सोमवार, 26 दिसंबर 2016

उर्दू बहर पर एक बातचीत : क़िस्त 13 [ज़िहाफ़ात]


उर्दू बह्र पर एक बातचीत : क़िस्त 13 [ज़िहाफ़ात]
[Disclaimer Clause - वही जो क़िस्त -1 में है ]

- कुछ ज़िहाफ़ ऐसे हैं जो ’सबब-ए-खफ़ीफ़’ [हरकत+साकिन] पर  लगते है 

   फिछल कड़ी [क़िस्त 11 और 12] में ज़िहाफ़ात के बारे में कुछ चर्चा कर चुका हूँ कि ज़िहाफ़ क्या होते है उर्दू शायरी में इस की क्या अहमियत है ,ज़िहाफ़ात के बारे में जानना क्यों ज़रूरी है ,नहीं जानेंगे तो क्या होगा आदि आदि। साथ ही यह भी चर्चा कर चुका हूँ कि ज़िहाफ़ कितने प्रकार के होते हैं -मुफ़रद ज़िहाफ़ क्या होते है ,,मुरक़्क़ब ज़िहाफ़ क्या होते हैं ,आम ज़िहाफ़ क्या होते है ख़ास ज़िहाफ़ क्या होते है  आदि आदि।
आज इस कड़ी में  ये ज़िहाफ़ सालिम रुक्न पर कैसे अमल करते है  पर चर्चा करेंगे

आप जानते ही हैं कि
1- ज़िहाफ़ हमेशा ’सालिम रुक्न’ पर ही अमल करते हैं और वो भी सालिम रुक्न के टुकड़े [ज़ुज़] पर ही लगते है और यह टुकड़े[अवयव] होते है --सबब-ए-ख़फ़ीफ़ ,सबब-ए-सकील ,वतद-ए-मज्मुआ.वतद-ए-मफ़रुक़ । इन्ही  के combination , permutation से सालिम रुक्न बनते हैं। इन् टुकड़ों के बारे में पिछली क़िस्तों [अक़्सात] में चर्चा कर चुके है ।आगे बढ़ने  से पहले  एक बार आप उन्हे  देख लें तो अच्छा रहेगा।
2- ज़िहाफ़ कभी मुज़ाहिफ़ [जिस पर ज़िहाफ़ already लग चुका है पर न्हीं लगता ।यह अरूज़ के बुन्यादी असूल के ख़िलाफ़ है
आज हम उन ज़िहाफ़ात की चर्चा करेंगे जो सालिम रुक्न  के ’सबब-ए-ख़फ़ीफ़’ पर लगते हैं
आप की सुविधा के लिए ,कुछ ज़िहाफ़ के नाम लिख रहा हूं
ख़ब्न.....तय्यी....कब्ज़्....कफ़्फ़्...क़स्र्...ह्ज़्फ़्....रफ़’अ.........जद्द’अ.....जब्ब्......हतम् ......तस्बीग़
और इन्के मुज़ाहिफ़ नाम क्रमश: है 
मख़्बून्.......मुतव्वी.......मक़्बूज़्......मौकूफ़्.....मक़्सूर्.......महज़ूफ़्.....मरफ़ू’अ......मज्द’अ........मज्बूब्.......अहतम्......मुस्बीग़.
हम जानते हैं कि उर्दू शायरी में सालिम रुक्न्  की संख्या 8 है [जिसकी चर्चा हम् पहले भी कर चुके हैं] जिसमें  या तो ’सबब-ए-खफ़ीफ़’ आता है या सबब-ए-सकील आता है
सबब-ए-ख़फ़ीफ़ : वो दो हर्फ़ी कलमा जिसका  पहला हर्फ़ ’मुत्तहर्रिक और दूसरा हर्फ़ साकिन् हो । यानी  सबब-ए-ख़फ़ीफ़=हरकत+साकिन् जैसे  फ़ा....लुन्....तुन्...मुस्.....तफ़्..ई.[ऎन् + यी से मिलकर्] ..आदि या गम्.....दिल्...अब् ....तुम् ....हम्     ..ख़ुद् वग़ैरह् वग़ैरह् }आप ने हिन्दी फ़िल्म का एक गाना ज़रूर सुना होगा ---दिल् विल् प्यार् वार् मैं क्या जानू रे ! इसमे ’दिल्...विल्..प्या.....वा  सब सबब्-ए-ख़फ़ीफ़् है
अब हम सबब-ए-ख़फ़ीफ़ पर लगने वाले ज़िहाफ़ के अमल की क्रमश: चर्चा करेंगे

ख़ब्न = अगर कोई सालिम रुक्न्  ’सबब-ए-ख़फ़ीफ़ ’से शुरु होता है तो दूसरे मुक़ाम पर साकिन् हर्फ़ के गिराने  के अमल को ’ख़ब्न्’ कहते हैं। और इस अमल के बाद जो मुज़ाहिफ़ रुक्न् बरामद होती है उसे ’मख़्बून्’कहते है
सबब-ए-ख़फ़ीफ़ में दूसरा हर्फ़ यक़ीनन्  साकिन् ही होगा -परिभाषा ही है उस का ]
पिछली कड़ी में हम जिन 8-रुक्न्  की चर्चा कर चुके हैं उसमें से निम्न् लिखित अर्कान् ही सबब-ए-ख़फ़ीफ़ से शुरु होता है और् इसी ज़ुज [टुकड़े] पर ज़िहाफ़ का अमल होगा॥देखिए कैसे।

[फ़ा]इलुन्.......[फ़ा]इलातुन्......[मुस]तफ़ इलुन्.......[मफ़]ऊलात  ... जिस ज़ुज़ /टुकड़ा/अवयव पर ज़िहाफ़ ख़ब्न का अमल होता है उसे मै्ने कोसीन [कोष्ठक] [  ] में दिखा दिया है

फ़ाइलुन्        [2 1 2] + खब्न  = फ़े इ लुन्  [1 1 2 ]    यानी फ़ा से ’अलिफ़’ गिरा दिया तो  बाक़ी बचा ’फ़े’[1] मय हरकत---मुत्तहर्रिक
फ़ाइलातुन्     [2 1 2 2] + ख़न् = फ़ इलातुन् [1 1 2 2]  यान् फ़ा से ’अलिफ़’ गिरा दिया बाक़ी बचा ’फ़े [1] मय हरकत.....मुतहर्रिक
मुस् तफ़् इलुन्[2 2 1 2] +ख़न्    = मु तफ़् इलुन्[ 12 1 2 ] यान् मुस से ’सीन्’ गिरा दिया बाक़ी बचा ’मीम [1] मय हरकत ....मुत्तहर्रिक
मफ़् ऊ लातु [ 2 2 2  1] + ख़न्  = म ऊ ला तु  [ 1 2 2 1 ] यान् मफ़ से ’फ़े’ गिरा दिया बाक़ी बचा ’मीम[1] मय हरकत....मुत्तहर्रिक

[मफ़् ऊ लातु ]-इस रुक्न् मे ध्यान देने की बात है कि हर्फ़ उल आखिर यानी  आखिरी हर्फ़ ’तु’ पर हरकत है अत: इसे किसी शे’र के अरूज़ और जर्ब के मुकाम पर नही  लाया जा सकता कारण  कि उर्दू में कोई लफ़्ज़ मुत्तहर्रिक[यानी हर्फ़् हरकत ] पर नहीं ख़त्म होता है जब कि  अरूज़ और जर्ब किसी मिसरा का ’आखिरी’ मुक़ाम होता है
अब एक बात और ध्यान देने की है कि किसी ज़िहाफ़ की अमल से सालिम रुक्न -  मुज़ाहिफ़ शकल मे बदल जाती है और यह मुज़ाहिफ़ शकल हर वक्त किसी मानूस  [लोकप्रिय/राइज़/प्रचलित] फ़े’ल  की शक्ल में नहीं होता जैसे मस् तफ़् इलुन् के case मे ’मु तफ़् इलुन्’ हो गया जो मानूस [लोकप्रिय] फ़े’ल  नही  है और नही मफ़् ऊलातु का ’म ऊ लातु’। ऐसे case में हम इसे equivalent वज़न् से बदल लेते हैं जैसे म तफ़् इलुन् [1212 ] को प्रचलित फ़ाइल  ’मफ़ाइलुन् [1212 ] से और म ऊलातु [1 2 2 1] को प्रचलित वज़न् फ़ऊलातु [1 2 2 1] से बदल लिया

एक बात फ़े’अल् के बारे में में भी कर लेते है ---अगर आप ध्यान् से देखे तो 8-अर्कान् के हिज़्ज़े में  तीन् हर्फ़--फ़े...ऐन्....लाम....] invariably 1 या 2 हर्फ़  ज़रूर आता है इसी लिए इसे ’फ़े’अल्  कहते है
लगे हाथ  अरूज़ में उन 8-अर्कान् के अतिरिक्त  कुछ प्रचलित लोकप्रिय अफ़ाअ’ल [ब0ब0 फ़े’अल] [जिसे अर्कान् ,औज़ान् असूल या तफ़ा’अल भी कहते हैं ] के नाम मय वज़न् के जिसमे फ़े..एन्..लाम..आता है लिख रहा हूँ कि आगे काम आयेगा
1 मुफ़ ऊलुन् [2 2 2)
2 मफ़ऊल    [2 2  1) ...लाम मय हरकत
3 फ़ालुन्       [2 2    )
4 फ़े अ’लुन्  [1 1 2] --ऐन् मय हरकत
5 फ़ाइलातु    [2 1 2 1)  ते मय हरकत
6 मुफ़ त इलुन्[2 1 1 2)
7 फ़ाल          [2 1)
8 फ़ेअ’ल      [1 2)
9 मफ़ा इलुन् [1 2 2 1)
10  फ़ इला तुन् [1 12 2)
11       मु तफ़ा इलुन् [1 12 12 ) मीम और ते यहाँ मुत्तहर्रिक है
12  फ़ इ लातु     [1 1 2 1 )    ते मय हरकत  

चलिए ,अब दूसरे ज़िहाफ़ जो सबब-ए-ख़फ़ीफ़ पर अमल करते हैं ,की चर्चा करते है

तय्यी :- अगर किसी सालिम रुक्न के शुरु में दो सबब-ए-ख़फ़ीफ़ हो तो चौथे स्थान पे साकिन हर्फ़ के गिराने के काम जो ज़िहाफ़ करता है उसका नाम ’तय्यी’ है और  रुक्न की जो मुज़ाहिफ़ शकल बरामद होती है उसे ’मुत्तवी’ कहते हैं
ज़ाहिर है कि जब रुक्न  दो सबब-ख़फ़ीफ़ [हरकत+साकिन,हरकत+साकिन]के साथ शुरु होगा तो चौ्थे स्थान पर  यक़ीनन और बज़ाहिर ’साकिन’ ही होगा और इसी को गिराने का अमल ’तय्यी’ ज़िहाफ़ करता है
पिछली कड़ी में जिन 8-सालिम अर्कान का ज़िक़्र कर चुके हैं उसमें से 2 ही रुक्न ऐसे हैं जो दो सबब-ए-ख़फ़ीफ़ से शुरु होते हैं और वह रुक्न हैं----मुस् तफ़् इलुन  और ...मफ़् ऊ लातु

मुस् तफ़् इलुन् [2 2 1 2]+ तय्य    = मुस् त इलुन [2 1 1 2] यानी तफ़ से ’फ़े’ गिरा दिया बाक़ी बचा मुस त इलुन  ---’ते’ मय हरकत
मफ़् ऊ लातु    [2 2 2  1] +तय्य    =मुफ़्  ’अ लातु [ 2  1 2 1] यानी "ऊ’ [एन+वाव] से ’वाव’ गिरा दिया बाक़ी बचा ऎन --मय हरकत जिसे ’फ़ा ’अ लातु [2 1 2  1] हम वज़्न रुक्न से बदल लिया [यहां -’अ-ऐन मय हरकत  है
[मफ़् ऊ लातु ]  यद्दपि यह ज़िहाफ़ आम ज़िहाफ़ की श्रेणी में आता है  जो शे’र के किसी मुक़ाम पर आ सकता है परन्तु यह शे’र के अरूज़ और जर्ब के मुक़ाम पर नही आ सकता कारण वह कि उर्दू में कोई लफ़्ज़/मिसरा  मुत्तहर्रिक[यानी हरकत  पर खत्म न्हीं होता] क्योंकि  अरूज़ और जर्ब किसी मिसरा का ’आखिरी’ मुक़ाम होता है और यहाँ तो हर्फ़ उल आख़िर ’तु’ मुत्तहर्रिक है

क़ब्ज़ :- अगर किसी सालिम रुक्न वतद [ वतद-ए-मज्मुआ या वतद-ए-मफ़रुक़] से शुरु होता है और उसके फ़ौरन बाद सबब-ए-ख़फ़ीफ़ आता है पाँचवे मुक़ाम पे साकिन को गिराने का काम क़ब्ज़्  ज़िहाफ़् करता है । इस के बाद जो  मुज़ाहिफ़ रुक्न बरामद होती है उसे ’मक़्बूज़’ कहते है   । ज़ाहिर है कि वतद [3-हर्फ़ी कलमा] के बाद अगर सबब [2 हर्फ़ी कलमा ] आयेगा तो पाँचवे मक़ाम पर ’सबब का साकिन’ ही आयेगा और ज़िहाफ़ कब्ज़ इसी साकिन को गिराता है
हम जानते है कि 8-सालिम रुक्न में से 3-रुक्न ऐसे हैं जो वतद से शुरू होते हैं और फ़ौरन उसके बाद सबब-ए-ख़फ़ीफ़ आता है जो निम्न हैं
मफ़ाईलुन्..........फ़ाअ’लातन्.........फ़ऊलन्

मफ़ाईलुन् {1 2 2 2 ] +कब्ज़   = मफ़ा ई लुन् [1 2 1 2]  यानी पाँचवें मक़ाम पर जो ’ये’ आ रहा है  [ऐन+ये (सबब-ए-ख़फ़ीफ़ ] का ’ये’  गिरा दिया बाक़ी बचा ’ऐन’ मय हरकत
फ़ा’अलातुन् [2 1 2 2] +क़ब्ज़   = फ़ा’अ ल तुन् [2 1 1 2] यानी पाँचवें मुकाम पर ’ला’ का जो अलिफ़ आ रहा हैुसे गिरा दिया तो बाक़ी बचा फ़ा’अ ल तुन् [ लाम मय हरकत बचा ] इस मुज़ाहिफ़ को मानूस रुक्न मुफ़् त ’अ लुन् [21 1 2 ] से बदल लिया ।
फ़ऊ्लुन्     [ 1 2 2]  + क़ब्ज़    = फ़ऊ लु  [ 1 2 1]  यानी पाँचवें मुक़ाम पर जो ’लुन’ का ’नून’ आ रहा है गिरा दिया [यानी नून साकिन को साकित कर दिया ] तो बाक़ी बचा फ़ऊ ल[ 1 2 1]  लाम मय हरकत

इन ज़िफ़ाफ़ शुदा रुक्न्  [मफ़ाईलुन् 1222]-- बह्र-ए-हजज़  या फ़ाइलातुन् [2122] --बह्र-ए-रमल या फ़ऊलुन्[122]  -बह्र-ए- मुतक़ारिब ] पर् शे’र  आगे की क़िस्त में कभी  सुनाएँगे  जब इन बहर की अलग से तफ़्सील से पेश करेंगे
अभी तो बहर-ए-सबब पर लगने वाले बाक़ी ज़िहाफ़ ........कफ़्फ़...क़स्र....ह्ज़्फ़....रफ़अ.........जद्दअ.....जब्ब......हतम् ......तस्बीग़ की चर्चा तो बाक़ी है   अगली क़िस्त में शनै: शनै: चर्चा करेंगे

और अन्त में---
एक बात और-- उर्दू से देवनागरी करने में हो सकता है कि उर्दू लफ़्ज़ के मूल तलफ़्फ़ुज़ में कुछ फ़र्क़ आ गया हो मगर मूल क़वायद और अमल में कोई फ़र्क़ नही है ।यहाँ ’अलिफ़’ को --अ-- से तथा ’एन’ को --’अ--से और नून साकिन को -न्- [या साकिन को हलन्त् लगा कर] दिखाने की कोशिश की है 

--इस मंच पर और भी कई साहिब-ए-आलिम मौज़ूद हैं उन से मेरी दस्तबस्ता [ हाथ जोड़ कर] गुज़ारिश है कि अगर कहीं कोई ग़लत ख़यालबन्दी या ग़लत बयानी हो गई हो तो निशान्दिही ज़रूर फ़र्मायें ताकि मैं ख़ुद को  दुरुस्त कर सकूं ।बा करम मेरी मज़ीद [अतिरिक्त] रहनुमाई फ़र्माये ।मम्नून-ओ-शुक्रगुज़ार रहूँगा।
इस सिलसिले की पिछली कड़ियाँ मेरे ब्लाग
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अभी नस्र के कुछ बयां और भी हैं..........
 ज़िहाफ़ात के कुछ निशाँ और भी हैं......


शेष अगली कड़ी में......................................

आनन्द पाठक-
08800927181

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