सोमवार, 4 फ़रवरी 2013

उर्दू बह्र पर एक बातचीत -7 बह्र-ए-कामिल


उर्दू बह्र पर एक बातचीत -7
बह्र-ए-कामिल [1 1 2 1 2]

[Disclaimer clause : -वही -[भाग -1 का]

[ अब तक ’बह्र-ए-मुतक़ारिब’, बह्र-ए-मुत्दारिक, बह्र-ए-हज़ज , बह्र-ए-रमल और बह्र-ए-रजज़ ,बह्र-ए-वाफ़िर [6-बह्र] पर बातचीत कर चुका हूं और बात स्पष्ट करने के लिए उन की कुछ मिसालें भी पेश कर चुका हूँ । अब बात आगे बढ़ाते हुए 7-वीं बह्र बह्र-ए-कामिल पर बातचीत करते हैं......]

पिछले मज़्मून (आलेख) में ’बह्र-ए-वाफ़िर’ पर चर्चा कर चुका हूं.आज ’बह्र-ए-कामिल’की चर्चा करूंगा। ये दोनो बह्रें अरबी है और अरबी शायरी में काफी मक़्बूल और मानूस हैं ,जो उर्दू में भी राईज़ (प्रचलित) हैं’ ’बह्र-ए-कामिल’ का बुनियादी रुक्न है--मुत फ़ा इलुन् ’ जिसका वज़न है [ 1 1 2 1 2 ] .यह रुक्न भी सालिम रुक्न की हैसियत रखता है और यह भी एक सुबाई (7-हर्फ़ी) रुक्न है । उर्दू में यह बड़ी ही आहंगख़ेज़ [लयपूर्ण] बहर है काफी लोकप्रिय भी है ।
 बक़ौल डा0 कुँअर बेचैन ....."’
’कामिल’ शब्द भी अरबी का है । इसके अर्थ हैं-पूरा,समूचा,दक्ष ,निपुण ,चमत्कारी, साधु,फ़कीर। इन सभी शब्दों में निपुण शब्द अच्छा लगा अत: इसी अर्थ के आधार पर इस का नाम ’निपुणिका छंद’ रख रहे हैं ...."
डा0 साहब का उर्दू के बह्रों को हिन्दी नाम देना और हिन्दी के दशाक्षरी "य मा ता रा ज भा न स ल गा" के सूत्र से इन बह्रों को समझना और समझाना  आप का मौलिक प्रयास है।

आप ने  इस बह्र की भी व्याख्या त्रिकल अक्षर(वतद ) और एकल अक्षर (1-हर्फ़ी) से की है जैसे    + 1 एकल (1-हर्फ़ी) +1 वतद(3-हर्फ़ी लफ़्ज़) + 1 वतद (3-हर्फ़ी)  =7 हर्फ़ी रुक्न से की है
 उदाहरण के लिए उन्होने एक शे’र नीचे दिया है (उनकी किताब : ग़ज़ल का व्याकरण से साभार)[नोट:- डा0 साहब ने यह स्पष्ट कर दिया है  कि यह शे’र सिर्फ़ समझाने की गरज़ से कहा गया है इस में आप शे’रियत न देखें]
  न तुझे मिले ,न मुझे मिले
किसी याद के नए क़ाफ़िले

यह बह्र-ए-कामिल मुरब्ब: सालिम का एक उदाहरण है -कारण कि रुक्न [1 2 1 1 2] शे’र में 4 बार [यानी मिसरा में 2-बार] आया है
अब इसकी तक़्तीअ कर के भी देख लेते हैं
1 1 2 1 2 / 1 1 2 1 2
न तुझे मिले ,न मुझे मिले
किसी याद के नए क़ाफ़िले

हालांकि डा0 साहब ने इस की तक़्तीअ यूँ की है
1 +12  + 12  / 1+ 12  + 12
न +तुझे+ मिले /,न +मुझे +मिले
कि+सी या+द के /न+ए क़ा+फ़िले

जो कि सही प्रतीत नहीं होता है
बात वहीं पे आ कर अटक गई। जो ’बह्र-ए-वाफ़िर’ के सिल्सिले पे अटकी थी। [देखिए पिछली क़िस्त-6]
क्योंकि उर्दू की क्लासिकल अरूज़ की किताब में इसे या तो ’वतद’[3-हर्फ़ी] लफ़्ज़  और ’फ़ासिला’[4-हर्फ़ी] लफ़्ज़ = 7 हर्फ़ी रुक्न से समझाया गया है या तो फिर 1-वतद[3] +1-सबब[2] +1 सबब[2] = 7 हर्फ़ी से।
इस लिए ’बेचैन’ जी की तज़्वीज़-ए-तक़्तीअ  उचित प्रतीत नहीं हो रही है कारण कि 1-हर्फ़ से कोई रुक्न नहीं बनता ।यहाँ तक कि अगर सालिम रुक्न पे ज़िहाफ़ भी लगाते है तो न्यूनतम (सबसे छोटा से छोटा जुज़ (टुकड़ा) भी 2 हर्फ़ी ही रहता है। 1-हर्फ़ी नहीं होता।

एक बात और
’बेचैन’ जी के तज़्वीज़ के तरकीब में मुत फ़ा इलुन् को’ ’मु तफ़ा इलुन ’के वज़न पे लिया है जिसमे ’सबब’[ न सबब-ए-ख़फ़ीफ़ और न ही सबब-ए-सक़ील ही दिखाई दे रहा है जो ज़ाइज़ प्रतीत नहीं हो रहा है ]

यह बह्र  ’वतद’[3-हर्फ़ी कलमा] और ’फ़ासिला [4 हर्फ़ी कलमा] से बना है मगर कुछ अरूज़ी इसे वतद और सबब से भी बना कर बताते हैं। चूँकि हम ने अभी तक ’फ़ासिला’ की इस्तिलाह (परिभाषा)  नहीं बयान की है तो अभी करेंगे भी नहीं । सिर्फ़ ’वतद’ और ’सबब’ के इश्तिराक (योग) से ही इस की भी व्याख्या करेंगे । आखिर ’फ़ासिला’ [4-हर्फ़ी कलमा] भी =  ’सबब[2] + सबब[2] से भी दिखाया जा सकता है

पिछले अक़्सात (किस्तों में ) में मैने कहा था कि सबब के 2- भेद होते है । चलिए एक बार फिर दुहरा देते हैं
 सबब-ए-ख़फ़ीफ़
 सबब-ए-सक़ील

 सबब-ए-ख़फ़ीफ़ = वो 2-हर्फ़ी कलमा जिसमे पहले हर्फ़ पर ’हरकत’ हो और दूसरा हर्फ़ ’साकिन’ हो
 हिन्दी में ’साकिन’ का कन्स्पेट तो नही हैं फ़िलवक़्त ’साकिन’ हर्फ़ समझने के  लिए आप संस्कृत का ’हलन्त’ का तसव्वुर करे
 जैसे ’तुन्’ ’लुन्’ मुस्’ तफ़्’...यह् सब ’सबब-ए-ख़फ़ीफ़’ है जिसका वज़न [2] होता है जिसमें पहले हर्फ़ तु’..’ल’...’मु’ ...त’पर हरकत है जब कि ’न्’ ’स्’ फ़्’ हर्फ़ साकिन है

सबब-ए-सक़ील  = वो 2-हर्फ़ी कलमा जिसमे दोनो हर्फ़ पर हरकत हो इसका भी वज़न 2 होता है मगर इसे दिखाते है [1 1] की शकल में , अगर आप दोनो हर्फ़ पर बराबर वज़न से बोल रहे होते है तब
उर्दू में तो दोनों सबब साफ़ ज़ाहिर हो जाते है हिन्दी में इन दोनो सबब का अन्तर बहुत बारीक़ है कारण कि
उदाहरण के लिए हम हिन्दी के 2 शब्द  ’बात’ और ’रात’  तथा ’अकस्मात्’ या ’तत्पश्चात्’ लेते हैं । बात और रात के ’त’ पे हरकत (ज़बर की हरकत ) है मगर ’त्’ साकिन है मगर आज कल हिन्दी में अकस्मात् और तत्पश्चात् भी ’अकस्मात और तत्पश्चात’ ही लिखा जा रहा है । और यही बात श्रीमन् के साथ भी है

यह रुक्न भी बनती है ’सबब’ और ’वतद ’ के इश्तिराक (साझे) से

चलिए अब, मुत फ़ा इलुन् ’ रुक्न कैसे बनती है, देखते हैं
  मुत फ़ा इलुन् =  सबब-ए-सक़ील + सबब-ए-ख़फ़ीफ़ + वतद
      [1 1 2 1 2  ] =  [ 1 1 ]   + [  2 ]  + [ 1 2]
                = 1 1 2 1 2
एक बात पर आप ग़ौर फ़र्माये.....
 अगर आप ने ’बह्र-ए-वाफ़िर’ [ 1 2 1 1 2 ] पर ग़ौर फ़र्मायेंगे तो देखेंगे कि वहां ’वतद’ [1 2]आगे था जब कि कामिल में पीछे आकर बह्र का आहंग बना रहा है । आप को नहीं लगता है कि ’बह्र-ए-कामिल’ ,’बह्र-ए-वाफ़िर ’का बरअक़्स [mirror image] है?

ख़ैर..
अब इस बह्र की भी वही परिभाषा है जो अन्य बहूर की है

जैसे (सभी मिसाल ’आहंग और अरूज़’-कमाल अहमद सिद्दीक़ी साहब कि किताब से आभार सहित }
बह्र-ए-कामिल मुरब्ब: सालिम : अगर किसी शे’र मे सालिम रुक्न ’मु त फ़ा इलुन् ’[ 1 1 2 1 2]  4-बार [यानी मिसरा में 2 बार] आये तो उस शे’र की बह्र होगी ’बह्र-ए-कामिल मुरब्ब: सालिम’ । सालिम इस लिए कि रुक्न ’मु त फ़ा इलुन् ’ बिना किसी रद्द-ओ-बदल,बिना किसी तब्दील के पूरा का पूरा सालिम(मुसल्लम ) शकल में तकरार पा रही है
एक मिसाल लेते है

न है कोई मेरा शरीके-ग़म
न किसी से मुझ को उमीद है

अब इसकी तक़्तीअ भी कर लेते हैं
1 1  2 1 2 / 1 1 2 1 2
न है कोई मे/ रा शरीक-ग़म
न किसी से मुझ/ को उमीद है

बात वही कि ’है’ ’ई’ ’से’ को -देखने में तो 2-वज़न का लगता है मगर तलफ़्फ़ुज़ अदायगी 1-वज़न पर होगी
बह्र-ए-कामिल मुसद्दस सालिम : अगर किसी शे’र में यह सालिम रुक्न’ ’मु त फ़ा इलुन् ’[ 1 1 2 1 2] 6-बार [यानी मिसरा में 3 बार] की तकरार [repetition]  हो तो उस शे’र की बह्र होगी ’ बह्र-ए-कामिल मुसद्दस सालिम’
एक मिसाल लेते हैं

न वो नख्ल ,फूल न फल ,चमन ही कहां रहा
तो चमन से बादे-बहार आई तो  क्या ख़ुशी

बात साफ़ करने के लिए इस की भी तक़्तीअ कर लेते हैं

1  1    2  1    2     / 1 1    2    1  2        / 1 1  2 1 2
न वो नख्ल ,फू /ल न फल,च मन /ही कहां रहा
तो चमन से बा/दे-बहार आ/ई तो  क्या ख़ुशी

बह्र-ए-कामिल मुसम्मन सालिम : अगर किसी शे’र में यह सालिम रुक्न [मुत फ़ा इलुन् ][ 1 1 2 1 2 ] 8-बार [यानी मिसरा में 4-बार] आये तो उस शे’र की बह्र होगी ’बह्र-ए-कामिल मुसम्मन सालिम’।
एक मिसाल लेते है
अल्लामा इक़बाल की एक बहुत ही उम्दा और आला मर्तबा की एक ग़ज़ल है..[यहां चन्द अश’आर ही लिख रहा हूं] इस गज़ल की आहंग /लय/गति देखे और दिल में इसकी ख़लिश महसूस करें इसकी मयार (स्तर) देखें

कभी ऎ हक़ीकते-मुन्तज़िर ,नज़र आ लिबासे-मजाज़ में
कि हज़ारों सिज़दे तड़प रहे हैं ,मेरी इक जबीने-नियाज़ में

तू बचा बचा के न रख इसे ,तेरा आईना है वो आईना
कि शिकस्ता हो तो अज़ीजतर ,है निगाहे-आईनासाज़ में

जो मैं सर-ब-सिज़दा हुआ कभी ,तो ज़मीं से आने लगी सदा
तिरा दिल तो है सनम-आश्ना ,तुझे क्या मिलेगा नमाज़ में
सारे अश’आर बहर-ए-कामिल मुसम्मन सालिम मे है ,मैं ’मत्ला’ की तक़्तीअ कर रहा हूँ ,बाक़ी की आप करें तो बेहतर होगा
1 1  2 1 2 /1 1  2  1  2  / 1 1  2 1 2   /1 1 2 1 2
कभ ऎ हक़ी/ कत-मुन् त ज़िर/ ,नज़र आ लिबा /से-मजाज़ में
कि हज़ारो सिज़/दे तड़प रहे/ हैं ,मेरी इक जबी/ने-नियाज़ में

वैसे तो इस बह्र की और सालिम शक्ल 16 रुक्नी [मिसरा में 8-बार] हो सकती है मगर शायर अमूमन मुरब्ब:---मुसद्दस...मुसम्मन की शक्ल में ज़्यादातर अपनी शायरी करते है । बात तो शे’र की शे’रियत और ग़ज़ल की तग़ज़्ज़ुल-ओ-तख़य्युल  [बलागत-ओ-लताफ़त] में है।

इस बह्र के मुज़ाहिफ़ शक्ल की बात बाद में करेंगे जब रुक्न पे ’ज़िहाफ़’ की बातचीत करेंगे
अहबाब-ए-महफ़िल (मंच के दोस्तों से) गुज़ारिश है कि इस बह्र की 16 रुक्नी सालिम शकल अगर आप की नज़र से कोई ग़ज़ल गुज़रती है तो बराए मेहरबानी इस मंच पर लगायें ताकि दीगर कारीं इस से मुस्तफ़ीद हो सकें
आप सभी कारीं (पाठकों) से दस्तबस्ता गुज़ारिश है कि अपनी रहनुमाई से हमें आगाह करें
-आनन्द.पाठक
09413395592

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