उर्दू बह्र पर एक बातचीत-2
बह्र-ए-मुत्दारिक ( 212)
[ पिछली बार , हमने ’बह्र-ए-मुत्क़ारिब’(122) पर बातचीत की थी .अभी हम सालिम रुक्न पर ही बातचीत जारी रखेंगे .इस बहस को अभी फ़िलवक़्त यहीं छोड़ कर आगे बढ़ते है अगली बहर है ’बह्र-ए-मुत्दारिक’
कुछ दिनों बाद हम फिर लौट कर आयेंगे और बह्र-ए-मुत्क़ारिब पर और बातचीत करेंगे ...
एक बात और
यह लेख अपने हिन्दीदाँ दोस्तों के नज़्रिये से लिखा जा रहा है जिस से मोटा मोटी बहर और वज़न समझने में सुविधा हो .उर्दू अरूज़ की बारिकियां शायद इस में उतनी नज़र न आये।]
उर्दू में एक बह्र है "बह्र-ए-मुतदारिक’ जिसका बुनियादी रुक़्न है "फ़ाइलुन" और जिसका वज़न है 212. ’बह्र-ए-मुतक़ारिब’ की तरह यह भी एक ख़म्मस रुक़्न (5-हर्फ़ी) है। कुँवर बेचैन जी ने इस का हिन्दी नाम ’पुनर्मिलन छन्द" दिया है उन्हीं के शब्दों में .."मुतदारिक’ शब्द अरबी भाषा का है जिसका अर्थ है --खोई हुई वस्तु पाने वाला। इसी अर्थ के आधार पर हमने इसे ’पुनर्मिलन छन्द’ का नाम दिया है .।
शायद कालान्तर में इस बह्र का यह हिन्दी नामकरण भी प्रचलित हो जाय जैसी ’नीरज’ जी ने ’रुबाई’ के लिए ’मुक्तक’ नाम दिया है। खैर.....
बह्र-ए-मुतदारिक का रुक़्न भी ’सबब’(2-हर्फ़ी) और वतद (3 हर्फ़ी) के योग से बना है वैसे ही जैसे ’बह्र-ए-मुतक़ारिब का रुक़्न बना है
फ़ाइलुन =फ़ा + इलुन
= (फ़े,अलिफ़)+ (ऎन,लाम,नून)
=सबब+वतद
= 2 + 12 = 2 1 2
आप ध्यान दें कि बह्र-ए-मुत्क़ारिब का मूल रुक्न " फ़ ऊ लुन’ भी सबब(2) और वतद(12) के योग से बना है
फ़ऊलुन = फ़ऊ + लुन
= (फ़े,ऎन,वाव) + (लाम,नून)
= वतद + सबब
= 12 + 2 =1 2 2
वैसे ही आप पायेंगे कि सिर्फ़ ’सबब’ और ’वतद’ का क्रम बदला हुआ है वरना दोनों ही खमम्स (5-हर्फ़ी) रुक़्न है
अब प्रश्न उठता है कि ’फ़ाइलुन’ में ’सबब’ के लिए ’फ़ा’ तज़्वीज़ किया तो फ़ऊलुन’ में सबब के लिए ’लुन’ क्यों लिया ?
इस पर मैं कुछ कह नहीं सकता ,ये तो अरूज़ियों की बातें हैं ।उनके पास ’सबब’ के लिए और भी ऐसे ही कुछ हर्फ़ हैं जिसका वज़न 2 ही है पर लफ़्ज़ (जुज़ ,कलमा) अलग अलग है और अलग अलग रुक़्न में ये लोग अलग अलग प्रयोग करते है। आप की जानकारी के लिए कुछ ऐसे ही ’जुज़’(टुकड़ा) लिख रहा हूं
सबब (वज़न 2) : फ़ा , तुन् , ई, ..लुन्.. ,मुस्.., तफ़् , मुफ़् , ऊ , वग़ैरह
वतद (वज़न 1,2 या 2,1): मफ़ा , इला ,इलुन्, लतुन् ..फ़ाअ’..तफ़अ’.लात्... वग़ैरह्
एक दिलचस्प बात और
इन रुक़्न (ब0ब0 अर्क़ान ) के और भी नाम से जाना जाता है ।कुछ अरूज़ की किताबों में इसे ’फ़ेल’ फ़अ’ल(ब0ब0 अफ़ाईल तफ़ाइल उसूल) के नाम से भी जाना जाता है । हर रुक्न में (बाद में आप देखेंगे) कि ऎन.फ़े.लाम में से कोई 2-हर्फ़ ज़रूर आता है इसीलिए ’रुक़्न ’ का दूसरा नाम ’फ़.अ’,ल भी है [( अ’) को आप ’ऎन’ समझे और (अ) को अलिफ़]
इन रुक़्न पर "ज़िहाफ़’( इस पर बाद में बातचीत करेंगे) लगाने से इनकी शक्ल में तब्दीली हो जाती फिर ये रुक़्न ’सालिम’ नहीं रह पाते .कभी कभी तो ’फ़े.अ’.लाम भी नहीं रह पाता तो ऐसे मुज़ाहिफ़ रुक़्न (ज़िहाफ़ लगाने के बाद बदली हुई रुक्न) को किसी मानूस (मान्य व प्रचलित) हम वज़न रुक्न से बदल लेते हैं कि फ़े.अ’.लाम की शर्त बरक़रार रहे
अब मूल विषय पर आते हैं
बह्र-ए-मुतदारिक का मूल रुक़्न ’फ़ाइलुन’ है और वज़न 2 1 2 है
और परिभाषा भी वही कि
(1) अगर यह रुक्न किसी शे’र में 4 बार(यानी मिसरा में 2 बार) आये तो बह्र-ए-मुत्दारिक मुरब्बअ सालिम कहलायेगी
212 / 212
212 / 212
(2) अगर यह रुक़्न किसी शे’र में 6 बार रिपीट (यानी मिसरा में 3 बार) आये तो बह्र-ए-मुत्दारिक मुसद्दस सालिम कहलायेगी
212 /212/ 212
212 /212 /212
(3) अगर यह रुक़्न किसी शे’र में 8 बार रिपीट (यानी मिसरा में 4 बार) आये तो बह्र-ए-मुत्दारिक मुसम्मन सालिम कहलायेगी
212 /212 /212 / 212
212 /212 /212 / 212
(4) अगर यह रुक़्न किसी शे’र में 16 बार रिपीट (यानी मिसरा मे 8 बार) आये तो भी यह बह्र-ए-मुत्दारिक मुइज़ाफ़ी मुसम्मन सालिम ही कहलायेगी
अब मैं जनाब ’सरवर आलम राज़ ’सरवर’ के 16 रुक्ऩी ग़ज़ल के चन्द अश’आर इसी बह्र में आप के लिए लगा रहा हूं मुलाहिज़ा फ़र्माये (पूरी ग़ज़ल और अन्य ग़ज़लें आप हिन्दी में यहाँ देख सकते हैं http://sarwarraz.com/ के artcle section में ek pardha Uthaa meGhazal no 2..]
दिल दुखाए कभी ,जाँ जलाए कभी, हर तरह आज़माए तो मैं क्या करूँ ?
मैं उसे याद करता रहूँ हर घड़ी , वो मुझे भूल जाए तो मैं क्या करूँ ?
हाले-दिल गर कहूँ मैं तो किस से कहूँ,और ज़बाँ बन्द रक्खुँ तो क्यों कर जियूँ ?
ये शबे-इम्तिहां और ये सोज़े-दूरूं ,खिरमने-दिल जलाए तो मैं क्या करूँ ?
मैने माना कि कोई ख़राबी नहीं , पर करूँ क्या तबियत ’गुलाबी’ नहीं
मैं शराबी नहीं ! मैं शराबी नहीं ! वो नज़र से पिलाए तो मैं क्या करूँ ?
अब मैं इसकी तक़्तीअ करता हूं
212 /212 /212 /212 /212 /212 /212 /212
दिल दुखा/ए कभी ,/जाँ जला/ए कभी,/ हर तरह/ आज़मा/ए तो मैं/ क्या करूँ ?
मैं उसे /याद कर/ता रहूँ /हर घड़ी /, वो मुझे /भूल जा/ए तो मैं /क्या करूँ ?
हाले-दिल/ गर कहूँ /मैं तो किस /से कहूँ,/और ज़बाँ /बन्द रक्खुँ/ तो क्यों /कर जियूँ ?
ये शबे-/इम्तिहां /और ये /सोज़े-दूरूं/ ,खिरमने-/दिल जला/ए तो मैं/ क्या करूँ ?
मैने मा/ना कि को/ई ख़रा/बी नहीं /, पर करूँ /क्या तबि/यत ’गुला/बी’ नहीं
मैं शरा/बी नहीं /! मैं शरा/बी नहीं /! वो नज़र / से पिला/ए तो मैं/ क्या करूँ ?
अब आप देखेंगे कि ’वो’ ’तो’ देखने में तो सबब (वज़न 2) के लगते है मगर जब आप तरन्नुम में पढ़ेंगे तो इस को वज़न 1 के ज़ोर से पढ़ेंगे तभी इस बहर के आहंग का लुत्फ़ आयेगा ।ये बह्र के आहंग की मांग है
ऊपर ’रक्ख़ुँ’ पर ध्यान दे...सही लफ़्ज़ तो ’रखूँ’ ही था मगर बहर की मांग के कारण इसे ’रक्ख़ुँ’ लिखना पड़ा बग़ैर मानी में किसी तब्दीली के\
यही बात ’तबि’ में भी है इसे ’तबी’ की वज़न पर पढ़ेंगे
अब शकील बदायूनी साहेब की एक ग़ज़ल के चन्द अश’आर इसी बह्र में लगा रहा हूं मुलाहिज़ा फ़र्मायें
बे-झिझक आ गए ,बेख़बर आ गए
आज रिन्दों में वाइज़ किधर आ गए
गुफ़्तगू उनसे होती ये किस्मत कहां
ये भी उनका करम है नज़र आ गए
आना जाना भी ये ख़ूब है आप का
बे-कहे चल दिए बेख़बर आ गए
हम तो रोते ही थे इश्क़ मे रात दिन
तुम भी आख़िर इसी राह पर आ गए
अब इसके तक़्तीअ भी कर के देख लेते हैं
212 /212 /212 /212
बे-झिझक/ आ गए /,बेख़बर /आ गए
आज रिन्/दों में वा/इज़ किधर/ आ गए
गुफ़् त गू/ उन से हो/ती ये किस्/मत कहां
ये भी उन/का करम/ है नज़र/ आ गए
आना जा/ना भी ये /ख़ूब है /आप का
बे-कहे/ चल दिए /बेख़बर/ आ गए
हम तो रो/ते ही थे /इश्क़ मे/ रात दिन
तुम भी आ/ख़िर इसी /राह पर /आ गए
देखने में .. में..से...भी..ना...तो..ही..तो इनका वज़न 2 लगता है मगर तलफ़्फ़ुज़ की अदायगी में बह्र के मांग के मुताबिक इन्हें वज़न 1 पर पढ़ेंगे (और इसे ही मात्रा गिराना कहते हैं)
चूँकि इस बहर में सालिम रुक़्न ’फ़ाइलुन’(212) का हर शे’र में 8-बार (यानी मिसरा में 4 बार) रिपीट हुआ है अत: इस बह्र का नाम हुआ ’बह्र-ए-मुत्दारिक मुसम्मन सालिम"
इसी बह्र मे चन्द अश’आर इस ग़रीब खाकसार के भी बर्दास्त कर लें
आँधियों से न कोई गिला कीजिए
लौ दिए की बढ़ाते रहा कीजिए
सर्द रिश्ते भी इक दिन पिघल जायेंगे
ग़ुफ़्तगू का कोई सिलसिला कीजिए
हम वतन आप हैं हम ज़बां आप हैं
दो दिलों में न यूँ फ़ासिला कीजिए
अब इसके तक़्तीअ कर के भी देख लेते हैं
212 /212 /212 /212
आँधियों /से न को/ई गिला /कीजिए
लौ दिए/ की बढ़ा/ते रहा /कीजिए
सर्द रिश्/ते भी इक/ दिन पिघल/ जायेंगे
ग़ुफ़् तगू/ का कोई /सिलसिला/ कीजिए
हम वतन /आप हैं /हम ज़बां /आप हैं
दो दिलों /में न यूँ /फ़ासिला /कीजिए
यहाँ भी ...भी ..को...पर मात्रा गिराई गई है और इसे 1-की वज़न पर ही पढ़ा जाएगा
इस बह्र का भी वही नाम हुआ...’बह्र-ए-मुतदारिक मुसम्मन सालिम.
ज़िहाफ़ात की बात बाद में करेंगे
आप के सुझाव की प्रतीक्षा रहेगी...बातचीत जारी रहेगी....
क्रमश:.......
-आनन्द.पाठक
09413395592
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