शनिवार, 29 अक्तूबर 2022

बेबात की बात :01: --बहुत देर की मेहरबाँ आते आते ।

                    बेबात की बात: 01


किसी महफ़िल में या किसी सभा में लोग किसी की प्रतीक्षा करते हुए अगर

 वह शख़्स अचानक आ जाता है तो आप ने लोगो को यह जुमला पढ़ते 

हुए ज़रूर सुना होगा--

बड़ी देर कर दी हुज़ूर आते आते।

या 

बहुत देर कर दी मेहरबाँ आते आते

ऐसे जुमले जर्ब उल मसल [ कहावत लोकोक्ति ] की हैसियत रखते हैं और ऐसे जुमले लोग 

अपने अपने हिसाब से और अपने अपने अन्दाज़ से पढ़ते है।

ऐसे जुमले इतनी बार पढ़े जाते है नतीजन घिस जाते है और फिर अपने मूल रूप से दूर, कभी 

कभी बहुत्त दूर निकल जाते हैं और अपना मूल स्वरूप खो देते है।

 एक सभा में मैं भी था। देखा कि उस सभा में एक देवी जी-कवयित्री रही होंगी-किकुछ लोग अचानक 

उस तरफ़ ’लपके’। में भी लपका। इम्प्रेसन मारने के चक्कर में मैने यह जुमला बड़े अन्दाज़ से बल खा के 

उनकी शान में पढ़ दिया--

बड़ी देर कर दी साहिबा! आते आते

-तेरे को क्या ?--उन्होने आंख दिखाते हुए कहा।

मैने भी तुर्की ब तुर्की जवाब दिया

हुस्न वाले तेरा जवाब नही

हा हाहा हा 

वह तो अच्छा हुआ कि यारो के ’वाह’ वाह’ ने मुझे बचा लिया वरना

बचा लिया यारो के ’वाह. ने वरना

साहिबा जी मेरी ’शायरी’ छुड़ा देती

हा --हा-हा-हा- 

ख़ैर --

 वस्तुत: यह जुमला ’दाग़’ देहलवी साहब का एक शे’र है जिसकी सही शकल यूँ है

न जाना कि दुनिया से जाता है कोई

बहुत देर की मेहरबाँ  आते आते ।

-दाग़-

दरअस्ल यह शे’र भी उनकी एक मशहूर ग़ज़ल का एक हिस्सा है --आप लोगों ने ज़रूर पढ़ा होगा।

जो नहीं वाक़िफ़ है उनकी सुविधा के लिए--पूरी ग़ज़ल यहाँ नकल कर रहा हूँ।

[यह ग़ज़ल बह्र-ए-मुतक़ारिब मुसम्मन सालिम में है और वज़न

122--122--122--122 है]


फिरे राह से वह यहाँ आते-आते

अजल मर गई तू कहाँ आते आते


मुझे याद करने से ये मुद्दआ’ था

निकल जाए दम हिचकियाँ आते-आते


न जाना कि दुनिया से जाता है कोई

बहुत देर की मेहरबाँ  आते-आते ।


कलेजा मेरे मुंह को आएगा इक दिन

यूँ ही लब पे आह-ओ-फ़ुगाँ आते-आते


सुनाने के काबिल थी जो बात उनकी

वही रह गई दरमियाँ आते-आते


मेरे आशियाँ के तो थे चार तिनके

चमन उड़ गया आधियाँ आते-आते


नही खेल ऎ दाग़ यारों से कह दो

कि आती है उर्दू ज़बाँ  आते-आते


-दाग़ देहलवी-

मक़्ता का आख़िरी मिसरा भी कम जर्ब उल मसल का मर्तबा

नही रखता यानी

कि आती है उर्दू ज़बाँ  आते-आते

[ दाग़ देहलवी के बारे में तो आप सभी जानते होंगे। दाग़ एक उस्ताद शायर थे और

ज़ौक़ के शागिर्द थे और दाग़ के सैकड़ॊ शागिर्द थे। आप स्वयं एक संस्था थे और इनके शागिर्द

शायरों को ’दाग़ स्कूल के शायर ’ कहा जाता है। इनकी ग़ज़ले इतनी लोकप्रिय होती थी, कहते हैं कि उनके ज़माने में उनकी ज़्यादा

ग़ज़ले ’कोठे’ पर गाई जाती थी ।

आज इतना ही। इन्शा अल्लाह, अगली कड़ी में ऐसा ही कोई दिलचस्प वाक़िया लेकर हाज़िर होंगे।

सादर

-आनन्द.पाठक-


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