ये मैकदा है शराब पिला ,शराब मुझे
तक़्तीअ कर के देख लेते हैं
1 2 1 1 2 / 1 2 1 1 2 / 1 2 1 1 2
ब हुत पी चुका/ हूँ ज़ह्र-ए-हया /त पीर-ए-मुग़ाँ [यहाँ ज़ह्र-ए-हयात = ज़ह् र्- हया [ 2 1 1 2 ] का वज़न् है --र् मुतहर्रिक् हो गया आगे ’क़सरा-इज़ाफ़त की वज़ह से]
1 2 1 1 2/ 1 2 1 1 2 / 1 2 1 1 2
य मय कदा है / शरा ब पिला ,/ शरा ब मुझे
[3] वाफ़िर मुसम्मन सालिम
मफ़ा इ ल तुन---मफ़ा इ ल तुन -------मफ़ा इ ल तुन -------मफ़ा इ ल तुन [ शे’र में 8 बार ]
12 1 1 2 ------1 2 1 1 2 -------1 2 1 1 2---------1 2 1 1 2
उदाहरण अकबर इलाहाबादी का एक शे’र है
फ़िराक़ की शब न होगी सहर अजल से कहो कि आए इधर
अज़ाब मे हूँ निजात मिले कहाँ तलक अब सहूँ मै सितम
तक़्तीअ कर के देख लेते हैं
1 2 1 1 2 / 1 2 1 1 2 / 1 2 1 1 2 / 1 2 1 1 2
फ़िरा क़ की शब / न हो गी स हर/ अ जल से कहो /कि आ ए इ धर
1 2 1 1 2 / 1 2 1 1 2 / 1 2 1 1 2 / 12 1 1 2
अज़ा ब मे हूँ / निजा त मिले / कहाँ त ल {क +अ) ब/ स हूँ मै सि तम्
त लक् +अ ब् = त ल ,कब् [1 1 2 ] -यहाँ क् के साथ ’अलिफ़्’ का वस्ल् हो कर ’क’ -मुतहार्रिक् हो गया है जो ’ब्’ [यानी कब् [2] सबब-ए-ख़फ़ीफ़् के वज़न् पर् आ गया
तलक् = हरकत्+हरकत्+साकिन् =12 =वतद् मज्मुआ है जैसे सितम्
वाफ़िर के सालिम बह्रों का बयान ख़त्म हुआ । अगले क़िस्त में अब हम वाफ़िर की मुज़ाहिफ़ बहूर पर चर्चा करेंगे
चलते चलते एक बात और---
आप सभी पाठकों से अनुरोध है कि अगर आप की नज़र से बह्र-ए-वाफ़िर का कोई शे’र किसी उस्ताद शायर का गुज़रे तो कॄपा कर के मुझे ’इमेल ’ कर दें कि मैं संकलित कर सकूं
--इस मंच पर और भी कई साहिब-ए-आलिम मौज़ूद हैं उनसे मेरी दस्तबस्ता [ हाथ जोड़ कर] गुज़ारिश है कि अगर कहीं कोई ग़लत बयानी या ग़लत ख़यालबन्दी हो गई हो तो निशान्दिही ज़रूर फ़र्मायें ताकि मैं ख़ुद को दुरुस्त कर सकूं ।मेरी मज़ीद [अतिरिक्त] रहनुमाई फ़र्माये ।मम्नून-ओ-शुक्रगुज़ार रहूँगा।
अभी बह्र के कुछ बयां और भी हैं..........
ज़िहाफ़ात् के कुछ निशां और भी हैं.....
एक बात बड़े ही अदब से एतराफ़ [स्वीकार] करता हूँ कि इन तमाम अक़्सात ,तज़्क़िरात और तहरीर के लिए अपने आलिम अरूज़ी साहिबान कमाल अहमद सिद्द्क़ी साहब , डा0 शम्सुर्र्हमान फ़ारुक़ी साहब ,आलिम जनाब सरवर आलम राज़ ’सरवर ’ साहब , अजीज दोस्त डा0 आरिफ़ हसन ख़ान साहब का और कुछ दीगर दोस्तों का तह-ए-दिल से मम्नून-ओ-मश्कूर हूँ जिनकी किताबों से कुछ पढ़ सका ,समझ सका और लिख सका ।वगरना इस हक़ीर में इतनी बिसात कहाँ इतनी औक़ात कहां । इन तज़्क़िरात में मेरा कुछ भी अपना नहीं है बस आलिम साहिबान के अरूज़ पर किए गए कामों का फ़क़त हिन्दी तर्जुमा समझिए बस ........
न आलिम ,न मुल्ला ,न उस्ताद ’आनन’
अदब से मुहब्ब्त ,अदब आशना हूँ
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or
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-आनन्द.पाठक-
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