शनिवार, 26 दिसंबर 2009

ग़ज़ल 001 : मंज़िल-ए-दर्द से गुज़र आए

ग़ज़ल 001


मंज़िले-दर्द से गुज़र आए
आज अपने किए को भर आए !

था क़ियामत निगाह का मिलना
आँख से दिल में वह उतर आए !

आज याद आई उसकी यूँ जैसे
सुबह का भूला शाम घर आए !

ना-तवानी से ना-तवानी है
ग़म उठाते हुए भी डर आए !

हम अगर काम से गये तो क्या ?
आप तो अपना काम कर आए !

कैसे दुनिया से ग़म छुपाएँ जब
दिल उमँद आए , आँख भर आए !

हमने माना कि कुछ नहीं हासिल
क्या करें कोई याद अगर आए ?

आरज़ू है कि आरज़ू न रहे
चाहे फ़िर और कुछ न बर आए !

पहले जिस आरज़ू में जीते थे
आज उसी आरज़ू में मर आए !

अश्क़े-ग़म पी तो लूँ मगर हमदम
चैन ही इस तरह अगर आए !

दिल दुखे और आँख खु़श्क रहे
आए तो कैसे ये हुनर आए ?

मेरे आँसू ग़रीब के आँसू
इनमें फिर किस तरह असर आए ?

बाज़ आ अब भी इश्क़ से ’सरवर’
कितने इल्ज़ाम तेरे सर आए !

--सरवर--
नातवानी=कमजोरी

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