उर्दू बह्र पर एक बातचीत : क़िस्त 69 [ बह्र-ए-हज़ज मुसम्मन मुज़ाहिफ़ ]
किसी की ग़ज़ल का एक मतला है
नहीं उतरेगा अब कोई फ़रिश्ता आसमाँ से
उसे डर लग रहा होगा अहल-ए-जहाँ से
इस मतले की बह्र और अर्कान इस हक़ीर के मुताबिक़ दर्ज--ए-ज़ेल
यूँ ठहरता है ।
मुफ़ाईलुन---मुफ़ाईलुन--मुफ़ाईलुन--- फ़े’लुन
1 2 2 2--- 1 2 2 2 ---1 2 2 2 ---1 2 2
बहर-ए-हज़ज मुसम्मन सालिम महज़ूफ़
[नोट-किसी मंच पर किसी मित्र को इस बह्र तकि जवीज पर ऐतराज़ था
उनका कहना था कि यह बह्र दुरुस्त नहीं है ऐसी कोई बह्र नहीं होती।
क्यों नही होती -? इस बात का तो उन्होने कोई सन्तोष जनक जवाब नहीं दिया।
मैं अपना जवाब आप लोगों के बीच दे रहा हूँ । आप बताएँ मेरी वज़ाहत
कहाँ तक सही है और कहाँ तक ग़लत ?
यह आलेख उसी सन्दर्भ में लिखा गया है ।]
अगर मुफ़ाईलुन [1 2 2 2 ] पर ’हज़्फ़’ का ज़िहाफ़ लगाया जाए तो फ़े’लुन [1 2 2 ] या ’फ़ऊलुन’ बरामद होगा।
हज़्फ़ का ज़िहाफ़ : अगर रुक्न के आख़िर में ’सबब-ए-ख़फ़ीफ़ ’ हो [जैसे यहाँ -लुन-है ] तो उसको गिरा देना
’हज़्फ़’ का काम है और मुज़ाहिफ़ रुक्न [1 2 2] जो बरामद होती है -को ’महज़ूफ़ ’ कहते हैं । और यह ज़िहाफ़ किसी शे’र के ’अरूज़/ज़र्ब
कि लिए मख़्सूस है [ यानी ख़ास है ।
यह ज़िहाफ़ ’ मुफ़ाईलुन’ [1 2 2 2 ] पर नहीं लगेगा ऐसी कहीं कोई मनाही तो नहीं ?
मुमकिन है कि मेरे मित्र को यह बह्र किसी अरूज़ की किताब में न दिखी हो
या किसी मुस्तनद शायर का कोई कलाम इस बहर में उनके ज़ेर-ए-नज़र न गुज़रा हो।
1-अरूज़ , बह्र का सिर्फ़ क़ायदा -क़ानून-निज़ाम बताता है । किताबों में अरूज़ के प्रत्येक बह्र के
[ मुरब्ब: .मुसद्दस, मुसम्मन या मुज़ाहिफ़ }लिए उदाहरण देना या तफ़्सीलात पेश करना
मुमकिन नहीं है और न कोई मुसन्निफ़ [लेखक ] ऐसा करता है । अत: प्रत्येक बह्र किताबों में आ ही जाय
ज़रूरी नहीं।अत: जो बह्र किताबों में न मिले या न दिखे - वह बह्र नही हो सकती -कहना मुनासिब नहीं।
2- मेरा मानना है जबतक कोई बह्र अरूज़ के ऐन निज़ाम , के मुताबिक़ हो और क़वाईद और क़वानीन की कोई
खिलाफ़वर्जी न करता हों तो उसे बह्र मानने में किसी को एतराज़ नहीं होना चाहिए ।या जबतक अरूज़ कोई मनाही न करता हो
या कोई क़ैद न लगाता हो ,तो ऐसे बह्र में तबाज़्माई की जा सकती है ।
3- यह बात सही है कि शायरों ने ज़्यादातर कलाम "बहर-ए-हज़ज मुसम्मन सालिम " या बह्र-ए-हज़ज मुसद्दस महज़ूफ़ में कहें हैं
मेरा कहना है कि अगर बह्र-ए-हज़ज मुसद्दस महज़ूफ़ जब मानूस और राइज है और शे’र या ग़ज़ल कहे जा सकते है तो फिर इसके ’मुसम्मन महज़ूफ़’
शकल में शे’र क्यॊं नहीं कहे जा सकते हैं ।
4- अगर शायरों ने इस बह्र [ हज़ज मुसम्मन महज़ूफ़ ] में कम शायरी की तो इसका मतलब यह तो नहीं कि यह बह्र वज़ूद नहीं क़रार
पा सकती । शायरों ने मुद्दत से "बह्र-ए-वाफ़िर" में भी कलाम पेश नहीं किए तो क्या ’बहर-ए-वाफ़िर ’ वज़ूद में नहीं होना चाहिए ?
सुधी पाठकों से अनुरोध है कि अगर कोई ग़लत बयानी हो गई हो तो बराए मेहरबानी निशान्दिही करें ,मज़ीद रोशनी डालें कि मैं ख़ुद को दुरुस्त कर सकूँ।
सादर
-आनन्द पाठक-
किसी की ग़ज़ल का एक मतला है
नहीं उतरेगा अब कोई फ़रिश्ता आसमाँ से
उसे डर लग रहा होगा अहल-ए-जहाँ से
इस मतले की बह्र और अर्कान इस हक़ीर के मुताबिक़ दर्ज--ए-ज़ेल
यूँ ठहरता है ।
मुफ़ाईलुन---मुफ़ाईलुन--मुफ़ाईलुन--- फ़े’लुन
1 2 2 2--- 1 2 2 2 ---1 2 2 2 ---1 2 2
बहर-ए-हज़ज मुसम्मन सालिम महज़ूफ़
[नोट-किसी मंच पर किसी मित्र को इस बह्र तकि जवीज पर ऐतराज़ था
उनका कहना था कि यह बह्र दुरुस्त नहीं है ऐसी कोई बह्र नहीं होती।
क्यों नही होती -? इस बात का तो उन्होने कोई सन्तोष जनक जवाब नहीं दिया।
मैं अपना जवाब आप लोगों के बीच दे रहा हूँ । आप बताएँ मेरी वज़ाहत
कहाँ तक सही है और कहाँ तक ग़लत ?
यह आलेख उसी सन्दर्भ में लिखा गया है ।]
अगर मुफ़ाईलुन [1 2 2 2 ] पर ’हज़्फ़’ का ज़िहाफ़ लगाया जाए तो फ़े’लुन [1 2 2 ] या ’फ़ऊलुन’ बरामद होगा।
हज़्फ़ का ज़िहाफ़ : अगर रुक्न के आख़िर में ’सबब-ए-ख़फ़ीफ़ ’ हो [जैसे यहाँ -लुन-है ] तो उसको गिरा देना
’हज़्फ़’ का काम है और मुज़ाहिफ़ रुक्न [1 2 2] जो बरामद होती है -को ’महज़ूफ़ ’ कहते हैं । और यह ज़िहाफ़ किसी शे’र के ’अरूज़/ज़र्ब
कि लिए मख़्सूस है [ यानी ख़ास है ।
यह ज़िहाफ़ ’ मुफ़ाईलुन’ [1 2 2 2 ] पर नहीं लगेगा ऐसी कहीं कोई मनाही तो नहीं ?
मुमकिन है कि मेरे मित्र को यह बह्र किसी अरूज़ की किताब में न दिखी हो
या किसी मुस्तनद शायर का कोई कलाम इस बहर में उनके ज़ेर-ए-नज़र न गुज़रा हो।
1-अरूज़ , बह्र का सिर्फ़ क़ायदा -क़ानून-निज़ाम बताता है । किताबों में अरूज़ के प्रत्येक बह्र के
[ मुरब्ब: .मुसद्दस, मुसम्मन या मुज़ाहिफ़ }लिए उदाहरण देना या तफ़्सीलात पेश करना
मुमकिन नहीं है और न कोई मुसन्निफ़ [लेखक ] ऐसा करता है । अत: प्रत्येक बह्र किताबों में आ ही जाय
ज़रूरी नहीं।अत: जो बह्र किताबों में न मिले या न दिखे - वह बह्र नही हो सकती -कहना मुनासिब नहीं।
2- मेरा मानना है जबतक कोई बह्र अरूज़ के ऐन निज़ाम , के मुताबिक़ हो और क़वाईद और क़वानीन की कोई
खिलाफ़वर्जी न करता हों तो उसे बह्र मानने में किसी को एतराज़ नहीं होना चाहिए ।या जबतक अरूज़ कोई मनाही न करता हो
या कोई क़ैद न लगाता हो ,तो ऐसे बह्र में तबाज़्माई की जा सकती है ।
3- यह बात सही है कि शायरों ने ज़्यादातर कलाम "बहर-ए-हज़ज मुसम्मन सालिम " या बह्र-ए-हज़ज मुसद्दस महज़ूफ़ में कहें हैं
मेरा कहना है कि अगर बह्र-ए-हज़ज मुसद्दस महज़ूफ़ जब मानूस और राइज है और शे’र या ग़ज़ल कहे जा सकते है तो फिर इसके ’मुसम्मन महज़ूफ़’
शकल में शे’र क्यॊं नहीं कहे जा सकते हैं ।
4- अगर शायरों ने इस बह्र [ हज़ज मुसम्मन महज़ूफ़ ] में कम शायरी की तो इसका मतलब यह तो नहीं कि यह बह्र वज़ूद नहीं क़रार
पा सकती । शायरों ने मुद्दत से "बह्र-ए-वाफ़िर" में भी कलाम पेश नहीं किए तो क्या ’बहर-ए-वाफ़िर ’ वज़ूद में नहीं होना चाहिए ?
सुधी पाठकों से अनुरोध है कि अगर कोई ग़लत बयानी हो गई हो तो बराए मेहरबानी निशान्दिही करें ,मज़ीद रोशनी डालें कि मैं ख़ुद को दुरुस्त कर सकूँ।
सादर
-आनन्द पाठक-
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