मंगलवार, 6 मई 2014

क़िस्त 003 : चन्द माहिए : डा0 आरिफ़ हसन ख़ान के

तू माँग के देख ज़रा
तेरी ख़ुशी के लिए
मैं जान भी दे दूँगा
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12
ये तो नहीं सोचा था
खो देंगे तुझ को
जब तुझ को चाहा था
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13
फेरी जो नज़र तू ने
आँख झपकते ही
सब मंज़र थे सूने
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14
आँधी हूँ ,बगूला हूँ
तुझ से बिछड़ कर मैं
ख़ुद आप को भूला हूँ
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15
शायद कोई पत्थर हूँ
ज़िन्दा जो अब तक
मैं तुझ से बिछड़ कर हूँ

2 टिप्‍पणियां:

  1. उम्दा डॉ साहब मुझमें उर्दू की तोफिक कम है,पर ग़ज़ल क्योकि आम हो रही है उसके व्याकरण के लिए दरबदर होने से बच गई जानकारी साँझा करने के लिए शुक्रिया

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  2. उम्दा डॉ साहब मुझमें उर्दू की तोफिक कम है,पर ग़ज़ल क्योकि आम हो रही है उसके व्याकरण के लिए दरबदर होने से बच गई जानकारी साँझा करने के लिए शुक्रिया

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