शनिवार, 23 दिसंबर 2023

बेबात की बात 02: हर शाख़ पे उल्लू बैठा है--

 बेबात की बात 02 : हर शाख़ पे उल्लू बैठा है---


" हर शाख पे उल्लू बैठा है----" यह जुमला आप ने कई बार सुना होगा और सुनाया भी होगा। जुमले के इतने ही अंश पढ़ने से सामने वाला समझ जाता है

"--अंजाम-ए-गुलिस्ताँ क्या होगा" । फिर सुनने-सुनाने वाला - दोनों एक व्यंग्य पूर्ण मुस्कान बिखरते है।

यह जुमला तब पढ़ते है जब किसी व्यक्ति के कारण किसी इदारा.संस्था या संगठन के अनिष्ट होने की संभावना दिखती है ।

प्राय:  इस जुमले को एक शे;र की तरह पढ़ते है --यानी

"हर शाख पे उल्लू बैठा है ,अन्जाम-ए-गुलिस्तां क्या होगा !

दर असल यह  एक शे’र का --मिसरा सानी  है । असल शे’र यूँ है---- [ आगे बताऊंगा।

 बहुत से अश’आर उर्दू शायरी में "ज़र्ब उल मिस्ल " [ यानी कहावत ] की हैसियत रखते है जो हर आम-ओ-ख़ास [ जन साधारण ] के जुबान-ए-ज़द  रहता है

 जो मौक़े दर मौक़े पढ़ते रहते है । यह शे’र भी ऎसी ही एक मिसाल है। ऐसे शे’र अपने शायर से कहीं बड़े हो जाते है और शायर का नाम गौण हो जाता है । अति प्रयोग के कारण ऐसे अश’आर में मूल पाठ में विकृति  भी आ जाती है। ख़ैर----

मूल शे’र यूँ है ----

 दीवार-ए-चमन पे ज़ाग़-ओ-ज़गन, मसरूफ़ है नौह: ख्वानी में

 हर शाख़ पे उल्लू बैठा है ,अंजाम-ए-गुलिस्तां  क्या होगा ।

-कमाल सालारपुरी-

ज़ाग़ -ओ-ज़ग़न = चील कौअे

नौहाख्वानी में = रोने धोने मे

यह शे’र जनाब "कमाल सालारपुरी" साहब [ 1927-2010] का है ।

आइंदा कभी यह शे’र पढ़े तो शायर कमाल सालारपुरी साहब को एक बार ज़रूर याद कर लें।


हालाँकि इसी मौज़ू और इसी ज़मीन  पर शौक़ बहराइच का भी एक शे’र है। लोग ग़लती से ऊपर वाले शे’र को ग़लती से कभी कभी शौक़ बहराइची के नाम से भी मन्सूब [ जोड देते हैं] कर देते हैं।


बरबाद गुलिस्तां करने को बस एक ही उल्लू काफी था

हर शाख़ पे उल्लू बैठा है, अंजाम-ए-गुलिस्तां क्या होगा

     -शौक़ बहराइची-

कुछ लोगों का मानना है कि दूसरा ’वर्जन’ --पहले वाले से ज़ियादा असरदार है ।ख़ैर  असल तो असल होता है।

सादर

-आनन्द पाठक-

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