ग़ज़ल 040
हम हुए गर्दिश-ए-दौरां से परेशां क्या क्या !
क्या था अफ़्साना-ए-जां और थे उन्वां क्या क्या !
हर नफ़स इक नया अफ़्साना सुना कर गुज़रा
दिल पे फिर बीत गयी शाम-ए-ग़रीबां क्या क्या !
तेरे आवारा कहाँ जायें किसे अपना कहें ?
तुझ से उम्मीद थी ऐ शहर-ए-निगारां क्या क्या !
बन्दगी हुस्न की जब से हुई मेराज-ए-इश्क़
सज्दा-ए-कुफ़्र बना हासिल-ए-ईमां क्या क्या !
फ़ासिले और बढ़े मंज़िल-ए- गुमकर्दा के
और हम करते रहें ज़ीस्त के सामां क्या क्या !
धूप और छाँव का वो खेल ! अयाज़न बिल्लाह
रंग देखे तिरे ऐ उम्र-ए-गुरेजां क्या क्या !
हाय ये लज़्ज़त-ए-आज़ार-ए-शिकस्तापायी
हमने ख़ुद ढूँढ लिए अपने बयाबां क्या क्या !
हैफ़ "सरवर"! तुझे ऐय्याम-ए-ख़िज़ां याद नहीं
इश्क़ में है तुझे उम्मीद-ए-बहारां क्या क्या !
-सरवर
शहर-ए-निगारां =हसीनों का शहर
हासिल-ए-ईमां =ईमान(विश्वास)का नतीजा
गर्दिश-ए-दौरां =ज़माने का चक्कर
मंज़िल-ए-गुमकर्दा =खोई हुई मंज़िल
इयाज़न बिल्लाह =ख़ुदा खै़र करे !
लज़्ज़त-ए-आज़ार-ए-शिकस्तापायी=थकान की तकलीफ़ का मज़ा
हम हुए गर्दिश-ए-दौरां से परेशां क्या क्या !
क्या था अफ़्साना-ए-जां और थे उन्वां क्या क्या !
हर नफ़स इक नया अफ़्साना सुना कर गुज़रा
दिल पे फिर बीत गयी शाम-ए-ग़रीबां क्या क्या !
तेरे आवारा कहाँ जायें किसे अपना कहें ?
तुझ से उम्मीद थी ऐ शहर-ए-निगारां क्या क्या !
बन्दगी हुस्न की जब से हुई मेराज-ए-इश्क़
सज्दा-ए-कुफ़्र बना हासिल-ए-ईमां क्या क्या !
फ़ासिले और बढ़े मंज़िल-ए- गुमकर्दा के
और हम करते रहें ज़ीस्त के सामां क्या क्या !
धूप और छाँव का वो खेल ! अयाज़न बिल्लाह
रंग देखे तिरे ऐ उम्र-ए-गुरेजां क्या क्या !
हाय ये लज़्ज़त-ए-आज़ार-ए-शिकस्तापायी
हमने ख़ुद ढूँढ लिए अपने बयाबां क्या क्या !
हैफ़ "सरवर"! तुझे ऐय्याम-ए-ख़िज़ां याद नहीं
इश्क़ में है तुझे उम्मीद-ए-बहारां क्या क्या !
-सरवर
शहर-ए-निगारां =हसीनों का शहर
हासिल-ए-ईमां =ईमान(विश्वास)का नतीजा
गर्दिश-ए-दौरां =ज़माने का चक्कर
मंज़िल-ए-गुमकर्दा =खोई हुई मंज़िल
इयाज़न बिल्लाह =ख़ुदा खै़र करे !
लज़्ज़त-ए-आज़ार-ए-शिकस्तापायी=थकान की तकलीफ़ का मज़ा
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