उर्दू बह्र पर एक बातचीत : क़िस्त 12 [ज़िहाफ़ात]
[Disclaimer Clause : वही जो क़िस्त 1 में है]
पिछली क़िस्त 11- में उर्दू शायरी में ज़िहाफ़ात की एक लम्बी सूची लगाई थी जिसमे 2 कम 50 ज़िहाफ़ के नाम थे। पर ज़िहाफ़ की लम्बी-चौड़ी सूची देख कर आप घबराइए नहीं- न इतने ज़िहाफ़ आप को याद करने हैं और न इतने ज़िहाफ़ के प्रयोग करने की आप को ज़रूरत ही पड़ेगी । आप जानते हैं कि उर्दू शायरी में 19-बह्र प्रचलित है और कोई भी शायर इन तमाम बहूर में न तो शायरी ही करता और न ही सारे ज़िहाफ़ात का प्रयोग करता । वो तो कुछ चुनिन्दा और मक़्बूल बहरों में ही शायरी करता है और कुछ गिने चुने ज़िहाफ़ का ही प्रयोग करता है ।
एक बात और। इन 48 ज़िहाफ़ात में 1-से लेकर 11 तक ज़िहाफ़ तो ऐसे हैं कि जो अरबी बह्र, बह्र-ए-कामिल और बह्र-ए-वाफ़िर में ही प्रयोग होते है । बह्र-ए-कामिल तो खुद में ऐसी दिलकश बह्र है कि इसमें भी 2-3 ज़िहाफ़ से ज़्यादा की ज़रूरत ही नहीं पड़ती । बह्र-ए-वाफ़िर उर्दू शायरी में कोई मानूस[दिलकश] बह्र नहीं मानी जाती है और शायर लोग इसमें न के बराबर ही शायरी करते है और किया भी होगा तो आँटे में नमक के बराबर ।बह्र-ए-वाफ़िर की कोई ख़ास ग़ज़ल नज़र से गुज़री नहीं । हां यदि आप बह्र-ए-वाफ़िर में प्रयोग के तौर पर ग़ज़ल कहना चाहें तो अलग बात है।आसमान खुला है।
1- कुछ ज़िहाफ़ ऐसे भी है जिनका तरीक़ा-ए-अमल [प्रयोग विधि] विभिन्न अरकान पर तो एक जैसा होता है .मगर भिन्न भिन्न बह्र में इसका नाम अलग अलग होता है जैसे ’खरम’। अगर कोई रुक्न ’वतद-ए-मज्मुआ’[हरकत+हरकत+साकिन] से शुरु होता है[[ बज़ाहिर पहला हर्फ़ मुत्तहर्रिक ही होगा तो इस के पहले ’मुत्तहर्रिक को गिराने] का अमल ’ख़रम’ कहलाता है’। अब आप जानते है कि ऐसे 3 सालिम रुक्न हैं जो ’वतद-ए-मज्मुआ’ से शुरु होते है
’फ़े ऊ लुन ---- मफ़ा ई लुन ----- मफ़ा इ ल तुन [क्रमश: फ़े ऊ......मफ़ा.....मफ़ा...वतद-ए-मज्मुआ है .] पहला हर्फ़ ’मुत्तहर्रिक’ है इनके गिराने का अमल ’ख़रम’ कहलाता है मगर तीनो रुक्न में ज़िहाफ़ का नाम अलग-अलग होता है
”फ़ेऊलुन’ के case में इस ज़िहाफ़ को ’सलम [मुज़ाहिफ़ का नाम ’अस्लम] कहते हैं ....। मफ़ाईलुन के केस में इस ज़िहाफ़ को ’खरम’ [मुज़ाहिफ़ का नाम अखरम ] कहते हैं । जब कि ’मफ़ा इ ल तुन’ के केस में इस ज़िहाफ़ को ’अज़ब’ [मुज़ाहिफ़ का नाम अयज़ब ] कहते हैं अगरचे तीनो सालिम रुक्न पर एक ही अमल किया गया जिसे ’खरम’ करना ही कहते है । है न अज़ब बात !
[ वतद-ए-मज्मुआ की परिभाषा ]--क़िस्त 11 में दी जा चुकी है]
2- पिछली क़िस्त [क़िस्त11] में 48 ज़िहाफ़ात की एक सूची लगाई थी जिसमें दोनों क़िस्म के ज़िहाफ़ थे---मुफ़र्द ज़िहाफ़[एकल ज़िहाफ़] और मुरक़्क़ब ज़िहाफ़[मिश्रित ज़िहाफ़]
मुफ़र्द ज़िहाफ़ [एकल ज़िहाफ़] वह ज़िहाफ़ हैं जो सालिम रुक्न में किसी अवयव[टुकड़ा][यानी वतद. या सबब] पर ’अकेले ही और independently और एक ही बार " अमल करते हैं और फिर वो सालिम रुक्न ’मुज़ाहिफ़ नाम अख़्तियार कर लेती है यहां पर पाठकों की सुविधा के लिए कु ’मुफ़र्द ज़िहाफ़’ के नाम लिख रहा हूँ[
खब्न....तय्य.....क़ब्ज़....कफ़्फ़.....क़स्र....हज़्फ़......रफ़अ .....जद्अ.....जब्ब......हत्म......तस्बीग़......अज़्मार......अस्ब......वक़्स......अक्ल......ख़रम....सलम.....अज़ब.....क़तअ....अर्ज....हज़ज़.....तम्स...बतर.....इज़ाला......तरफ़ील...वक़्फ़.....कस्फ़....सलम.....[28 ]
साथ ही साथ इनके मुज़ाहिफ़ नाम पहले भी लिख चुका हूं~ एक बार फिर क्रमश: लिख रहा हूँ
मख़्बून......मुत्तवी......मक़्बूज़......मकूफ़......मक़्सूर......महज़ूफ़......मरफ़ूअ......मज्दूअ......मज्बूब......अहत्म......मुस्बीग़....मुज़्मर.....मौसूब......मौक़ूस......मौक़ूल......अख़रम...असलम.....अज़ब......मक़्तूअ......अरज...अहज़.....मत्मूस .....अबतर......मज़ाल.....मरफ़ल.. ...मौवक़ूफ़... मक्सूफ़......असलम [28]
ये तो ज़ाहिर है कि इतने ज़िहाफ़ किसी एक रुक्न पर नहीं लगते। हर ज़िहाफ़ का तरीक़ा-ए-अमल मुख़्तलिफ़ है जो मुख़्तलिफ़ रुक्न पर ही लगते है और वो भी या तो रुक्न के सबब पर लगेगे या वतद पर लगेगे ।ये ज़िहाफ़ सालिम अर्कान पर कैसे अमल करते हैं ,आगे पेश करुँगा
3- कुछ ज़िहाफ़ मुरक़्क़ब [ मिश्रित] होते हैं जो 2-या दो से अधिक ज़िहाफ़ से मिल कर बनते हैं और ये मुरक़्क़ब ज़िहाफ़ सालिम रुक्न के अलग अलग टुकड़ों पर[सबब या वतद] एक साथ लगते है ।
मुरक्क़ब ज़िहाफ़ [मिश्रित ज़िहाफ़ -दो ज़िहाफ़ एक साथ ] वो ज़िहाफ़ होते हैं जो सालिम रुक्न के अवयव[टुकड़े./ज़ुज़ यानी वतद सबब] एक साथ independently & concurrently पर अलग अलग लगते है ।यह नहीं कि किसी टुकड़े पर एक ज़िहाफ़ लगा दिया और जो मुज़ाहिफ़ शकल बरामद हुई उस मुज़ाहिफ़ पर दूसरे ज़िहाफ़ का अमल कर दिया ।नहीं । यह अरूज़ की बुनियादी असूल के खिलाफ़ है ।इन के तरीक़ा-ए-अमल बाद में पेश करुँगा। यहां~ पर पाठकों की सुविधा के लिए कुछ ’मुरक़्कब ज़िहाफ़’ और उनके ’मुज़ाहिफ़ ’का नाम लिख रहा हूँ
मुरक़्क़ब ज़िहाफ़= मिल कर बना है मुज़ाहिफ़ नाम
ख़ब्ल =खब्न+ तय्य मख़्बूल
सकल =ख़ब्न+कफ़्फ़ मस्कूल
ख़र्ब =ख़रम+कफ़्फ़ अख़रब
सरम = सलम+कब्ज़ असरम
सतर =ख़रम+क़ब्ज़ अस्तर
ख़ज़ल = इज़्मार+तय्य मख़्ज़ूल
क़स्म =अस्ब+अज़्ब अक़सम
जम्म = अज़्ब+नक़्ल अजम
नक़्श =अस्ब +कफ़्फ़ मन्क़ूश
अक़्श = अज़्ब+नक़्श अक़श
क़तफ़ =अस्ब+हज़्फ़ मक़्तूफ़
ख़लअ = ख़ब्न+ क़तफ़ मख़्लूअ
नह्र = जद्दअ+कस्फ़ मन्हूर
सलख़ = जब्ब+ वक़्फ़ मस्लूख़
दर्स =क़स्र+बतर मद्रूस
जहफ़ = बतर+हज़्फ़ मजहूफ़
रबअ =ख़ब्न +बतर मर्बूअ
----
[17]
ये ज़िहाफ़ सालिम रुक्न को कैसे प्रभावित [modify] करते हैं आगे की कड़ियों में विस्तार से लिखेंगे।
एक सवाल यह उठता है कि इन सभी ज़िहाफ़ात के बारे में,इसके अमल के बारे में जानना ज़रूरी है क्या?बिना जाने या समझे काम नहीं चल सकता है क्या? इस के बग़ैर शायरी नहीं की जा सकती है क्या?जी! बिल्कुल की जा सकती है और लोग करते भी हैं । फ़ेसबुक पर हर दूसरा व्यक्ति ग़ज़ल कह रहा है -बहुत से लोग अच्छी ग़ज़ल भी कह रहे हैं । अगर आप अरूज़ जानते है...ज़िहाफ़ समझते है तो मयार की शायरी कर सकते हैं है । आप को यह पता चल सकेगा कि आप ’सही /मयार’ से कितने दूर या कितने पास हैं ।
4- हर ज़िहाफ़ शे’र के हर मुकाम पर नहीं आ सकता ।।इन ज़िहाफ़ात में से कुछ ही ज़िहाफ़ ऐसे है जो शे’र किसी भी मुकाम पे आ सकते है जिन्हें हम ’आम ज़िहाफ़’ कहते हैं । मुकाम के बारे मह पिछली क़िस्त [11] में चर्चा कर चुके है यह मुकाम हैं सदर. हस्व..अरूज़....इब्तिदा....हस्व...जर्ब। पाठकों की सुविधा के लिए कुछ आम ज़िहाफ़ के नाम लिख रहा हूँ
खब्न.....तय्य... क़ब्ज़.....कफ़ *......रफ़अ......इज़्मार....अस्ब...वक़्स....अक़्ल.....ख़ब्ल...सकल *.....ख़ज़ल....,नक़्स......[इनके मुज़ाहिफ़ नाम ऊपर लिख चुका हूँ]
* नोट :- यह वो ज़िहाफ़ हैं जो कहने को तो आम ज़िहाफ़ है शे’र के किसी मुकाम पर theoretically तो आ सकता है मगर ये ज़िहाफ़ ’अरूज़ और जर्ब के मुकाम पर नहीं लगाते कारण कि जब यह ज़िहाफ़ सालिम रुक्न पर अमल करते है तो जो मुज़ाहिफ़ शकल प्राप्त होती है उस मुज़ाहिफ़ रुक्न में हर्फ़ अल आखिर [आखिरी हर्फ़[ मुत्तहर्रिक बच जाता है और हम जानते हैं कि उर्दू शायरी में कोई लफ़ज़/शे’र मुत्तहर्रिक पर नहीं खत्म होता
5- कुछ ज़िहाफ़ ऐसे हैं जिन्हे हम ’ख़ास ज़िहाफ़’ कहते है जो शे’र के ख़ास मुकाम [ सदर---अरूज़---इब्तिदा....जर्ब] के लिए ही मख़्सूस होते हैं । जो ज़िहाफ़ ’सदर’ के मुकाम के लिए मख़्सूस है वह इब्तिदा’ के लिए भी मख़्सूस होता है कारण कि दोनो ही मुकाम से ही मिसरा शुरु होता है ।यही बात ’अरूज़’ और ’जर्ब के लिए भी समान रूप से लागू होता है।कारण कि मिसरा इसी मुकाम पर ख़त्म होता है ।पाठकों की सुविधा के लिए कुछ ’ख़ास’ ज़िहाफ़ के नाम लिख रहा हूँ ।
सदर/इब्तिदा के मुकाम पर लगने वाले ज़िहाफ़ात----
ख़रम......सलम....अज़ब......खर्ब.....सरम...सतर....क़सम......जम्म.....अक़स......
अरूज़/जर्ब के मुकाम पर लगने वाले ज़िहाफ़-----
क़स्र......हज़्फ़....जद्दअ......जब्ब......तस्बीग़......क़तअ......अरज......हज़ज़......तम्स......बतर...इज़ाला......तरफ़ील....वक़्फ़...कस्फ़...सलम.....कतफ़......ख़लअ......नह्र......सलख......दरस......हजफ़...रब्बअ......
अब अगली क़िस्त में इन्ही तमाम ज़िहाफ़ात में से उन ज़िहाफ़ात का ज़िक्र करेंगे जो ’सबब-ए-खफ़ीफ़’ पर लगता है।
और अन्त में---
--इस मंच पर और भी कई साहिब-ए-आलिम मौज़ूद हैं उन से मेरी दस्तबस्ता [ हाथ जोड़ कर] गुज़ारिश है कि अगर कहीं कोई ग़लत ख़यालबन्दी या ग़लत बयानी हो गई हो तो निशान्दिही ज़रूर फ़र्मायें ताकि मैं ख़ुद को दुरुस्त कर सकूं ।बा करम मेरी मज़ीद [अतिरिक्त] रहनुमाई फ़र्माये ।मम्नून-ओ-शुक्रगुज़ार रहूँगा।
अभी नस्र के कुछ बयां और भी हैं..........
अस्तु
शेष अगली कड़ी में......................................
-आनन्द.पाठक-
08800927181
[Disclaimer Clause : वही जो क़िस्त 1 में है]
पिछली क़िस्त 11- में उर्दू शायरी में ज़िहाफ़ात की एक लम्बी सूची लगाई थी जिसमे 2 कम 50 ज़िहाफ़ के नाम थे। पर ज़िहाफ़ की लम्बी-चौड़ी सूची देख कर आप घबराइए नहीं- न इतने ज़िहाफ़ आप को याद करने हैं और न इतने ज़िहाफ़ के प्रयोग करने की आप को ज़रूरत ही पड़ेगी । आप जानते हैं कि उर्दू शायरी में 19-बह्र प्रचलित है और कोई भी शायर इन तमाम बहूर में न तो शायरी ही करता और न ही सारे ज़िहाफ़ात का प्रयोग करता । वो तो कुछ चुनिन्दा और मक़्बूल बहरों में ही शायरी करता है और कुछ गिने चुने ज़िहाफ़ का ही प्रयोग करता है ।
एक बात और। इन 48 ज़िहाफ़ात में 1-से लेकर 11 तक ज़िहाफ़ तो ऐसे हैं कि जो अरबी बह्र, बह्र-ए-कामिल और बह्र-ए-वाफ़िर में ही प्रयोग होते है । बह्र-ए-कामिल तो खुद में ऐसी दिलकश बह्र है कि इसमें भी 2-3 ज़िहाफ़ से ज़्यादा की ज़रूरत ही नहीं पड़ती । बह्र-ए-वाफ़िर उर्दू शायरी में कोई मानूस[दिलकश] बह्र नहीं मानी जाती है और शायर लोग इसमें न के बराबर ही शायरी करते है और किया भी होगा तो आँटे में नमक के बराबर ।बह्र-ए-वाफ़िर की कोई ख़ास ग़ज़ल नज़र से गुज़री नहीं । हां यदि आप बह्र-ए-वाफ़िर में प्रयोग के तौर पर ग़ज़ल कहना चाहें तो अलग बात है।आसमान खुला है।
1- कुछ ज़िहाफ़ ऐसे भी है जिनका तरीक़ा-ए-अमल [प्रयोग विधि] विभिन्न अरकान पर तो एक जैसा होता है .मगर भिन्न भिन्न बह्र में इसका नाम अलग अलग होता है जैसे ’खरम’। अगर कोई रुक्न ’वतद-ए-मज्मुआ’[हरकत+हरकत+साकिन] से शुरु होता है[[ बज़ाहिर पहला हर्फ़ मुत्तहर्रिक ही होगा तो इस के पहले ’मुत्तहर्रिक को गिराने] का अमल ’ख़रम’ कहलाता है’। अब आप जानते है कि ऐसे 3 सालिम रुक्न हैं जो ’वतद-ए-मज्मुआ’ से शुरु होते है
’फ़े ऊ लुन ---- मफ़ा ई लुन ----- मफ़ा इ ल तुन [क्रमश: फ़े ऊ......मफ़ा.....मफ़ा...वतद-ए-मज्मुआ है .] पहला हर्फ़ ’मुत्तहर्रिक’ है इनके गिराने का अमल ’ख़रम’ कहलाता है मगर तीनो रुक्न में ज़िहाफ़ का नाम अलग-अलग होता है
”फ़ेऊलुन’ के case में इस ज़िहाफ़ को ’सलम [मुज़ाहिफ़ का नाम ’अस्लम] कहते हैं ....। मफ़ाईलुन के केस में इस ज़िहाफ़ को ’खरम’ [मुज़ाहिफ़ का नाम अखरम ] कहते हैं । जब कि ’मफ़ा इ ल तुन’ के केस में इस ज़िहाफ़ को ’अज़ब’ [मुज़ाहिफ़ का नाम अयज़ब ] कहते हैं अगरचे तीनो सालिम रुक्न पर एक ही अमल किया गया जिसे ’खरम’ करना ही कहते है । है न अज़ब बात !
[ वतद-ए-मज्मुआ की परिभाषा ]--क़िस्त 11 में दी जा चुकी है]
2- पिछली क़िस्त [क़िस्त11] में 48 ज़िहाफ़ात की एक सूची लगाई थी जिसमें दोनों क़िस्म के ज़िहाफ़ थे---मुफ़र्द ज़िहाफ़[एकल ज़िहाफ़] और मुरक़्क़ब ज़िहाफ़[मिश्रित ज़िहाफ़]
मुफ़र्द ज़िहाफ़ [एकल ज़िहाफ़] वह ज़िहाफ़ हैं जो सालिम रुक्न में किसी अवयव[टुकड़ा][यानी वतद. या सबब] पर ’अकेले ही और independently और एक ही बार " अमल करते हैं और फिर वो सालिम रुक्न ’मुज़ाहिफ़ नाम अख़्तियार कर लेती है यहां पर पाठकों की सुविधा के लिए कु ’मुफ़र्द ज़िहाफ़’ के नाम लिख रहा हूँ[
खब्न....तय्य.....क़ब्ज़....कफ़्फ़.....क़स्र....हज़्फ़......रफ़अ .....जद्अ.....जब्ब......हत्म......तस्बीग़......अज़्मार......अस्ब......वक़्स......अक्ल......ख़रम....सलम.....अज़ब.....क़तअ....अर्ज....हज़ज़.....तम्स...बतर.....इज़ाला......तरफ़ील...वक़्फ़.....कस्फ़....सलम.....[28 ]
साथ ही साथ इनके मुज़ाहिफ़ नाम पहले भी लिख चुका हूं~ एक बार फिर क्रमश: लिख रहा हूँ
मख़्बून......मुत्तवी......मक़्बूज़......मकूफ़......मक़्सूर......महज़ूफ़......मरफ़ूअ......मज्दूअ......मज्बूब......अहत्म......मुस्बीग़....मुज़्मर.....मौसूब......मौक़ूस......मौक़ूल......अख़रम...असलम.....अज़ब......मक़्तूअ......अरज...अहज़.....मत्मूस .....अबतर......मज़ाल.....मरफ़ल.. ...मौवक़ूफ़... मक्सूफ़......असलम [28]
ये तो ज़ाहिर है कि इतने ज़िहाफ़ किसी एक रुक्न पर नहीं लगते। हर ज़िहाफ़ का तरीक़ा-ए-अमल मुख़्तलिफ़ है जो मुख़्तलिफ़ रुक्न पर ही लगते है और वो भी या तो रुक्न के सबब पर लगेगे या वतद पर लगेगे ।ये ज़िहाफ़ सालिम अर्कान पर कैसे अमल करते हैं ,आगे पेश करुँगा
3- कुछ ज़िहाफ़ मुरक़्क़ब [ मिश्रित] होते हैं जो 2-या दो से अधिक ज़िहाफ़ से मिल कर बनते हैं और ये मुरक़्क़ब ज़िहाफ़ सालिम रुक्न के अलग अलग टुकड़ों पर[सबब या वतद] एक साथ लगते है ।
मुरक्क़ब ज़िहाफ़ [मिश्रित ज़िहाफ़ -दो ज़िहाफ़ एक साथ ] वो ज़िहाफ़ होते हैं जो सालिम रुक्न के अवयव[टुकड़े./ज़ुज़ यानी वतद सबब] एक साथ independently & concurrently पर अलग अलग लगते है ।यह नहीं कि किसी टुकड़े पर एक ज़िहाफ़ लगा दिया और जो मुज़ाहिफ़ शकल बरामद हुई उस मुज़ाहिफ़ पर दूसरे ज़िहाफ़ का अमल कर दिया ।नहीं । यह अरूज़ की बुनियादी असूल के खिलाफ़ है ।इन के तरीक़ा-ए-अमल बाद में पेश करुँगा। यहां~ पर पाठकों की सुविधा के लिए कुछ ’मुरक़्कब ज़िहाफ़’ और उनके ’मुज़ाहिफ़ ’का नाम लिख रहा हूँ
मुरक़्क़ब ज़िहाफ़= मिल कर बना है मुज़ाहिफ़ नाम
ख़ब्ल =खब्न+ तय्य मख़्बूल
सकल =ख़ब्न+कफ़्फ़ मस्कूल
ख़र्ब =ख़रम+कफ़्फ़ अख़रब
सरम = सलम+कब्ज़ असरम
सतर =ख़रम+क़ब्ज़ अस्तर
ख़ज़ल = इज़्मार+तय्य मख़्ज़ूल
क़स्म =अस्ब+अज़्ब अक़सम
जम्म = अज़्ब+नक़्ल अजम
नक़्श =अस्ब +कफ़्फ़ मन्क़ूश
अक़्श = अज़्ब+नक़्श अक़श
क़तफ़ =अस्ब+हज़्फ़ मक़्तूफ़
ख़लअ = ख़ब्न+ क़तफ़ मख़्लूअ
नह्र = जद्दअ+कस्फ़ मन्हूर
सलख़ = जब्ब+ वक़्फ़ मस्लूख़
दर्स =क़स्र+बतर मद्रूस
जहफ़ = बतर+हज़्फ़ मजहूफ़
रबअ =ख़ब्न +बतर मर्बूअ
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ये ज़िहाफ़ सालिम रुक्न को कैसे प्रभावित [modify] करते हैं आगे की कड़ियों में विस्तार से लिखेंगे।
एक सवाल यह उठता है कि इन सभी ज़िहाफ़ात के बारे में,इसके अमल के बारे में जानना ज़रूरी है क्या?बिना जाने या समझे काम नहीं चल सकता है क्या? इस के बग़ैर शायरी नहीं की जा सकती है क्या?जी! बिल्कुल की जा सकती है और लोग करते भी हैं । फ़ेसबुक पर हर दूसरा व्यक्ति ग़ज़ल कह रहा है -बहुत से लोग अच्छी ग़ज़ल भी कह रहे हैं । अगर आप अरूज़ जानते है...ज़िहाफ़ समझते है तो मयार की शायरी कर सकते हैं है । आप को यह पता चल सकेगा कि आप ’सही /मयार’ से कितने दूर या कितने पास हैं ।
4- हर ज़िहाफ़ शे’र के हर मुकाम पर नहीं आ सकता ।।इन ज़िहाफ़ात में से कुछ ही ज़िहाफ़ ऐसे है जो शे’र किसी भी मुकाम पे आ सकते है जिन्हें हम ’आम ज़िहाफ़’ कहते हैं । मुकाम के बारे मह पिछली क़िस्त [11] में चर्चा कर चुके है यह मुकाम हैं सदर. हस्व..अरूज़....इब्तिदा....हस्व...जर्ब। पाठकों की सुविधा के लिए कुछ आम ज़िहाफ़ के नाम लिख रहा हूँ
खब्न.....तय्य... क़ब्ज़.....कफ़ *......रफ़अ......इज़्मार....अस्ब...वक़्स....अक़्ल.....ख़ब्ल...सकल *.....ख़ज़ल....,नक़्स......[इनके मुज़ाहिफ़ नाम ऊपर लिख चुका हूँ]
* नोट :- यह वो ज़िहाफ़ हैं जो कहने को तो आम ज़िहाफ़ है शे’र के किसी मुकाम पर theoretically तो आ सकता है मगर ये ज़िहाफ़ ’अरूज़ और जर्ब के मुकाम पर नहीं लगाते कारण कि जब यह ज़िहाफ़ सालिम रुक्न पर अमल करते है तो जो मुज़ाहिफ़ शकल प्राप्त होती है उस मुज़ाहिफ़ रुक्न में हर्फ़ अल आखिर [आखिरी हर्फ़[ मुत्तहर्रिक बच जाता है और हम जानते हैं कि उर्दू शायरी में कोई लफ़ज़/शे’र मुत्तहर्रिक पर नहीं खत्म होता
5- कुछ ज़िहाफ़ ऐसे हैं जिन्हे हम ’ख़ास ज़िहाफ़’ कहते है जो शे’र के ख़ास मुकाम [ सदर---अरूज़---इब्तिदा....जर्ब] के लिए ही मख़्सूस होते हैं । जो ज़िहाफ़ ’सदर’ के मुकाम के लिए मख़्सूस है वह इब्तिदा’ के लिए भी मख़्सूस होता है कारण कि दोनो ही मुकाम से ही मिसरा शुरु होता है ।यही बात ’अरूज़’ और ’जर्ब के लिए भी समान रूप से लागू होता है।कारण कि मिसरा इसी मुकाम पर ख़त्म होता है ।पाठकों की सुविधा के लिए कुछ ’ख़ास’ ज़िहाफ़ के नाम लिख रहा हूँ ।
सदर/इब्तिदा के मुकाम पर लगने वाले ज़िहाफ़ात----
ख़रम......सलम....अज़ब......खर्ब.....सरम...सतर....क़सम......जम्म.....अक़स......
अरूज़/जर्ब के मुकाम पर लगने वाले ज़िहाफ़-----
क़स्र......हज़्फ़....जद्दअ......जब्ब......तस्बीग़......क़तअ......अरज......हज़ज़......तम्स......बतर...इज़ाला......तरफ़ील....वक़्फ़...कस्फ़...सलम.....कतफ़......ख़लअ......नह्र......सलख......दरस......हजफ़...रब्बअ......
अब अगली क़िस्त में इन्ही तमाम ज़िहाफ़ात में से उन ज़िहाफ़ात का ज़िक्र करेंगे जो ’सबब-ए-खफ़ीफ़’ पर लगता है।
और अन्त में---
--इस मंच पर और भी कई साहिब-ए-आलिम मौज़ूद हैं उन से मेरी दस्तबस्ता [ हाथ जोड़ कर] गुज़ारिश है कि अगर कहीं कोई ग़लत ख़यालबन्दी या ग़लत बयानी हो गई हो तो निशान्दिही ज़रूर फ़र्मायें ताकि मैं ख़ुद को दुरुस्त कर सकूं ।बा करम मेरी मज़ीद [अतिरिक्त] रहनुमाई फ़र्माये ।मम्नून-ओ-शुक्रगुज़ार रहूँगा।
अभी नस्र के कुछ बयां और भी हैं..........
अस्तु
शेष अगली कड़ी में......................................
-आनन्द.पाठक-
08800927181
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