रविवार, 24 दिसंबर 2017

उर्दू बह्र पर एक बातचीत : क़िस्त 39 [रजज़ की सालिम बह्रें]

उर्दू बह्र पर एक बातचीत : क़िस्त 39 [ रजज़ की सालिम बह्रें ]

Discliamer clause -वही जो क़िस्त 1 में है 

बहर-ए-रजज़ का बुनियादी रुक्न  है -मुस् तफ़् इलुन् ’ [2212]

यह एक सालिम रुक्न है। सालिम क्यों? क्यों कि इस रुक्न पर अभी कोई ज़िहाफ़ नहीं लगा है
यह बह्र भी " दायरा-ए-मुज्तल्बिया " से निकली है  जैसे बहर-ए-हज़ज और बहर-ए-रमल  निकली हुई है।
यह बहर भी एक वतद[1] और दो  सबब [2] से मिलकर बनती है -यानी 7-हर्फ़ी रुक्न है हज़ज और रमल की तरह
रजज़ = मुस तफ़ इलुन [ 2 2 12] = सबब-ए-ख़फ़ीफ़  [ मुस ] +सबब-ए-खफ़ीफ़ [तफ़] +वतद-ए-मज्मुआ [इलुन]
  = मुस +तफ़ +इलुन
  =  2  +2  +  3     = 7 हर्फ़  यानी यह भी एक सुबाई बह्र है

[ थोड़ा हट कर कुछ और चर्चा कर लेते है- शायद आप को दिलचस्प लगे।जब तमाम सालिम बह्र वतद और सबब के combination aut permutation से ही बनती है तो फिर सबब-ए-ख़फ़ीफ़ के लिये [ --फ़ा---ई---लुन---मुस---तफ़--मुफ़---ऊ---] लाने की क्या ज़रूरत थी सबका वज़न तो - 2- है। किसी एक से भी काम चल सकता था।
और उसी तरह वतद के लिए [--मफ़ा---इला---इलुन---लतुन--] लाने की क्या ज़रूरत थी ।सबका वज़न तो -3- ही होता है। इसमें से किसी एक से भी तो काम चल सकता था
ख़ैर--कमाल अहमद साहब ने भी इस पर सोचा ,मैने भी सोचा --आप भी सोचिए-- शायद कोई बात निकल आए। क्लासिकल अरूज़ी की बातें है सदियों से ऐसे ही चला आ रहा है । हम भी ऐसा ही मानते हुए आगे बढ़ते है
जैसे बहर-ए-रमल  की बुनियादी रुक्न [फ़ाइलातुन’ [ 2 12 2 ] को दो तरीक़े से लिखा जा सकता है
[1] मुत्तसिल शकल
[2] मुन्फ़सिल शकल
उसी प्रकार ’मुस तफ़ इलुन’  [2 2 12] भी दो तरह से लिखा जा सकता है

[1] मुतस्सिल शकल = रुक्न की वो शकल जिसमें सारे हर्फ़ [मीम,सीन,ते,फ़े ,ऐन ,लाम.नून] -उर्दू स्क्रिप्ट में मिलाकर [ सिलसिलेवार] लिखे जाते है यानी मुसतफ़इलुन [ इसमें "इलुन’ वतद मज्मुआ के शकल [हरकत+हरकत+साकिन] के शकल में रहती है। यानी इस वतद में दोनो हरकत वाली हर्फ़ एक साथ ’जमा’ हो गई है इसी किये इसे ’वतद मज्मुआ’ कहते है
[2] मुन्फ़सिल शकल= रुक्न की वो शकल जिसमें कुछ हर्फ़ ’फ़ासिला’ देकर [ख़ास तौर से   "तफ़ अ"[ ते,फ़े,ऐन-यहाँ -ऐन मय हरकत है] लिखते है । इसमें ’तफ़ अ’ --;वतद मफ़रूक़’ है यानी [हरकत+साकिन+हरकत] यानी दो हरकत वाले हर्फ़ में फ़र्क है-इसी लिए इसे वतद मफ़रूक़ कहते है
खैर - यह बात पिछले क़िस्त में भी कर चुका हूं। ख़ूबी यह कि दोनो शकलों में  वज़न एक ही है [2212] और दोनो ही 7-हर्फ़ी रुक्न है
अच्छा ,तो फिर इस शकल [वतद-ए-मफ़रुक़] की ज़रूरत क्यों पड़ी? कारण वही जो बहर-ए-रमल में बयान किया था । एक बार फिर चर्चा कर देता हूँ कि बात अच्छी तरह ज़ेहन नशीन हो जाये।
दरअस्ल "वतद-ए-मफ़रुक़"  वाली शकल की रुक्न,  मुरक्क़ब बहरों में प्रयोग की जाती है जैसे--मुजतस---ख़फ़ीफ़---ज़दीद--में इस शकल का प्रयोग होता है और इन बहरों में ज़िहाफ़ ’वतद-ए-मज्मुआ’ वाला नहीं ,’वतद-ए-मफ़रूक़ ’ वाला लगेगा। यह निकात की बात है । लोग ग़लती से इन बहूर में मात्र ’वतद’ देख कर  वतद-ए-मज्मुआ’ पर लगने वाली ज़िहाफ़  लगा देते हैं ।इस बात की चर्चा विस्तार से उधर ही करूंगा जब ’मुरक़्कब बहर की चर्चा करेंगे। शोशा:  यहीं छोड़े जाता हूं।
एक दिलचस्प बात और --
अब आप के पास ’रमल’ और ’रजज़ " के दो रुक्न ऐसे हो गए जो ’वतद-ए-मफ़रूक़’ [ हरकत+साकिन+हरकत] वाली शकल के है
इसके अतिरिक्त एक रुक्न और है जिसमें ’वतद-ए-मफ़रूक़’ का प्रयोग होता है और जिसकी चर्चा भी बहुत पहले शुरु शुरु में की थी --"मुझे याद है कुछ ज़रा ज़रा तुम्हे याद हो कि न याद हो"-- और वह रुक्न है  =मफ़ऊलातु= [ 2 2 2 1]
यानी -लातु- [लाम ,अलिफ़, ते]में -तु- मुतहर्रिक है यानी [हरकत+साकिन+हरकत]-यानी यह भी ’वतद-ए-मफ़रूक़’ वाली शकल के हैं अर्थात अब कुल मिला कर अब 3- रुक्न ऐसे हो गए आप के पास।
अगरचे ,’मफ़ऊलातु’ सालिम रुक्न तो है मगर किसी सालिम बहर में आता नहीं ---कारण कि इसका आखिरी हर्फ़ -तु- मुतहार्रिक है और किसी शे’र या मिसरा के आखिर हर्फ़ ’मुतहर्रिक ’ नहीं होता
अत: तीनो रुक्न [ वतद-ए-मफ़रुक़ की शकल वाली] सालिम मुफ़र्द [एकल रुक्न वाली बहर] में नहीं होता न ही इस से कोई सालिम बहर ही बनती है .बल्कि मुरक़्क़ब बहरों में होता है।
ख़ैर--
बहर-ए-रजज़ की सालिम बहर -मुरब्ब:--मुसद्दस--मुसम्मन पर चर्चा तो आसान है।
[1] बहर-ए-रजज़ मुरब्ब: सालिम
मुस तफ़ इलुन----मुस तफ़ इलुन [यहाँ रुक्न को तोड़ तोड़ कर इस लिए दिखा रहे हैं कि आप को पता चलता रहे कि रुक्न सबब+सबब+वतद से बना है ।वरना तो रुक्न ’मुसतफ़इलुन’[2212] ही है
2   2  1 2        ---2 2 1 2 [शे’र में चार बार -]
उदाहरण-खुदसाख़्ता एक शे’र हैं

होगा यकीं तुम को नहीं
हर साँस में हो तुम बसी 
तक़्तीअ कर के देखते हैं 2   2  1 2  /  2  2   1 2
होगा यकीं  /तुम को नहीं
2     2  1 2 /  2  2 1  2
हर साँस में /हो तुम बसी

[2] बहर-ए-रजज़ मुरब्ब:  मज़ाल
मुस तफ़ इलुन----मुस तफ़ इलान
2   2   12        ---2 2 1 21
एक ज़िहाफ़ होता है ’इज़ाला’ जो "वतद-ए-मज्मुआ’ [यानी इस केस में ’इलुन’ [12] पर लगेगा ]’पर लगता है और मुज़ाहिफ़ का नाम होता है "मज़ाल’ और यह ज़िहाफ़ अरूज़ और ज़र्ब के लिए ख़ास होता है । इस ज़िहाफ़ में रुक्न के आखिर में एक साकिन [अलिफ़]बढ़ जाता है अत: ’मुस तफ़ इलुन" [2212 ] पर इज़ाला का अमल होगा तो मुज़ाहिफ़ मज़ाल ’ मुस तफ़ इलान ’[ 22121] हो जायेगा। और आप जानते ही हैं कि शे’र के आखिर में एक हर्फ़-ए-साकिन के बढ़ जाने से बहर/वज़न में कोई फ़र्क नहीं पड़ता ।
इसी कारण अरूज़  और ज़र्ब में ’मुसतफ़इलुन’2212]  की जगह ’मुस तफ़ इलान [22121]’ और मुस तफ़ इलान[22121]’ की जगह ’मुस तफ़ इलुन’[2212] लाया जा सकता है
उदाहरण -
क़ातिल् लुटेरे आज कल्
पाते हैं इनाम-ए-ख़तीर 

अब तक़्तीअ भी देख लेते हैं-
2   2      12  / 2 2 1    2
क़ा तिल् लुटे / रे आज कल्/
2  2 1  2   /  2  1  1 2  1
पाते हैं ई   / ना  मे  ख़तीर
यहाँ ज़र्ब में मुस तफ़ इलान [22121] है जब कि अरूज़ में ’मुस तफ़ इलुन [2212] है और यह जायज है और बह्र का नाम निर्धारण भी इसी ज़र्ब में मुस्तमिल रुक्न के आधार पर होगा ।


[3]  बहर-ए-रजज़ मुरब्ब: मज़ाल  मुज़ाइफ़  : यानी मुरब्ब: मज़ाल  को दुगुना [मुज़ाइफ़] कर देने के बाद बरामद हुई बह्र
मुस तफ़ इलुन----मुस तफ़ इलान-//--मुस तफ़ इलुन----मुस तफ़ इलान
2   2  1 2        ---2 2 1 21 //-----2   2  1 2        ---2 2 1 21
उदाहरण :कमाल अहमद सिद्दीक़ी  साह्ब के हवाले से

हूँ जिसकी ज़ुल्फ़ों का असीर ,वो गुलबदन बद्र-ए-मुनीर
वो है बहारों का सफ़ीर ,इसकी नहीं कोई नज़ीर

तक़्तीअ भी आप देख लें--एक इशारा कर देता हूँ
2    2    1    2    /  2  2    1  2 1//  2  2   12     / 2 2  1 2 1
हूँ जिस की ज़ुल / फ़ो का असीर//  ,वो गुल बदन / बद् रे मुनीर
2   2  1 2  / 2  2  1 2  1  //    2 2 1  2  / 2 2  1 2 1
वो है बहा / रों का सफ़ीर ,// इसकी नहीं /  कोई नज़ीर--

यहां एक बात स्पष्ट कर दें-- अगर ’मुरब्ब:सालिम" को ’मुज़ाइफ़’ [2-गुना ] कर दें तो हर मिसरा में 4-रुक्न हो जायेगा[यानी शे’र में 8-रुक्न] तो फिर ये ’मुसम्मन सालिम’ का भरम होने लगेगा ।
मगर ज़िहाफ़ मज़ाल --अरूज़ और जर्ब के लिए मख़्सूस है अत: अगर यह ज़िहाफ़ किसी  सालिम मुसम्मन के अरूज़ और ज़र्ब के मुक़ाम पर भी लगा होगा तो भी  ्मुसम्मन सालिम मज़ाल ’ का भरम पैदा करेगा
मगर जब ’दूसरे" या छ्ठें  मक़ाम पर ’मज़ाल’ हो तो यक़ीनन वह शे’र ’मुरब्ब: मज़ाल मुज़ाइफ़’ ही होगी -कारण कि मुरब्ब: मे ’हस्व’ का मुक़ाम नही होता जब कि मुसम्मन के मिसरा में 2-हस्व के मुक़ाम होते है
एक बात और ---मुरब्ब: मुज़ाइफ़ में ’अरूज़ी वक़्फ़ा’ // ज़रूर होगा जब कि ’मुसम्मन’ में यह अनिवार्य [नागुज़ीर] शर्त नहीं है यानी मुसम्मन में यह अरूज़ी वक़्फ़ा आ भी सकता है और नहीं भी आ सकता है
[4] बहर-ए-रजज़ मुसद्दस सालिम /मज़ाल ; यानी मुसतफ़ इलुन [2212] शे’र में 6-बार [मिसरा में 3- बार]
मुस तफ़ इलुन----मुस तफ़ इलुन--मुस तफ़ इलुन / मुस तफ़ इलान
2  2  1 2---------2 2 1 2---------2 2 1 2 / 22121
उदाहरण-खुदसाख़्ता एक शे’र है

वादा निभाना  आप को आता नही
अस्बाक़-ए-उलफ़त आप को समझाए कौन ?

तक़्तीअ भी देख लेते हैं-
2  2   1 2  /   2   2  1   2  / 2  2  1 2
  वादा निभा /   ना  आप को / आता नही
2      2  1   2   /  2    2  1  2   / 2  2  1  2 1
अस् बाक़ उल/  फ़त आप को / समझाए कौन ?
यानी पहला मिसरा मुसद्दस सालिम का है और दूसरा मिसरा मुसद्द्स मज़ाल का है -और दोनों का ख़्ल्त जायज़ है -यानी अरूज़ और ज़र्ब में सालिम [2212] और मज़ाल [22121] लाया जा सकता है। और आप चाहे तो दोनो ही जगह यानी अरूज़ और ज़र्ब में ’मज़ाल ’ मुस तफ़ लान’ ला सकते हैं।

[5]-  बहर-ए-रजज़ मुसद्दस सालिम मुज़ाइफ़  : यानी एक शेर में 12 रुक्न [मिसरा में 6 रुक्न]
मुस तफ़ इलुन----मुस तफ़ इलुन--मुस तफ़ इलुन -----मुस तफ़ इलुन----मुस तफ़ इलुन--मुस तफ़ इलुन
2  2  1 2---------2 2 1 2---------2 2 1 2 --------2  2  1 2---------2 2 1 2---------2 2 1 2
उदाहरण--एक बार फिर कमाल अहमद सिद्दीक़ी साहब के हवाले से

जो कुछ हमारे साथ इस ज़ालिम ज़माने ने किया, तुम जानते हो और हम
ख़ामोश क्यों बैठे रहे ,क्यों जुल्म हम सहते रहे, झूटा है ये सारा  भरम

तक़्तीअ भी देख लेते हैं
2     2    1   2/ 2 2 1   2   / 2  2    1   2   / 2 2 1 2    / 2   2  1  2/ 2  2 1 2
जो कुछ हमा / रे साथ इस /  ज़ालिम ज़मा / ने ने किया, / तुम जानते / हो और हम
2     2  1   2  / 2 2 1 2/  2  2      1  2    /  2  2   1  2 / 2  2 1 2  / 2  2   1 2
ख़ामोश क्यों / बैठे रहे ,/ क्यों जुल् म  हम /  सहते रहे, / झूटा है ये   /  सारा  भरम

यहाँ एक दो बात कर लेना ज़रूरी समझता हूँ ।
 बह्र-ए-रजज़ मुसद्दस सालिम मुज़ाल का अगर मुज़ाइफ़ शकल बनाई जाए तो --????
कुछ नही। बस ऐसे ही बनेगा । बस  तीसरे  ---छठे---नौवें और बारहवें मुक़ाम पे ’मुज़ाल’[यानी  ’मुस तफ़ इलान" 22121 ज़रूर लाना होगा और साथ ही तीसरे और नौवें रुक्न के बाद ’अरूज़ी वक़्फ़ा’ भी होना चाहिए ।

[6] बहर-ए-रजज़ मुसम्मन सालिम 
मुस तफ़ इलुन----मुस तफ़ इलुन--मुस तफ़ इलुन ---मुस तफ़ इलुन
2  2  1 2---------2 2 1 2---------2 2 1 2  ------ 2 2 1 2
उदाहरण---इब्ने इन्शा की एक बहुत ही मशहूर ग़ज़ल है-आप ने भी सुना होगा

कल चौदहवीं की रात थी ,शब भर रहा चर्चा तेरा
कुछ ने कहा ये चाँद है ,कुछ ने कहा चेहरा  तेरा

हम भी वहाँ मौज़ूद थे ,हमसे भी सब पूछा  किए
हम हँस दिए हम चुप रहे मंज़ूर था पर्दा तेरा

मतला की तक़्तीअ देख लेते है -एक बार
   2   2   1 2  /2  2 1 2    /  2   2   1 2 /   2 2 1 2
कल चौदवीं / की रात थी ,/ शब भर रहा / चर् चा  तिरा
2      2  1  2  / 2  2 1  2/    2  2  1  2    /2  2 1 2
कुछ ने कहा / ये चाँद है ,/ कुछ ने कहा    /चेरा  तिरा

दूसरे शे’र की तक़्तीअ आप कर सकते हैं-प्रयास कीजिए

[7] बह्र-ए-रजज़ मुसम्मन सालिम मज़ाल
मुस तफ़ इलुन----मुस तफ़ इलुन--मुस तफ़ इलुन ---मुस तफ़ इलान
2  2  1 2---------2 2 1 2---------2 2 1 2  ------ 2 2 1 2 1
उदाहरण---एक मिसाल देख लेते है [कमाल अहमद सिद्दीक़ी साहब के हवाले से]

गो देखने में सादा है ,आइना है उसका ज़मीर
इल्म-ओ-अमल,दानिश का वो रखता है सरमाया ख़तीर 
तक़्तीअ कर के देख लेते हैं
2   2   1  2   / 2 2 1 2  /     2 2 1 2  /  2   2   1 2 1
गो दे ख ने   /में साद: है ,/  आई न:  है  /उस का ज़मीर
2    2   1  2     / 2  2     1  2   /   2  2  1 2    / 2 2 1 2 1
इल् मो अ मल /,दानिश का वो /  रखता है सर /माया ख़तीर

यहाँ अरूज़ और ज़र्ब दोनो ही मुक़ाम पर ’मुस तफ़ इलान ’[22121] लाया गया है  । वैसे इस बहर के लिए ’ज़र्ब’ में ही अगर ;मज़ाल’ लाया जाता तो भी बह्र का नाम यही रहता चाहे अरूज़ में भले ही ’सालिम’ मुस तफ़ इलुन’ 2212 क्यों न लाया गया हो} ख़ैर
[8]  बहर-ए-रजज़ मुसम्मन सालिम मुज़ाइफ़ :  [यानी एक शे’र में 16-बार या मिसरा में 8-बार ] कभी कभी इस को 16-रुक्नी बहर भी कहते हैं
मुस तफ़ इलुन----मुस तफ़ इलुन--मुस तफ़ इलुन ---मुस तफ़ इलुन---मुस तफ़ इलुन----मुस तफ़ इलुन--मुस तफ़ इलुन ---मुस तफ़ इलुन
2  2  1 2---------2 2 1 2---------2 2 1 2  ------ 2 2 1 2     -----2  2  1 2---------2 2 1 2---------2 2 1 2  ------ 2 2 1 2
उदाहरण--कमाल अहमद सिद्दीक़ी साहब के हवाले से एक बार फिर
[यह कमाल साहब का ही कमाल है कि इतनी बड़ी बहर में शे’र कहा है]ख़ैर

दुनिया को मत इल्ज़ाम दो अच्छे है सब लेकिन दबा रख्खा है इनको जब्र ने ,इस जब्र से हम सब लड़ें
बर्दास्त करना  ज़ुल्म सहना जुर्म है नाकारा कर रख्खा है हमको सब्र ने ,इस  सब्र  से हम सब लड़ें

तक़्तीअ भी देख लेते है ज़रा-
 2   2    1   2  / 2   2   1   2/    2 2 1  2    /  2 2 1  2   / 2   2  1    2 /  2   2  1 2 /  2   2    1  2 / 2  2  1   2
दुन या कू मत / इल जा म दो / अच्छे है सब / लेकिन दबा / रख्खा है इन /को जब् र ने ,/ इस जब र से / हम सब लड़ें
2    2    1  2   /   2  2  1    2   /  2  2  1   2  /  2  2 1  2  /  2   2    1  2   /  2   2  1  2 /  2  2    1  2   / 2  2   1 2
बर् दास्  कर / ना  ज़ुल् म् सह / ना जुर् म्  है / नाकार कर / रख् खा  है हम / को सब् र् ने / ,इस सब् र्  से/ हम सब लड़ें
[यहाँ बर्दास्त् के बारे में थोड़ा चर्चा कर लेते है
बर्दास्त [ बर् दा स् त् -में अन्त में  3 साकिन [अलिफ़--सीन--ते ] एक साथ आ गए} ऐसी स्थिति में  ’दूसरा साकिन’ मुतहर्रिक और  ’तीसरा साकिन ’साक़ित’ हो जायेगा । इसी लिए यहाँ मैने -आखिरी -’त्’ को साक़ित कर दिया। अच्छा जब 3-मुतहर्रिक एक साथ आ जाये तो ???? अजी छोड़िए भी---यह तो आप जानते ही है -फिर से क्या बताना !
बहर-ए-रजज़ के सालिम रुक्न का बयान खत्म हुआ ।अब अगले क़िस्त में बहर-ए-रजज़ की मुज़ाहिफ़ बहूर की चर्चा करेंगे

आप की टिप्पणी का इन्तज़ार रहेगा

--इस मंच पर और भी कई साहिब-ए-आलिम मौज़ूद हैं उनसे मेरी दस्तबस्ता [ हाथ जोड़ कर] गुज़ारिश है कि अगर कहीं कोई ग़लत बयानी या ग़लत ख़यालबन्दी  हो गई हो तो निशान्दिही ज़रूर फ़र्मायें ताकि मैं ख़ुद को  दुरुस्त कर सकूं ।मेरी मज़ीद [अतिरिक्त] रहनुमाई फ़र्माये ।मम्नून-ओ-शुक्रगुज़ार रहूँगा।

अभी बह्र के कुछ बयां और भी हैं..........
ज़िहाफ़ात् के कुछ निशां और भी हैं.....

एक बात बड़े ही अदब से एतराफ़ [स्वीकार] करता हूँ कि इन तमाम अक़्सात ,तज़्क़िरात  और तहरीर के लिए अपने आलिम अरूज़ी साहिबान  कमाल अहमद सिद्द्क़ी साहब , डा0 शम्सुर्र्हमान फ़ारुक़ी साहब ,आलिम जनाब  सरवर आलम राज़ ’सरवर ’ साहब  , अजीज  दोस्त डा0 आरिफ़ हसन ख़ान साहब  का  और कुछ दीगर दोस्तों का तह-ए-दिल  से मम्नून-ओ-मश्कूर हूँ जिनकी किताबों से  कुछ पढ़ सका ,समझ सका और लिख सका ।वगरना इस हक़ीर में इतनी  बिसात कहाँ  इतनी औक़ात कहां । इन तज़्क़िरात में  मेरा कुछ भी अपना नहीं है बस  आलिम साहिबान  के अरूज़ पर किए गए कामों का फ़क़त हिन्दी तर्जुमा समझिए बस ........
एक बात और--

न आलिम ,न मुल्ला ,न उस्ताद ’आनन’
अदब से मुहब्बत ,अदब आशना  हूँ

[नोट् :- पिछले अक़सात  [क़िस्तों ]के आलेख [ मज़ामीन ]आप मेरे ब्लाग पर  भी देख सकते हैं 

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or
www.urdusehindi.blogspot.com
-आनन्द.पाठक-

शुक्रवार, 15 दिसंबर 2017

उर्दू बह्र पर एक बातचीर : क़िस्त 38 ( बह्र-ए-रमल की मुसम्मन मुज़ाहिफ़ बह्रें]

उर्दू बह्र पर एक बातचीर : क़िस्त 38 ( बह्र-ए-रमल की मुसम्मन मुज़ाहिफ़ बह्रें]

Discliamer clause -वही जो क़िस्त 1 में है 

---पिछले क़िस्त में बहर-ए-रमल की मुरब्ब: और मुसद्दस मुज़ाहिफ़ बह्रों पे चर्चा कर चुका हूँ । अब इस क़िस्त में रमल की मुसम्मन मुज़ाहिफ़ बह्र पे चर्चा करूंगा।
अगर आप ने रमल की मुसद्दस बह्र समझ लिया है तो समझिए कि आप ने रमल का मुसम्मन बह्र भी समझ लिया है। क्या फ़र्क है--मुसम्मन और मुसद्दस में । एक अतिरिक्त रुक्न का ही तो फ़र्क है और वो भी ’हस्व’ के मुक़ाम पे -वरना तो जो ज़िहाफ़ात मुसद्दस में लगेंगे वही मुसम्मन में भी लगेंगे।
रमल में [ या यूँ कहें कि हज़ज और रजज़ में भी] शायरों ने अपनी शायरी ज़्यादातर मुसद्दस और मुसम्मन में ही  की है और इसके काफी उदाहरण भी  मौज़ूद हैं।
एक -एक कर के उन पर चर्चा करते है
[1] बहर-ए-रमल मुसम्मन सालिम : इस बहर के बारे में पिछले क़िस्त में विस्तार से चर्चा कर चुका हूं } आप चाहें तो एक बार देख सकते है
[2] बहर-ए-रमल मुसम्मन महज़ूफ़: आप जानते है कि रमल की बुनियादी रुक्न ’फ़ाइलातुन’ है [2122] और इसका इसका महज़ूफ़ फ़ा इलुन’ [212]   है और ’महज़ूफ़’ अरूज़’ और ’जर्ब’ के लिए ख़ास है तो बहर की वज़न होगी
फ़ाइलातुन----फ़ाइलातुन----फ़ाइलातुन--- फ़ा इलुन
2122---------2122---------2122-------212
उदाहरण  :- गालिब का एक शे’र है

[क] नक़्श फ़रियादी है किस की शोखी-ए-तहरीर का
काग़ज़ी है पैरहन हर पैकर-ए-तस्वीर  का
तक़्तीअ भी देख लेते है
2    1      2   2   / 2  1  2     2  /   2  1  2  2   / 2 1 2
नक़् श  फ़र या / दी है किस की / शोख-ए-तह /रीर का
2  1   2  2      /  2 1  2  2       /  2 1  2   2   / 2 1 2
काग़ज़ी है      /  पै र हन हर     /  पै क रे-तस् /वीर  का

[ख] मीर का भी एक शे’र देख लें

ज़िन्दगी होती है अपनी ग़म के मारे देखिए
मूँद ली आँखें इधर से तुम ने प्यारे   देखिए

इशारा मैं कर देता हूँ ,तक़्तीअ आप कर लें
2      1  2   2/ 2  1  2   2   /  2  1    2 2 / 212
ज़िन द गी हो /ती है अप नी / ग़म के मारे/ देखिए  [ यहाँ बह्र की माँग पर - है-- के- पर मात्रा गिराई गई है
2  1  2  2   / 2 1 2  2      /    2  1  2  2   / 2 1 2
मूँद ली आँ /खें इधर से       / तुम ने प्यारे /   देखिए [ यहाँ भी -ने- पर मात्रा गिराई गई है]

[3]  बहर-ए-रमल मुसम्मन मक़्सूर  :आप जानते है कि रमल की बुनियादी रुक्न ’फ़ाइलातुन’ है [2122] और इसका मक़्सूर  फ़ाइलान’ [2121 ] है और ’मक़्सूर ख़ास तौर से ’ अरूज़’ और ’जर्ब’ के लिए मख़्सूस  है तो बहर होगी
फ़ाइलातुन----फ़ाइलातुन----फ़ाइलातुन--- फ़ा इलान
2122---------2122---------2122-------2121
ख़ास बात यह कि  शे’र मैं ’महज़ूफ़’ [212]की जगह ’मक़्सूर[2121] ’ और ’मक़्सूर’[2121] की जगह ’महज़ूफ़’[212]  लाया जा सकता है और इसकी इजाज़त भी है।  मगर बह्र का नामकरण ’मिसरा-सानी’ में प्रयुक्त ज़िहाफ़ के लिहाज़ से ही होगा। इस बात की चर्चा पहले क़िस्त में कर चुका हूं
ग़ालिब का एक दूसरा शे’र [उसी ग़ज़ल से ] लेते हैं

[क] काव-कावे सख़्तजानी हाय तनहाई न पूछ
सुबह करना शाम का लाना है जू-ए-शीर का
एक बार तक़्तीअ देख लेते हैं
2   1  2   2  /  2    1   2  2  /   2 1  2  2   / 2 1 2 1 
काव-कावे  /  सख़ त  जानी /  हाय तन हा /ई न पूछ
2     1   2  2   /   2 1  2  2   / 2 1  2  2 / 2 1 2
सुब ह करना  /  शाम का ला /ना है जू-ए-/शीर का
यहाँ अरूज़ के मुक़ाम पर मक्सूर[2121] लाया गया है जब कि जर्ब के मुक़ाम पर महज़ूफ़ [212]  अत: ग़ज़ल की बहर होगी--" बह्र-ए-रमल मुसम्मन महज़ूफ़’   --न कि मक्सूर
[ख] एक शेर मीर का भी देख लेते हैं

किसकी मसजिद ? कैसे मयख़ाने ? कहां के शैख़ो-शाब ?
एक गर्दिश में तेरी चश्म-ए-सियह की  सब खराब
एक बार इस की तक़्तीअ भी देख लेते हैं
2        1    2    2      /  2 1  2  2    / 2 1  2 2     /  2 1 2 1
किस की मस जिद ?/ कैसे मयख़ा  /ने  कहां के    / शैख़-शाब ?
2   1  2  2            /  2 1  2  2     / 2 1  2    2   /  2   1 2 1
एक गर् दिश        / में तिरी चश   / मे सियह की / सब खराब
्संयोग से ,यह शे’र शुद्ध रूप से बहर-ए-रमल मुसम्मन मक़्सूर का उदाहरण है । कारण कि दोनो मिसरों में ’फ़ाइलान’ [ 2121] का प्रयोग हुआ है।मगर किसी ग़ज़ल मे ’फ़ाइलुन[212] और फ़ाइलान [2121] आपस में बदले जा सकते है
बहुत से शायरो ने इस बहर में ग़ज़ल कही है सब को यहाँ लिखना मुनासिब नहीहै-बस इतना ही समझ लीजिये कि बड़ी मक़्बूल बहर है यह।
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अच्छा , अब कुछ रमल पर खब्न ज़िहाफ़ की बात कर लेते है यानी ’रमल मुसम्मन मख्बून’ और रमल मुसम्मन म्ख़्बून महज़ूफ़/मक़्सूर’ पर कुछ बात कर लेते हैं
आप जानते है कि ’फ़ाइलातुन’ [2122] का मख़्बून है ’फ़इलातुन’ [1122]  और यह एक आम ज़िहाफ़ है जो शे’र में किसी मुक़ाम पर लाया जा सकता है
और  महज़ूफ़ [212] और मक़्सूर [ 2121] ख़ास ज़िहाफ़ है जो अरूज़ और जर्ब के मुक़ाम पर ही लाया जा सकता है
और  सदर और इब्तिदा के के मुक़ाम पर सालिम फ़ाइलातुन [2122] की जगह फ़इलातुन भी [1122] लाया जा सकता है । क्यों? मालूम नहीं।
और  फ़ इलातुन [1122] पर ’तस्कीन’ का अमल हो सकता है
यह सब बात पिछले क़िस्त में मुसद्दस की बहस के दौरान लिख चुका हूँ ।एक बार फिर लिख दिया
इन सब बातों पर विचार करने पर combination & permutation से  रमल मुसम्मन मुज़ाहिफ़  की 8-वज़न बरामद हो सकती है
[A] बहर-ए-रमल मुसम्मन मख़्बून महज़ूफ़
फ़ाइलातुन--फ़इलातुन----फ़ इलातुन---फ़इलुन
2122-------1122-------1122-------112
उदाहरण ; ग़ालिब का एक शे’र देखें

शौक़ हर रंग रक़ीब-ए-सर-ओ-सामां निकला
क़ैस तस्वीर के पर्दे में भी उरियां   निकला
इशारा हम  कर देते हैं --तक़्तीअ आप देख लें
  2 1  2    2   / 1 1 2 2 /   1 1    2 2      /    1 1 2
शौक़ हर रन्/ ग रक़ीबे  / स र-ए-सामां        / निकला    [सर्-ए-सामां   --में इज़ाफ़त-ए-कसरा के कारण -र- पर हरकत आ गई सो 1-के वज़न पर लिया गया है]
2   1    2  2   / 1 1  2   2  / 1  1  2   2   / 1 1 2
क़ैस तस वी / र के पर दे / में भी उर यां  / निकला [ -के--में-भी-  बह्र की मांग पर मात्रा गिराई  गई है]
[B] फ़इलातुन--फ़इलातुन----फ़ इलातुन---फ़इलुन
1122-----1122---------1122--  --112 [ फ़ाइलातुन [2122] की जगह  फ़इलुन [1122] लाया जा सकता है]
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[C] बहर-ए-रमल मुसम्मन मख़्बून मक़्सूर
फ़ाइलातुन--फ़इलातुन----फ़ इलातुन---फ़इलान
2122------1122--------1122---  -1121
[D] फ़ाइलातुन--फ़इलातुन----फ़ इलातुन---फ़इलान
1122-----1122---------1122----1121 [ फ़ाइलातुन [2122] की जगह  फ़इलुन [1122] लाया जा सकता है]
नोट  यह चारो वज़न [A]--[B]--[C]--[D] आपस में मुतबादिल है यानी एक दूसरे के स्थान पर लाए जा सकते है 
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[E] बहर-ए-रमल मुसम्मन मख़्बून महज़ूफ़ मुसक्कन
फ़ाइलातुन--फ़इलातुन----फ़ इलातुन---फ़अ लुन [ फ़अ लुन [22]--में -ऐन-साकिन]
2122------1122--------1122---------22
[F] फ़इलातुन--फ़इलातुन----फ़ इलातुन---फ़इलुन
1122-------1122-----1122---------22 [ फ़ाइलातुन [2122] की जगह  फ़इलुन [1122] लाया जा सकता है]
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[G] बहर-ए-रमल मुसम्मन मख़्बून मक़्सूर मुसक्कन
फ़ाइलातुन--फ़इलातुन----फ़ इलातुन---फ़अ लान [फ़अ लान[221] में -ऐन साकिन है] 
2122------1122-------1122-------221
[H] फ़इलातुन--फ़इलातुन----फ़ इलातुन---फ़अ लान 
1122----1122--------1122-------221 [ फ़ाइलातुन [2122] की जगह  फ़इलुन [1122] लाया जा सकता है]।
नोट- यह चारो वज़न [E]---[F]----[G]---[H]  आपस में मुतबादिल है यानी एक दूसरे के स्थान पर लाए जा सकते है
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उदाहरण --
यूँ तो किसी शे’र के दोनो मिसरों को किसी भी एक वज़न में  बांधा जा सकता है मनाही नही है और उसी वज़न में पूरी की पूरी ग़ज़ल भी कही जा सकती है। पर  यह आप के फ़न-ए-शायरी और कमाल-ओ-हुनर पर निर्भर करेगा। मगर ज़्यादातर शायरों ने अपनी ग़ज़ल मे इन तमाम औज़ान [वज़नों] का ख़ल्त किया है और जायज भी है। हम कुछ उदाहरण  में ग़ालिब की ग़ज़लों के चन्द  अश’आर से लेते है जिससे बात साफ़ हो जाये। और मिसरा के अन्त में वज़न की निशान्दिही   A   B   C   D ----भी कर देंगे। ग़ालिब का एक शे’र है--आप ने भी सुना होगा

नुक़्ताचीं है ग़म-ए-दिल उसको सुनाए न बने
क्या बने बात जहाँ   बात बनाए   न बने

इश्क़ पर जोर नहीं है ये वो आतिश ’ग़ालिब’
कि लगाए न लगे और बुझाए  न बुझे    

इसकी तक़्तीअ भी देख लेते हैं--
  2  1    2  2   / 1  1   2      2     / 1  1  2 2 / 1 1 2 ---[A]
नुक़ त चीं है   / ग़म-ए-दिल उस /को सु ना ए /न ब ने
2    1  2   2 / 1  1 2  2        / 1 1 2 2     / 1 1 2 --[A]
क्या बने बा /  त जहाँ   बा      / त ब ना ए     /न ब ने

2    1    2   2    / 1  1  2 2 / 1 1  2     2   / 2  2 --[E]
इश् क़ पर जो  /र नहीं है   / ये वो आतिश /’ग़ालिब’
1    1  2 2    /1  1 2  2   / 1  1 2  2      / 1 1 2 ----[F]
कि लगाए     /न लगे औ  /र बुझाए         / न बु झे 

दोनो शे’र एक ही ग़ज़ल के है --पहले शे’र में कोई ख़ल्त नहीं है
चूँकि मतला के दोनो मिसरा में ’मक्सूर’ बाँध दिया गया है [ख़ास तौर से मिसरा सानी में ]अत: बह्र का नाम होगा ’बहर-ए-रमल मुसम्मन मख्बून मक्सूर’

मगर दूसरे शे’र [मक़्ता] में मिसरा ऊला के सदर मे 2122[सालिम]  और मिसरा सानी के इब्तिदा मे 1122 [मख़्ब्बून] लाया गया है जो जायज़ है
साथ ही  अरूज़ में [22] और जर्ब में 112 लाया गया है  जो जायज है
ग़ालिब के ही दो -तीन अश’आर और देखते हैं--

 इशरत-ए-क़त्ल गहे अहले तमन्ना न पूछ
ईद-ए-नज़्ज़ारा है शमशीर का उरियां होना

दिल हुआ कश्मकश -ए-चारा-ए-जहमत में तमाम
मिट गया घिसने से इस उक़्दे का वा हो जाना 

मुँद गई खोलते ही खोलते आँखें ’ग़ालिब’
यार लाए मेरी बाली पे उसे , पर किस वक़्त

तक़्तीअ कर के देखते है
  2  1   2   2  / 1 1  2  2   / 1 1  2    2   / 1 12 ---- A
इश र ते क़त्/ ल  ग हे अह / ल त मन ना /  न पूछ
1 1       2    2 /  1 1   2   2   / 1  1   2  2    / 2 2 -----F
ईद-ए-नज़ ज़ा / रा है शम शी / र का उरि यां /   होना


2     1  2    2    / 1 1  2  2   / 1  1  2    2    / 1 1 2 1 ----C
दिल हुआ कश/ म क शे-चा / रा-ए-जह मत /में तमाम
2     1  2   2    / 1  1 2    2     / 1  1   2  2 /  2 2 ---E
मिट गया घिस / ने से इस उक़ / दे का वा हो  /जाना

2     1 2  2 / 1 1  2   2  / 1 1  2 2  /  2  2 ---E
मुँद गई खो / ल ते ही खो /ल ते आँखें  / ’ग़ालिब’
2 1   2 2  /  1  1 2 2   / 1 1  2  2    / 2     2  1 ---G
यार लाए /  मेरी बाली   / पे उ से , पर / किस वक़् त

आप चाहें तो आप भी इसी वज़न में अश’आर कह सकते है

एक बात और
फ़इलातुन [1122] में तस्कीन-ए-औसत का अमल हो सकता है तब इसकी शकल " मफ़ऊलुन’ [222] हो जायेगी। यानी फ़इलातुन [1122] की जगह मफ़ऊलुन [222] भी लाया जा सकता है मगर शर्त यह कि बहर न बदल जाये। इस पर नीचे विस्तार से चर्चा कर दिया है
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[9]  बहर-ए-रमल मुसम्मन मख़्बून   : ज़ाहिर है कि इस वज़न में हर रुक्न ’मख्बून’ का ही होगा -यानी
फ़इलातुन--फ़इलातुन----फ़ इलातुन---फ़इलातुन
1122-------1122-----1122---------1122
यही बात [तस्कीन-ए-औसत की ]यहां भी लागू होगी
उदाहरण-- डा0 आरिफ़ हसन खान साहब के हवाले से

मेरी आवाज़ पे क्या  बाँध लगायेगा ज़माना
मैं हूं ’आरिफ़’ कोई तुग़यानी पे आया हुआ दरिया

इसकी तक़्तीअ कर के भी देख लेते हैं
1   1   2  2 / 1  1  2   2   / 1 1 2 2  / 1 1 2 2
मेरी आवा  / ज़ पे क्या  बाँ/ ध ल गाये /गा ज़माना          [ यहाँ मेरी को  ’मि रि ’ को 1 1 के वज़न पर लिया गया है ,कोई को कु इ [1 1] के वज़न पर लिया गया है और बाक़ी जगह बह्र की माँग पर मात्रायें गिराई गई है।
1  1   2    2   /   1  1 2   2    / 1  1  2 2 / 1 1  2  2
मैं हूं ’आरिफ़’/ कोई  तुग़ या / नी पे आया / हुआ दरिया
 एक बात और --
अगर आप ध्यान से देखें तो ’फ़इलातुन [1 1 2 2 ] में तीन मुतहर्रिक [फ़े --ऐन---लाम ] एक साथ आ गये हैं जिस पर ’तस्कीन-ए-औसत का अमल लग सकता है जिससे ’ फ़ इलातुन [1122] --- ’मफ़ ऊ लुन [2 2 2] हो सकता है
इस हिसाब से किसी एक मख़्बून  या सभी मख़्बून को ’मफ़ उ लुन ’[2 2 2] से बदला जा सकता है शर्त यह कि बह्र न बदल जाये
मतलब यह कि ऊपर दिखाये गये अगर सभी मख़्बून [1122] को मफ़ ऊ लुन [222] से बदल दे तो ?
बहर हो जायेगी

मफ़ ऊ लुन------मफ़ ऊ लुन-----मफ़ ऊ लुन-----मफ़ऊलुन
222-------------222-------------222-----------222
  यानी आहंग अब ’मुतक़ारिब’ का हो जायेगा } अत: हम "मख़्बून’ के सभी रुक्न को ’मफ़ऊलुन’[222] से नहीं बदल सकते । क्यों कि बहर बदल जायेगी
अगर हम [बहर-ए-रमल मुसम्मन मख़्बून]  के आखिरी रुक्न [जो अरूज़ और जर्ब के मुक़ाम पर है ]  पर तस्कीन-ए-औसत का अमल लागाये तो? बहर हो जायेगी --
"[10]  रमल मुसम्मन मख़्बून मुसक्कन अल आखिर"
फ़इलातुन--फ़इलातुन----फ़ इलातुन---फ़ऊलुन
1122-------1122-----1122---------222
 इस का दूसरा नाम ’रमल मुसम्मन मख़्बून मुश’अश भी है क्योंकि ठीक यही वज़न ज़िहाफ़ ’तश’इश’ ले अमल से बरामद हो सकती है\ मगर पहला नाम और अमल ज़्यादा आसान है} हमे तो आम खाने से मतलब है पेड़ गिनने से क्या !
एक उदाहरण भी देख लेते हैं [ डा0 आरिफ़ हसन खान साहब के हवाले से ही]

गली कूचों से कोई जोड़ नहीं इन महलों का
मेरे हमदम मैं तेरा साथ नहीं दे सकता  हूँ

तक़्तीअ भी देख लेते हैं
1  1   2  2  / 1  1  2  2  / 1  1  2 2   / 2 2   2
गली कूचों / से  कु ई जो / ड़ न हीं इन / मह लों का
1    1  2  2    / 1  1 2  2   / 1 1 2  2     /2   2   2
मि रे हम दम / मैं तिरा सा /  थ न हीं दे   /सक ता  हूँ
=======================

अब ज़रा ज़िहाफ़ ’शकल’ की भी चर्चा कर लेते हैं --फ़ाइलातुन [2122] पे
पिछले क़िस्त 37 में -लिखा था
फ़ाइलातुन [2122] +शकल ज़िहाफ़ =  फ़इलातु [1121]  बरामद होगा जो ’फ़ाइलातुन ’का मुज़ाहिफ़ है -मश्कूल है --ध्यान रहे -तु- मुतहार्रिक है और किसी मिसरा या शेर के अन्त  में -कोई ’मुतहर्रिक’ नहीं  आता यानी आखिरी हर्फ़ ’मुतहर्रिक’ पर नहीं गिरता ।अत: हम दूसरे शब्दों में कह सकते हैं कि शे’र में अरूज़ और जर्ब के  मुक़ाम पर फ़ इलातु[1121] नहीं लाया जा सकता।मगर सदर और इब्तिदा या हश्व के मुक़ाम पर तो मनाही नहीं है । ख़ैर---
"शक्ल"--एक मुरक्क्ब ज़िहाफ़ है जो दो ज़िहाफ़ [ ख़ब्न + कफ़] से मिल कर बना है और इन दोनो ज़िहाफ़ का अमल ’फ़ाइलातुन [2122] पर "एक साथ’ होता है तो ’फ़इलातु [ 1121] बरामद होता है जिसे ’मश्कूल’ कहते है । यद्दपि इस की चर्चा पिछले किसी क़िस्त में कर चुके हैं।
[11] बहर-ए-रमल मुसम्मन मश्कूल
फ़ इलातु-------फ़ाइलातुन----फ़ इलातु---फ़ाइलातुन
1121---------2122----//------1121------2122
उदाहरण - कमाल सिद्दीक़ी साहब के हवाले से

ये ज़मीन भी पुरानी    ,ये ख़याल भी पुराना
है कुछ और फ़न ग़ज़ल का,कि ग़ज़ल मिसल नही है  
तक़्तीअ भी देख लेते हैं---
1  1 2  1   /   2 1 2 2  //     1  1 2 1/  2 1 2 2
ये ज़मीन    /  भी पुरानी //   ,ये ख़याल / भी पुराना

1  1  2  1  /  2   1 2   2  //     1  1  2   1    / 2 1 2  2
है कु छौ र / फ़न ग़ज़ल का // ,कि ग़ज़ल मि/ सल नही है   [यहाँ --कुछ और- वस्ल हो कर ’कु छौर ’ का तलफ़्फ़ुज़ दे रहा ह इ इस लिए इसे   [121] की वज़न पर लिया गया
इस बहर के बारे में कुछ बातें और करनी है
[1] पहली बात -यह बहर एक ’शिकस्ता’ बह्र भी है । शिकस्ता बहर के बारे में पहले भी चर्चा कर चुका हूं । एक बार फिर कर देता हूँ । ऐसी बहर जिसका मिसरा ठीक दो बराबर भागों में बँट जाये [तक़्सीम हो जाये] और आप की  एक बात  मिसरा के पूर्वार्द्ध में .और दूसरी बात मिसरा की उत्तरार्द्ध में मुकम्मल हो जाये --- को बह्र-ए-शिकस्ता कहते है ।और उसे --//- के निशान से दिखाते हैं । अगर ऐसा नही है तो फिर ’शिकस्ता -ना रवा’ कहते है । ख़ैर--
[2] दूसरी बात-इस बहर में भी--’फ़इलातु[ [1121] पर तस्कीन का अमल हो सकता है । क्यों ? कारण कि यहाँ भी [ फ़े ऐन--लाम --तीन मुतहर्रिक एक साथ आ गये ] और वज़न ’मफ़ ऊलु [ 2 2 1] बरामद किया जा सकता है और इस से एक बहर और  बरामद की जा सकती है और ’फ़ इलातु- [1121] की जगह मफ़ऊलु [221] लाया जा सकता है
 [क]   221-----2122--// 221---2122
 मगर यह बहर तो "मुज़ारे मुसम्मन अख़रब" की बह्र है [जिसकी चर्चा मैं ’मुरक़्क़ब बहूर’ के वक़्त आने वाले क़िस्त में करेंगे ] अर्थात तस्कीन के अमल से बह्र बदल गई तो इस तस्कीन का अमल जायज नहीं है अत: ऊपर कही हुई बात रद्द की जाती है ]
बह्र-"मुज़ारिअ मुसम्मन अख़रब " की चर्चा उर्दू शायरी की बहुत मक़्बूल बहर है और तमाम शो"अरा ने इस बह्र में शायरी की है --इस बहर की चर्चा उदाहरण सहित आइनदा अक़सात में  उचित मौक़े पर करूँगा ]

इस बिन्दु की तरफ़  मेरे मित्र एवं नियमित पाठक जो अरूज़ के अच्छे जानकार है श्री अजय तिवारी जी ने ध्यान दिलाया -मैं उनका आभारी हूँ

यह बात और है कि उर्दू शायरी में इस बहर में बहुत कम शे’र मिलते है --लगभग न के बराबर। आप चाहें तो एक प्रयास कर सकते है }क्षेत्र अछूता है।
[3] तीसरी बात-अरूज़ और जर्ब के मुक़ाम पर सालिम की जगह ’ फ़ाइलिय्यान. [ 21221] जिसे मुसब्बीग़ भी कहते हैं , लाया जा सकता है

रमल मुसम्मन की एक बहर और देख लेते है
[12]रमल मुसम्मन मक्फ़ूफ़, मख्बून मुसक्कन, मकफ़ूफ़, मख़्बून मुसक्कन 
फ़ा इलातु ,---- मफ़ऊलुन  // फ़ाइलातु -----, मफ़ऊलुन
2121----------222-----// 2121---------222
ज़ाहिर है कि फ़ाइलातुन [2122] पर ’ कफ़’ का ज़िहाफ़ लगा है और इसका मकफ़ूफ़ --फ़ाइलातु [2121]--- होता है। और जब  मख़्बून   फ़इलातुन [1122] पर तस्कीन का अमल करते है तो -मफ़ ऊ लुन - [222] बरामद होती है । यह बात तो आप जानते ही हैं --कोई नई बात नही है --वही ऊपर लिखा भी है ।
एक उदाहरण डा0 आरिफ़ हसन खान साहब के हवाले से देख लेते है

ज़िन्दगी के सहरा में हर तरफ़ है बेमहरी
जिस तरफ़ नज़र डालूँ दश्त-ए-करबला देखूँ

अब तक़्तीअ भी देख लेते हैं
2121        /   222    //   2  1  2  1  / 2 2  2
ज़िन्दगी के / सहरा में // हर तरफ़ है/ बे मह री
2      1  2   1  / 2  2  2 //    2 1    2    1   / 2 2 2
जिस तरफ़ न / ज़र डालूँ // दश्त-ए-करब/ ला देखूँ

यह बह्र भी शिकस्ता है।

एक रुक्न और देख लेते  हैं

[13] रमल मुसम्मन मख़्बून सालिम मख़्बून सालिम

फ़ इलातुन ------फ़ाइलातुन // फ़ इलातुन-----फ़ाइलातुन 
1122------------2122----// 1122---------2122
उदाहरण [डा0 आरिफ़ हसन खान साहब के ही हवाले से]

मेरी कश्ती  फँस गई है , जो मसाइब के भंवर  में 
मेरे मौला तू बचा ले  , तुझे सदक़ा  मुस्तफ़ा का 

तक़्तीअ भी देख लेते है
1  1   2   2     / 2     1 2 2  //   1  1 2   2    / 2 1 2   2
मेरी कश् ती   / फँस गई है ,//  जो म सा इब  / के भं वर  में
1  1   2   2 /  2  1 2   2 //  1 1  2   2     / 2    1 2 2
मेरे मौला   /  तू बचा ले  // , तुझे सदक़ा   / मुस तफ़ा का

यह बह्र भी ’शिकस्ता बह्र ’ है
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हम यह दावा तो नही कर सकते कि रमल मुसम्मन की तमाम बहरे  हमने cover कर ली
और भी बहुत से वज़न और बहर रमल की बरामद हो सकती है कभी फ़र्द ज़िहाफ़ के अमल से कभी मुतक्कब ज़िहाफ़ की अमल से कभी तस्कीन के अमल से} वो सब बहरे academic discussion and knowledge के लिए तो ठीक हैं मगर उर्दू  शायरी में न ही उतनी मक़्बूल है और न ही राइज़ है }आप चाहें तो ऐसी तमाम बह्रें किसी मुसतनद अरूज़ की किताब में देख सकते है } ग़ालिब ने भी उन कम राइज बह्रों का इस्तेमाल नहीं किया। ख़ैर---

चलते चलते एक बहर  पर और चर्चा करना चाहूँगा जो सैद्धान्तिक रूप से संभव तो है मगर कहीं कोई ग़जल या शे’र मेरी निगाह से अभी तक गुज़रा नहीं } डा0 आरिफ़ हसन खान साहब ने अपनी मुस्तनद किताब ’मेराज-उल-अरूज़’ में इस का ज़िक्र किया है। और वो बहर है----
[14] रमल मुसम्मन मख़्बून मुज़ाइफ़ [16-रुक्नी बहर]--बहर आसान है मगर है बहुत लम्बी --सच्चा शे’र कहना मुश्किल। ख़ैर--
फ़इलातुन----फ़इलातुन---फ़इलातुन---फ़इलातुन--//-फ़इलातुन---फ़इलातुन---फ़इलातुन---फ़इलातुन
1122--------1122--------1122-------1122---//--1122-------1122-------1122------1122
उदाहरण भी डा0 साहब ने खुद साख़्ता शे’र से दिया है ,उन्ही के हवाले से---

मेरे हमदम तेरी जुल्फ़ों की घनी छांव मयस्सर न थी जब तक तू मेरे जीने का मक़सद न था कुछ भी
तुझे देखा तो मेरे दिल ने कहा मुझ से  यही है तेरे जीने का सहारा तेरा मक़सद   तेरी मन्ज़िल 

अब तक़्तीअ भी देख लेते हैं
1  1  2   2   / 1 1    2   2   /  1 1  2    2 /  1  1 2 2  /  1  1   2  2     /  1  1 2  2 / 1 1  2    2     / 1 1  2   2
मिरे हमदम / तिरी जुल् फ़ो / की घनी छां / व मयस्सर//  न थी जब तक / तू मिरे जी / ने का मक़सद / न था कुछ भी

1  1   2  2 /    1   1  2  2  / 1 1  2   2   / 1  1  2  2/ 1 1 2  2/   1  1 2  2  / 1 1  2    2      /  1  1   2   2
तुझे देखा  /   तो मिरे दिल / ने कहा मुझ / से  यही है // तिरे जीने /  का सहारा /  तिरा मक़सद    /  तिरी मन् ज़िल

यहाँ बहर की माँग पर वही मात्रायें गिराई गई है जो शायरी में रवा है
इस बहर पर डा0 साहब ने एक हिदायत भी की है --उन्ही के शब्दों में--"ग़लती से नावाक़िफ़ लोग इसे बहर-ए-तवील कहते है"
जब बह्र-ए-तवील की चर्चा करेंगे तब की तब देखेंगे।
एक बात और ---डा0 साहब ने यह तो नहीं लिखा है कि यह बहर ’शिकस्ता बहर’ भी है । अमूमन ऐसी बहर ’शिकस्ता ’ होतीं हैं --मैं समझता हूँ कि यह बहर [16-रुक्नी] भी बह्र-ए-शिकस्ता है

ख़ुदा ख़ुदा कर के बह्र-ए-रमल का बयान मुकम्मल हुआ
अब अगली किस्त में --"बह्र-ए-रजज़" कुछ चर्चा करेंगे

आप की टिप्पणी का इन्तज़ार रहेगा

--इस मंच पर और भी कई साहिब-ए-आलिम मौज़ूद हैं उनसे मेरी दस्तबस्ता [ हाथ जोड़ कर] गुज़ारिश है कि अगर कहीं कोई ग़लत बयानी या ग़लत ख़यालबन्दी  हो गई हो तो निशान्दिही ज़रूर फ़र्मायें ताकि मैं ख़ुद को  दुरुस्त कर सकूं ।मेरी मज़ीद [अतिरिक्त] रहनुमाई फ़र्माये ।मम्नून-ओ-शुक्रगुज़ार रहूँगा।

अभी बह्र के कुछ बयां और भी हैं..........
ज़िहाफ़ात् के कुछ निशां और भी हैं.....

एक बात बड़े ही अदब से एतराफ़ [स्वीकार] करता हूँ कि इन तमाम अक़्सात ,तज़्क़िरात  और तहरीर के लिए अपने आलिम अरूज़ी साहिबान  कमाल अहमद सिद्द्क़ी साहब , डा0 शम्सुर्र्हमान फ़ारुक़ी साहब ,आलिम जनाब  सरवर आलम राज़ ’सरवर ’ साहब  , अजीज  दोस्त डा0 आरिफ़ हसन ख़ान साहब  का  और कुछ दीगर दोस्तों का तह-ए-दिल  से मम्नून-ओ-मश्कूर हूँ जिनकी किताबों से  कुछ पढ़ सका ,समझ सका और लिख सका ।वगरना इस हक़ीर में इतनी  बिसात कहाँ  इतनी औक़ात कहां । इन तज़्क़िरात में  मेरा कुछ भी अपना नहीं है बस  आलिम साहिबान  के अरूज़ पर किए गए कामों का फ़क़त हिन्दी तर्जुमा समझिए बस ........
एक बात और--

न आलिम ,न मुल्ला ,न उस्ताद ’आनन’
अदब से मुहब्ब्त ,अदब आशना  हूँ

[नोट् :- पिछले अक़सात  [क़िस्तों ]के आलेख [ मज़ामीन ]आप मेरे ब्लाग पर  भी देख सकते हैं 

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-आनन्द.पाठक-


शनिवार, 9 दिसंबर 2017

उर्दू बहर् पर् एक् बातचीत् : किस्त 37 [बह्र-ए-रमल की मुज़ाहिफ़ बह्रें]

उर्दू बहर् पर् एक् बातचीत्  : किस्त 37 [बह्र-ए-रमल की मुज़ाहिफ़ बह्रें]

Discliamer clause -वही जो क़िस्त 1 में है

पिछले क़िस्त में हम रमल की सालिम बह्रों [मुरब्ब: मुसद्द्स मुसम्मन] पर चर्चा कर चुके है
अब हम इस क़िस्त में बहर-ए-रमल की मुज़ाहिफ़ शकल पर चर्चा करेंगे

आप जानते है कि बह्र-ए-रमल की बुनियादी रुक्न ’ फ़ाइलातुन ’[2122] है और यह एक सालिम रुक्न है जो [सबब्+वतद+सबब] के संयोग से बना है और आप यह भी जानते हैं कि ’ज़िहाफ़’ हमेशा सालिम रुक्न पे ही लगता है [दर अस्ल सालिम रुक्न के ज़ुज़ [अवयव] पर लगता है। और यह ज़िहाफ़ या तो मुफ़र्द [एकल] होगा  या मुरक़्क़ब [मिश्रित] । ’फ़ाइलातुन’[ 2122]  पे लगने वाले ऐसे ज़िहाफ़ात की संख्या तक़रीबन 25 के आसपास बैठती है। यहां सभी ज़िहाफ़ पे चर्चा करने करने की आवश्यकता नहीं है , हम मात्र  उन्ही ज़िहाफ़ात् की चर्चा करेंगे जो उर्दू शायरी में मक़्बूल हैं और शायरों ने और उस्ताद शायरों ने अपने कलाम कहे हैं जिससे आम पाठकों को समझने में सुविधा हो।
एक बात और

ज़्यादातर शायरों ने मुसद्दस मुसम्मन और उसकी मुज़ाहिफ़ शकल में ही शायरी की है । मुरब्ब: में बहुत ही कम अश’आर कहें है । इतने कम कहे गये हैं कि उदाहरण देना /बताना/समझाना भी मुश्किल हो जाता है। सच तो यह है कि छोटी बहर मैं  ग़ज़ल या अश’आर कहना निहायत मुश्किल का काम है ,फ़न-ए-शायरी पर निर्भर करेगा ,आप के हुनर-ओ-कमाल पर निर्भर करेगा ।अगरचे  कुछ लोगो  ने 1-2 शे’र कह कर तबअ आजमाई की है ,मगर बहुत कम -आंटे में नमक के बराबर। अच्छे शायरों ने  [जैसे मीर ग़ालिब इक़बाल ज़ौक़ वग़ैरह] ज़्यादातर अश’आर या तो मुसद्दस में या मुसम्मन में या उनकी  मुज़ाहिफ़ बहर में ।  अरूज़ियों ने भी समझाने के लिये कुछ खुद्साख्ता [ खुद के बनाई हुए ]  शे’र] कहे है । अगर नौ-मश्क़ [ नवोदित ] शायर अगर मुरब्ब: में अश’आर नहीं कहेंगे तो फिर मुस्तकबिल [भविष्य ] में  ऐसे अश’आर तो फिर अरूज़ की किताबों में ही मिलेंगे ।
ख़ैर  academic discussion हेतु इस पर चर्चा करने में कोई हर्ज तो नहीं।-मुमकिन हो तो-अश’आर आप कहते चलें -तक़्तीअ हम करते चलेंगे।
फ़ाइलातुन [2122] पर लगने वाले कुछ  ज़िहाफ़ात हैं----

फ़ाइलातुन[2122]   +ख़ब्न  =मख़्बून=फ़इलातुन [1122] -ऐन- मुतहर्रिक है
फ़ाइलातुन[2122]   + क़स्र =मक़्सूर=फ़ाइलान  [2121]
फ़ाइलातुन[2122]   + कफ़ =मकफ़ूफ़=फ़ाइलातु  [2121]       -ऐन- और -तु- मुतहर्रिक है
फ़ाइलातुन [2122]  + हज़्फ़      = महज़ूफ़=फ़ाइलुन [212]
फ़ाइलातुन[2122]    + शकल =मश्कूल=फ़इलातु [ 1121]
फ़ाइलातुन[2122] +ख़ब्न+हज़फ़= मख़्बून महज़ूफ़=फ़इलुन  [ 112]        -ऐन- मुतहर्रिक है
फ़ाइलातुन[2122]+ख़ब्न+क़स्र   = मख़्बून मक़्सूर =फ़इलान  [1121] -ऐन- मुतहर्रिक है

ज़िहाफ़ ख़ब्न’-- क़स्र--कफ़---हज़्फ़---शकल---आदि पर पहले ही चर्चा कर चुके है [ चाहें तो आप एक बार देख सकते हैं
इसके अलावा 2-4 ज़िहाफ़ और भी हैं जो ’फ़ाइलातुन’[2122] पर लगते है  जैसे त’श्शीस---[तश्शीस+तसब्बीग़]---बतर---वग़ैरह ।तवालत [ विस्तार] से बचने के लिये .यहाँ हम उस पर चर्चा नहीं कर रहे हैं इतने से ही हमारा और आप का काम चल जायेगा
मगर हाँ . मुज़ाहिफ़ रुक्न जो ऊपर बरामद हुई है उन में से कुछ  पर ’तस्कीन-ए-औसत’ का अमल भी लग सकता है । तस्कीन का अमल सिर्फ़ ’मुज़ाहिफ़ रुक्न’ पर ही लगता है --सालिम रुक्न पे नहीं । ये बात तो आप जानते ही होंगे
तस्कीन -ए-औसत के अमल की चर्चा तो गुज़िस्ता अक़सात [ पिछली क़िस्तों में ] कर चुका हूं पर आप  याद दिहानी के लिए मुख़्तसरन [संक्षेपत:] एक बार फिर कर देता हूं
’अगर किसी मुज़ाहिफ़ रुक्न में 3-मुतहर्रिक हर्फ़ एक साथ आ जायें तो तस्कीन-ए-औसत की अमल से ’बीच वाला मुतहर्रिक हर्फ़’ साकिन हो जाता है  जिससे मज़ीद [अतिरिक्त वज़न] बरामद हो सकती है। जैसे  फ़इलातुन1122]---फ़ इलुन[112]--फ़इलान [112] ,
जो तसकीन के अमल से हो जायेगा
फ़इलातुन1122] = फ़अ  ला तुन = 2 2 2 जिसको बदल लेते है =मफ़ ऊ लुन

अब आप के मन में एक सवाल ज़रूर उठ रहा होगा कि ये अर्कान को किसी दूसरे अर्कान से क्यों बदल लेते हैं और क्यों बदले? इसमें क्या बुराई है ? न बदलें तो क्या होगा?
कुछ नहीं होगा जब तक आप शे’र के वज़न का पास रखते हैं तो आप चाहें फ़अ ला तुन [222] रखें या मफ़ ऊ लुन [222]---कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता।
मगर अरूज में   रुक्न को ’फ़ेल’ भी कहते है और अर्कान को अफ़ाइल या तफ़ाइल भी कहते है ] कारण कि  ’फ़ेल’ में या  हर रुक्न में  [ उर्दू के 3-हर्फ़ ---फ़े,---ऐन---लाम -में से 2-हर्फ़ ][फ़े अ ल]-ज़रूर आते हैं । अत: उन तमाम मुज़ाहिफ़ शकल को  मानक ’रुक्न’ से बदल लेते है जिसमें रुक्न के ये 3- हर्फ़ में से 2-ज़रूर आए  जिस से रुक्न की ’मानकता’ बनी रहे।
ख़ैर--
एक बात और
जिहाफ़ ’ख़ब्न’ -एक आम ज़िहाफ़ है जो शे’र के किसी मुक़ाम पर आ सकता है जब कि हज़्फ़ और  क़स्र ,शे’र के अरूज़ और ज़र्ब मुक़ाम के लिए मख़्सूस है। बस याद दिलाने के लिए लिख दिया यानी जब मुज़ाहिफ़ बहर मैं ’ख़ब्न’ भी हो और ह्ज़्फ़ या क़स्र ज़िहाफ़ भी हो तो लाजिमन अरूज़ या ज़र्ब के मुक़ाम पर महज़ूफ़/मक़्सूर ही आयेगा --मख़्बून तो नहीं आ पायेगा । ख़ैर !
इन ज़िहाफ़ात पर चर्चा करने से पहले -एकऔर बात पे चर्चा करना ज़रूरी समझता हूँ
रमल  की बुनियादी रुक्न ’फ़ाइलातुन’ [ फ़े,अलिफ़,ऐन,लाम,अलिफ़,ते,नून] [2122 ]  है । उर्दू रस्म उल ख़त [लिपि]  मे यह दो-प्रकार से लिखी जा सकता है
[1] एक तो वह जो सामान्यतया कुछ हर्फ़ को ’मिला कर’ [सिलसिलेवार] लिखते है -जिसे ’मुतस्सिल शकल’ कहते है जिसमें [फ़ा,इला,तुन] लिखते है और इसका वज़न 2122 होता है- [जिस में "इला’ वतद-ए- मज्मुआ वाली शकल में होती है]
[2] दूसरी शकल वो जिसमें कुछ हर्फ़ को ’फ़ासिला’ देकर लिखते हैं जिसे ’मुन्फ़सिल शकल’ कहते है जिसमें [फ़ाअ, ला तुन] लिखते है और इसका भी वज़न  21 2 2 ही होगा --      [ जिस में "फ़ाअ"-वतद-ए-मफ़रूक़ वाली शकल में होता है]
तो?
तो कुछ नहीं। पहले केस में ’इला’ [ हरकत+हरकत+साकिन ] -वतद-ए-मज्मुआ है -यानी दो-हरकत की जमा है तभी तो मज्मुआ कहलाती है
दूसरे केस में "फ़ा अ’ [ऐन मुतहर्रिक है]  यानी [ हरकत+साकिन+हरकत ] -वतद -मफ़रूक़ी है यानी दो हरकत की स्थिति में ’फ़र्क़’ है तभी तो ’मफ़रूक’ कहलाता है
दोनो ही केस में वज़न 2122 ही रहेगा----इसी लिए मैं बार बार कहता हूँ कि ये 1222 ,2122 जैसी अलामत अफ़ाइल समझने में बहुत दूर तक नही ले जाती है  । ख़ैर कोई बात नहीं
हमने इसकी चर्चा यहाँ क्यों की?
इसलिए किया कि कुछ मुरक्कब बहरों में [यही मुन्फ़सिल शकल का इस्तेमाल होता है -जैसे बह्र-ए-मज़ारिअ में ,बहर-ए-क़रीब में,बहर-ए-मशाकिल में, जिसकी चर्चा हम आगे करेंगे]
और आप जानते है कि ’वतद-ए-मज्मुआ ’ पर लगने वाले ज़िहाफ़ अलग होते हैं
और ’वतद-ए-मफ़रूक़’  पे लगने वाले वाले ज़िहाफ़ अलग होते है
यानी जिन ज़िहाफ़ की चर्चा हम बहर-ए-रमल में करेंगे ,वही के वही ज़िहाफ़ ’मज़ारिअ.---क़रीब---मशाकिल में नहीं लगेंगे। इसका पास [ख़याल] रखना होगा आप को -जब इन मुरक्कब बहर पे ज़िहाफ़ात की चर्चा करेंगे ।

अभी यहाँ  बहर-ए-रमल की मुज़ाहिफ़ बह्रों पे चर्चा करेंगे---

1-बहर-ए-रमल की मुरब्ब: मुज़ाहिफ़ बहरें:- बहर-ए-रमल की सालिम बहर [मुरब्ब:--मुसदस---मुसम्मन] पर चर्चा पिछले क़िस्त में कर चुका हूँ ] अब इसकी मुज़ाहिफ़ बहर पे चर्चा करेंगे
[1]  बहर-ए-रमल मुरब्ब: महज़ूफ़
फ़ाइलातुन----फ़ाइलुन
2122----------212
उदाहरण- आरिफ़ हसन खान साहब के हवाले से
आरज़ू में  आप की
दिल में क्या क्या गुल खिले

मैं नहीं समझता कि अब आप को इसकी तक़्तीअ करने की ज़रूरत पड़ेगी ।फिर भी--आ[ एक बार चेक कर लीजियेगा
2122       /212
आरज़ू में  /आप की
2     1   2     2   /2   1  2
दिल में क्या क्या / गुल खिले

[2[      बहर-ए-रमल मुरब्ब: मक़्सूर
फ़ाइलातुन------फ़ाइलान
2122-----------2121
[नोट- शे’र में महज़ूफ़ [क] की जगह मक़्सूर[ख] लाने की इजाज़त है]
एक उदाहरण इस का भी देख लेते हैं
जब से रूठा है वो यार
दिल है मेरा बेक़रार 
एक बार तक़्तीअ भी देख लेते हैं
2     1   2  2  / 2 1 2 1
जब से रूठा / है वो यार
2    1   2 2   / 2 1 2 1
दिल है मेरा   /बेक़रार
आप चाहें तो मिसरा उला को
"जब से रूठा मेरा यार" ---भी कह सकते है---वज़न बराबर रहेगा

[3]  बहर-ए-रमल मुरब्ब: मक़्लूअ 
फ़ाइलातुन-------फ़अ लुन
2122------------22
उदाहरण-कमाल अहमद सिद्दीक़ी साहब के हवाले से एक शे’र देखते है
जल्वा महफ़िल में है
आइना दिल में है 
यानी
2    1   2     2     / 2 2
जल् व मह फ़िल / में है
2 1  2    2         / 2 2
आइना दिल     / में है

[4] बहर-ए-रमल मुरब्ब: मक़्लूअ मुसब्बीग़
फ़ाइलातुन-------फ़अ लान
2122-----------221
[नोट- शे’र में मक़्लूअ [3] की जगह मक़्लूअ मुसब्बीग़ [4] लाने की इजाज़त है]
यहां एक नया ज़िहाफ़ ’क़ल्अ’ [ मुज़ाहिफ़ को मक़्लूअ कहते हैं] आ गया । शायद इस पर मैं चर्चा ’ज़िहाफ़ात ’ वाली क़िस्त में कर चुका हूँगा। चलिए एक बार मुख़्तसर गुफ़्तगू इस पर की कर लेते हैं -आप की याद दिहाने के लिए
अगर किसी सालिम रुक्न के दर्मियान  कोई वतद मज्मुआ आ जाए तो  -वतद-ए-मज्मुआ को गिरा देने के अमल को -’क़लअ ’ कहते है और जो मुज़ाहिफ़ शकल बरामद होती है उसे -’मक़्लूअ’ कहते है [ जैसे फ़ा इला तुन में ]
’इला’ वतद-ए-मज्मुआ है और इत्तिफ़ाक़न रुक्न के दर्मियान [बीच में ] भी है अत: वतद को गिरा दें तो बचेगा -’फ़ा तुन’ [2 2] जिसे ]-फ़अ-लुन’ [2 2] से बदल लिया [-ऐन- साकिन है यहां]
उदाहरण -
एक तमाशा या जुल्म
रक़्स-ए-बिस्मिल में है
यानी
2     1  2 2        / 2  2    1
इक  तमाशा       /या जुल् म
2    1    2       2  /  2 2
रक़् स-बिस् मिल/ में है


[5] बहर-ए-रमल सालिम मख़्बून मुरब्ब: 
फ़ाइलातुन----फ़इलातुन
2122---------1122
उदाहरण
" काम की बात करो तुम
मुझ से मत हाथ करो तुम
ज़रा तक़्तीअ भी देख लेते है
                 2  1  2  2   / 1 1 2 2
" काम की बा  /त क रो तुम
  2      1  2   2/ 1 1 2  2
 मुझ से मत हा /त करो तुम
[5-क]  इस बहर में ’फ़ इ ला तुन"[1122] की जगह फ़इ ल्ल्यान [ 11221] लाया जा सकता है
उदाहरण
हुस्न इतना जो मिला यार
कुछ तो ख़ैरात करो तुम
यानी
2     1   2  2   / 1  1  2  2 1
हुस् न  इत ना / जो मिला यार
2      1   2  2   / 1 1 2  2
कुछ तो ख़ै रा  / त करो तुम

{6] बहर-ए-रमल मुरब्ब: मख़्बून
फ़इलातुन----फ़इलातुन
1122---------1122
आरिफ़ हसन खान साहब के हवाले से
उदाहरण
मुझे यादों में बसा लो
मेरे हमदम ,मेरे हमदम
तक़्तीअ
11  2   2   / 1  1 2  2
मुझे यादों  / में ब सा लो
1  1  2  2 /   1 1  2 2
मेरे हम दम /,मेरे हम दम

[7]  बहर-ए-रमल मश्कूल सालिम मुरब्ब:
फ़इलातु------फ़ाइलातुन
1121---------2122
उदाहरण [आरिफ़ खान साहब के हवाले से]

यही ज़िन्दगी जहन्नुम
यही  जिन्दगी है जन्नत
यानी
1  1  2  1  / 2  1   2   2
यही ज़िन् द /गी  ज ह् न नुम
1   1   2 1  / 2  1   2    2
यही  जिन् द/गी है  जन् नत

[8] बहर-ए-रमल मुरब्ब: मश्कूल  मुसब्बीग़ 
फ़ इलातु--------फ़ाइल् य्यान
1121----------21221

उदाहरण आप बताएं -एक कोशिश तो करें।
-----------------------------------------------
अब ज़रा बहर-ए-रमल मुसद्दस मुज़ाहिफ़ बहरों---पर भी चर्चा कर लेते हैं---- मुसद्दस सालिम बहर की तो चर्चा पिछले क़िस्त में कर चुका हूँ । अब मुज़ाहिफ़ शकल पर चर्चा करते हैं
[9] बहर-ए-रमल मुसद्दस महज़ूफ़
फ़ाइलातुन---फ़ाइलातुन---फ़ाइलुन
2122---------2122-------212
मीर का एक शे’र है

ग़म रहा जब तक कि दम में दम रहा
दिल के जाने का निहायत ग़म  रहा

इशारा मैं कर दे रहा हूँ --तक़्तीअ  आप कर लें
2    1  2  2   / 2    1      2   2/ 2 1 2
ग़म रहा जब / तक कि दम में /दम रहा
2     1   2  2  /  2 1 2  2     / 2  1  2
दिल के जाने / का निहायत    /ग़म  रहा

इसी बहर में मीर का दूसरा भी शे’र सुन लें

इब्तिदा-ए-इश्क़ है ,रोता है क्या
आगे आगे देखिए होता  है क्या
तक़्तीअ आप कर लें -इशारा मैं कर देता हूँ
2   1   2   2  / 2   1   2   2  / 2  1  2
इब् ति दा-ए-/ इश् क़ है ,रो /ता है क्या  [ रोता है क्या -में ’है’ की मात्रा गिरी हुई है -मगर शे’र बुलन्दपाया है\
2  1   2  2 / 2 1 2 2   /  2  1  2
आगे आगे /देखिए हो   /ता  है क्या [यहां पहले ’आगे’ में -गे- पर मात्रा गिरी हुई है -जिसकी इजाज़त भी है]

[10]  बहर-ए-रमल मुसद्दस मक़्सूर
फ़ाइलातुन------फ़ाइलातुन---फ़ाइलान
2122---------2122---------2121
उदाहरण --मीर के शे’र क जो उदाहरण ऊपर दिया है ,उसी गज़ल का मक़्ता है
सुब ह-ए-पीरी शाम होने आई ’मीर’
तू न चेता यां बहुत दिन कम रहा

तक़्तीअ आप कर लें--इशारा मैं कर देता हूं-
2     1      2 2 /  2 1  2 2 /  2 1  2 1
सुब ह-ए-पीरी/ शाम होने / आ इ ’मीर’
2  1   2 2 / 2 1  2   2      / 2  1  2
तू न चेता  /यां ब हुत दिन  /कम रहा
[नोट - बहर [9] और [10] ---महज़ूफ़ [212] की जगह मक़्सूर [2121] लाया जा सकता है और इसकी इजाज़त है -जैसा मीर ने किया भी है ।मगर शे’र की बहर का नाम निर्धारण ’मिसरा सानी’ मैं कोन सी बहर प्रयुक्त हुई है-उस से निर्धारित होगी
यानी आप ने अगर मिसरा सानी में मक़्सूर का इस्तेमाल किया है तो-बहर रमल मुसद्दस मक़्सूर ही कहलायेगी भले ही आप ने मिसरा उला मैं आप ने ’महज़ूफ़’ किया हो। उसी तरह अगर आप ने मिसरा सानी में आप ने महज़ूफ़ प्रयोग किया है तो बहर का नाम होगा -’रमल मुसद्दस महज़ूफ़- भले ही आप ने मिसरा उला में महज़ूफ़/मक़्सूर प्रयोग किया है। इस लिहाज़ से मीर के शे’र की बहर का नाम होगा -बहर-ए-रमल-मुसद्दस महज़ूफ़-कारण कि ’मतला’ के मिसरा सानी में उन्होने महज़ूफ़ का प्रयोग किया है।ख़ैर---  

[11] बहर-ए-रमल मुसद्दस मख़्बून 
फ़इलातुन----फ़इलातुन----फ़इलातुन
1122--------1122--------1122
एक उदाहरण -कमाल अहमद सिद्दीक़ी साहब के हवाले से
                 ये कभी बसतर-ए-राहत नहीं होती
                 ज़िन्दगी मरहला-ए-दार-ओ-रसन है
             तक़्तीअ 
1  1  2  2     / 1  1     2  2/   1  1  2 2
ये क भी बस / त र-ए-राहत/  न हीं होती
2    1 2    2   / 1  1  2   2/  1     1  2  2
ज़िन द गी मर /ह ल:-ए-दा/ र-ओ-रसन है
इशारा हम कर देते हैं-तक़्तीअ आप कर लें
[नोट  - यहां कसरे-इज़ाफ़त का -ए- और अत्फ़ का-ओ- को बहर की मांग पर तक़्तीअ में ले सकते है--नहीं भी ले सकते -इसे poetic liscence कहते हैं
और सदर और इब्तिदा में 1122 की जगह 2122 लाने की इजाज़त है जैसे इस केस में देख रहे हैं
और इन स्थितियों में भी आप ’फ़इलातुन’ [1122][ हरकत +हरकत ,हरकत +साकिन ,सबब-ए-खफ़ीफ़] है है तो तस्कीन-ए-औसत का अमल हो सकता है यानी 1122 फ़इलातुन  की जगह 222 [मफ़ ऊ लुन] लाया जा सकता है


[12-क] रमल मुसद्दस मख़्बून महज़ूफ़
फ़ाइलातुन----फ़इलातुन---फ़इलुन
2122---------1122------112
मीर का एक शे’र है
कब तलक यह सितम उठाइएगा ?
एक दिन यूँ ही जी से  जाइएगा 

तक़्तीअ देख लेते है
                 2      1  2   2     / 1 1   2  2 / 1 12
कब तलक यह / सितम उठा/इएगा ?  [ सितम+उठा में  मीम और वाव वस्ल हो गया है]
                  2  1  2   2  / 1   1  2 2  / 1 12
एक दिन यूँ /ही जी से  जा/इएगा
एक बात और---- सदर/इब्तिदा  में ’फ़ाइलातुन’ [2122] के  जगह फ़इलातुन [ 1122] लाया जा सकता है -इसकी इजाज़त है

[12-ख]  फ़इलातुन------फ़इलातुन---फ़इलुन
1122----------1122------112 [यानी 2122  की जगह 1122 लाया जा सकता है]
[आप ध्यान से देखेंगे तो आख़िरी रुक्न [ अरूज के मुक़ाम पर] फ़ इ लुन [ फ़े---ऐन---लाम---अलिफ़---नून] है जिसमें 3- मुतहर्रिक हर्फ़ [फ़े--लाम--ऐन] एक साथ आ गये -अत: तस्कीन का मल हो सकत है और हम इसे [ ’फ़अ   लुन ]- [22] -ऐन साकिन होने से ---लिख सकते है और जो वज़न मरामद होगी उसे-’ मुस्सकिन’ कहेंगे। अगर यह अमल ऊपर लगाये [क-1] और [क-2] में लगायें तो दो वज़न और बरामद होगी
उदाहरण -कमाल अहमद सिद्दीकी साहब के हवाले से

आलम-ए-बेख़बरी में टूटा
दिल दिवाना खबरदार न था
इसकी तक़्तीअ कर के देखते है--
2   1   2   2/ 1 1 2 2  / 2 2
आ ल मे-बे /ख़ ब री में / टूटा
1 1        2  2 / 1  1  2   2   /1 1 2
दिल-ए- दीवा / न ख बर दा /र न था
[नोट - दिल-ए-दीवा/ना---मे कसरा इज़ाफ़त की वज़ह से दिल का लाम मय हरकत हो गया यानी ’दि ल’ यहां सबब-ए-सकील [हरकत+हरकत] हो गया अत: 1 1 का वज़न लिया गया है
सदर.इब्तिदा में 2122  की जगह 1122 लाने कि इजाज़त है और अर्रोज़ और जर्ब मैं 112 की जगह 22 [तसकीन के अमल से भी देख सकते है.] लाने की इजाज़त है


[13-क] बहर-ए-रमल मुसद्दस मख़्बून महज़ूफ़ मुसक्कन
फ़ाइलातुन----फ़इलातुन---फ़अ लुन   [
2122---------1122------22
उदाहरण --मसहफ़ी का एक शे’र है--

फट चुका जब से गरेबां तब से
हाथ पर हाथ धरे बैठे   हैं
चलिए हम इशारा किए देते है--तक़्तीअ आप कर लें
2      1   2   2  / 1 1  2 2 / 2  2
फट चुका जब / से ग रेबां /तब से
2  1  2   2  / 1  1 2  2 /  2  2
हाथ पर हा / थ ध रे बै /  ठे   हैं

[13-ख] फ़इलातुन----फ़इलातुन---फ़अ लुन
1122---------1122------22 [यानी 2122 की जगह 1122 लाया जा सकता है]
कोई शे’र आप तजवीज़ करें
अच्छा ,अब मक़्सूर का भी अमल देख लेते है
[14-क] रमल मुसद्दस मख़्बून मक़्सूर 
फ़ाइलातुन----फ़इलातुन---फ़इलान
2122---------1122------1121
ग़ालिब का एक शे’र है

दम लिया था न क़यामत ने हनोज़
फिर तेरा वक़्त-ए-सफ़र याद आया
चलिए इशारा हम कर देते हैं --तक़्तीअ आप कर लें
2    1  2   2  / 1  1  2 2    /  1 1 2 1
दम लिया था /  न क़यामत / ने हनोज़
2    1  2   2    /  1  1 2     2   / 2  2
फिर तिरा वक़/  त -सफ़र या /द आया     [ यहाँ -द आया - में  दाल -अलिफ़ के साथ वस्ल हो गया



[14-ख] फ़इलातुन------फ़इलातुन---फ़इलान
1122----------1122------1121
वही बात यहाँ भी--आखिरी रुक्न -’ फ़इलान’ पर तस्कीन-ए-औसत का अमल लग सकता है--जिससे दो-वज़न और बरामद हो सकती है
उदाहरण---
फ़ानी बदायूँनी का एक शे’र है---
दिल-ए-फ़ानी की तबाही को न पूछ
इल्म-ए-लामुतनाही   को न पूछ
इशारा मैं कर देता हूं~तक़्तीअ आप कर लें
1   1      2    2   / 1  1 2  2 /  1  1 2 1
दि  ल-ए-फ़ानी /की त बाही / को न पूछ     [यहां दिल-ए-फ़ानी  में -इज़ाफ़त-ए-कसरा की वज़ह से -ल- पर हरकत आ जायेगी यानी मुतहर्रिक हो जायेगी।
1  1 2  2      / 1 1  2  2     / 1  1 2 1 
इ ल मे ला    / मु त नाही    / को न पूछ       [ की--को--पर  बहर की माँग पर मात्रा गिराई गई है]


[15-क] रमल मुसद्दस मख़्बून मक़्सूर मुसक्कन
फ़ाइलातुन----फ़इलातुन---फ़अ लान
2122---------1122------221
[नोट -यहाँ हस्व में फ़ इ ला तुन [1122] की जगह -मफ़ ऊ लुन [222] [तस्कीन के अमल से] लाया जा सकता है
[15-ख] फ़इलातुन----फ़इलातुन---फ़अ लान
1122---------1122------221
 और महज़ूफ़  की जगह  मक्सूर  और मक्सूर की जगह महज़ूफ़ लाया जा सकता है
इस प्रकार हम देखते है कि [12 से लेकर 15 तक ]मुसद्दस मख़्बून के 8-वज़न मिलते है । बहर 15 के लिए कोई शे’र आप तजवीज़ करें

इस प्रकार हम देखते है कि बहर-ए-रमल में  ’तस्कीन’ के अमल से और भी कई मज़ीद [अतिरिक्त] बहर बरामद की जा सकती है और वो निर्भर करेगा आप के ज़ौक़-ओ-शौक़ और आप की सुखनवरी पर ।

अगले क़िस्त में अब हम बहर-ए-रमल की मुसम्मन मुज़ाहिफ़ बह्रों पर चर्चा करेंगे

आप की टिप्पणी का इन्तज़ार रहेगा

--इस मंच पर और भी कई साहिब-ए-आलिम मौज़ूद हैं उनसे मेरी दस्तबस्ता [ हाथ जोड़ कर] गुज़ारिश है कि अगर कहीं कोई ग़लत बयानी या ग़लत ख़यालबन्दी  हो गई हो तो निशान्दिही ज़रूर फ़र्मायें ताकि मैं ख़ुद को  दुरुस्त कर सकूं ।मेरी मज़ीद [अतिरिक्त] रहनुमाई फ़र्माये ।मम्नून-ओ-शुक्रगुज़ार रहूँगा।

अभी बह्र के कुछ बयां और भी हैं..........
ज़िहाफ़ात् के कुछ निशां और भी हैं.....

एक बात बड़े ही अदब से एतराफ़ [स्वीकार] करता हूँ कि इन तमाम अक़्सात ,तज़्क़िरात  और तहरीर के लिए अपने आलिम अरूज़ी साहिबान  कमाल अहमद सिद्द्क़ी साहब , डा0 शम्सुर्र्हमान फ़ारुक़ी साहब ,आलिम जनाब  सरवर आलम राज़ ’सरवर ’ साहब  , अजीज  दोस्त डा0 आरिफ़ हसन ख़ान साहब  का  और कुछ दीगर दोस्तों का तह-ए-दिल  से मम्नून-ओ-मश्कूर हूँ जिनकी किताबों से  कुछ पढ़ सका ,समझ सका और लिख सका ।वगरना इस हक़ीर में इतनी  बिसात कहाँ  इतनी औक़ात कहां । इन तज़्क़िरात में  मेरा कुछ भी अपना नहीं है बस  आलिम साहिबान  के अरूज़ पर किए गए कामों का फ़क़त हिन्दी तर्जुमा समझिए बस ........
एक बात और--


न आलिम ,न मुल्ला ,न उस्ताद ’आनन’
अदब से मुहब्ब्त ,अदब आशना  हूँ

[नोट् :- पिछले अक़सात  [क़िस्तों ]के आलेख [ मज़ामीन ]आप मेरे ब्लाग पर  भी देख सकते हैं 

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शुक्रवार, 1 दिसंबर 2017

उर्दू बहर पर एक बातचीत : किस्त 36 [ बहर-ए-रमल की सालिम बहरें]


उर्दू बहर पर एक बातचीत  : किस्त 36 [ बहर-ए-रमल की सालिम बहरें]

Discliamer clause -वही जो क़िस्त 1 में है 

दायरा-ए--मुजतलबिया: से 3 बहर निकलती हैं ---हज़ज---रमल----रजज़

अब आप कहेंगे यह ’दायरा’ [वॄत] बीच में कहाँ से आ गया? घबड़ाइए नहीं ,मैनें तो बस यूँ ही लिख दिया कि अगर कहीं आप किसी अरूज़ की किताब में यह पढ़े तो आप परेशान न हों।
अरूज़ की किताबों में ’रुक्न’ को दिखाने का/समझने-समझाने का/बताने का यह एक pictorial and Graphical  तरीक़ा है। आप इसे न जाने तो भी कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता।

ह्ज़ज =मुफ़ाईलुन् =1222= वतद [ मुफ़ा, 12 ]    +सबब [ई ,2]       + सबब [लुन , 2] = 1222
रमल  = फ़ाइलातुन् =2122=   सबब [ फ़ा, 2 ]       + वतद [ इला,12]+ सबब [तुन,2] = 2122
रजज़  =मुस तफ़ इलुन्  = 2212= सबब [ मुस, 2]       + सबब  [ तफ़ ,2] + वतद [इलुन ,12] = 2212

और ये तीनो रुक्न सुबाई रुक्न [7-हर्फ़ी रुक्न] कहलाती है  यक़ीन न हो तो हर्फ़ गिन कर देख लीजिये
इन सब पर मैं पहले भी चर्चा कर चुका हूँ --कोई नई बात नही है।

अगर आप ध्यान से देखें तो स्पष्ट है कि वतद तो हर रुक्न में ’खूँटे’ की तरह गड़ा हुआ है [ वतद को खूंटा PEG भी कहते है ] ये तो सबब है कि किसी रस्सी सा बँधा हुआ बस इस  वतद के कभी आगे कभी पीछे हो रहा है [सबब को रस्सी भी कहते हैं।
अब थोड़ी सी चर्चा दायरा [वृत] पर भी कर लेते है
आप कल्पना करें [ज्यामिति में कल्पना ही करते है ] कि किसी वॄत की परिधि पर  वतद----सबब---सबब रखा हुआ है
[वतद से मेरी मुराद वतद-ए-मज़्मुआ और सबब से सबब-ए-ख़फ़ीफ़ से है---जिसके बारे में मैं प्रारम्भ में ही चर्चा कर चुका हूँ]
अब आप एक एक टुकड़ा छोड़ कर परिधि पे लिखे टुकड़े पढ़्ते जाइए --आप को यह बहर एक के बाद एक हासिल होती जायेगी -जैसे [वतद--सबब-सबब]-----[सबब---सबब--वतद]----[सबब--वतद--सबब] --
खैर
बहर-ए-रमल का बुनियादी रुक्न " फ़ाइलातुन ’ [2122] है जो एक सबब-ए-खफ़ीफ़+ एक वतद-ए-मज़्मुआ+ एक सबब-ए-ख़फ़ीफ़ से बना है और यह एक सालिम रुक्न है

आज बहर-ए-रमल की सालिम बह्र की चर्चा करते हैं}

[1] बहर-ए-रमल मुरब्ब: सालिम
फ़ाइलातुन्----फ़ाइलातुन्
2122--------2122
उदाहरण- [डा0 आरिफ़ हसन ख़ान साहब के हवाले से]

दिल में तेरी आरज़ू ने
कैसे कैसे गुल खिलाए
तक़्तीअ आप कर लें इशारा मैं कर देता हूँ

दिल में तेरी / आरज़ू ने
कैसे कैसे   / गुल खिलाए
[ख] बहर-ए-रमल सालिम मुसब्बीग़---अगर हम ऊपर की बहर की आखिरी रुक्न [जो अरूज़ के मुक़ाम पर है] में एक ’साकिन’ और बढ़ा दें [यानी फ़ाइल्लियान 21221 ] कर दे तो यह मुसब्बीग़ हो जायेगा यानी
फ़ाइला्तुन्----फ़ाइल्ल्यान्
2122--------21221
उदाहरण -[कमाल अहमद सिद्दीक़ी साहब के हवाले से]
ऎ नसीम-ए-सुबह ले जा
मेरे दिल का उस तक अहसास
तक़्तीअ आप कर लें , इशारा मैं कर देता हूँ
2122     / 2  1   22
ऎ नसीमे / सुब ह ले जा               [
2 1  2     2   /  2  1  2    2  1
मेरे दिल का /उस त  कह सास
आप जानते है कि अगर शे’र के आखिर में [अगरसबब-ए-ख़फ़ीफ़ पर ख़त्म हो तो ]एक हर्फ़-ए- साकिन बढ़ा दिया जाय तो बहर के वज़न पे कोई फ़र्क नहीं पड़ता है।
ऐसा क्यों?
इस लिए कि जर्ब और अरूज़ में 2-साकिन एक साथ आ जायेंगे [हरकत+साकिन+साकिन] जब कि तक़्तीअ में एक ही’साकिन’ लिया जाता है।

मगर नाम में तो फ़र्क पड़ जायेगा
जैसे  2122------2122-----21221
और इस का नाम होगा
बहर-ए-रमल् मुसद्दस मुसब्बीग़ अल आखिर [अल आखिर न भी लिखेगे तो भी चलेगा कारण कि मुसब्बीग़ तो शे’र के आखिर में ही आता है ]
अरूज़ और जर्ब में सालिम [2122] और मुसब्बीग़ [21221] का ख़ल्त जायज है

[ध्यान दें- पहले मिसरा के अरूज़ के मुक़ाम पर ’सालिम’ [फ़ाइलातुन 2122] है जब कि जर्ब के मुक़ाम पर मुसब्बीग़ [21221] है और यह ख़ल्त जायज है मगर
बहर का नाम --जर्ब [ मिसरा सानी का आखिरी रुक्न ] पर जो होगा उसी से बहर का नाम बरामद होगा
एक बात और--
अगर हम मुरब्ब: को ’मुज़ाइफ़’ [दो-गुना] कर दें तो--
बज़ाहिर मिसरा में 4-रुक्न और पूरे शे’र में 8-रुक्न होंगे -तो हम क्या हम इसे ’मुसम्मन’ कह सकते है --या "मुरब्ब: मुज़ाइफ़" ही कहेंगे? कैसे पहचानेगे कि अमुक शे’र "बहर-ए-रमल मुसम्मन सालिम" है या ’बहर-ए-रमल मुरब्ब: मुज़ाइफ़" है??
यह सवाल मैने पहले भी उठाया था और हर बहर के मुरब्ब: में यह बात आती है। जवाब हमें नहीं मालूम।
पर हाँ इतना ज़रूर कह सकता हूं~--कि मुरब्ब: के केस में सिर्फ़ "सदर/इब्तिदा"  और ’अरूज़/जर्ब’ होता है --जब कि हस्व का मुक़ाम नही होता[ इस पर गुज़िस्ता अक़सात मैं चर्चा कर चुका हूँ ,यहाँ दुहराना ग़ैर ज़रूरी है]
यानी
मुरब्ब:    सदर----अरूज़
इब्तिदा-----जर्ब
  A------B---//   C-----D
मुरब्ब: मुज़ाहिफ़             सदर---अरूज़//सदर--अरूज़ =4-रुक्न
  2122---2122// 2122--2122
  E -------F----//  G--------H
इब्तिदा---जर्ब   //  इब्तिदा---जर्ब =4-रुक्न
2122-----2122// 2122-----2122

तो? जब हम ज़िहाफ़ के चर्चा करेगे तो --मुरब्ब/मुरब्ब: मुज़ाहिफ़ के केस में --वो ज़िहाफ़ात नहीं लगेगे--जो हस्व के लिए मख़्सूस होते है क्योंकि मुरब्ब: बहर में ’हस्व’ होता ही नही
अच्छा ,अगर मुरब्ब: मुज़ाइफ़ में ’मुसब्बीग़’ [ 21221] लगाना है तो कहाँ लगायेंगे ? बज़ाहिर अरूज़ और जर्ब पर ही लगेगा यानी [B and D , F and H ] पर यानी
M 2122---21221  // 2122----21221
M 2122----21221// 2122-----21221
साथ ही यह बह्र-ए-शिकस्ता भी है जब कि मात्र मुसम्मन मैं बहर-ए-शिकस्ता नही होता
मगर जब मुसम्मन में ’मुसब्बीग़’ लगाना हो तो--??

मुसम्मन सदर---हस्व---हस्व-----अरूज़ =4-रुक्न
इब्तिदा--हस्व----हस्व---जर्ब =4-रुक्न

बज़ाहिर अरूज़ और जर्ब के मुक़ाम पर यहाँ भी लगेगा
यानी       N                2122-----2122------2122------21221
N       2122------2122------2122-----21221
अब आप M and N की तुलना करें। अब आप ्"मुरब्ब: मुज़ाहिफ़" [ 4-रुक्न एक मिसरा में]  और मुसम्मन [4-रुक्न एक मिसरा में] अन्तर कर सकते हैं।
[2] बहर-ए-रमल मुसद्दस सालिम
फ़ाइलातुन्----फ़ाइलातुन्----फ़ाइला्तुन्
2122--------2122---------2122
उदाहरण [ कमाल अहमद सिद्दीक़ी साहब के हवाले से]

हिज़्र में तनहाई का आलम अजब था
डूब कर यादों में तेरी सो गए हम
तक़्तीअ का एक इशारा कर देते हैं

हिज़्र में तन/  हाइ का आ/लम अ जब था
डूब कर या ]दों में तेरी /  सो गए हम
[2] ख बहर-ए-रमल मुसद्दस सालिम मुसब्बीग़
फ़ाइला्तुन्----फ़ाइला्तुन्----फ़ाइल्लयान्
2122--------2122---------21221
[नोट --मुसब्बीग़ की वज़ाहत ऊपर कर दी गई है--मुरब्ब: के साथ]
[कमाल अहमद सिद्दीक़ी के हवाले से]
शहर में क्या काम रिन्दान-ए-ख़राबात
एक वीराना करें अच्छा सा  आबाद
तक़्तीअ का इशारा कर देता हूँ
2    1   2   2  /  2 1  2    2   / 2 1 2 2 1
शह र में क्या / काम रिन् दा / ने-ख़राबात
2  1   2 2 / 2 1 2 2     / 2 1   2  2  1
एक वीरा /ना करें अच्  /चा स  आबाद

[3] बहर-ए-रमल मुसम्मन सालिम
फ़ाइलातुन्----फ़ाइलातुन्----फ़ाइला्तुन्----फ़ाइला्तुन्
2122--------2122       --------2122------2122
उदाहरण-क़तील सिफ़ाई का एक शे’र है

था ’क़तील’ एक अहल-ए-दिल अब ,उसको भी क्यों चुप लगी है
एक हैरत सी है तारी शहर भर के दिलबरों  पर 

तक़्तीअ का एक इशारा भर कर देता हूँ आप समझ जायेंगे

था ’क़ती लिक /अह ल-ए-दिल अब / ,उसको भी क्यों /चुप लगी है  [ यहाँ क़तील+इक में वस्ल हो कर =क़ती लिक[1 22] का वज़न दे रहा है
एक हैरत / सी है तारी /शहर भर के / दिल बरों  पर [ उर्दू में शह र [21] के वज़न पर लेते है जो दुरुस्त भी है .हिन्दी में इसे [12] की वज़न पर लेते हैं]

कमाल अहमद सिद्दीक़ी साहब के हवाले से -2- उदाहरण

रू-ब-रू हर बात कहना है यक़ीनन ज़ीस्त आदत
अपने बेगाने सभी हमसे ख़फ़ा हैं ,क्या करें हम  
 तक़्तीअ का एक इशारा कर देता हूँ --आप भी कर सकते है

रू-ब-रू हर/   बात कहना / है यक़ीनन / ज़ीस्त आदत
अपने बेगा / ने सभी हम /से ख़फ़ा हैं ,/ क्या करें हम 

उसके होंठों में जो सुर्खी है ,गुलाबों में नहीं  हैं
उसकी आँखों में जो मस्ती है,शराबों में नहीं है

 इसकी भी तक़्तीअ का एक इशारा भर कर देता हूँ-आप खुद भी कर सकते हैं

उसके होंठों/ में जो सुर्खी / है ,गुलाबों / में नहीं  हैं
उसकी आँखों / में जो मस्ती / है,शराबों /में नहीं है

[यहाँ -के- जो-की- पर मात्रा गिराई गई है जो शायरी में जायज है ]

एक उदाहरण डा0 आरिफ़ हसन ख़ान साहब के हवाले से भी दे देता हूँ

हाल-ए-दिल किस को सुनाएँ ,दर्द-ए-दिल किस से कहें हम
इस ज़माने में कोई भी ,राज़दाँ  अपना नहीं है 

इस की तक़्तीअ कर के देखते हैं

हाल-ए-दिल किस/  को सुनाएँ  /,दर्द-ए-दिल किस/ से कहें हम ------ [”हाल-ए-दिल’ को हाल- दिल और”दर्द-ए-दिल’ को दर्द-दिल के वज़न पर लेंगे बहर की माँग पर]

इस ज़माने / में कुई भी /,राज़दाँ  अप / ना नहीं है -------------------[ -कोई - को कुई  के वज़न पर लेंगे बहर की माँग पर]

जैसा कि ऊपर मुरब्ब: और मुसद्दस के केस में  बताया जा चुका है ,मुसम्मन के केस में भी आखिर रुक्न [अरूज़ और जर्ब के मुक़ाम पर] मुसब्बीग [  फ़ाइलाय्यान 21221 ] लाया जा सकता है गरऔर इनका आपस में ख़ल्त जायज है
और इस बहर का नाम होगा -’बह्र-ए-रमल मुसम्मन मुसब्बीग़-कहेंगे
एक उदाहरण [डा0 आरिफ़ हसन ख़ान साहब के हवाले से]

ज़िन्दगी की हर डगर पर मैं निभाऊँगा तेरा साथ
उम्र भर के वास्ते मैंने तो थामा है तेरा हाथ

इसकी तक़्तीअ कर के देखते हैं

2    1   2    2  /  2  1  2  2     / 2 1  2  2  / 2 1 2 2 1
ज़िन द गी की /  हर डगर पर/  मैं निभाऊँ/ गा तिरा साथ
2 1   2   2  /  2  1  2 2  / 2  1  2  2 / 2 1 2 2 1
उम्र भर के / वास्ते मैं      /ने तो थामा / है तिरा हाथ

चलते चलते एक बात और----
यूँ तो बहर-ए-रमल सालिम मुसम्मन/मुसद्दस उर्दू की एक मक़्बूल बहर है मगर पता नहीं क्यों रमल के मुसद्दस या मुसम्मन में उर्दू शायरों ने ज़्यादा अश’आर नहीं कहे हैं जब कि इसकी मुज़ाहिफ़ बहर बहुत ही मक़्बूल और राइज है और लगभग सभी शायरों ने तब अ आज़माइ की है} यह भी एक अजीब बात है}

----
अब अगले क़िस्त में हम बहर-ए-रमल की कुछ मुज़ाहिफ़ बह्रों [ज़िहाफ़ात वाली बह्रों ] पर चर्चा करेंगे
आप की टिप्पणी का इन्तज़ार रहेगा

--इस मंच पर और भी कई साहिब-ए-आलिम मौज़ूद हैं उनसे मेरी दस्तबस्ता [ हाथ जोड़ कर] गुज़ारिश है कि अगर कहीं कोई ग़लत बयानी या ग़लत ख़यालबन्दी  हो गई हो तो निशान्दिही ज़रूर फ़र्मायें ताकि मैं ख़ुद को  दुरुस्त कर सकूं ।बा करम मेरी मज़ीद [अतिरिक्त] रहनुमाई फ़र्माये ।मम्नून-ओ-शुक्रगुज़ार रहूँगा।

अभी बह्र के कुछ बयां और भी हैं..........
ज़िहाफ़ात् के कुछ निशां और भी हैं.....

एक बात बड़े ही अदब से एतराफ़ [स्वीकार] करता हूँ कि इन तमाम अक़्सात ,तज़्क़िरात  और तहरीर के लिए अपने आलिम अरूज़ी साहिबान  कमाल अहमद सिद्द्क़ी साहब , डा0 शम्सुर्र्हमान फ़ारुक़ी साहब ,आलिम जनाब  सरवर आलम राज़ ’सरवर ’ साहब  , अजीज  दोस्त डा0 आरिफ़ हसन ख़ान साहब  का तह-ए-दिल  से मम्नून-ओ-मश्कूर हूँ जिनकी किताबों से  कुछ पढ़ सका ,समझ सका और लिख सका ।वगरना इस हक़ीर इतनी  बिसात कहाँ  इतनी औक़ात कहां । इन तज़्क़िरात में  मेरा कुछ भी अपना नहीं है बस  आलिम साहिबान  के अरूज़ पर किए गए कामों का फ़क़त हिन्दी तर्जुमा समझिए बस ........
एक बात और--

न आलिम ,न मुल्ला ,न उस्ताद ’आनन’
अदब से मुहब्ब्त ,अदब आशना  हूँ

[नोट् :- पिछले अक़सात  [क़िस्तों ]के आलेख [ मज़ामीन ]आप मेरे ब्लाग पर  भी देख सकते हैं 

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