उर्दू बह्र पर एक बातचीत : क़िस्त 39 [ रजज़ की सालिम बह्रें ]
Discliamer clause -वही जो क़िस्त 1 में है
बहर-ए-रजज़ का बुनियादी रुक्न है -’मुस् तफ़् इलुन् ’ [2212]
यह एक सालिम रुक्न है। सालिम क्यों? क्यों कि इस रुक्न पर अभी कोई ज़िहाफ़ नहीं लगा है
यह बह्र भी " दायरा-ए-मुज्तल्बिया " से निकली है जैसे बहर-ए-हज़ज और बहर-ए-रमल निकली हुई है।
यह बहर भी एक वतद[1] और दो सबब [2] से मिलकर बनती है -यानी 7-हर्फ़ी रुक्न है हज़ज और रमल की तरह
रजज़ = मुस तफ़ इलुन [ 2 2 12] = सबब-ए-ख़फ़ीफ़ [ मुस ] +सबब-ए-खफ़ीफ़ [तफ़] +वतद-ए-मज्मुआ [इलुन]
= मुस +तफ़ +इलुन
= 2 +2 + 3 = 7 हर्फ़ यानी यह भी एक सुबाई बह्र है
[ थोड़ा हट कर कुछ और चर्चा कर लेते है- शायद आप को दिलचस्प लगे।जब तमाम सालिम बह्र वतद और सबब के combination aut permutation से ही बनती है तो फिर सबब-ए-ख़फ़ीफ़ के लिये [ --फ़ा---ई---लुन---मुस---तफ़--मुफ़---ऊ---] लाने की क्या ज़रूरत थी सबका वज़न तो - 2- है। किसी एक से भी काम चल सकता था।
और उसी तरह वतद के लिए [--मफ़ा---इला---इलुन---लतुन--] लाने की क्या ज़रूरत थी ।सबका वज़न तो -3- ही होता है। इसमें से किसी एक से भी तो काम चल सकता था
ख़ैर--कमाल अहमद साहब ने भी इस पर सोचा ,मैने भी सोचा --आप भी सोचिए-- शायद कोई बात निकल आए। क्लासिकल अरूज़ी की बातें है सदियों से ऐसे ही चला आ रहा है । हम भी ऐसा ही मानते हुए आगे बढ़ते है
जैसे बहर-ए-रमल की बुनियादी रुक्न [फ़ाइलातुन’ [ 2 12 2 ] को दो तरीक़े से लिखा जा सकता है
[1] मुत्तसिल शकल
[2] मुन्फ़सिल शकल
उसी प्रकार ’मुस तफ़ इलुन’ [2 2 12] भी दो तरह से लिखा जा सकता है
[1] मुतस्सिल शकल = रुक्न की वो शकल जिसमें सारे हर्फ़ [मीम,सीन,ते,फ़े ,ऐन ,लाम.नून] -उर्दू स्क्रिप्ट में मिलाकर [ सिलसिलेवार] लिखे जाते है यानी मुसतफ़इलुन [ इसमें "इलुन’ वतद मज्मुआ के शकल [हरकत+हरकत+साकिन] के शकल में रहती है। यानी इस वतद में दोनो हरकत वाली हर्फ़ एक साथ ’जमा’ हो गई है इसी किये इसे ’वतद मज्मुआ’ कहते है
[2] मुन्फ़सिल शकल= रुक्न की वो शकल जिसमें कुछ हर्फ़ ’फ़ासिला’ देकर [ख़ास तौर से "तफ़ अ"[ ते,फ़े,ऐन-यहाँ -ऐन मय हरकत है] लिखते है । इसमें ’तफ़ अ’ --;वतद मफ़रूक़’ है यानी [हरकत+साकिन+हरकत] यानी दो हरकत वाले हर्फ़ में फ़र्क है-इसी लिए इसे वतद मफ़रूक़ कहते है
खैर - यह बात पिछले क़िस्त में भी कर चुका हूं। ख़ूबी यह कि दोनो शकलों में वज़न एक ही है [2212] और दोनो ही 7-हर्फ़ी रुक्न है
अच्छा ,तो फिर इस शकल [वतद-ए-मफ़रुक़] की ज़रूरत क्यों पड़ी? कारण वही जो बहर-ए-रमल में बयान किया था । एक बार फिर चर्चा कर देता हूँ कि बात अच्छी तरह ज़ेहन नशीन हो जाये।
दरअस्ल "वतद-ए-मफ़रुक़" वाली शकल की रुक्न, मुरक्क़ब बहरों में प्रयोग की जाती है जैसे--मुजतस---ख़फ़ीफ़---ज़दीद--में इस शकल का प्रयोग होता है और इन बहरों में ज़िहाफ़ ’वतद-ए-मज्मुआ’ वाला नहीं ,’वतद-ए-मफ़रूक़ ’ वाला लगेगा। यह निकात की बात है । लोग ग़लती से इन बहूर में मात्र ’वतद’ देख कर वतद-ए-मज्मुआ’ पर लगने वाली ज़िहाफ़ लगा देते हैं ।इस बात की चर्चा विस्तार से उधर ही करूंगा जब ’मुरक़्कब बहर की चर्चा करेंगे। शोशा: यहीं छोड़े जाता हूं।
एक दिलचस्प बात और --
अब आप के पास ’रमल’ और ’रजज़ " के दो रुक्न ऐसे हो गए जो ’वतद-ए-मफ़रूक़’ [ हरकत+साकिन+हरकत] वाली शकल के है
इसके अतिरिक्त एक रुक्न और है जिसमें ’वतद-ए-मफ़रूक़’ का प्रयोग होता है और जिसकी चर्चा भी बहुत पहले शुरु शुरु में की थी --"मुझे याद है कुछ ज़रा ज़रा तुम्हे याद हो कि न याद हो"-- और वह रुक्न है =मफ़ऊलातु= [ 2 2 2 1]
यानी -लातु- [लाम ,अलिफ़, ते]में -तु- मुतहर्रिक है यानी [हरकत+साकिन+हरकत]-यानी यह भी ’वतद-ए-मफ़रूक़’ वाली शकल के हैं अर्थात अब कुल मिला कर अब 3- रुक्न ऐसे हो गए आप के पास।
अगरचे ,’मफ़ऊलातु’ सालिम रुक्न तो है मगर किसी सालिम बहर में आता नहीं ---कारण कि इसका आखिरी हर्फ़ -तु- मुतहार्रिक है और किसी शे’र या मिसरा के आखिर हर्फ़ ’मुतहर्रिक ’ नहीं होता
अत: तीनो रुक्न [ वतद-ए-मफ़रुक़ की शकल वाली] सालिम मुफ़र्द [एकल रुक्न वाली बहर] में नहीं होता न ही इस से कोई सालिम बहर ही बनती है .बल्कि मुरक़्क़ब बहरों में होता है।
ख़ैर--
बहर-ए-रजज़ की सालिम बहर -मुरब्ब:--मुसद्दस--मुसम्मन पर चर्चा तो आसान है।
[1] बहर-ए-रजज़ मुरब्ब: सालिम
मुस तफ़ इलुन----मुस तफ़ इलुन [यहाँ रुक्न को तोड़ तोड़ कर इस लिए दिखा रहे हैं कि आप को पता चलता रहे कि रुक्न सबब+सबब+वतद से बना है ।वरना तो रुक्न ’मुसतफ़इलुन’[2212] ही है
2 2 1 2 ---2 2 1 2 [शे’र में चार बार -]
उदाहरण-खुदसाख़्ता एक शे’र हैं
होगा यकीं तुम को नहीं
हर साँस में हो तुम बसी
तक़्तीअ कर के देखते हैं 2 2 1 2 / 2 2 1 2
होगा यकीं /तुम को नहीं
2 2 1 2 / 2 2 1 2
हर साँस में /हो तुम बसी
[2] बहर-ए-रजज़ मुरब्ब: मज़ाल
मुस तफ़ इलुन----मुस तफ़ इलान
2 2 12 ---2 2 1 21
एक ज़िहाफ़ होता है ’इज़ाला’ जो "वतद-ए-मज्मुआ’ [यानी इस केस में ’इलुन’ [12] पर लगेगा ]’पर लगता है और मुज़ाहिफ़ का नाम होता है "मज़ाल’ और यह ज़िहाफ़ अरूज़ और ज़र्ब के लिए ख़ास होता है । इस ज़िहाफ़ में रुक्न के आखिर में एक साकिन [अलिफ़]बढ़ जाता है अत: ’मुस तफ़ इलुन" [2212 ] पर इज़ाला का अमल होगा तो मुज़ाहिफ़ मज़ाल ’ मुस तफ़ इलान ’[ 22121] हो जायेगा। और आप जानते ही हैं कि शे’र के आखिर में एक हर्फ़-ए-साकिन के बढ़ जाने से बहर/वज़न में कोई फ़र्क नहीं पड़ता ।
इसी कारण अरूज़ और ज़र्ब में ’मुसतफ़इलुन’2212] की जगह ’मुस तफ़ इलान [22121]’ और मुस तफ़ इलान[22121]’ की जगह ’मुस तफ़ इलुन’[2212] लाया जा सकता है
उदाहरण -
क़ातिल् लुटेरे आज कल्
पाते हैं इनाम-ए-ख़तीर
अब तक़्तीअ भी देख लेते हैं-
2 2 12 / 2 2 1 2
क़ा तिल् लुटे / रे आज कल्/
2 2 1 2 / 2 1 1 2 1
पाते हैं ई / ना मे ख़तीर
यहाँ ज़र्ब में मुस तफ़ इलान [22121] है जब कि अरूज़ में ’मुस तफ़ इलुन [2212] है और यह जायज है और बह्र का नाम निर्धारण भी इसी ज़र्ब में मुस्तमिल रुक्न के आधार पर होगा ।
[3] बहर-ए-रजज़ मुरब्ब: मज़ाल मुज़ाइफ़ : यानी मुरब्ब: मज़ाल को दुगुना [मुज़ाइफ़] कर देने के बाद बरामद हुई बह्र
मुस तफ़ इलुन----मुस तफ़ इलान-//--मुस तफ़ इलुन----मुस तफ़ इलान
2 2 1 2 ---2 2 1 21 //-----2 2 1 2 ---2 2 1 21
उदाहरण :कमाल अहमद सिद्दीक़ी साह्ब के हवाले से
हूँ जिसकी ज़ुल्फ़ों का असीर ,वो गुलबदन बद्र-ए-मुनीर
वो है बहारों का सफ़ीर ,इसकी नहीं कोई नज़ीर
तक़्तीअ भी आप देख लें--एक इशारा कर देता हूँ
2 2 1 2 / 2 2 1 2 1// 2 2 12 / 2 2 1 2 1
हूँ जिस की ज़ुल / फ़ो का असीर// ,वो गुल बदन / बद् रे मुनीर
2 2 1 2 / 2 2 1 2 1 // 2 2 1 2 / 2 2 1 2 1
वो है बहा / रों का सफ़ीर ,// इसकी नहीं / कोई नज़ीर--
यहां एक बात स्पष्ट कर दें-- अगर ’मुरब्ब:सालिम" को ’मुज़ाइफ़’ [2-गुना ] कर दें तो हर मिसरा में 4-रुक्न हो जायेगा[यानी शे’र में 8-रुक्न] तो फिर ये ’मुसम्मन सालिम’ का भरम होने लगेगा ।
मगर ज़िहाफ़ मज़ाल --अरूज़ और जर्ब के लिए मख़्सूस है अत: अगर यह ज़िहाफ़ किसी सालिम मुसम्मन के अरूज़ और ज़र्ब के मुक़ाम पर भी लगा होगा तो भी ्मुसम्मन सालिम मज़ाल ’ का भरम पैदा करेगा
मगर जब ’दूसरे" या छ्ठें मक़ाम पर ’मज़ाल’ हो तो यक़ीनन वह शे’र ’मुरब्ब: मज़ाल मुज़ाइफ़’ ही होगी -कारण कि मुरब्ब: मे ’हस्व’ का मुक़ाम नही होता जब कि मुसम्मन के मिसरा में 2-हस्व के मुक़ाम होते है
एक बात और ---मुरब्ब: मुज़ाइफ़ में ’अरूज़ी वक़्फ़ा’ // ज़रूर होगा जब कि ’मुसम्मन’ में यह अनिवार्य [नागुज़ीर] शर्त नहीं है यानी मुसम्मन में यह अरूज़ी वक़्फ़ा आ भी सकता है और नहीं भी आ सकता है
[4] बहर-ए-रजज़ मुसद्दस सालिम /मज़ाल ; यानी मुसतफ़ इलुन [2212] शे’र में 6-बार [मिसरा में 3- बार]
मुस तफ़ इलुन----मुस तफ़ इलुन--मुस तफ़ इलुन / मुस तफ़ इलान
2 2 1 2---------2 2 1 2---------2 2 1 2 / 22121
उदाहरण-खुदसाख़्ता एक शे’र है
वादा निभाना आप को आता नही
अस्बाक़-ए-उलफ़त आप को समझाए कौन ?
तक़्तीअ भी देख लेते हैं-
2 2 1 2 / 2 2 1 2 / 2 2 1 2
वादा निभा / ना आप को / आता नही
2 2 1 2 / 2 2 1 2 / 2 2 1 2 1
अस् बाक़ उल/ फ़त आप को / समझाए कौन ?
यानी पहला मिसरा मुसद्दस सालिम का है और दूसरा मिसरा मुसद्द्स मज़ाल का है -और दोनों का ख़्ल्त जायज़ है -यानी अरूज़ और ज़र्ब में सालिम [2212] और मज़ाल [22121] लाया जा सकता है। और आप चाहे तो दोनो ही जगह यानी अरूज़ और ज़र्ब में ’मज़ाल ’ मुस तफ़ लान’ ला सकते हैं।
[5]- बहर-ए-रजज़ मुसद्दस सालिम मुज़ाइफ़ : यानी एक शेर में 12 रुक्न [मिसरा में 6 रुक्न]
मुस तफ़ इलुन----मुस तफ़ इलुन--मुस तफ़ इलुन -----मुस तफ़ इलुन----मुस तफ़ इलुन--मुस तफ़ इलुन
2 2 1 2---------2 2 1 2---------2 2 1 2 --------2 2 1 2---------2 2 1 2---------2 2 1 2
उदाहरण--एक बार फिर कमाल अहमद सिद्दीक़ी साहब के हवाले से
जो कुछ हमारे साथ इस ज़ालिम ज़माने ने किया, तुम जानते हो और हम
ख़ामोश क्यों बैठे रहे ,क्यों जुल्म हम सहते रहे, झूटा है ये सारा भरम
तक़्तीअ भी देख लेते हैं
2 2 1 2/ 2 2 1 2 / 2 2 1 2 / 2 2 1 2 / 2 2 1 2/ 2 2 1 2
जो कुछ हमा / रे साथ इस / ज़ालिम ज़मा / ने ने किया, / तुम जानते / हो और हम
2 2 1 2 / 2 2 1 2/ 2 2 1 2 / 2 2 1 2 / 2 2 1 2 / 2 2 1 2
ख़ामोश क्यों / बैठे रहे ,/ क्यों जुल् म हम / सहते रहे, / झूटा है ये / सारा भरम
यहाँ एक दो बात कर लेना ज़रूरी समझता हूँ ।
बह्र-ए-रजज़ मुसद्दस सालिम मुज़ाल का अगर मुज़ाइफ़ शकल बनाई जाए तो --????
कुछ नही। बस ऐसे ही बनेगा । बस तीसरे ---छठे---नौवें और बारहवें मुक़ाम पे ’मुज़ाल’[यानी ’मुस तफ़ इलान" 22121 ज़रूर लाना होगा और साथ ही तीसरे और नौवें रुक्न के बाद ’अरूज़ी वक़्फ़ा’ भी होना चाहिए ।
[6] बहर-ए-रजज़ मुसम्मन सालिम
मुस तफ़ इलुन----मुस तफ़ इलुन--मुस तफ़ इलुन ---मुस तफ़ इलुन
2 2 1 2---------2 2 1 2---------2 2 1 2 ------ 2 2 1 2
उदाहरण---इब्ने इन्शा की एक बहुत ही मशहूर ग़ज़ल है-आप ने भी सुना होगा
कल चौदहवीं की रात थी ,शब भर रहा चर्चा तेरा
कुछ ने कहा ये चाँद है ,कुछ ने कहा चेहरा तेरा
हम भी वहाँ मौज़ूद थे ,हमसे भी सब पूछा किए
हम हँस दिए हम चुप रहे मंज़ूर था पर्दा तेरा
मतला की तक़्तीअ देख लेते है -एक बार
2 2 1 2 /2 2 1 2 / 2 2 1 2 / 2 2 1 2
कल चौदवीं / की रात थी ,/ शब भर रहा / चर् चा तिरा
2 2 1 2 / 2 2 1 2/ 2 2 1 2 /2 2 1 2
कुछ ने कहा / ये चाँद है ,/ कुछ ने कहा /चेरा तिरा
दूसरे शे’र की तक़्तीअ आप कर सकते हैं-प्रयास कीजिए
[7] बह्र-ए-रजज़ मुसम्मन सालिम मज़ाल
मुस तफ़ इलुन----मुस तफ़ इलुन--मुस तफ़ इलुन ---मुस तफ़ इलान
2 2 1 2---------2 2 1 2---------2 2 1 2 ------ 2 2 1 2 1
उदाहरण---एक मिसाल देख लेते है [कमाल अहमद सिद्दीक़ी साहब के हवाले से]
गो देखने में सादा है ,आइना है उसका ज़मीर
इल्म-ओ-अमल,दानिश का वो रखता है सरमाया ख़तीर
तक़्तीअ कर के देख लेते हैं
2 2 1 2 / 2 2 1 2 / 2 2 1 2 / 2 2 1 2 1
गो दे ख ने /में साद: है ,/ आई न: है /उस का ज़मीर
2 2 1 2 / 2 2 1 2 / 2 2 1 2 / 2 2 1 2 1
इल् मो अ मल /,दानिश का वो / रखता है सर /माया ख़तीर
यहाँ अरूज़ और ज़र्ब दोनो ही मुक़ाम पर ’मुस तफ़ इलान ’[22121] लाया गया है । वैसे इस बहर के लिए ’ज़र्ब’ में ही अगर ;मज़ाल’ लाया जाता तो भी बह्र का नाम यही रहता चाहे अरूज़ में भले ही ’सालिम’ मुस तफ़ इलुन’ 2212 क्यों न लाया गया हो} ख़ैर
[8] बहर-ए-रजज़ मुसम्मन सालिम मुज़ाइफ़ : [यानी एक शे’र में 16-बार या मिसरा में 8-बार ] कभी कभी इस को 16-रुक्नी बहर भी कहते हैं
मुस तफ़ इलुन----मुस तफ़ इलुन--मुस तफ़ इलुन ---मुस तफ़ इलुन---मुस तफ़ इलुन----मुस तफ़ इलुन--मुस तफ़ इलुन ---मुस तफ़ इलुन
2 2 1 2---------2 2 1 2---------2 2 1 2 ------ 2 2 1 2 -----2 2 1 2---------2 2 1 2---------2 2 1 2 ------ 2 2 1 2
उदाहरण--कमाल अहमद सिद्दीक़ी साहब के हवाले से एक बार फिर
[यह कमाल साहब का ही कमाल है कि इतनी बड़ी बहर में शे’र कहा है]ख़ैर
दुनिया को मत इल्ज़ाम दो अच्छे है सब लेकिन दबा रख्खा है इनको जब्र ने ,इस जब्र से हम सब लड़ें
बर्दास्त करना ज़ुल्म सहना जुर्म है नाकारा कर रख्खा है हमको सब्र ने ,इस सब्र से हम सब लड़ें
तक़्तीअ भी देख लेते है ज़रा-
2 2 1 2 / 2 2 1 2/ 2 2 1 2 / 2 2 1 2 / 2 2 1 2 / 2 2 1 2 / 2 2 1 2 / 2 2 1 2
दुन या कू मत / इल जा म दो / अच्छे है सब / लेकिन दबा / रख्खा है इन /को जब् र ने ,/ इस जब र से / हम सब लड़ें
2 2 1 2 / 2 2 1 2 / 2 2 1 2 / 2 2 1 2 / 2 2 1 2 / 2 2 1 2 / 2 2 1 2 / 2 2 1 2
बर् दास् कर / ना ज़ुल् म् सह / ना जुर् म् है / नाकार कर / रख् खा है हम / को सब् र् ने / ,इस सब् र् से/ हम सब लड़ें
[यहाँ बर्दास्त् के बारे में थोड़ा चर्चा कर लेते है
बर्दास्त [ बर् दा स् त् -में अन्त में 3 साकिन [अलिफ़--सीन--ते ] एक साथ आ गए} ऐसी स्थिति में ’दूसरा साकिन’ मुतहर्रिक और ’तीसरा साकिन ’साक़ित’ हो जायेगा । इसी लिए यहाँ मैने -आखिरी -’त्’ को साक़ित कर दिया। अच्छा जब 3-मुतहर्रिक एक साथ आ जाये तो ???? अजी छोड़िए भी---यह तो आप जानते ही है -फिर से क्या बताना !
बहर-ए-रजज़ के सालिम रुक्न का बयान खत्म हुआ ।अब अगले क़िस्त में बहर-ए-रजज़ की मुज़ाहिफ़ बहूर की चर्चा करेंगे
आप की टिप्पणी का इन्तज़ार रहेगा
--इस मंच पर और भी कई साहिब-ए-आलिम मौज़ूद हैं उनसे मेरी दस्तबस्ता [ हाथ जोड़ कर] गुज़ारिश है कि अगर कहीं कोई ग़लत बयानी या ग़लत ख़यालबन्दी हो गई हो तो निशान्दिही ज़रूर फ़र्मायें ताकि मैं ख़ुद को दुरुस्त कर सकूं ।मेरी मज़ीद [अतिरिक्त] रहनुमाई फ़र्माये ।मम्नून-ओ-शुक्रगुज़ार रहूँगा।
अभी बह्र के कुछ बयां और भी हैं..........
ज़िहाफ़ात् के कुछ निशां और भी हैं.....
एक बात बड़े ही अदब से एतराफ़ [स्वीकार] करता हूँ कि इन तमाम अक़्सात ,तज़्क़िरात और तहरीर के लिए अपने आलिम अरूज़ी साहिबान कमाल अहमद सिद्द्क़ी साहब , डा0 शम्सुर्र्हमान फ़ारुक़ी साहब ,आलिम जनाब सरवर आलम राज़ ’सरवर ’ साहब , अजीज दोस्त डा0 आरिफ़ हसन ख़ान साहब का और कुछ दीगर दोस्तों का तह-ए-दिल से मम्नून-ओ-मश्कूर हूँ जिनकी किताबों से कुछ पढ़ सका ,समझ सका और लिख सका ।वगरना इस हक़ीर में इतनी बिसात कहाँ इतनी औक़ात कहां । इन तज़्क़िरात में मेरा कुछ भी अपना नहीं है बस आलिम साहिबान के अरूज़ पर किए गए कामों का फ़क़त हिन्दी तर्जुमा समझिए बस ........
एक बात और--
न आलिम ,न मुल्ला ,न उस्ताद ’आनन’
अदब से मुहब्बत ,अदब आशना हूँ
[नोट् :- पिछले अक़सात [क़िस्तों ]के आलेख [ मज़ामीन ]आप मेरे ब्लाग पर भी देख सकते हैं
www.urdu-se-hindi.blogspot.com
or
www.urdusehindi.blogspot.com
-आनन्द.पाठक-
Discliamer clause -वही जो क़िस्त 1 में है
बहर-ए-रजज़ का बुनियादी रुक्न है -’मुस् तफ़् इलुन् ’ [2212]
यह एक सालिम रुक्न है। सालिम क्यों? क्यों कि इस रुक्न पर अभी कोई ज़िहाफ़ नहीं लगा है
यह बह्र भी " दायरा-ए-मुज्तल्बिया " से निकली है जैसे बहर-ए-हज़ज और बहर-ए-रमल निकली हुई है।
यह बहर भी एक वतद[1] और दो सबब [2] से मिलकर बनती है -यानी 7-हर्फ़ी रुक्न है हज़ज और रमल की तरह
रजज़ = मुस तफ़ इलुन [ 2 2 12] = सबब-ए-ख़फ़ीफ़ [ मुस ] +सबब-ए-खफ़ीफ़ [तफ़] +वतद-ए-मज्मुआ [इलुन]
= मुस +तफ़ +इलुन
= 2 +2 + 3 = 7 हर्फ़ यानी यह भी एक सुबाई बह्र है
[ थोड़ा हट कर कुछ और चर्चा कर लेते है- शायद आप को दिलचस्प लगे।जब तमाम सालिम बह्र वतद और सबब के combination aut permutation से ही बनती है तो फिर सबब-ए-ख़फ़ीफ़ के लिये [ --फ़ा---ई---लुन---मुस---तफ़--मुफ़---ऊ---] लाने की क्या ज़रूरत थी सबका वज़न तो - 2- है। किसी एक से भी काम चल सकता था।
और उसी तरह वतद के लिए [--मफ़ा---इला---इलुन---लतुन--] लाने की क्या ज़रूरत थी ।सबका वज़न तो -3- ही होता है। इसमें से किसी एक से भी तो काम चल सकता था
ख़ैर--कमाल अहमद साहब ने भी इस पर सोचा ,मैने भी सोचा --आप भी सोचिए-- शायद कोई बात निकल आए। क्लासिकल अरूज़ी की बातें है सदियों से ऐसे ही चला आ रहा है । हम भी ऐसा ही मानते हुए आगे बढ़ते है
जैसे बहर-ए-रमल की बुनियादी रुक्न [फ़ाइलातुन’ [ 2 12 2 ] को दो तरीक़े से लिखा जा सकता है
[1] मुत्तसिल शकल
[2] मुन्फ़सिल शकल
उसी प्रकार ’मुस तफ़ इलुन’ [2 2 12] भी दो तरह से लिखा जा सकता है
[1] मुतस्सिल शकल = रुक्न की वो शकल जिसमें सारे हर्फ़ [मीम,सीन,ते,फ़े ,ऐन ,लाम.नून] -उर्दू स्क्रिप्ट में मिलाकर [ सिलसिलेवार] लिखे जाते है यानी मुसतफ़इलुन [ इसमें "इलुन’ वतद मज्मुआ के शकल [हरकत+हरकत+साकिन] के शकल में रहती है। यानी इस वतद में दोनो हरकत वाली हर्फ़ एक साथ ’जमा’ हो गई है इसी किये इसे ’वतद मज्मुआ’ कहते है
[2] मुन्फ़सिल शकल= रुक्न की वो शकल जिसमें कुछ हर्फ़ ’फ़ासिला’ देकर [ख़ास तौर से "तफ़ अ"[ ते,फ़े,ऐन-यहाँ -ऐन मय हरकत है] लिखते है । इसमें ’तफ़ अ’ --;वतद मफ़रूक़’ है यानी [हरकत+साकिन+हरकत] यानी दो हरकत वाले हर्फ़ में फ़र्क है-इसी लिए इसे वतद मफ़रूक़ कहते है
खैर - यह बात पिछले क़िस्त में भी कर चुका हूं। ख़ूबी यह कि दोनो शकलों में वज़न एक ही है [2212] और दोनो ही 7-हर्फ़ी रुक्न है
अच्छा ,तो फिर इस शकल [वतद-ए-मफ़रुक़] की ज़रूरत क्यों पड़ी? कारण वही जो बहर-ए-रमल में बयान किया था । एक बार फिर चर्चा कर देता हूँ कि बात अच्छी तरह ज़ेहन नशीन हो जाये।
दरअस्ल "वतद-ए-मफ़रुक़" वाली शकल की रुक्न, मुरक्क़ब बहरों में प्रयोग की जाती है जैसे--मुजतस---ख़फ़ीफ़---ज़दीद--में इस शकल का प्रयोग होता है और इन बहरों में ज़िहाफ़ ’वतद-ए-मज्मुआ’ वाला नहीं ,’वतद-ए-मफ़रूक़ ’ वाला लगेगा। यह निकात की बात है । लोग ग़लती से इन बहूर में मात्र ’वतद’ देख कर वतद-ए-मज्मुआ’ पर लगने वाली ज़िहाफ़ लगा देते हैं ।इस बात की चर्चा विस्तार से उधर ही करूंगा जब ’मुरक़्कब बहर की चर्चा करेंगे। शोशा: यहीं छोड़े जाता हूं।
एक दिलचस्प बात और --
अब आप के पास ’रमल’ और ’रजज़ " के दो रुक्न ऐसे हो गए जो ’वतद-ए-मफ़रूक़’ [ हरकत+साकिन+हरकत] वाली शकल के है
इसके अतिरिक्त एक रुक्न और है जिसमें ’वतद-ए-मफ़रूक़’ का प्रयोग होता है और जिसकी चर्चा भी बहुत पहले शुरु शुरु में की थी --"मुझे याद है कुछ ज़रा ज़रा तुम्हे याद हो कि न याद हो"-- और वह रुक्न है =मफ़ऊलातु= [ 2 2 2 1]
यानी -लातु- [लाम ,अलिफ़, ते]में -तु- मुतहर्रिक है यानी [हरकत+साकिन+हरकत]-यानी यह भी ’वतद-ए-मफ़रूक़’ वाली शकल के हैं अर्थात अब कुल मिला कर अब 3- रुक्न ऐसे हो गए आप के पास।
अगरचे ,’मफ़ऊलातु’ सालिम रुक्न तो है मगर किसी सालिम बहर में आता नहीं ---कारण कि इसका आखिरी हर्फ़ -तु- मुतहार्रिक है और किसी शे’र या मिसरा के आखिर हर्फ़ ’मुतहर्रिक ’ नहीं होता
अत: तीनो रुक्न [ वतद-ए-मफ़रुक़ की शकल वाली] सालिम मुफ़र्द [एकल रुक्न वाली बहर] में नहीं होता न ही इस से कोई सालिम बहर ही बनती है .बल्कि मुरक़्क़ब बहरों में होता है।
ख़ैर--
बहर-ए-रजज़ की सालिम बहर -मुरब्ब:--मुसद्दस--मुसम्मन पर चर्चा तो आसान है।
[1] बहर-ए-रजज़ मुरब्ब: सालिम
मुस तफ़ इलुन----मुस तफ़ इलुन [यहाँ रुक्न को तोड़ तोड़ कर इस लिए दिखा रहे हैं कि आप को पता चलता रहे कि रुक्न सबब+सबब+वतद से बना है ।वरना तो रुक्न ’मुसतफ़इलुन’[2212] ही है
2 2 1 2 ---2 2 1 2 [शे’र में चार बार -]
उदाहरण-खुदसाख़्ता एक शे’र हैं
होगा यकीं तुम को नहीं
हर साँस में हो तुम बसी
तक़्तीअ कर के देखते हैं 2 2 1 2 / 2 2 1 2
होगा यकीं /तुम को नहीं
2 2 1 2 / 2 2 1 2
हर साँस में /हो तुम बसी
[2] बहर-ए-रजज़ मुरब्ब: मज़ाल
मुस तफ़ इलुन----मुस तफ़ इलान
2 2 12 ---2 2 1 21
एक ज़िहाफ़ होता है ’इज़ाला’ जो "वतद-ए-मज्मुआ’ [यानी इस केस में ’इलुन’ [12] पर लगेगा ]’पर लगता है और मुज़ाहिफ़ का नाम होता है "मज़ाल’ और यह ज़िहाफ़ अरूज़ और ज़र्ब के लिए ख़ास होता है । इस ज़िहाफ़ में रुक्न के आखिर में एक साकिन [अलिफ़]बढ़ जाता है अत: ’मुस तफ़ इलुन" [2212 ] पर इज़ाला का अमल होगा तो मुज़ाहिफ़ मज़ाल ’ मुस तफ़ इलान ’[ 22121] हो जायेगा। और आप जानते ही हैं कि शे’र के आखिर में एक हर्फ़-ए-साकिन के बढ़ जाने से बहर/वज़न में कोई फ़र्क नहीं पड़ता ।
इसी कारण अरूज़ और ज़र्ब में ’मुसतफ़इलुन’2212] की जगह ’मुस तफ़ इलान [22121]’ और मुस तफ़ इलान[22121]’ की जगह ’मुस तफ़ इलुन’[2212] लाया जा सकता है
उदाहरण -
क़ातिल् लुटेरे आज कल्
पाते हैं इनाम-ए-ख़तीर
अब तक़्तीअ भी देख लेते हैं-
2 2 12 / 2 2 1 2
क़ा तिल् लुटे / रे आज कल्/
2 2 1 2 / 2 1 1 2 1
पाते हैं ई / ना मे ख़तीर
यहाँ ज़र्ब में मुस तफ़ इलान [22121] है जब कि अरूज़ में ’मुस तफ़ इलुन [2212] है और यह जायज है और बह्र का नाम निर्धारण भी इसी ज़र्ब में मुस्तमिल रुक्न के आधार पर होगा ।
[3] बहर-ए-रजज़ मुरब्ब: मज़ाल मुज़ाइफ़ : यानी मुरब्ब: मज़ाल को दुगुना [मुज़ाइफ़] कर देने के बाद बरामद हुई बह्र
मुस तफ़ इलुन----मुस तफ़ इलान-//--मुस तफ़ इलुन----मुस तफ़ इलान
2 2 1 2 ---2 2 1 21 //-----2 2 1 2 ---2 2 1 21
उदाहरण :कमाल अहमद सिद्दीक़ी साह्ब के हवाले से
हूँ जिसकी ज़ुल्फ़ों का असीर ,वो गुलबदन बद्र-ए-मुनीर
वो है बहारों का सफ़ीर ,इसकी नहीं कोई नज़ीर
तक़्तीअ भी आप देख लें--एक इशारा कर देता हूँ
2 2 1 2 / 2 2 1 2 1// 2 2 12 / 2 2 1 2 1
हूँ जिस की ज़ुल / फ़ो का असीर// ,वो गुल बदन / बद् रे मुनीर
2 2 1 2 / 2 2 1 2 1 // 2 2 1 2 / 2 2 1 2 1
वो है बहा / रों का सफ़ीर ,// इसकी नहीं / कोई नज़ीर--
यहां एक बात स्पष्ट कर दें-- अगर ’मुरब्ब:सालिम" को ’मुज़ाइफ़’ [2-गुना ] कर दें तो हर मिसरा में 4-रुक्न हो जायेगा[यानी शे’र में 8-रुक्न] तो फिर ये ’मुसम्मन सालिम’ का भरम होने लगेगा ।
मगर ज़िहाफ़ मज़ाल --अरूज़ और जर्ब के लिए मख़्सूस है अत: अगर यह ज़िहाफ़ किसी सालिम मुसम्मन के अरूज़ और ज़र्ब के मुक़ाम पर भी लगा होगा तो भी ्मुसम्मन सालिम मज़ाल ’ का भरम पैदा करेगा
मगर जब ’दूसरे" या छ्ठें मक़ाम पर ’मज़ाल’ हो तो यक़ीनन वह शे’र ’मुरब्ब: मज़ाल मुज़ाइफ़’ ही होगी -कारण कि मुरब्ब: मे ’हस्व’ का मुक़ाम नही होता जब कि मुसम्मन के मिसरा में 2-हस्व के मुक़ाम होते है
एक बात और ---मुरब्ब: मुज़ाइफ़ में ’अरूज़ी वक़्फ़ा’ // ज़रूर होगा जब कि ’मुसम्मन’ में यह अनिवार्य [नागुज़ीर] शर्त नहीं है यानी मुसम्मन में यह अरूज़ी वक़्फ़ा आ भी सकता है और नहीं भी आ सकता है
[4] बहर-ए-रजज़ मुसद्दस सालिम /मज़ाल ; यानी मुसतफ़ इलुन [2212] शे’र में 6-बार [मिसरा में 3- बार]
मुस तफ़ इलुन----मुस तफ़ इलुन--मुस तफ़ इलुन / मुस तफ़ इलान
2 2 1 2---------2 2 1 2---------2 2 1 2 / 22121
उदाहरण-खुदसाख़्ता एक शे’र है
वादा निभाना आप को आता नही
अस्बाक़-ए-उलफ़त आप को समझाए कौन ?
तक़्तीअ भी देख लेते हैं-
2 2 1 2 / 2 2 1 2 / 2 2 1 2
वादा निभा / ना आप को / आता नही
2 2 1 2 / 2 2 1 2 / 2 2 1 2 1
अस् बाक़ उल/ फ़त आप को / समझाए कौन ?
यानी पहला मिसरा मुसद्दस सालिम का है और दूसरा मिसरा मुसद्द्स मज़ाल का है -और दोनों का ख़्ल्त जायज़ है -यानी अरूज़ और ज़र्ब में सालिम [2212] और मज़ाल [22121] लाया जा सकता है। और आप चाहे तो दोनो ही जगह यानी अरूज़ और ज़र्ब में ’मज़ाल ’ मुस तफ़ लान’ ला सकते हैं।
[5]- बहर-ए-रजज़ मुसद्दस सालिम मुज़ाइफ़ : यानी एक शेर में 12 रुक्न [मिसरा में 6 रुक्न]
मुस तफ़ इलुन----मुस तफ़ इलुन--मुस तफ़ इलुन -----मुस तफ़ इलुन----मुस तफ़ इलुन--मुस तफ़ इलुन
2 2 1 2---------2 2 1 2---------2 2 1 2 --------2 2 1 2---------2 2 1 2---------2 2 1 2
उदाहरण--एक बार फिर कमाल अहमद सिद्दीक़ी साहब के हवाले से
जो कुछ हमारे साथ इस ज़ालिम ज़माने ने किया, तुम जानते हो और हम
ख़ामोश क्यों बैठे रहे ,क्यों जुल्म हम सहते रहे, झूटा है ये सारा भरम
तक़्तीअ भी देख लेते हैं
2 2 1 2/ 2 2 1 2 / 2 2 1 2 / 2 2 1 2 / 2 2 1 2/ 2 2 1 2
जो कुछ हमा / रे साथ इस / ज़ालिम ज़मा / ने ने किया, / तुम जानते / हो और हम
2 2 1 2 / 2 2 1 2/ 2 2 1 2 / 2 2 1 2 / 2 2 1 2 / 2 2 1 2
ख़ामोश क्यों / बैठे रहे ,/ क्यों जुल् म हम / सहते रहे, / झूटा है ये / सारा भरम
यहाँ एक दो बात कर लेना ज़रूरी समझता हूँ ।
बह्र-ए-रजज़ मुसद्दस सालिम मुज़ाल का अगर मुज़ाइफ़ शकल बनाई जाए तो --????
कुछ नही। बस ऐसे ही बनेगा । बस तीसरे ---छठे---नौवें और बारहवें मुक़ाम पे ’मुज़ाल’[यानी ’मुस तफ़ इलान" 22121 ज़रूर लाना होगा और साथ ही तीसरे और नौवें रुक्न के बाद ’अरूज़ी वक़्फ़ा’ भी होना चाहिए ।
[6] बहर-ए-रजज़ मुसम्मन सालिम
मुस तफ़ इलुन----मुस तफ़ इलुन--मुस तफ़ इलुन ---मुस तफ़ इलुन
2 2 1 2---------2 2 1 2---------2 2 1 2 ------ 2 2 1 2
उदाहरण---इब्ने इन्शा की एक बहुत ही मशहूर ग़ज़ल है-आप ने भी सुना होगा
कल चौदहवीं की रात थी ,शब भर रहा चर्चा तेरा
कुछ ने कहा ये चाँद है ,कुछ ने कहा चेहरा तेरा
हम भी वहाँ मौज़ूद थे ,हमसे भी सब पूछा किए
हम हँस दिए हम चुप रहे मंज़ूर था पर्दा तेरा
मतला की तक़्तीअ देख लेते है -एक बार
2 2 1 2 /2 2 1 2 / 2 2 1 2 / 2 2 1 2
कल चौदवीं / की रात थी ,/ शब भर रहा / चर् चा तिरा
2 2 1 2 / 2 2 1 2/ 2 2 1 2 /2 2 1 2
कुछ ने कहा / ये चाँद है ,/ कुछ ने कहा /चेरा तिरा
दूसरे शे’र की तक़्तीअ आप कर सकते हैं-प्रयास कीजिए
[7] बह्र-ए-रजज़ मुसम्मन सालिम मज़ाल
मुस तफ़ इलुन----मुस तफ़ इलुन--मुस तफ़ इलुन ---मुस तफ़ इलान
2 2 1 2---------2 2 1 2---------2 2 1 2 ------ 2 2 1 2 1
उदाहरण---एक मिसाल देख लेते है [कमाल अहमद सिद्दीक़ी साहब के हवाले से]
गो देखने में सादा है ,आइना है उसका ज़मीर
इल्म-ओ-अमल,दानिश का वो रखता है सरमाया ख़तीर
तक़्तीअ कर के देख लेते हैं
2 2 1 2 / 2 2 1 2 / 2 2 1 2 / 2 2 1 2 1
गो दे ख ने /में साद: है ,/ आई न: है /उस का ज़मीर
2 2 1 2 / 2 2 1 2 / 2 2 1 2 / 2 2 1 2 1
इल् मो अ मल /,दानिश का वो / रखता है सर /माया ख़तीर
यहाँ अरूज़ और ज़र्ब दोनो ही मुक़ाम पर ’मुस तफ़ इलान ’[22121] लाया गया है । वैसे इस बहर के लिए ’ज़र्ब’ में ही अगर ;मज़ाल’ लाया जाता तो भी बह्र का नाम यही रहता चाहे अरूज़ में भले ही ’सालिम’ मुस तफ़ इलुन’ 2212 क्यों न लाया गया हो} ख़ैर
[8] बहर-ए-रजज़ मुसम्मन सालिम मुज़ाइफ़ : [यानी एक शे’र में 16-बार या मिसरा में 8-बार ] कभी कभी इस को 16-रुक्नी बहर भी कहते हैं
मुस तफ़ इलुन----मुस तफ़ इलुन--मुस तफ़ इलुन ---मुस तफ़ इलुन---मुस तफ़ इलुन----मुस तफ़ इलुन--मुस तफ़ इलुन ---मुस तफ़ इलुन
2 2 1 2---------2 2 1 2---------2 2 1 2 ------ 2 2 1 2 -----2 2 1 2---------2 2 1 2---------2 2 1 2 ------ 2 2 1 2
उदाहरण--कमाल अहमद सिद्दीक़ी साहब के हवाले से एक बार फिर
[यह कमाल साहब का ही कमाल है कि इतनी बड़ी बहर में शे’र कहा है]ख़ैर
दुनिया को मत इल्ज़ाम दो अच्छे है सब लेकिन दबा रख्खा है इनको जब्र ने ,इस जब्र से हम सब लड़ें
बर्दास्त करना ज़ुल्म सहना जुर्म है नाकारा कर रख्खा है हमको सब्र ने ,इस सब्र से हम सब लड़ें
तक़्तीअ भी देख लेते है ज़रा-
2 2 1 2 / 2 2 1 2/ 2 2 1 2 / 2 2 1 2 / 2 2 1 2 / 2 2 1 2 / 2 2 1 2 / 2 2 1 2
दुन या कू मत / इल जा म दो / अच्छे है सब / लेकिन दबा / रख्खा है इन /को जब् र ने ,/ इस जब र से / हम सब लड़ें
2 2 1 2 / 2 2 1 2 / 2 2 1 2 / 2 2 1 2 / 2 2 1 2 / 2 2 1 2 / 2 2 1 2 / 2 2 1 2
बर् दास् कर / ना ज़ुल् म् सह / ना जुर् म् है / नाकार कर / रख् खा है हम / को सब् र् ने / ,इस सब् र् से/ हम सब लड़ें
[यहाँ बर्दास्त् के बारे में थोड़ा चर्चा कर लेते है
बर्दास्त [ बर् दा स् त् -में अन्त में 3 साकिन [अलिफ़--सीन--ते ] एक साथ आ गए} ऐसी स्थिति में ’दूसरा साकिन’ मुतहर्रिक और ’तीसरा साकिन ’साक़ित’ हो जायेगा । इसी लिए यहाँ मैने -आखिरी -’त्’ को साक़ित कर दिया। अच्छा जब 3-मुतहर्रिक एक साथ आ जाये तो ???? अजी छोड़िए भी---यह तो आप जानते ही है -फिर से क्या बताना !
बहर-ए-रजज़ के सालिम रुक्न का बयान खत्म हुआ ।अब अगले क़िस्त में बहर-ए-रजज़ की मुज़ाहिफ़ बहूर की चर्चा करेंगे
आप की टिप्पणी का इन्तज़ार रहेगा
--इस मंच पर और भी कई साहिब-ए-आलिम मौज़ूद हैं उनसे मेरी दस्तबस्ता [ हाथ जोड़ कर] गुज़ारिश है कि अगर कहीं कोई ग़लत बयानी या ग़लत ख़यालबन्दी हो गई हो तो निशान्दिही ज़रूर फ़र्मायें ताकि मैं ख़ुद को दुरुस्त कर सकूं ।मेरी मज़ीद [अतिरिक्त] रहनुमाई फ़र्माये ।मम्नून-ओ-शुक्रगुज़ार रहूँगा।
अभी बह्र के कुछ बयां और भी हैं..........
ज़िहाफ़ात् के कुछ निशां और भी हैं.....
एक बात बड़े ही अदब से एतराफ़ [स्वीकार] करता हूँ कि इन तमाम अक़्सात ,तज़्क़िरात और तहरीर के लिए अपने आलिम अरूज़ी साहिबान कमाल अहमद सिद्द्क़ी साहब , डा0 शम्सुर्र्हमान फ़ारुक़ी साहब ,आलिम जनाब सरवर आलम राज़ ’सरवर ’ साहब , अजीज दोस्त डा0 आरिफ़ हसन ख़ान साहब का और कुछ दीगर दोस्तों का तह-ए-दिल से मम्नून-ओ-मश्कूर हूँ जिनकी किताबों से कुछ पढ़ सका ,समझ सका और लिख सका ।वगरना इस हक़ीर में इतनी बिसात कहाँ इतनी औक़ात कहां । इन तज़्क़िरात में मेरा कुछ भी अपना नहीं है बस आलिम साहिबान के अरूज़ पर किए गए कामों का फ़क़त हिन्दी तर्जुमा समझिए बस ........
एक बात और--
न आलिम ,न मुल्ला ,न उस्ताद ’आनन’
अदब से मुहब्बत ,अदब आशना हूँ
[नोट् :- पिछले अक़सात [क़िस्तों ]के आलेख [ मज़ामीन ]आप मेरे ब्लाग पर भी देख सकते हैं
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or
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-आनन्द.पाठक-