गुरुवार, 4 फ़रवरी 2010

ग़ज़ल 009 : जब नाम तेरा सूझे--

ग़ज़ल ०९


जब नाम तिरा सूझे ,जब ध्यान तिरा आवे
इक ग़म तिरे मजनू की ज़ंजीर हिला जावे !

सब की तो सुनूँ लोहू ये आँख न टपकावे
कीधर से कोई ऐसा दिल और जिगर लावे !

जी को न लगाना तुम ,इक आन किसू से भी
सब हुस्न के धोखे हैं ,सब इश्क़ के बहलावे !

ख़ुद अपना नाविश्ता है ,क्या दोष किसू को दें
यह दिल प-ए-शुनवाई जावे तो कहाँ जावे ?

टुक देख मिरी जानिब बेहाल हूँ गुर्बत में
दीवार ! सो लरज़ाँ है साया ! सो है कतरावे !

दुनिया-ए-दनी में कब होता है कोई अपना
बहलावे से बहलावे , दिखलावे से दिखलावे !

देखो तो ज़रा उसके अन्दाज़-ए-ख़ुदावन्दी
ख़ुद बात बिगाड़े है ,ख़ुद ही मुझे झुठलावे !

सद हैफ़ तुझे ’सरवर’ अब इश्क़ की सूझी है
हर बन्दा-ए-ईमां जब काबे की तरफ जावे

-सरवर-
नविश्त: = भाग्य में लिखा
सद हैफ़ = हाय भोले-भाले !
पा-ए-शुनवाई= अपनी बात सुनाने कि लिये

-सरवर-

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