उर्दू बह्र पर एक बातचीत : क़िस्त 29 [ बहर मुतक़ारिब और मुतदारिक का तुलनात्मक अध्ययन]
Discliamer clause -वही जो क़िस्त 1 में है
पिछली क़िस्तों में हम बहर-ए- मुतक़ारिब और मुतदारिक की सालिम ,मुरब्ब: ,मुसद्दस मुसम्मन और इनकी मुमकिनात [संभावित] मुज़ाहिफ़ और मुज़ाइफ़ शकल पर विस्तार से चर्चा कर चुके हैं साथ ही उन पर लगने वाले ’तस्कीन-ए-औसत’ और ’तख़नीक़] का अमल भी देख चुके हैं कि कैसे इन के अमल से अनेकानेक मज़ीद[अतिरिक्त] बहरें बरामद की जा सकती हैं
आज हम इन दोनो बहूर का एक तुलनात्मक अध्ययन करेंगे इसमें क्या क्या समानतायें और क्या क्या विभिन्नतायें हैं
1- दोनो ही बहूर उर्दू में हिन्दी से आयें है यानी हिन्दी के गीतों से हिन्दी छन्द शास्त्र से आयें है
2- इसमे भी बह्र -ए-मुतदारिक बह्र पहले आया और बहर-ए- मुतक़ारिब बाद में आया
3- दोनो बहर ’ख़म्मासी’ बह्र कहलाती है यानी 5-हर्फ़ी बहर हैं [ ख़म्स: माने ही 5-वस्तुओं का समाहार होता है । ये दोनो बह्रें ’एक सबब ’[2 हर्फ़ी] + एक वतद [ 3 हर्फ़ी] से मिल कर बनती है
4- बह्र-मुतक़ारिब का बुनियादी रुक्न है- फ़ऊलुन [12 2] जो वतद + सबब से मिल कर बना है }
यहाँ ’फ़ऊ [12] ---- वतद [3-हर्फ़ी ] है जिसे हम वतद-ए-मज़्मुआ कहते है
और ’लुन’ [2] --------सबब [2-हर्फ़ी [ है जिसे हम सबब-ए-ख़फ़ीफ़ कहते है
5- बह्र-ए-मुतदारिक का बुनियादी रुक्न ---फ़ा इलुन ह[2 12] है जो सबब+ वतद से मिल कर बना है
यहाँ ’फ़ा’ [2]---------सबब [2-हर्फ़ी ] है जिसे हम सबब-ए-ख़फ़ीफ़ कहते है
और ’इलुन’ [ 12] -------वतद [3-हर्फ़ी] है जिसे हम वतद-ए-मज़्मुआ कहते है
हालां कि हम इसे ’लुन फ़ऊ’ [2 12] भी कह सकते थे---वज़न बरक़रार रखते हुए मगर नहीं कहते । अरूज़ियों ने सबब और वतद के लिए कुछ ’कलमा’ पहले से ही तय कर रखें हैं जैसे
सबब-ए-ख़फ़ीफ़ [ 2 ]के लिए -----फ़ा---तुन्---लुन्---ई----मुस् ----तफ़्-
सबब-ए-सकील [1 1] के लिए-----मु त --इ ल--
वतद-ए-मज़्मुआ [12 ] के लिए----फ़ऊ----इलन्----इला---मुफ़ा----
वतद-ए-मफ़रूक़ [2 1] के लिए---लातु ---
हालाँ कि 4/5- हर्फ़ी वज़न के लिए भी कुछ ऐसे ही लफ़्ज़ तय कर रखे गयें है जिसे ’फ़ासिला’ [ फ़ासिला-ए-सग़रा और फ़ासिला-ए-कबरा कहते हैं] } मगर हमने इस इस्तलाह [परिभाषा] को चर्चा में नहीं लिया। कारण कि हमारे अरूज़ का काम सबब [2-हर्फ़] औरवतद[3 हर्फ़] से चल जाता है तो इसकी ज़रूरत ही नहीं पड़ी। हां कुछ अरूज़ी अर्कान को फ़ासिला के इस्तलाह [ परिभाषा ] से भी समझाते है-समझा सकते हैं-आप भी चाहें तो समझ सकते है[
एक सोचने की बात है ----अगर तमाम सबब-ए-ख़फ़ीफ़ के लिए एक कलमा जैसे --फ़ा--ौर वतद -ए-मज़्मुआ के लिए एक कलमा मुफ़ा-- वग़ैरह वग़ैरह ही रहता तो इतने ;ज़ुज’ [टुकड़े] याद रखने की ज़रूरत नहीं पड़ती अर्कान रटने भी ’सहूलियत’ होती । मगर ऐसा नहीं है अरूज़ की किताब में ख़ैर----आप सोचियेगा।
6- ये दोनो बहरें एक ही दायरे [वृत[ से निकल्री हैं जिसका नाम है -दायरा-ए-मुतफ़िका:--।उर्दू अरूज़ में ये दायरे Graphically ऐसे Design किए गये हैं [और उनके अलग अलग नाम भी है ]कि तमाम अर्कान और बहर इस से बरामद हो सकती हैं ।तवालत से बचने के लिए मैने जान बूझ कर इन दायरों पर चर्चा नहीं किया कि ज़रूरत ही नहीं पड़ी । अगर आप और गहराई में जाना चाहतें हैं तो किसी भी ’क्लासिकल’ अरूज़ की किताब में मिल जायेगी।
7- दोनो बह्रें आपस में ’प्रतिबिम्बित’ [mirror image] हैं अत: कभी कभी मुबहम [भ्रम] भी हो जाता है और एक ख़ास बात कि एक का रुक्न से दूसरा रुक्न बरमद किया जा सकता है जैसे ---
[वतद+सबब]----वतद+सबब]-----वतद+सबब]-----वतद+सबब]
मुतक़ारिब --- ----फ़ऊ लुन-------फ़ऊ लुन--------फ़ऊ लुन--------फ़ऊ लुन
122-------- --122-------------122-----------122 = 122---122----122---122
अब इसे बस एक ’स्टेप’ आगे कर दीजिये फिर देखिए--जैसे
[सबब+वतद]---------[सबब+वतद]------[सबब+वतद]-----[सबब+वतद]
लुन फ़ऊ-----.-------लुन फ़ऊ------,---लुन फ़ऊ---------लुन फ़ऊ [जिसे हम ’फ़ा इलुन’ 212 से बदल लेते हैं सुविधा के लिए]
2 12---------------2 12-------------2 12----------2 1 2 = 212---212---212---212 = लीजिए ये तो बहर-ए-मुतदारिक का वज़न आ गया
8- वतद और सबब -- वतद का एक मानी होता है -’खूंटा -और सबब का एक मानी होता है ’रस्सी’। अब आप कहेंगे अरूज़ में --खूँटा और ’रस्सी’ का क्या काम ? जी काम तो कुछ नहीं बस अर्कान समझने में आसानी हो जाती है
खूँटा- गड़ गया सो गड़ गया ,हिलता नही । वतद अपनी जगह ’फ़िक्स’ रहता है
रस्सी --खूँटे से बँध गई तो बँध गई - बस इर्द गिर्द ,आगे/पीछे घूम सकती है । अब आप वतद[3] के खूंटे से एक या दो रस्सी ’सबब’ [2]का बाँध दीजिये
एक ’सबब’[2] बाँधियेगा तो ख़्म्मासी सालिम बहर बरामद होगी जैसे
सबब ------------[वतद] तो मुतदारिक
- [वतद]-------सबब तो मुतक़ारिब
दो सबब [2]बाँधियेगा तो ;सुबाई; [7-हर्फ़ी] सालिम बहर बरामद होगी
[वतद]-----सबब------सबब यानी 12 2 2 =मुफ़ाईलुन ------ --बह्र-ए-हज़ज
सबब----- --[वतद]------सबब यानी 2 12 2 = फ़ाइलातुन---------बह्र-ए-रमल
सबब---सबब-- [वतद] यानी 2 2 1 2 = मुस तफ़ इलुन------ बह्र-ए-रजज़
यहां~ पर सबब और वतद आप के समझने के लिए लिख दिया वगरना ये सब अपने मुकाम पर अपने सही रूप ख़फ़ीफ़... सकील--मज़्मुआ---मफ़रुक़ के मुताबिक़ ही होंगे
वग़ैरह वग़ैरह
9- बहर-ए-मुतक़ारिब में चूँकि ’वतद’ पहले आता है अत: ’ख़रम’ का ज़िहाफ़ लगता है } जब इस ज़िहाफ़ का अमल ’फ़ऊ लुन’ पर होता है तो मुज़ाफ़िह रुक्न को ’अख़रम’ नहीं कहते बल्कि ’असलम’ कहते हैं
और ज़िहाफ़ "सरम और क़ब्ज़’ के अमल से एक मुज़ाहिफ़ बहर बरामद होती है --"मुतक़ारिब मुसम्मन असरम मक़्बूज़ सालिम अल आखिर"[जिसका वज़न होता है
फ़अलु------फ़ ऊलु------फ़ऊलु----फ़ऊलुन--- [यानी -लु- मय हरकत है]
21-----------121---------121------122
इस पर ’तख़्नीक’ के अमल से एक दो नही सैकड़ों वज़न बरामद किए जा सकते है [ पिछले क़िस्त में इस पर चर्चा कर भी चुके है] इसी अमल से अनेकानेक वज़न से एक वज़न यह भी बरामद होती है
फ़अ लुन-------फ़अ लुन-----फ़अ लुन----फ़अ लुन [ -ऐन साकिन -]
22-------------22-------------22--------22 और इस वज़न का नाम होता है---अरे ! नाम तो वही रहेगा बस शकल बदल गई है वज़न भी वही रहेगा क्योंकि यह वज़न ’तख़्नीक़’ के अमल से बरामद किया गया ह
10- बह्र-ए-मुतदारिक में चूँकि ’सबब-ए-ख़फ़ीफ़’ पहले आता है अत: इस पर ;ख़ब्न’ का ज़िहाफ़ लगता है जो आम ज़िहाफ़ है और मुज़ाहिफ़ को मख़्बून कहते हैं और वो बहर है
फ़अलुन-------फ़अलुन-----फ़अलुन----फ़अलुन [यहां -अ- यानी -ऐन मुतहर्रिक है यानी मय हरकत है]
1 1 2-----------1 1 2-------1 1 2----1 1 2 और इस बहर का नाम है --" मुतदारिक मुसम्मन मख़्बून ’---
इस पर ’तस्कीन’ के अमल से कई वज़न बरामद किए जा सकते हैं
जिसमे एक वज़न यह भी बरामद होगा
फ़अ लुन------फ़अ लुन------फ़अ लुन----फ़अ लुन [ यहाँ भी -अ-यानी -ऐन मुतहर्रिक है यानी मय हरकत है]
22----------22-----------22----------22- और इस बहर का नाम है --अरे ! नाम तो वही रहेगा बस शकल बदल गई वज़न भी वही रहेगा कारण कि यह वज़न ’तस्कीन; के अमल से बरामद किया गया है
अब आप (9) और (10) को एक बार ध्यान से देखें --दो हम शकलें बहर बरामद हो गई
ज़ाहिरी तौर पर दो मुख़्तलिफ़ [अलग बहरें] --दो अलग अलग रास्ते से चल कर .....हम शकल बहरें -----पर मक़ाम एक आ गया -यानी -- 22---22---22---22 और गुत्थी उलझ गई
ऐसे ही एक गुत्थी पिछली किस्त में भी उलझ गई थी जब दो बहर
(क) बहर-ए-मुतदारिक मुसम्मन मक़्तूअ अल आखिर
फ़ाइलुन---फ़ाइलुन---फ़ाइलुन--फ़अ लुन
212---212-------212-----22
और
(ख) बह्र-ए--मुतदारिक मुसम्मन मख़्बून मुसक्किन अल आखिर "
212---212------212------22
हमशकल बहर बरामद हुई थी।
(9)- में जिस बहर 22---22---22---22--की चर्चा कर रहे हैं वो बह्र-ए-मुतक़ारिब से बरामद हुआ है और वो भी ’तख़्नीक़’ के अमल से बरामद हुआ है जिसे शम्शुर्रहमान सिद्दिक़ी साहब ने ’मीर की बहर’ के नाम से नवाज़ा है कारण कि मीर तक़ी मीर साहब ने अपनी ग़ज़लों में इस बहर का कसरत से [प्रचुरता से] प्रयोग किया है
(10) -में जिस बहर 22---22---22---22 --की चर्चा कर रहे हैं वो बह्र-ए-मुतदारिक से बरामद हुआ है और वो भी ’तस्कीन’ के अमल से बरामद हुआ है और दोनो बहर ’हम शकल ’ भी हैं
यह उलझन तब और गम्भीर हो जाती है जन इन बहूर की ’मुज़ाअफ़ शकल [16-रुक्नी बहर ] का प्रयोग होता है इन उलझनों में हम भी न पड़ेंगे और न हम चाहेंगे कि हमारे हिन्दीं दां भी पड़े । मात्र बहर और वज़न से ही क्या होगा -शे’र में शे’रियत ,बलाग़त और फ़साहत [ काव्य-सौष्ठव ,काव्य सौन्दर्य ] भी तो होना चाहिए ।
मात्र ग़ज़ल देख कर या इसकी तक़्तीअ कर के ही ऐसी बह्रों को नहीं पहचान सकते है । पहचानने के लिए कुछ clue चाहिये
शुरुआत में देखने में तो ये दोनो बह्रें बड़ी आसान ,सरल और सहज लग रही थी
जैसे मुतक़ारिब में
फ़ऊलुन[122] ----फ़ऊलुन[122] ----फ़ऊलुन[122] ----फ़ऊलुन[122]
या फ़ऊलुन[122] -----फ़ऊलुन[122] ----फ़ऊलुन[122] ---फ़ अल [1 2]
इसकी अन्य सरल मुज़ाहिफ़ बहर में ग़ज़ल या अश’आर कह लिए और लोग करते भी है ।क्या कबाहत है? कौन इनकी पेचींदगी मे जाय।
उसी प्रकार मुतदारिक में
फ़ाइलुन [212]-----फ़ाइलुन [212]-----फ़ाइलुन [212]-----फ़ाइलुन [212]
या फ़ाइलुन [212]-----फ़ाइलुन [212]------फ़ाइलुन [212]----फ़अ [2]
या इसकी अन्य सरल मुज़ाहिफ़ बहर में ग़ज़ल या अश’आर कह लिए और लोग करते भी है ।क्या कबाहत है? कौन इनकी पेचींदगी मे जाए।
और जब उलझने आ गई पेंचीदगी से मुकाबिल हो गए तो सुलझाना ही पड़ेगा।
एक दिलचस्प फ़िल्मी गाना याद आ गया । आप भी लुत्फ़-अन्दोज़ हों
-’ आकाश दीप ’ फ़िल्म का है आप ने भी सुना होगा
https://www.youtube.com/watch?v=Sn2X6_hPvNY
मुझे दर्द-ए-दिल का पता न था ,मुझे आप किस लिए मिल गये
मैं अकेले यूँ ही मज़े में था ,मुझे आप किस लिए मिल गये ?
चले जा रहे था जुदा जुदा ,मुझे आप किस लिए मिल गये ?
कहने का मतलब यह कि---ये अरूज़ और अरूज़ की पेंचीदगियों का पता न था ...मुझे आप क्यूँ यह बता गए ----मैं तो इस से पहले मज़े में था---- गज़ल ’लिखता’ था --फ़ेसबुक 100-50 लोग वाह वाह भी करते थे ---मुझे आप किस लिए सब बता रहे
चलिए ये तो मज़ाक़ की बात हो गई --एक बार फिर अपने मौज़ू पर आते हैं
वो कौन सा clue है जिससे इन बहूर को पहचाना जा सके । कोई बँधा-बँधाया टकसाली ’क्लू’ तो नही है पर कुछ अन्धेरे में तीर तो मारा ही जा सकता है
(क) बहर-ए-मुतदारिक मुसम्मन मक़्तूअ अल आखिर और (ख) बह्र-ए--मुतदारिक मुसम्मन मख़्बून मुसक्किन अल आखिर "
212---212------212------22 212---212-------212-----22
फ़ाइलुन---फ़ाइलुन---फ़ाइलुन--फ़अ लुन फ़ाइलुन---फ़ाइलुन---फ़ाइलुन--फ़अ लुन
कभी कभी सालिम बह्र पर ज़िहाफ़ [मुरक्कब या मुफ़र्द] के अमल से या फिर ’तस्कीन’ और ’तख़नीक़’ के अमल से ऐसे मुज़ाहिफ़ रुक्न बरामद हो जाते है कि मुबहम का बाइस [ भ्रम के कारण] हो जाते हैं
एक बात ध्यान में रखिएगा ---मुतक़ारिब के केस में ’मुज़ाहिफ़ बहर पर तख़्नीक़ का अमल’ होता है [यानी दो-consecutive रुक्न मिला कर -3 मुतहर्रिक एक साथ लगातार [मुतस्सिल] हो
जब कि .मुतदारिक के केस मे---’मुज़ाहिफ़ बह्र पर ’तस्कीन’ का अमल होता है [यानी एक-रुक्न में 3-मुतहर्रिक एक साथ लगातार [मुतस्सिल] हो
मक्तूअ के केस में --22-- सिर्फ़ अरूज़ और जर्ब में ही आ सकता है और हर शे’र में उसी मक़ाम पर आयेगा कारण कि यह एक ख़ास ज़िहाफ़ है जो अरूज़ और जर्ब के लिए ही मख़्सूस है जब कि मख़्बून मुसक्किन के केस में --22-- कहीं भी सकता है इत्तिफ़ाक़न यहाँ अरूज़ और जर्ब के मुक़ाम पर आ गया वरना हो सकता है कि अगले शे’र में या किसी अन्य शे’र में यह सदर या हस्व के मुक़ाम पर आ जाये त्तस्कीन की वज़ह से । आप ग़ल के अन्य अश.आर देख कर स्वय्ं को आश्वस्त कर सकते हैं
ऐसे ही एक स्थिति मुतक़ारिब के केस में हुई थी । पिछले क़िस्त में चर्चा भी किया था
बह्र-ए-मुतक़ारिब पर ज़िहाफ़ और तख़नीक़ के अमल से मुसम्मन वज़न में कई मुतबादिल बहूर में से -एक बहर बरामद हुई थी जिसका वज़न था
[अ] 22---22----22-----22-
और जिसका नाम है---मुतकारिब मुसम्मन असरम मक़्बूज़ सालिम अल आख़िर
और बहर-ए-मुतदारिक पर ज़िहाफ़ और ’तस्कीन; के अमल से मुसम्मन वज़न में कई मुतबादिल बहूर में से-एक बहर बरामद हुई थी जिसका वज़न था
[ब] 22---22---22-----22
और जिसका नाम है---मुतदारिक मुसम्मन मख़्बून मुसक्किन
गुत्थी तब और उलझ जाती है जब ये दोनो रुक्न अपनी अपनी ’मुज़ाअफ़’ [दो-गुनी] शकल में आ जाती है
देखने से दोनो बहरें [अ] और [ब] जुड़वा और हमशकल लग रही है पर इन के नाम जुदा जुदा हैं और बरामद होने के तरीक़े भी अलग है और रास्ते भी अलग है
अत: मात्र -’देख कर ही किसी ’ग़ज़ल’ या शे’र का वज़न नहीं बताया जा सकता है } ज़रूरत भी नहीं है। असल बात तो शे’र की शे’रियत ,ग़ज़ल में गज़लिय्यत फ़साहत और बलाग़त का है ,मुतस्सिर करने की ताक़त का है--नाम में क्या रखा है
आप ऊपर के ---बह्र-ए- मुतदारिक मुसम्मन मक़्तूअ अल आखिर कहें या बह्र-ए-मुतदारिक मुसम्मन मख़्बून मुसक्किन अल आख़िर कहें --क्या फ़र्क़ पड़ता है। आप कह सकते हैं । मगर हाँ -अगर आप अरूज़ जानते हैं और समझते हैं तो कोई ’तथाकथित’ अरूज़ी आप को इस मुद्दे पर घुमा नहीं सकता।
आप ने अब तक इन दोनो बहरों की मुरब्ब:--मुसद्दस---मुसम्मन शक्लें देख चुके हैं और समझ चुके है और उनकी मुज़ाअफ़ [दो-गुनी] शकलें भी जो आसान भी है और इन पर गुज़िस्ताँ अक़सात में तज़्क़िरा भी कर चुके हैं
चलते चलते मुज़ाहिफ़ बहरों की इन्हीं दुशवारियों से बचने के लिए और आप की सुविधा के लिए --हम ’मुतक़ारिब’ और मुतदारिक के उन मक़्बूल मुज़ाहिफ़ बहरों के नाम लिख रहा हूँ जो आसान है दिलकश है और बहुत से शायर इस में शायरी किए हैं और करते है आप भी कर सकते है
[क] मुतक़ारिब की मक़्बूल मुज़ाहिफ़ बहर और वज़न"---
(1) मुतक़ारिब मुसम्मन महज़ूफ़ /मक़्सूर
फ़ऊलुन--फ़ऊलुन---फ़ऊलुन-- फ़ अल/फ़ ऊ ल
122---122---122---12/121
इसकी मुसद्दस शकल भी मुमकिन है
[2] मुतक़ारिब मुसम्मन असलम मक़्बूज़ मुख़्नीक़ सालिम अलअखिर
फ़अ लुन---फ़ऊलुन// फ़अ लुन---फ़ऊलुन
22----------122-// 22-----------122
[3] मुतक़ारिब मुसम्मन असरम मक़्बूज़ सालिम अल आख़िर/मुसबीग़
फ़अ लु---फ़ऊलु----फ़ऊलु---फ़ऊलुन /फ़ऊलान
21---------121-------121---122/1221
इस बहर पर तख़्नीक़ के अमल से 16-मज़ीद वज़न बरामद किए जा सकते हैं
इस की मुज़ाअफ़ वज़न भी मुमकिन है
इन्ही 16-वज़न में से एक वज़न यह भी है
22---22----22-----22-
यानी फ़अ लुन----फ़अ लुन-----फ़अ लुन-----फ़अ लुन
[4] मुतक़ारिब मुसम्मन असरम मक़्बूज़ महज़ूफ़ / मक़्सूर
फ़अ लु---फ़ऊलु----फ़ऊलु---फ़ अल /फ़ऊल
21---------121-------121---12/121
ध्यान दीजियेगा-- अरूज़/जर्ब के मुक़ाम पर [फ़ अल =12= महज़ूफ़ है फ़ऊलुन [122] का
इस वज़न से भी तख़्नीक़ के अमल से 16 -और वज़न प्राप्त किए जा सकते है
इस के मुज़ाअफ़ वज़न भी मुमकिन है
‘[5] मुतकारिब असलम सालिम मुसम्मन मुज़ाहिफ़
[फ़अ लुन--फ़ऊलुन]---[फ़अ लुन--फ़ऊलुन]---[फ़अ लुन--फ़ऊलुन]- [फ़अ लुन--फ़ऊलुन]
] [22-----------122]---[22----------122]----[22-----------122]---[22----------122]
फ़अ लुन [22] ---असलम है फ़ऊलुन [122] का इस बहर में
इसी प्रकार और भी बहुत से मानूस वज़न प्राप्त किए जा सकते है तमाम वज़न का चर्चा करना यहाँ न मक़ासिद [ उद्देश्य] है न मुनासिब[ उचित] है और न ज़रूरत है
[ख] मुतदारिक की मक़्बूल मुज़ाहिफ़ बह्र और वज़न :--
[1] मुतदारिक मुसम्मन मख़्बून
फ़ अ लुन---फ़ अ लुन---फ़ अ लुन---फ़ अ लुन [-ऐन- मुतहर्रिक]
112--------112--------112---------112
[2] मुतदारिक मुसम्मन मख़्बून मुसक्किन
फ़अ लुन---फ़अ लुन---फ़अ लुन---फ़अ लुन [-ऐन-बसकून]
22---------22-----------22------22
[3] मुतदारिक मुमुसद्द्स मख़्बून मुसक्किन
फ़अ लुन---फ़अ लुन---फ़अ लुन---[-ऐन-बसकून]
22---------22----------22
[4] मुतदारिक मुसम्मन महज़ूज़
फ़ इलुन---फ़ इलुन---फ़ इलुन --- फ़ अ [ आखिर का -ऐन- बसकून है]
212-- ---212------212---------2
[5] मुतदारिक मुसम्मन मख़्बून मुअसक्किन महज़ूज़
फ़ अ लुन---फ़ अ लुन---फ़ अ लुन--- फ़ अ [ यहां आखिर का -ऎन- बसकून है]
22------------22--------22-----------2
इसकी मुज़ाअफ़ शकल भी मुमकिन है
[7] मुतदारिक मुसम्मन मख़्बून मुसक्किन मुज़ाअफ़
[फ़अ लुन---फ़ अ लुन]-----[फ़अ लुन---फ़अ लुन] // [फ़अ---फ़ अ लुन]----[फ़अ लुन---फ़अ लुन-]
[22--112] ..-------------------.[22-22]-------// [22-12]--------------------[22-22]
ध्यान देने की बात है फ़अ लुन = 2 2 = यहा -ऐन- साकिन है तभी तो -फ़े-[ मुतहर्रिक] के साथ मिल कर ’सबब-ए-ख़फ़ीफ़ [2] बना रही है और ’लुन’ [2] तो लुन ही है
फ़ अ लुन =[1 1 2]= यहां -ऐन मुतहर्रिक है अत: 1 का वज़न रख रही है और लुन के साथ मिल कर ’वतद -ए-मज़्मुआ ] [ 12 ] [हरकत+हरकत+साकिन] बना रही है
इस के अलावा ऐसे और भी बहुत से वज़न होते है जिसकी चर्चा पिछली बहर में मुनासिब मुक़ाम पर कर चुका हूं} यहाँ पर दुबारा चर्चा करना न मुनासिब है न ज़रूरत है
-----------
खुदा ख़ुदा कर के , बहर-ए-मुतक़ारिब और मुतदारिक [5- हर्फ़ी बह्र] का बयान ख़त्म हुआ
अब अगले किस्त मे सुबाई बहर [7-हर्फ़ी] ’बह्र-ए-हज़ज" की चर्चा करेंगे
मुझे उमीद है कि मुतक़ारिब और मुतदारिक के मुज़ाहिफ़ बहर से बाबस्ता कुछ हद तक मैं अपनी बात कह सका हूँ । बाक़ी आप की टिप्पणी का इन्तज़ार रहेगा
--इस मंच पर और भी कई साहिब-ए-आलिम मौज़ूद हैं उनसे मेरी दस्तबस्ता [ हाथ जोड़ कर] गुज़ारिश है कि अगर कहीं कोई ग़लत बयानी या ग़लत ख़यालबन्दी हो गई हो तो निशान्दिही ज़रूर फ़र्मायें ताकि मैं ख़ुद को दुरुस्त कर सकूं ।बा करम मेरी मज़ीद [अतिरिक्त] रहनुमाई फ़र्माये ।मम्नून-ओ-शुक्रगुज़ार रहूँगा।
अभी नस्र के कुछ बयां और भी हैं..........
ज़िहाफ़ात् के कुछ निशां और भी हैं.....
एक बात बड़े ही अदब से एतराफ़ [स्वीकार] करता हूँ कि इन तमाम अक़्सात ,तज़्क़िरात और तहरीर के लिए अपने आलिम अरूज़ी साहिबान कमाल अहमद सिद्द्क़ी साहब , डा0 शम्सुर्र्हमान फ़ारुक़ी साहब ,आलिम जनाब सरवर आलम राज़ ’सरवर ’ साहब , अजीज दोस्त डा0 आरिफ़ हसन ख़ान साहब का तह-ए-दिल से मम्नून-ओ-शुक्र गुज़ार हूँ जिनकी किताबों से कुछ पढ़ सका ,समझ सका और लिख सका ।वगरना इस हक़ीर इतनी बिसात कहाँ इतनी औक़ात कहां । इन तज़्क़िरात में मेरा कुछ भी अपना नहीं है बस आलिम साहिबान के अरूज़ पर किए गए कामों का हिन्दी तर्जुमा समझिए........
[नोट् :- पिछले अक़सात [क़िस्तों ]के आलेख [ मज़ामीन ]आप मेरे ब्लाग पर भी देख सकते हैं
www.urdu-se-hindi.blogspot.com
or
www.urdusehindi.blogspot.com
-आनन्द.पाठक-
0880092 7181
Discliamer clause -वही जो क़िस्त 1 में है
पिछली क़िस्तों में हम बहर-ए- मुतक़ारिब और मुतदारिक की सालिम ,मुरब्ब: ,मुसद्दस मुसम्मन और इनकी मुमकिनात [संभावित] मुज़ाहिफ़ और मुज़ाइफ़ शकल पर विस्तार से चर्चा कर चुके हैं साथ ही उन पर लगने वाले ’तस्कीन-ए-औसत’ और ’तख़नीक़] का अमल भी देख चुके हैं कि कैसे इन के अमल से अनेकानेक मज़ीद[अतिरिक्त] बहरें बरामद की जा सकती हैं
आज हम इन दोनो बहूर का एक तुलनात्मक अध्ययन करेंगे इसमें क्या क्या समानतायें और क्या क्या विभिन्नतायें हैं
1- दोनो ही बहूर उर्दू में हिन्दी से आयें है यानी हिन्दी के गीतों से हिन्दी छन्द शास्त्र से आयें है
2- इसमे भी बह्र -ए-मुतदारिक बह्र पहले आया और बहर-ए- मुतक़ारिब बाद में आया
3- दोनो बहर ’ख़म्मासी’ बह्र कहलाती है यानी 5-हर्फ़ी बहर हैं [ ख़म्स: माने ही 5-वस्तुओं का समाहार होता है । ये दोनो बह्रें ’एक सबब ’[2 हर्फ़ी] + एक वतद [ 3 हर्फ़ी] से मिल कर बनती है
4- बह्र-मुतक़ारिब का बुनियादी रुक्न है- फ़ऊलुन [12 2] जो वतद + सबब से मिल कर बना है }
यहाँ ’फ़ऊ [12] ---- वतद [3-हर्फ़ी ] है जिसे हम वतद-ए-मज़्मुआ कहते है
और ’लुन’ [2] --------सबब [2-हर्फ़ी [ है जिसे हम सबब-ए-ख़फ़ीफ़ कहते है
5- बह्र-ए-मुतदारिक का बुनियादी रुक्न ---फ़ा इलुन ह[2 12] है जो सबब+ वतद से मिल कर बना है
यहाँ ’फ़ा’ [2]---------सबब [2-हर्फ़ी ] है जिसे हम सबब-ए-ख़फ़ीफ़ कहते है
और ’इलुन’ [ 12] -------वतद [3-हर्फ़ी] है जिसे हम वतद-ए-मज़्मुआ कहते है
हालां कि हम इसे ’लुन फ़ऊ’ [2 12] भी कह सकते थे---वज़न बरक़रार रखते हुए मगर नहीं कहते । अरूज़ियों ने सबब और वतद के लिए कुछ ’कलमा’ पहले से ही तय कर रखें हैं जैसे
सबब-ए-ख़फ़ीफ़ [ 2 ]के लिए -----फ़ा---तुन्---लुन्---ई----मुस् ----तफ़्-
सबब-ए-सकील [1 1] के लिए-----मु त --इ ल--
वतद-ए-मज़्मुआ [12 ] के लिए----फ़ऊ----इलन्----इला---मुफ़ा----
वतद-ए-मफ़रूक़ [2 1] के लिए---लातु ---
हालाँ कि 4/5- हर्फ़ी वज़न के लिए भी कुछ ऐसे ही लफ़्ज़ तय कर रखे गयें है जिसे ’फ़ासिला’ [ फ़ासिला-ए-सग़रा और फ़ासिला-ए-कबरा कहते हैं] } मगर हमने इस इस्तलाह [परिभाषा] को चर्चा में नहीं लिया। कारण कि हमारे अरूज़ का काम सबब [2-हर्फ़] औरवतद[3 हर्फ़] से चल जाता है तो इसकी ज़रूरत ही नहीं पड़ी। हां कुछ अरूज़ी अर्कान को फ़ासिला के इस्तलाह [ परिभाषा ] से भी समझाते है-समझा सकते हैं-आप भी चाहें तो समझ सकते है[
एक सोचने की बात है ----अगर तमाम सबब-ए-ख़फ़ीफ़ के लिए एक कलमा जैसे --फ़ा--ौर वतद -ए-मज़्मुआ के लिए एक कलमा मुफ़ा-- वग़ैरह वग़ैरह ही रहता तो इतने ;ज़ुज’ [टुकड़े] याद रखने की ज़रूरत नहीं पड़ती अर्कान रटने भी ’सहूलियत’ होती । मगर ऐसा नहीं है अरूज़ की किताब में ख़ैर----आप सोचियेगा।
6- ये दोनो बहरें एक ही दायरे [वृत[ से निकल्री हैं जिसका नाम है -दायरा-ए-मुतफ़िका:--।उर्दू अरूज़ में ये दायरे Graphically ऐसे Design किए गये हैं [और उनके अलग अलग नाम भी है ]कि तमाम अर्कान और बहर इस से बरामद हो सकती हैं ।तवालत से बचने के लिए मैने जान बूझ कर इन दायरों पर चर्चा नहीं किया कि ज़रूरत ही नहीं पड़ी । अगर आप और गहराई में जाना चाहतें हैं तो किसी भी ’क्लासिकल’ अरूज़ की किताब में मिल जायेगी।
7- दोनो बह्रें आपस में ’प्रतिबिम्बित’ [mirror image] हैं अत: कभी कभी मुबहम [भ्रम] भी हो जाता है और एक ख़ास बात कि एक का रुक्न से दूसरा रुक्न बरमद किया जा सकता है जैसे ---
[वतद+सबब]----वतद+सबब]-----वतद+सबब]-----वतद+सबब]
मुतक़ारिब --- ----फ़ऊ लुन-------फ़ऊ लुन--------फ़ऊ लुन--------फ़ऊ लुन
122-------- --122-------------122-----------122 = 122---122----122---122
अब इसे बस एक ’स्टेप’ आगे कर दीजिये फिर देखिए--जैसे
[सबब+वतद]---------[सबब+वतद]------[सबब+वतद]-----[सबब+वतद]
लुन फ़ऊ-----.-------लुन फ़ऊ------,---लुन फ़ऊ---------लुन फ़ऊ [जिसे हम ’फ़ा इलुन’ 212 से बदल लेते हैं सुविधा के लिए]
2 12---------------2 12-------------2 12----------2 1 2 = 212---212---212---212 = लीजिए ये तो बहर-ए-मुतदारिक का वज़न आ गया
8- वतद और सबब -- वतद का एक मानी होता है -’खूंटा -और सबब का एक मानी होता है ’रस्सी’। अब आप कहेंगे अरूज़ में --खूँटा और ’रस्सी’ का क्या काम ? जी काम तो कुछ नहीं बस अर्कान समझने में आसानी हो जाती है
खूँटा- गड़ गया सो गड़ गया ,हिलता नही । वतद अपनी जगह ’फ़िक्स’ रहता है
रस्सी --खूँटे से बँध गई तो बँध गई - बस इर्द गिर्द ,आगे/पीछे घूम सकती है । अब आप वतद[3] के खूंटे से एक या दो रस्सी ’सबब’ [2]का बाँध दीजिये
एक ’सबब’[2] बाँधियेगा तो ख़्म्मासी सालिम बहर बरामद होगी जैसे
सबब ------------[वतद] तो मुतदारिक
- [वतद]-------सबब तो मुतक़ारिब
दो सबब [2]बाँधियेगा तो ;सुबाई; [7-हर्फ़ी] सालिम बहर बरामद होगी
[वतद]-----सबब------सबब यानी 12 2 2 =मुफ़ाईलुन ------ --बह्र-ए-हज़ज
सबब----- --[वतद]------सबब यानी 2 12 2 = फ़ाइलातुन---------बह्र-ए-रमल
सबब---सबब-- [वतद] यानी 2 2 1 2 = मुस तफ़ इलुन------ बह्र-ए-रजज़
यहां~ पर सबब और वतद आप के समझने के लिए लिख दिया वगरना ये सब अपने मुकाम पर अपने सही रूप ख़फ़ीफ़... सकील--मज़्मुआ---मफ़रुक़ के मुताबिक़ ही होंगे
वग़ैरह वग़ैरह
9- बहर-ए-मुतक़ारिब में चूँकि ’वतद’ पहले आता है अत: ’ख़रम’ का ज़िहाफ़ लगता है } जब इस ज़िहाफ़ का अमल ’फ़ऊ लुन’ पर होता है तो मुज़ाफ़िह रुक्न को ’अख़रम’ नहीं कहते बल्कि ’असलम’ कहते हैं
और ज़िहाफ़ "सरम और क़ब्ज़’ के अमल से एक मुज़ाहिफ़ बहर बरामद होती है --"मुतक़ारिब मुसम्मन असरम मक़्बूज़ सालिम अल आखिर"[जिसका वज़न होता है
फ़अलु------फ़ ऊलु------फ़ऊलु----फ़ऊलुन--- [यानी -लु- मय हरकत है]
21-----------121---------121------122
इस पर ’तख़्नीक’ के अमल से एक दो नही सैकड़ों वज़न बरामद किए जा सकते है [ पिछले क़िस्त में इस पर चर्चा कर भी चुके है] इसी अमल से अनेकानेक वज़न से एक वज़न यह भी बरामद होती है
फ़अ लुन-------फ़अ लुन-----फ़अ लुन----फ़अ लुन [ -ऐन साकिन -]
22-------------22-------------22--------22 और इस वज़न का नाम होता है---अरे ! नाम तो वही रहेगा बस शकल बदल गई है वज़न भी वही रहेगा क्योंकि यह वज़न ’तख़्नीक़’ के अमल से बरामद किया गया ह
10- बह्र-ए-मुतदारिक में चूँकि ’सबब-ए-ख़फ़ीफ़’ पहले आता है अत: इस पर ;ख़ब्न’ का ज़िहाफ़ लगता है जो आम ज़िहाफ़ है और मुज़ाहिफ़ को मख़्बून कहते हैं और वो बहर है
फ़अलुन-------फ़अलुन-----फ़अलुन----फ़अलुन [यहां -अ- यानी -ऐन मुतहर्रिक है यानी मय हरकत है]
1 1 2-----------1 1 2-------1 1 2----1 1 2 और इस बहर का नाम है --" मुतदारिक मुसम्मन मख़्बून ’---
इस पर ’तस्कीन’ के अमल से कई वज़न बरामद किए जा सकते हैं
जिसमे एक वज़न यह भी बरामद होगा
फ़अ लुन------फ़अ लुन------फ़अ लुन----फ़अ लुन [ यहाँ भी -अ-यानी -ऐन मुतहर्रिक है यानी मय हरकत है]
22----------22-----------22----------22- और इस बहर का नाम है --अरे ! नाम तो वही रहेगा बस शकल बदल गई वज़न भी वही रहेगा कारण कि यह वज़न ’तस्कीन; के अमल से बरामद किया गया है
अब आप (9) और (10) को एक बार ध्यान से देखें --दो हम शकलें बहर बरामद हो गई
ज़ाहिरी तौर पर दो मुख़्तलिफ़ [अलग बहरें] --दो अलग अलग रास्ते से चल कर .....हम शकल बहरें -----पर मक़ाम एक आ गया -यानी -- 22---22---22---22 और गुत्थी उलझ गई
ऐसे ही एक गुत्थी पिछली किस्त में भी उलझ गई थी जब दो बहर
(क) बहर-ए-मुतदारिक मुसम्मन मक़्तूअ अल आखिर
फ़ाइलुन---फ़ाइलुन---फ़ाइलुन--फ़अ लुन
212---212-------212-----22
और
(ख) बह्र-ए--मुतदारिक मुसम्मन मख़्बून मुसक्किन अल आखिर "
212---212------212------22
हमशकल बहर बरामद हुई थी।
(9)- में जिस बहर 22---22---22---22--की चर्चा कर रहे हैं वो बह्र-ए-मुतक़ारिब से बरामद हुआ है और वो भी ’तख़्नीक़’ के अमल से बरामद हुआ है जिसे शम्शुर्रहमान सिद्दिक़ी साहब ने ’मीर की बहर’ के नाम से नवाज़ा है कारण कि मीर तक़ी मीर साहब ने अपनी ग़ज़लों में इस बहर का कसरत से [प्रचुरता से] प्रयोग किया है
(10) -में जिस बहर 22---22---22---22 --की चर्चा कर रहे हैं वो बह्र-ए-मुतदारिक से बरामद हुआ है और वो भी ’तस्कीन’ के अमल से बरामद हुआ है और दोनो बहर ’हम शकल ’ भी हैं
यह उलझन तब और गम्भीर हो जाती है जन इन बहूर की ’मुज़ाअफ़ शकल [16-रुक्नी बहर ] का प्रयोग होता है इन उलझनों में हम भी न पड़ेंगे और न हम चाहेंगे कि हमारे हिन्दीं दां भी पड़े । मात्र बहर और वज़न से ही क्या होगा -शे’र में शे’रियत ,बलाग़त और फ़साहत [ काव्य-सौष्ठव ,काव्य सौन्दर्य ] भी तो होना चाहिए ।
मात्र ग़ज़ल देख कर या इसकी तक़्तीअ कर के ही ऐसी बह्रों को नहीं पहचान सकते है । पहचानने के लिए कुछ clue चाहिये
शुरुआत में देखने में तो ये दोनो बह्रें बड़ी आसान ,सरल और सहज लग रही थी
जैसे मुतक़ारिब में
फ़ऊलुन[122] ----फ़ऊलुन[122] ----फ़ऊलुन[122] ----फ़ऊलुन[122]
या फ़ऊलुन[122] -----फ़ऊलुन[122] ----फ़ऊलुन[122] ---फ़ अल [1 2]
इसकी अन्य सरल मुज़ाहिफ़ बहर में ग़ज़ल या अश’आर कह लिए और लोग करते भी है ।क्या कबाहत है? कौन इनकी पेचींदगी मे जाय।
उसी प्रकार मुतदारिक में
फ़ाइलुन [212]-----फ़ाइलुन [212]-----फ़ाइलुन [212]-----फ़ाइलुन [212]
या फ़ाइलुन [212]-----फ़ाइलुन [212]------फ़ाइलुन [212]----फ़अ [2]
या इसकी अन्य सरल मुज़ाहिफ़ बहर में ग़ज़ल या अश’आर कह लिए और लोग करते भी है ।क्या कबाहत है? कौन इनकी पेचींदगी मे जाए।
और जब उलझने आ गई पेंचीदगी से मुकाबिल हो गए तो सुलझाना ही पड़ेगा।
एक दिलचस्प फ़िल्मी गाना याद आ गया । आप भी लुत्फ़-अन्दोज़ हों
-’ आकाश दीप ’ फ़िल्म का है आप ने भी सुना होगा
https://www.youtube.com/watch?v=Sn2X6_hPvNY
मुझे दर्द-ए-दिल का पता न था ,मुझे आप किस लिए मिल गये
मैं अकेले यूँ ही मज़े में था ,मुझे आप किस लिए मिल गये ?
चले जा रहे था जुदा जुदा ,मुझे आप किस लिए मिल गये ?
कहने का मतलब यह कि---ये अरूज़ और अरूज़ की पेंचीदगियों का पता न था ...मुझे आप क्यूँ यह बता गए ----मैं तो इस से पहले मज़े में था---- गज़ल ’लिखता’ था --फ़ेसबुक 100-50 लोग वाह वाह भी करते थे ---मुझे आप किस लिए सब बता रहे
चलिए ये तो मज़ाक़ की बात हो गई --एक बार फिर अपने मौज़ू पर आते हैं
वो कौन सा clue है जिससे इन बहूर को पहचाना जा सके । कोई बँधा-बँधाया टकसाली ’क्लू’ तो नही है पर कुछ अन्धेरे में तीर तो मारा ही जा सकता है
(क) बहर-ए-मुतदारिक मुसम्मन मक़्तूअ अल आखिर और (ख) बह्र-ए--मुतदारिक मुसम्मन मख़्बून मुसक्किन अल आखिर "
212---212------212------22 212---212-------212-----22
फ़ाइलुन---फ़ाइलुन---फ़ाइलुन--फ़अ लुन फ़ाइलुन---फ़ाइलुन---फ़ाइलुन--फ़अ लुन
कभी कभी सालिम बह्र पर ज़िहाफ़ [मुरक्कब या मुफ़र्द] के अमल से या फिर ’तस्कीन’ और ’तख़नीक़’ के अमल से ऐसे मुज़ाहिफ़ रुक्न बरामद हो जाते है कि मुबहम का बाइस [ भ्रम के कारण] हो जाते हैं
एक बात ध्यान में रखिएगा ---मुतक़ारिब के केस में ’मुज़ाहिफ़ बहर पर तख़्नीक़ का अमल’ होता है [यानी दो-consecutive रुक्न मिला कर -3 मुतहर्रिक एक साथ लगातार [मुतस्सिल] हो
जब कि .मुतदारिक के केस मे---’मुज़ाहिफ़ बह्र पर ’तस्कीन’ का अमल होता है [यानी एक-रुक्न में 3-मुतहर्रिक एक साथ लगातार [मुतस्सिल] हो
मक्तूअ के केस में --22-- सिर्फ़ अरूज़ और जर्ब में ही आ सकता है और हर शे’र में उसी मक़ाम पर आयेगा कारण कि यह एक ख़ास ज़िहाफ़ है जो अरूज़ और जर्ब के लिए ही मख़्सूस है जब कि मख़्बून मुसक्किन के केस में --22-- कहीं भी सकता है इत्तिफ़ाक़न यहाँ अरूज़ और जर्ब के मुक़ाम पर आ गया वरना हो सकता है कि अगले शे’र में या किसी अन्य शे’र में यह सदर या हस्व के मुक़ाम पर आ जाये त्तस्कीन की वज़ह से । आप ग़ल के अन्य अश.आर देख कर स्वय्ं को आश्वस्त कर सकते हैं
ऐसे ही एक स्थिति मुतक़ारिब के केस में हुई थी । पिछले क़िस्त में चर्चा भी किया था
बह्र-ए-मुतक़ारिब पर ज़िहाफ़ और तख़नीक़ के अमल से मुसम्मन वज़न में कई मुतबादिल बहूर में से -एक बहर बरामद हुई थी जिसका वज़न था
[अ] 22---22----22-----22-
और जिसका नाम है---मुतकारिब मुसम्मन असरम मक़्बूज़ सालिम अल आख़िर
और बहर-ए-मुतदारिक पर ज़िहाफ़ और ’तस्कीन; के अमल से मुसम्मन वज़न में कई मुतबादिल बहूर में से-एक बहर बरामद हुई थी जिसका वज़न था
[ब] 22---22---22-----22
और जिसका नाम है---मुतदारिक मुसम्मन मख़्बून मुसक्किन
गुत्थी तब और उलझ जाती है जब ये दोनो रुक्न अपनी अपनी ’मुज़ाअफ़’ [दो-गुनी] शकल में आ जाती है
देखने से दोनो बहरें [अ] और [ब] जुड़वा और हमशकल लग रही है पर इन के नाम जुदा जुदा हैं और बरामद होने के तरीक़े भी अलग है और रास्ते भी अलग है
अत: मात्र -’देख कर ही किसी ’ग़ज़ल’ या शे’र का वज़न नहीं बताया जा सकता है } ज़रूरत भी नहीं है। असल बात तो शे’र की शे’रियत ,ग़ज़ल में गज़लिय्यत फ़साहत और बलाग़त का है ,मुतस्सिर करने की ताक़त का है--नाम में क्या रखा है
आप ऊपर के ---बह्र-ए- मुतदारिक मुसम्मन मक़्तूअ अल आखिर कहें या बह्र-ए-मुतदारिक मुसम्मन मख़्बून मुसक्किन अल आख़िर कहें --क्या फ़र्क़ पड़ता है। आप कह सकते हैं । मगर हाँ -अगर आप अरूज़ जानते हैं और समझते हैं तो कोई ’तथाकथित’ अरूज़ी आप को इस मुद्दे पर घुमा नहीं सकता।
आप ने अब तक इन दोनो बहरों की मुरब्ब:--मुसद्दस---मुसम्मन शक्लें देख चुके हैं और समझ चुके है और उनकी मुज़ाअफ़ [दो-गुनी] शकलें भी जो आसान भी है और इन पर गुज़िस्ताँ अक़सात में तज़्क़िरा भी कर चुके हैं
चलते चलते मुज़ाहिफ़ बहरों की इन्हीं दुशवारियों से बचने के लिए और आप की सुविधा के लिए --हम ’मुतक़ारिब’ और मुतदारिक के उन मक़्बूल मुज़ाहिफ़ बहरों के नाम लिख रहा हूँ जो आसान है दिलकश है और बहुत से शायर इस में शायरी किए हैं और करते है आप भी कर सकते है
[क] मुतक़ारिब की मक़्बूल मुज़ाहिफ़ बहर और वज़न"---
(1) मुतक़ारिब मुसम्मन महज़ूफ़ /मक़्सूर
फ़ऊलुन--फ़ऊलुन---फ़ऊलुन-- फ़ अल/फ़ ऊ ल
122---122---122---12/121
इसकी मुसद्दस शकल भी मुमकिन है
[2] मुतक़ारिब मुसम्मन असलम मक़्बूज़ मुख़्नीक़ सालिम अलअखिर
फ़अ लुन---फ़ऊलुन// फ़अ लुन---फ़ऊलुन
22----------122-// 22-----------122
[3] मुतक़ारिब मुसम्मन असरम मक़्बूज़ सालिम अल आख़िर/मुसबीग़
फ़अ लु---फ़ऊलु----फ़ऊलु---फ़ऊलुन /फ़ऊलान
21---------121-------121---122/1221
इस बहर पर तख़्नीक़ के अमल से 16-मज़ीद वज़न बरामद किए जा सकते हैं
इस की मुज़ाअफ़ वज़न भी मुमकिन है
इन्ही 16-वज़न में से एक वज़न यह भी है
22---22----22-----22-
यानी फ़अ लुन----फ़अ लुन-----फ़अ लुन-----फ़अ लुन
[4] मुतक़ारिब मुसम्मन असरम मक़्बूज़ महज़ूफ़ / मक़्सूर
फ़अ लु---फ़ऊलु----फ़ऊलु---फ़ अल /फ़ऊल
21---------121-------121---12/121
ध्यान दीजियेगा-- अरूज़/जर्ब के मुक़ाम पर [फ़ अल =12= महज़ूफ़ है फ़ऊलुन [122] का
इस वज़न से भी तख़्नीक़ के अमल से 16 -और वज़न प्राप्त किए जा सकते है
इस के मुज़ाअफ़ वज़न भी मुमकिन है
‘[5] मुतकारिब असलम सालिम मुसम्मन मुज़ाहिफ़
[फ़अ लुन--फ़ऊलुन]---[फ़अ लुन--फ़ऊलुन]---[फ़अ लुन--फ़ऊलुन]- [फ़अ लुन--फ़ऊलुन]
] [22-----------122]---[22----------122]----[22-----------122]---[22----------122]
फ़अ लुन [22] ---असलम है फ़ऊलुन [122] का इस बहर में
इसी प्रकार और भी बहुत से मानूस वज़न प्राप्त किए जा सकते है तमाम वज़न का चर्चा करना यहाँ न मक़ासिद [ उद्देश्य] है न मुनासिब[ उचित] है और न ज़रूरत है
[ख] मुतदारिक की मक़्बूल मुज़ाहिफ़ बह्र और वज़न :--
[1] मुतदारिक मुसम्मन मख़्बून
फ़ अ लुन---फ़ अ लुन---फ़ अ लुन---फ़ अ लुन [-ऐन- मुतहर्रिक]
112--------112--------112---------112
[2] मुतदारिक मुसम्मन मख़्बून मुसक्किन
फ़अ लुन---फ़अ लुन---फ़अ लुन---फ़अ लुन [-ऐन-बसकून]
22---------22-----------22------22
[3] मुतदारिक मुमुसद्द्स मख़्बून मुसक्किन
फ़अ लुन---फ़अ लुन---फ़अ लुन---[-ऐन-बसकून]
22---------22----------22
[4] मुतदारिक मुसम्मन महज़ूज़
फ़ इलुन---फ़ इलुन---फ़ इलुन --- फ़ अ [ आखिर का -ऐन- बसकून है]
212-- ---212------212---------2
[5] मुतदारिक मुसम्मन मख़्बून मुअसक्किन महज़ूज़
फ़ अ लुन---फ़ अ लुन---फ़ अ लुन--- फ़ अ [ यहां आखिर का -ऎन- बसकून है]
22------------22--------22-----------2
इसकी मुज़ाअफ़ शकल भी मुमकिन है
[7] मुतदारिक मुसम्मन मख़्बून मुसक्किन मुज़ाअफ़
[फ़अ लुन---फ़ अ लुन]-----[फ़अ लुन---फ़अ लुन] // [फ़अ---फ़ अ लुन]----[फ़अ लुन---फ़अ लुन-]
[22--112] ..-------------------.[22-22]-------// [22-12]--------------------[22-22]
ध्यान देने की बात है फ़अ लुन = 2 2 = यहा -ऐन- साकिन है तभी तो -फ़े-[ मुतहर्रिक] के साथ मिल कर ’सबब-ए-ख़फ़ीफ़ [2] बना रही है और ’लुन’ [2] तो लुन ही है
फ़ अ लुन =[1 1 2]= यहां -ऐन मुतहर्रिक है अत: 1 का वज़न रख रही है और लुन के साथ मिल कर ’वतद -ए-मज़्मुआ ] [ 12 ] [हरकत+हरकत+साकिन] बना रही है
इस के अलावा ऐसे और भी बहुत से वज़न होते है जिसकी चर्चा पिछली बहर में मुनासिब मुक़ाम पर कर चुका हूं} यहाँ पर दुबारा चर्चा करना न मुनासिब है न ज़रूरत है
-----------
खुदा ख़ुदा कर के , बहर-ए-मुतक़ारिब और मुतदारिक [5- हर्फ़ी बह्र] का बयान ख़त्म हुआ
अब अगले किस्त मे सुबाई बहर [7-हर्फ़ी] ’बह्र-ए-हज़ज" की चर्चा करेंगे
मुझे उमीद है कि मुतक़ारिब और मुतदारिक के मुज़ाहिफ़ बहर से बाबस्ता कुछ हद तक मैं अपनी बात कह सका हूँ । बाक़ी आप की टिप्पणी का इन्तज़ार रहेगा
--इस मंच पर और भी कई साहिब-ए-आलिम मौज़ूद हैं उनसे मेरी दस्तबस्ता [ हाथ जोड़ कर] गुज़ारिश है कि अगर कहीं कोई ग़लत बयानी या ग़लत ख़यालबन्दी हो गई हो तो निशान्दिही ज़रूर फ़र्मायें ताकि मैं ख़ुद को दुरुस्त कर सकूं ।बा करम मेरी मज़ीद [अतिरिक्त] रहनुमाई फ़र्माये ।मम्नून-ओ-शुक्रगुज़ार रहूँगा।
अभी नस्र के कुछ बयां और भी हैं..........
ज़िहाफ़ात् के कुछ निशां और भी हैं.....
एक बात बड़े ही अदब से एतराफ़ [स्वीकार] करता हूँ कि इन तमाम अक़्सात ,तज़्क़िरात और तहरीर के लिए अपने आलिम अरूज़ी साहिबान कमाल अहमद सिद्द्क़ी साहब , डा0 शम्सुर्र्हमान फ़ारुक़ी साहब ,आलिम जनाब सरवर आलम राज़ ’सरवर ’ साहब , अजीज दोस्त डा0 आरिफ़ हसन ख़ान साहब का तह-ए-दिल से मम्नून-ओ-शुक्र गुज़ार हूँ जिनकी किताबों से कुछ पढ़ सका ,समझ सका और लिख सका ।वगरना इस हक़ीर इतनी बिसात कहाँ इतनी औक़ात कहां । इन तज़्क़िरात में मेरा कुछ भी अपना नहीं है बस आलिम साहिबान के अरूज़ पर किए गए कामों का हिन्दी तर्जुमा समझिए........
[नोट् :- पिछले अक़सात [क़िस्तों ]के आलेख [ मज़ामीन ]आप मेरे ब्लाग पर भी देख सकते हैं
www.urdu-se-hindi.blogspot.com
or
www.urdusehindi.blogspot.com
-आनन्द.पाठक-
0880092 7181
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें