ग़ज़ल 032 : ज़माना एक जालिम है ....
ज़माना एक ज़ालिम है किसी का हो नहीं सकता
किसी का ज़िक्र क्या यह ख़ुद ही अपना हो नही सकता
यह है मोजिज़-नुमायी उसकी या है हुस्न-ए-ज़न मेरा?
"कि उसका हो के फिर कोई किसी का हो नहीं सकता"
नज़र तो फ़िर नज़र है ढूँढ लेगी लाख पर्दों में
छुपो तुम लाख लेकिन ख़ुद से पर्दा हो नहीं सकता
मक़ाम-ए-नाउम्मीदी ज़ीस्त का उन्वान क्यों ठहरे?
मुहब्बत में जो तुम चाहो तो क्या क्या हो नहीं सकता
उधर वो नाज़ कि "देखे हैं तुम से लाख दीवाने !"
इधर ये ज़ोम कि कोई भी हम सा हो नहीं सकता!
कहाँ यह उम्र-ए-दो-रोज़ा कहाँ दुनिया की आवेज़िश
हुआ अब तक मगर अब यूँ गुज़ारा हो नहीं सकता
मुहब्बत और शै है ,दिल सितानी और ही शै है
तकल्लुफ़ बर-तरफ़! अब यह गवारा हो नहीं सकता
कोई अच्छा कहे "सरवर" तुझे या वो बुरा जाने
नज़र में ख़ुद की जो है उस से अच्छा हो नहीं सकता
-सरवर-
मोजि़ज़-नुमाई =चमत्कार
हुस्न-ए-ज़न =खु़श ख़याली
ज़ोम =गुमान
दुनिया की आवेज़िश =दुनिया की झंझटें
दिल सितानी =दिल को बहलाना
तकल्लुफ़ बर-तरफ़! = तकल्लुफ़ छोड़िए !
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आपके यहाँ आकर अच्छा लगा।
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