उर्दू बह्र पर एक बातचीर : क़िस्त 38 ( बह्र-ए-रमल की मुसम्मन मुज़ाहिफ़ बह्रें]
Discliamer clause -वही जो क़िस्त 1 में है
---पिछले क़िस्त में बहर-ए-रमल की मुरब्ब: और मुसद्दस मुज़ाहिफ़ बह्रों पे चर्चा कर चुका हूँ । अब इस क़िस्त में रमल की मुसम्मन मुज़ाहिफ़ बह्र पे चर्चा करूंगा।
अगर आप ने रमल की मुसद्दस बह्र समझ लिया है तो समझिए कि आप ने रमल का मुसम्मन बह्र भी समझ लिया है। क्या फ़र्क है--मुसम्मन और मुसद्दस में । एक अतिरिक्त रुक्न का ही तो फ़र्क है और वो भी ’हस्व’ के मुक़ाम पे -वरना तो जो ज़िहाफ़ात मुसद्दस में लगेंगे वही मुसम्मन में भी लगेंगे।
रमल में [ या यूँ कहें कि हज़ज और रजज़ में भी] शायरों ने अपनी शायरी ज़्यादातर मुसद्दस और मुसम्मन में ही की है और इसके काफी उदाहरण भी मौज़ूद हैं।
एक -एक कर के उन पर चर्चा करते है
[1] बहर-ए-रमल मुसम्मन सालिम : इस बहर के बारे में पिछले क़िस्त में विस्तार से चर्चा कर चुका हूं } आप चाहें तो एक बार देख सकते है
[2] बहर-ए-रमल मुसम्मन महज़ूफ़: आप जानते है कि रमल की बुनियादी रुक्न ’फ़ाइलातुन’ है [2122] और इसका इसका महज़ूफ़ फ़ा इलुन’ [212] है और ’महज़ूफ़’ अरूज़’ और ’जर्ब’ के लिए ख़ास है तो बहर की वज़न होगी
फ़ाइलातुन----फ़ाइलातुन----फ़ाइलातुन--- फ़ा इलुन
2122---------2122---------2122-------212
उदाहरण :- गालिब का एक शे’र है
[क] नक़्श फ़रियादी है किस की शोखी-ए-तहरीर का
काग़ज़ी है पैरहन हर पैकर-ए-तस्वीर का
तक़्तीअ भी देख लेते है
2 1 2 2 / 2 1 2 2 / 2 1 2 2 / 2 1 2
नक़् श फ़र या / दी है किस की / शोख-ए-तह /रीर का
2 1 2 2 / 2 1 2 2 / 2 1 2 2 / 2 1 2
काग़ज़ी है / पै र हन हर / पै क रे-तस् /वीर का
[ख] मीर का भी एक शे’र देख लें
ज़िन्दगी होती है अपनी ग़म के मारे देखिए
मूँद ली आँखें इधर से तुम ने प्यारे देखिए
इशारा मैं कर देता हूँ ,तक़्तीअ आप कर लें
2 1 2 2/ 2 1 2 2 / 2 1 2 2 / 212
ज़िन द गी हो /ती है अप नी / ग़म के मारे/ देखिए [ यहाँ बह्र की माँग पर - है-- के- पर मात्रा गिराई गई है
2 1 2 2 / 2 1 2 2 / 2 1 2 2 / 2 1 2
मूँद ली आँ /खें इधर से / तुम ने प्यारे / देखिए [ यहाँ भी -ने- पर मात्रा गिराई गई है]
[3] बहर-ए-रमल मुसम्मन मक़्सूर :आप जानते है कि रमल की बुनियादी रुक्न ’फ़ाइलातुन’ है [2122] और इसका मक़्सूर फ़ाइलान’ [2121 ] है और ’मक़्सूर ख़ास तौर से ’ अरूज़’ और ’जर्ब’ के लिए मख़्सूस है तो बहर होगी
फ़ाइलातुन----फ़ाइलातुन----फ़ाइलातुन--- फ़ा इलान
2122---------2122---------2122-------2121
ख़ास बात यह कि शे’र मैं ’महज़ूफ़’ [212]की जगह ’मक़्सूर[2121] ’ और ’मक़्सूर’[2121] की जगह ’महज़ूफ़’[212] लाया जा सकता है और इसकी इजाज़त भी है। मगर बह्र का नामकरण ’मिसरा-सानी’ में प्रयुक्त ज़िहाफ़ के लिहाज़ से ही होगा। इस बात की चर्चा पहले क़िस्त में कर चुका हूं
ग़ालिब का एक दूसरा शे’र [उसी ग़ज़ल से ] लेते हैं
[क] काव-कावे सख़्तजानी हाय तनहाई न पूछ
सुबह करना शाम का लाना है जू-ए-शीर का
एक बार तक़्तीअ देख लेते हैं
2 1 2 2 / 2 1 2 2 / 2 1 2 2 / 2 1 2 1
काव-कावे / सख़ त जानी / हाय तन हा /ई न पूछ
2 1 2 2 / 2 1 2 2 / 2 1 2 2 / 2 1 2
सुब ह करना / शाम का ला /ना है जू-ए-/शीर का
यहाँ अरूज़ के मुक़ाम पर मक्सूर[2121] लाया गया है जब कि जर्ब के मुक़ाम पर महज़ूफ़ [212] अत: ग़ज़ल की बहर होगी--" बह्र-ए-रमल मुसम्मन महज़ूफ़’ --न कि मक्सूर
[ख] एक शेर मीर का भी देख लेते हैं
किसकी मसजिद ? कैसे मयख़ाने ? कहां के शैख़ो-शाब ?
एक गर्दिश में तेरी चश्म-ए-सियह की सब खराब
एक बार इस की तक़्तीअ भी देख लेते हैं
2 1 2 2 / 2 1 2 2 / 2 1 2 2 / 2 1 2 1
किस की मस जिद ?/ कैसे मयख़ा /ने कहां के / शैख़-शाब ?
2 1 2 2 / 2 1 2 2 / 2 1 2 2 / 2 1 2 1
एक गर् दिश / में तिरी चश / मे सियह की / सब खराब
्संयोग से ,यह शे’र शुद्ध रूप से बहर-ए-रमल मुसम्मन मक़्सूर का उदाहरण है । कारण कि दोनो मिसरों में ’फ़ाइलान’ [ 2121] का प्रयोग हुआ है।मगर किसी ग़ज़ल मे ’फ़ाइलुन[212] और फ़ाइलान [2121] आपस में बदले जा सकते है
बहुत से शायरो ने इस बहर में ग़ज़ल कही है सब को यहाँ लिखना मुनासिब नहीहै-बस इतना ही समझ लीजिये कि बड़ी मक़्बूल बहर है यह।
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अच्छा , अब कुछ रमल पर खब्न ज़िहाफ़ की बात कर लेते है यानी ’रमल मुसम्मन मख्बून’ और रमल मुसम्मन म्ख़्बून महज़ूफ़/मक़्सूर’ पर कुछ बात कर लेते हैं
आप जानते है कि ’फ़ाइलातुन’ [2122] का मख़्बून है ’फ़इलातुन’ [1122] और यह एक आम ज़िहाफ़ है जो शे’र में किसी मुक़ाम पर लाया जा सकता है
और महज़ूफ़ [212] और मक़्सूर [ 2121] ख़ास ज़िहाफ़ है जो अरूज़ और जर्ब के मुक़ाम पर ही लाया जा सकता है
और सदर और इब्तिदा के के मुक़ाम पर सालिम फ़ाइलातुन [2122] की जगह फ़इलातुन भी [1122] लाया जा सकता है । क्यों? मालूम नहीं।
और फ़ इलातुन [1122] पर ’तस्कीन’ का अमल हो सकता है
यह सब बात पिछले क़िस्त में मुसद्दस की बहस के दौरान लिख चुका हूँ ।एक बार फिर लिख दिया
इन सब बातों पर विचार करने पर combination & permutation से रमल मुसम्मन मुज़ाहिफ़ की 8-वज़न बरामद हो सकती है
[A] बहर-ए-रमल मुसम्मन मख़्बून महज़ूफ़
फ़ाइलातुन--फ़इलातुन----फ़ इलातुन---फ़इलुन
2122-------1122-------1122-------112
उदाहरण ; ग़ालिब का एक शे’र देखें
शौक़ हर रंग रक़ीब-ए-सर-ओ-सामां निकला
क़ैस तस्वीर के पर्दे में भी उरियां निकला
इशारा हम कर देते हैं --तक़्तीअ आप देख लें
2 1 2 2 / 1 1 2 2 / 1 1 2 2 / 1 1 2
शौक़ हर रन्/ ग रक़ीबे / स र-ए-सामां / निकला [सर्-ए-सामां --में इज़ाफ़त-ए-कसरा के कारण -र- पर हरकत आ गई सो 1-के वज़न पर लिया गया है]
2 1 2 2 / 1 1 2 2 / 1 1 2 2 / 1 1 2
क़ैस तस वी / र के पर दे / में भी उर यां / निकला [ -के--में-भी- बह्र की मांग पर मात्रा गिराई गई है]
[B] फ़इलातुन--फ़इलातुन----फ़ इलातुन---फ़इलुन
1122-----1122---------1122-- --112 [ फ़ाइलातुन [2122] की जगह फ़इलुन [1122] लाया जा सकता है]
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[C] बहर-ए-रमल मुसम्मन मख़्बून मक़्सूर
फ़ाइलातुन--फ़इलातुन----फ़ इलातुन---फ़इलान
2122------1122--------1122--- -1121
[D] फ़ाइलातुन--फ़इलातुन----फ़ इलातुन---फ़इलान
1122-----1122---------1122----1121 [ फ़ाइलातुन [2122] की जगह फ़इलुन [1122] लाया जा सकता है]
नोट यह चारो वज़न [A]--[B]--[C]--[D] आपस में मुतबादिल है यानी एक दूसरे के स्थान पर लाए जा सकते है
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[E] बहर-ए-रमल मुसम्मन मख़्बून महज़ूफ़ मुसक्कन
फ़ाइलातुन--फ़इलातुन----फ़ इलातुन---फ़अ लुन [ फ़अ लुन [22]--में -ऐन-साकिन]
2122------1122--------1122---------22
[F] फ़इलातुन--फ़इलातुन----फ़ इलातुन---फ़इलुन
1122-------1122-----1122---------22 [ फ़ाइलातुन [2122] की जगह फ़इलुन [1122] लाया जा सकता है]
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[G] बहर-ए-रमल मुसम्मन मख़्बून मक़्सूर मुसक्कन
फ़ाइलातुन--फ़इलातुन----फ़ इलातुन---फ़अ लान [फ़अ लान[221] में -ऐन साकिन है]
2122------1122-------1122-------221
[H] फ़इलातुन--फ़इलातुन----फ़ इलातुन---फ़अ लान
1122----1122--------1122-------221 [ फ़ाइलातुन [2122] की जगह फ़इलुन [1122] लाया जा सकता है]।
नोट- यह चारो वज़न [E]---[F]----[G]---[H] आपस में मुतबादिल है यानी एक दूसरे के स्थान पर लाए जा सकते है
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उदाहरण --
यूँ तो किसी शे’र के दोनो मिसरों को किसी भी एक वज़न में बांधा जा सकता है मनाही नही है और उसी वज़न में पूरी की पूरी ग़ज़ल भी कही जा सकती है। पर यह आप के फ़न-ए-शायरी और कमाल-ओ-हुनर पर निर्भर करेगा। मगर ज़्यादातर शायरों ने अपनी ग़ज़ल मे इन तमाम औज़ान [वज़नों] का ख़ल्त किया है और जायज भी है। हम कुछ उदाहरण में ग़ालिब की ग़ज़लों के चन्द अश’आर से लेते है जिससे बात साफ़ हो जाये। और मिसरा के अन्त में वज़न की निशान्दिही A B C D ----भी कर देंगे। ग़ालिब का एक शे’र है--आप ने भी सुना होगा
नुक़्ताचीं है ग़म-ए-दिल उसको सुनाए न बने
क्या बने बात जहाँ बात बनाए न बने
इश्क़ पर जोर नहीं है ये वो आतिश ’ग़ालिब’
कि लगाए न लगे और बुझाए न बुझे
इसकी तक़्तीअ भी देख लेते हैं--
2 1 2 2 / 1 1 2 2 / 1 1 2 2 / 1 1 2 ---[A]
नुक़ त चीं है / ग़म-ए-दिल उस /को सु ना ए /न ब ने
2 1 2 2 / 1 1 2 2 / 1 1 2 2 / 1 1 2 --[A]
क्या बने बा / त जहाँ बा / त ब ना ए /न ब ने
2 1 2 2 / 1 1 2 2 / 1 1 2 2 / 2 2 --[E]
इश् क़ पर जो /र नहीं है / ये वो आतिश /’ग़ालिब’
1 1 2 2 /1 1 2 2 / 1 1 2 2 / 1 1 2 ----[F]
कि लगाए /न लगे औ /र बुझाए / न बु झे
दोनो शे’र एक ही ग़ज़ल के है --पहले शे’र में कोई ख़ल्त नहीं है
चूँकि मतला के दोनो मिसरा में ’मक्सूर’ बाँध दिया गया है [ख़ास तौर से मिसरा सानी में ]अत: बह्र का नाम होगा ’बहर-ए-रमल मुसम्मन मख्बून मक्सूर’
मगर दूसरे शे’र [मक़्ता] में मिसरा ऊला के सदर मे 2122[सालिम] और मिसरा सानी के इब्तिदा मे 1122 [मख़्ब्बून] लाया गया है जो जायज़ है
साथ ही अरूज़ में [22] और जर्ब में 112 लाया गया है जो जायज है
ग़ालिब के ही दो -तीन अश’आर और देखते हैं--
इशरत-ए-क़त्ल गहे अहले तमन्ना न पूछ
ईद-ए-नज़्ज़ारा है शमशीर का उरियां होना
दिल हुआ कश्मकश -ए-चारा-ए-जहमत में तमाम
मिट गया घिसने से इस उक़्दे का वा हो जाना
मुँद गई खोलते ही खोलते आँखें ’ग़ालिब’
यार लाए मेरी बाली पे उसे , पर किस वक़्त
तक़्तीअ कर के देखते है
2 1 2 2 / 1 1 2 2 / 1 1 2 2 / 1 12 ---- A
इश र ते क़त्/ ल ग हे अह / ल त मन ना / न पूछ
1 1 2 2 / 1 1 2 2 / 1 1 2 2 / 2 2 -----F
ईद-ए-नज़ ज़ा / रा है शम शी / र का उरि यां / होना
2 1 2 2 / 1 1 2 2 / 1 1 2 2 / 1 1 2 1 ----C
दिल हुआ कश/ म क शे-चा / रा-ए-जह मत /में तमाम
2 1 2 2 / 1 1 2 2 / 1 1 2 2 / 2 2 ---E
मिट गया घिस / ने से इस उक़ / दे का वा हो /जाना
2 1 2 2 / 1 1 2 2 / 1 1 2 2 / 2 2 ---E
मुँद गई खो / ल ते ही खो /ल ते आँखें / ’ग़ालिब’
2 1 2 2 / 1 1 2 2 / 1 1 2 2 / 2 2 1 ---G
यार लाए / मेरी बाली / पे उ से , पर / किस वक़् त
आप चाहें तो आप भी इसी वज़न में अश’आर कह सकते है
एक बात और
फ़इलातुन [1122] में तस्कीन-ए-औसत का अमल हो सकता है तब इसकी शकल " मफ़ऊलुन’ [222] हो जायेगी। यानी फ़इलातुन [1122] की जगह मफ़ऊलुन [222] भी लाया जा सकता है मगर शर्त यह कि बहर न बदल जाये। इस पर नीचे विस्तार से चर्चा कर दिया है
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[9] बहर-ए-रमल मुसम्मन मख़्बून : ज़ाहिर है कि इस वज़न में हर रुक्न ’मख्बून’ का ही होगा -यानी
फ़इलातुन--फ़इलातुन----फ़ इलातुन---फ़इलातुन
1122-------1122-----1122---------1122
यही बात [तस्कीन-ए-औसत की ]यहां भी लागू होगी
उदाहरण-- डा0 आरिफ़ हसन खान साहब के हवाले से
मेरी आवाज़ पे क्या बाँध लगायेगा ज़माना
मैं हूं ’आरिफ़’ कोई तुग़यानी पे आया हुआ दरिया
इसकी तक़्तीअ कर के भी देख लेते हैं
1 1 2 2 / 1 1 2 2 / 1 1 2 2 / 1 1 2 2
मेरी आवा / ज़ पे क्या बाँ/ ध ल गाये /गा ज़माना [ यहाँ मेरी को ’मि रि ’ को 1 1 के वज़न पर लिया गया है ,कोई को कु इ [1 1] के वज़न पर लिया गया है और बाक़ी जगह बह्र की माँग पर मात्रायें गिराई गई है।
1 1 2 2 / 1 1 2 2 / 1 1 2 2 / 1 1 2 2
मैं हूं ’आरिफ़’/ कोई तुग़ या / नी पे आया / हुआ दरिया
एक बात और --
अगर आप ध्यान से देखें तो ’फ़इलातुन [1 1 2 2 ] में तीन मुतहर्रिक [फ़े --ऐन---लाम ] एक साथ आ गये हैं जिस पर ’तस्कीन-ए-औसत का अमल लग सकता है जिससे ’ फ़ इलातुन [1122] --- ’मफ़ ऊ लुन [2 2 2] हो सकता है
इस हिसाब से किसी एक मख़्बून या सभी मख़्बून को ’मफ़ उ लुन ’[2 2 2] से बदला जा सकता है शर्त यह कि बह्र न बदल जाये
मतलब यह कि ऊपर दिखाये गये अगर सभी मख़्बून [1122] को मफ़ ऊ लुन [222] से बदल दे तो ?
बहर हो जायेगी
मफ़ ऊ लुन------मफ़ ऊ लुन-----मफ़ ऊ लुन-----मफ़ऊलुन
222-------------222-------------222-----------222
यानी आहंग अब ’मुतक़ारिब’ का हो जायेगा } अत: हम "मख़्बून’ के सभी रुक्न को ’मफ़ऊलुन’[222] से नहीं बदल सकते । क्यों कि बहर बदल जायेगी
अगर हम [बहर-ए-रमल मुसम्मन मख़्बून] के आखिरी रुक्न [जो अरूज़ और जर्ब के मुक़ाम पर है ] पर तस्कीन-ए-औसत का अमल लागाये तो? बहर हो जायेगी --
"[10] रमल मुसम्मन मख़्बून मुसक्कन अल आखिर"
फ़इलातुन--फ़इलातुन----फ़ इलातुन---फ़ऊलुन
1122-------1122-----1122---------222
इस का दूसरा नाम ’रमल मुसम्मन मख़्बून मुश’अश भी है क्योंकि ठीक यही वज़न ज़िहाफ़ ’तश’इश’ ले अमल से बरामद हो सकती है\ मगर पहला नाम और अमल ज़्यादा आसान है} हमे तो आम खाने से मतलब है पेड़ गिनने से क्या !
एक उदाहरण भी देख लेते हैं [ डा0 आरिफ़ हसन खान साहब के हवाले से ही]
गली कूचों से कोई जोड़ नहीं इन महलों का
मेरे हमदम मैं तेरा साथ नहीं दे सकता हूँ
तक़्तीअ भी देख लेते हैं
1 1 2 2 / 1 1 2 2 / 1 1 2 2 / 2 2 2
गली कूचों / से कु ई जो / ड़ न हीं इन / मह लों का
1 1 2 2 / 1 1 2 2 / 1 1 2 2 /2 2 2
मि रे हम दम / मैं तिरा सा / थ न हीं दे /सक ता हूँ
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अब ज़रा ज़िहाफ़ ’शकल’ की भी चर्चा कर लेते हैं --फ़ाइलातुन [2122] पे
पिछले क़िस्त 37 में -लिखा था
फ़ाइलातुन [2122] +शकल ज़िहाफ़ = फ़इलातु [1121] बरामद होगा जो ’फ़ाइलातुन ’का मुज़ाहिफ़ है -मश्कूल है --ध्यान रहे -तु- मुतहार्रिक है और किसी मिसरा या शेर के अन्त में -कोई ’मुतहर्रिक’ नहीं आता यानी आखिरी हर्फ़ ’मुतहर्रिक’ पर नहीं गिरता ।अत: हम दूसरे शब्दों में कह सकते हैं कि शे’र में अरूज़ और जर्ब के मुक़ाम पर फ़ इलातु[1121] नहीं लाया जा सकता।मगर सदर और इब्तिदा या हश्व के मुक़ाम पर तो मनाही नहीं है । ख़ैर---
"शक्ल"--एक मुरक्क्ब ज़िहाफ़ है जो दो ज़िहाफ़ [ ख़ब्न + कफ़] से मिल कर बना है और इन दोनो ज़िहाफ़ का अमल ’फ़ाइलातुन [2122] पर "एक साथ’ होता है तो ’फ़इलातु [ 1121] बरामद होता है जिसे ’मश्कूल’ कहते है । यद्दपि इस की चर्चा पिछले किसी क़िस्त में कर चुके हैं।
[11] बहर-ए-रमल मुसम्मन मश्कूल
फ़ इलातु-------फ़ाइलातुन----फ़ इलातु---फ़ाइलातुन
1121---------2122----//------1121------2122
उदाहरण - कमाल सिद्दीक़ी साहब के हवाले से
ये ज़मीन भी पुरानी ,ये ख़याल भी पुराना
है कुछ और फ़न ग़ज़ल का,कि ग़ज़ल मिसल नही है
तक़्तीअ भी देख लेते हैं---
1 1 2 1 / 2 1 2 2 // 1 1 2 1/ 2 1 2 2
ये ज़मीन / भी पुरानी // ,ये ख़याल / भी पुराना
1 1 2 1 / 2 1 2 2 // 1 1 2 1 / 2 1 2 2
है कु छौ र / फ़न ग़ज़ल का // ,कि ग़ज़ल मि/ सल नही है [यहाँ --कुछ और- वस्ल हो कर ’कु छौर ’ का तलफ़्फ़ुज़ दे रहा ह इ इस लिए इसे [121] की वज़न पर लिया गया
इस बहर के बारे में कुछ बातें और करनी है
[1] पहली बात -यह बहर एक ’शिकस्ता’ बह्र भी है । शिकस्ता बहर के बारे में पहले भी चर्चा कर चुका हूं । एक बार फिर कर देता हूँ । ऐसी बहर जिसका मिसरा ठीक दो बराबर भागों में बँट जाये [तक़्सीम हो जाये] और आप की एक बात मिसरा के पूर्वार्द्ध में .और दूसरी बात मिसरा की उत्तरार्द्ध में मुकम्मल हो जाये --- को बह्र-ए-शिकस्ता कहते है ।और उसे --//- के निशान से दिखाते हैं । अगर ऐसा नही है तो फिर ’शिकस्ता -ना रवा’ कहते है । ख़ैर--
[2] दूसरी बात-इस बहर में भी--’फ़इलातु[ [1121] पर तस्कीन का अमल हो सकता है । क्यों ? कारण कि यहाँ भी [ फ़े ऐन--लाम --तीन मुतहर्रिक एक साथ आ गये ] और वज़न ’मफ़ ऊलु [ 2 2 1] बरामद किया जा सकता है और इस से एक बहर और बरामद की जा सकती है और ’फ़ इलातु- [1121] की जगह मफ़ऊलु [221] लाया जा सकता है
[क] 221-----2122--// 221---2122
मगर यह बहर तो "मुज़ारे मुसम्मन अख़रब" की बह्र है [जिसकी चर्चा मैं ’मुरक़्क़ब बहूर’ के वक़्त आने वाले क़िस्त में करेंगे ] अर्थात तस्कीन के अमल से बह्र बदल गई तो इस तस्कीन का अमल जायज नहीं है अत: ऊपर कही हुई बात रद्द की जाती है ]
बह्र-"मुज़ारिअ मुसम्मन अख़रब " की चर्चा उर्दू शायरी की बहुत मक़्बूल बहर है और तमाम शो"अरा ने इस बह्र में शायरी की है --इस बहर की चर्चा उदाहरण सहित आइनदा अक़सात में उचित मौक़े पर करूँगा ]
इस बिन्दु की तरफ़ मेरे मित्र एवं नियमित पाठक जो अरूज़ के अच्छे जानकार है श्री अजय तिवारी जी ने ध्यान दिलाया -मैं उनका आभारी हूँ
यह बात और है कि उर्दू शायरी में इस बहर में बहुत कम शे’र मिलते है --लगभग न के बराबर। आप चाहें तो एक प्रयास कर सकते है }क्षेत्र अछूता है।
[3] तीसरी बात-अरूज़ और जर्ब के मुक़ाम पर सालिम की जगह ’ फ़ाइलिय्यान. [ 21221] जिसे मुसब्बीग़ भी कहते हैं , लाया जा सकता है
रमल मुसम्मन की एक बहर और देख लेते है
[12]रमल मुसम्मन मक्फ़ूफ़, मख्बून मुसक्कन, मकफ़ूफ़, मख़्बून मुसक्कन
फ़ा इलातु ,---- मफ़ऊलुन // फ़ाइलातु -----, मफ़ऊलुन
2121----------222-----// 2121---------222
ज़ाहिर है कि फ़ाइलातुन [2122] पर ’ कफ़’ का ज़िहाफ़ लगा है और इसका मकफ़ूफ़ --फ़ाइलातु [2121]--- होता है। और जब मख़्बून फ़इलातुन [1122] पर तस्कीन का अमल करते है तो -मफ़ ऊ लुन - [222] बरामद होती है । यह बात तो आप जानते ही हैं --कोई नई बात नही है --वही ऊपर लिखा भी है ।
एक उदाहरण डा0 आरिफ़ हसन खान साहब के हवाले से देख लेते है
ज़िन्दगी के सहरा में हर तरफ़ है बेमहरी
जिस तरफ़ नज़र डालूँ दश्त-ए-करबला देखूँ
अब तक़्तीअ भी देख लेते हैं
2121 / 222 // 2 1 2 1 / 2 2 2
ज़िन्दगी के / सहरा में // हर तरफ़ है/ बे मह री
2 1 2 1 / 2 2 2 // 2 1 2 1 / 2 2 2
जिस तरफ़ न / ज़र डालूँ // दश्त-ए-करब/ ला देखूँ
यह बह्र भी शिकस्ता है।
एक रुक्न और देख लेते हैं
[13] रमल मुसम्मन मख़्बून सालिम मख़्बून सालिम
फ़ इलातुन ------फ़ाइलातुन // फ़ इलातुन-----फ़ाइलातुन
1122------------2122----// 1122---------2122
उदाहरण [डा0 आरिफ़ हसन खान साहब के ही हवाले से]
मेरी कश्ती फँस गई है , जो मसाइब के भंवर में
मेरे मौला तू बचा ले , तुझे सदक़ा मुस्तफ़ा का
तक़्तीअ भी देख लेते है
1 1 2 2 / 2 1 2 2 // 1 1 2 2 / 2 1 2 2
मेरी कश् ती / फँस गई है ,// जो म सा इब / के भं वर में
1 1 2 2 / 2 1 2 2 // 1 1 2 2 / 2 1 2 2
मेरे मौला / तू बचा ले // , तुझे सदक़ा / मुस तफ़ा का
यह बह्र भी ’शिकस्ता बह्र ’ है
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हम यह दावा तो नही कर सकते कि रमल मुसम्मन की तमाम बहरे हमने cover कर ली
और भी बहुत से वज़न और बहर रमल की बरामद हो सकती है कभी फ़र्द ज़िहाफ़ के अमल से कभी मुतक्कब ज़िहाफ़ की अमल से कभी तस्कीन के अमल से} वो सब बहरे academic discussion and knowledge के लिए तो ठीक हैं मगर उर्दू शायरी में न ही उतनी मक़्बूल है और न ही राइज़ है }आप चाहें तो ऐसी तमाम बह्रें किसी मुसतनद अरूज़ की किताब में देख सकते है } ग़ालिब ने भी उन कम राइज बह्रों का इस्तेमाल नहीं किया। ख़ैर---
चलते चलते एक बहर पर और चर्चा करना चाहूँगा जो सैद्धान्तिक रूप से संभव तो है मगर कहीं कोई ग़जल या शे’र मेरी निगाह से अभी तक गुज़रा नहीं } डा0 आरिफ़ हसन खान साहब ने अपनी मुस्तनद किताब ’मेराज-उल-अरूज़’ में इस का ज़िक्र किया है। और वो बहर है----
[14] रमल मुसम्मन मख़्बून मुज़ाइफ़ [16-रुक्नी बहर]--बहर आसान है मगर है बहुत लम्बी --सच्चा शे’र कहना मुश्किल। ख़ैर--
फ़इलातुन----फ़इलातुन---फ़इलातुन---फ़इलातुन--//-फ़इलातुन---फ़इलातुन---फ़इलातुन---फ़इलातुन
1122--------1122--------1122-------1122---//--1122-------1122-------1122------1122
उदाहरण भी डा0 साहब ने खुद साख़्ता शे’र से दिया है ,उन्ही के हवाले से---
मेरे हमदम तेरी जुल्फ़ों की घनी छांव मयस्सर न थी जब तक तू मेरे जीने का मक़सद न था कुछ भी
तुझे देखा तो मेरे दिल ने कहा मुझ से यही है तेरे जीने का सहारा तेरा मक़सद तेरी मन्ज़िल
अब तक़्तीअ भी देख लेते हैं
1 1 2 2 / 1 1 2 2 / 1 1 2 2 / 1 1 2 2 / 1 1 2 2 / 1 1 2 2 / 1 1 2 2 / 1 1 2 2
मिरे हमदम / तिरी जुल् फ़ो / की घनी छां / व मयस्सर// न थी जब तक / तू मिरे जी / ने का मक़सद / न था कुछ भी
1 1 2 2 / 1 1 2 2 / 1 1 2 2 / 1 1 2 2/ 1 1 2 2/ 1 1 2 2 / 1 1 2 2 / 1 1 2 2
तुझे देखा / तो मिरे दिल / ने कहा मुझ / से यही है // तिरे जीने / का सहारा / तिरा मक़सद / तिरी मन् ज़िल
यहाँ बहर की माँग पर वही मात्रायें गिराई गई है जो शायरी में रवा है
इस बहर पर डा0 साहब ने एक हिदायत भी की है --उन्ही के शब्दों में--"ग़लती से नावाक़िफ़ लोग इसे बहर-ए-तवील कहते है"
जब बह्र-ए-तवील की चर्चा करेंगे तब की तब देखेंगे।
एक बात और ---डा0 साहब ने यह तो नहीं लिखा है कि यह बहर ’शिकस्ता बहर’ भी है । अमूमन ऐसी बहर ’शिकस्ता ’ होतीं हैं --मैं समझता हूँ कि यह बहर [16-रुक्नी] भी बह्र-ए-शिकस्ता है
ख़ुदा ख़ुदा कर के बह्र-ए-रमल का बयान मुकम्मल हुआ
अब अगली किस्त में --"बह्र-ए-रजज़" कुछ चर्चा करेंगे
आप की टिप्पणी का इन्तज़ार रहेगा
--इस मंच पर और भी कई साहिब-ए-आलिम मौज़ूद हैं उनसे मेरी दस्तबस्ता [ हाथ जोड़ कर] गुज़ारिश है कि अगर कहीं कोई ग़लत बयानी या ग़लत ख़यालबन्दी हो गई हो तो निशान्दिही ज़रूर फ़र्मायें ताकि मैं ख़ुद को दुरुस्त कर सकूं ।मेरी मज़ीद [अतिरिक्त] रहनुमाई फ़र्माये ।मम्नून-ओ-शुक्रगुज़ार रहूँगा।
अभी बह्र के कुछ बयां और भी हैं..........
ज़िहाफ़ात् के कुछ निशां और भी हैं.....
एक बात बड़े ही अदब से एतराफ़ [स्वीकार] करता हूँ कि इन तमाम अक़्सात ,तज़्क़िरात और तहरीर के लिए अपने आलिम अरूज़ी साहिबान कमाल अहमद सिद्द्क़ी साहब , डा0 शम्सुर्र्हमान फ़ारुक़ी साहब ,आलिम जनाब सरवर आलम राज़ ’सरवर ’ साहब , अजीज दोस्त डा0 आरिफ़ हसन ख़ान साहब का और कुछ दीगर दोस्तों का तह-ए-दिल से मम्नून-ओ-मश्कूर हूँ जिनकी किताबों से कुछ पढ़ सका ,समझ सका और लिख सका ।वगरना इस हक़ीर में इतनी बिसात कहाँ इतनी औक़ात कहां । इन तज़्क़िरात में मेरा कुछ भी अपना नहीं है बस आलिम साहिबान के अरूज़ पर किए गए कामों का फ़क़त हिन्दी तर्जुमा समझिए बस ........
एक बात और--
न आलिम ,न मुल्ला ,न उस्ताद ’आनन’
अदब से मुहब्ब्त ,अदब आशना हूँ
[नोट् :- पिछले अक़सात [क़िस्तों ]के आलेख [ मज़ामीन ]आप मेरे ब्लाग पर भी देख सकते हैं
www.urdu-se-hindi.blogspot.com
or
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-आनन्द.पाठक-
Discliamer clause -वही जो क़िस्त 1 में है
---पिछले क़िस्त में बहर-ए-रमल की मुरब्ब: और मुसद्दस मुज़ाहिफ़ बह्रों पे चर्चा कर चुका हूँ । अब इस क़िस्त में रमल की मुसम्मन मुज़ाहिफ़ बह्र पे चर्चा करूंगा।
अगर आप ने रमल की मुसद्दस बह्र समझ लिया है तो समझिए कि आप ने रमल का मुसम्मन बह्र भी समझ लिया है। क्या फ़र्क है--मुसम्मन और मुसद्दस में । एक अतिरिक्त रुक्न का ही तो फ़र्क है और वो भी ’हस्व’ के मुक़ाम पे -वरना तो जो ज़िहाफ़ात मुसद्दस में लगेंगे वही मुसम्मन में भी लगेंगे।
रमल में [ या यूँ कहें कि हज़ज और रजज़ में भी] शायरों ने अपनी शायरी ज़्यादातर मुसद्दस और मुसम्मन में ही की है और इसके काफी उदाहरण भी मौज़ूद हैं।
एक -एक कर के उन पर चर्चा करते है
[1] बहर-ए-रमल मुसम्मन सालिम : इस बहर के बारे में पिछले क़िस्त में विस्तार से चर्चा कर चुका हूं } आप चाहें तो एक बार देख सकते है
[2] बहर-ए-रमल मुसम्मन महज़ूफ़: आप जानते है कि रमल की बुनियादी रुक्न ’फ़ाइलातुन’ है [2122] और इसका इसका महज़ूफ़ फ़ा इलुन’ [212] है और ’महज़ूफ़’ अरूज़’ और ’जर्ब’ के लिए ख़ास है तो बहर की वज़न होगी
फ़ाइलातुन----फ़ाइलातुन----फ़ाइलातुन--- फ़ा इलुन
2122---------2122---------2122-------212
उदाहरण :- गालिब का एक शे’र है
[क] नक़्श फ़रियादी है किस की शोखी-ए-तहरीर का
काग़ज़ी है पैरहन हर पैकर-ए-तस्वीर का
तक़्तीअ भी देख लेते है
2 1 2 2 / 2 1 2 2 / 2 1 2 2 / 2 1 2
नक़् श फ़र या / दी है किस की / शोख-ए-तह /रीर का
2 1 2 2 / 2 1 2 2 / 2 1 2 2 / 2 1 2
काग़ज़ी है / पै र हन हर / पै क रे-तस् /वीर का
[ख] मीर का भी एक शे’र देख लें
ज़िन्दगी होती है अपनी ग़म के मारे देखिए
मूँद ली आँखें इधर से तुम ने प्यारे देखिए
इशारा मैं कर देता हूँ ,तक़्तीअ आप कर लें
2 1 2 2/ 2 1 2 2 / 2 1 2 2 / 212
ज़िन द गी हो /ती है अप नी / ग़म के मारे/ देखिए [ यहाँ बह्र की माँग पर - है-- के- पर मात्रा गिराई गई है
2 1 2 2 / 2 1 2 2 / 2 1 2 2 / 2 1 2
मूँद ली आँ /खें इधर से / तुम ने प्यारे / देखिए [ यहाँ भी -ने- पर मात्रा गिराई गई है]
[3] बहर-ए-रमल मुसम्मन मक़्सूर :आप जानते है कि रमल की बुनियादी रुक्न ’फ़ाइलातुन’ है [2122] और इसका मक़्सूर फ़ाइलान’ [2121 ] है और ’मक़्सूर ख़ास तौर से ’ अरूज़’ और ’जर्ब’ के लिए मख़्सूस है तो बहर होगी
फ़ाइलातुन----फ़ाइलातुन----फ़ाइलातुन--- फ़ा इलान
2122---------2122---------2122-------2121
ख़ास बात यह कि शे’र मैं ’महज़ूफ़’ [212]की जगह ’मक़्सूर[2121] ’ और ’मक़्सूर’[2121] की जगह ’महज़ूफ़’[212] लाया जा सकता है और इसकी इजाज़त भी है। मगर बह्र का नामकरण ’मिसरा-सानी’ में प्रयुक्त ज़िहाफ़ के लिहाज़ से ही होगा। इस बात की चर्चा पहले क़िस्त में कर चुका हूं
ग़ालिब का एक दूसरा शे’र [उसी ग़ज़ल से ] लेते हैं
[क] काव-कावे सख़्तजानी हाय तनहाई न पूछ
सुबह करना शाम का लाना है जू-ए-शीर का
एक बार तक़्तीअ देख लेते हैं
2 1 2 2 / 2 1 2 2 / 2 1 2 2 / 2 1 2 1
काव-कावे / सख़ त जानी / हाय तन हा /ई न पूछ
2 1 2 2 / 2 1 2 2 / 2 1 2 2 / 2 1 2
सुब ह करना / शाम का ला /ना है जू-ए-/शीर का
यहाँ अरूज़ के मुक़ाम पर मक्सूर[2121] लाया गया है जब कि जर्ब के मुक़ाम पर महज़ूफ़ [212] अत: ग़ज़ल की बहर होगी--" बह्र-ए-रमल मुसम्मन महज़ूफ़’ --न कि मक्सूर
[ख] एक शेर मीर का भी देख लेते हैं
किसकी मसजिद ? कैसे मयख़ाने ? कहां के शैख़ो-शाब ?
एक गर्दिश में तेरी चश्म-ए-सियह की सब खराब
एक बार इस की तक़्तीअ भी देख लेते हैं
2 1 2 2 / 2 1 2 2 / 2 1 2 2 / 2 1 2 1
किस की मस जिद ?/ कैसे मयख़ा /ने कहां के / शैख़-शाब ?
2 1 2 2 / 2 1 2 2 / 2 1 2 2 / 2 1 2 1
एक गर् दिश / में तिरी चश / मे सियह की / सब खराब
्संयोग से ,यह शे’र शुद्ध रूप से बहर-ए-रमल मुसम्मन मक़्सूर का उदाहरण है । कारण कि दोनो मिसरों में ’फ़ाइलान’ [ 2121] का प्रयोग हुआ है।मगर किसी ग़ज़ल मे ’फ़ाइलुन[212] और फ़ाइलान [2121] आपस में बदले जा सकते है
बहुत से शायरो ने इस बहर में ग़ज़ल कही है सब को यहाँ लिखना मुनासिब नहीहै-बस इतना ही समझ लीजिये कि बड़ी मक़्बूल बहर है यह।
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अच्छा , अब कुछ रमल पर खब्न ज़िहाफ़ की बात कर लेते है यानी ’रमल मुसम्मन मख्बून’ और रमल मुसम्मन म्ख़्बून महज़ूफ़/मक़्सूर’ पर कुछ बात कर लेते हैं
आप जानते है कि ’फ़ाइलातुन’ [2122] का मख़्बून है ’फ़इलातुन’ [1122] और यह एक आम ज़िहाफ़ है जो शे’र में किसी मुक़ाम पर लाया जा सकता है
और महज़ूफ़ [212] और मक़्सूर [ 2121] ख़ास ज़िहाफ़ है जो अरूज़ और जर्ब के मुक़ाम पर ही लाया जा सकता है
और सदर और इब्तिदा के के मुक़ाम पर सालिम फ़ाइलातुन [2122] की जगह फ़इलातुन भी [1122] लाया जा सकता है । क्यों? मालूम नहीं।
और फ़ इलातुन [1122] पर ’तस्कीन’ का अमल हो सकता है
यह सब बात पिछले क़िस्त में मुसद्दस की बहस के दौरान लिख चुका हूँ ।एक बार फिर लिख दिया
इन सब बातों पर विचार करने पर combination & permutation से रमल मुसम्मन मुज़ाहिफ़ की 8-वज़न बरामद हो सकती है
[A] बहर-ए-रमल मुसम्मन मख़्बून महज़ूफ़
फ़ाइलातुन--फ़इलातुन----फ़ इलातुन---फ़इलुन
2122-------1122-------1122-------112
उदाहरण ; ग़ालिब का एक शे’र देखें
शौक़ हर रंग रक़ीब-ए-सर-ओ-सामां निकला
क़ैस तस्वीर के पर्दे में भी उरियां निकला
इशारा हम कर देते हैं --तक़्तीअ आप देख लें
2 1 2 2 / 1 1 2 2 / 1 1 2 2 / 1 1 2
शौक़ हर रन्/ ग रक़ीबे / स र-ए-सामां / निकला [सर्-ए-सामां --में इज़ाफ़त-ए-कसरा के कारण -र- पर हरकत आ गई सो 1-के वज़न पर लिया गया है]
2 1 2 2 / 1 1 2 2 / 1 1 2 2 / 1 1 2
क़ैस तस वी / र के पर दे / में भी उर यां / निकला [ -के--में-भी- बह्र की मांग पर मात्रा गिराई गई है]
[B] फ़इलातुन--फ़इलातुन----फ़ इलातुन---फ़इलुन
1122-----1122---------1122-- --112 [ फ़ाइलातुन [2122] की जगह फ़इलुन [1122] लाया जा सकता है]
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[C] बहर-ए-रमल मुसम्मन मख़्बून मक़्सूर
फ़ाइलातुन--फ़इलातुन----फ़ इलातुन---फ़इलान
2122------1122--------1122--- -1121
[D] फ़ाइलातुन--फ़इलातुन----फ़ इलातुन---फ़इलान
1122-----1122---------1122----1121 [ फ़ाइलातुन [2122] की जगह फ़इलुन [1122] लाया जा सकता है]
नोट यह चारो वज़न [A]--[B]--[C]--[D] आपस में मुतबादिल है यानी एक दूसरे के स्थान पर लाए जा सकते है
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[E] बहर-ए-रमल मुसम्मन मख़्बून महज़ूफ़ मुसक्कन
फ़ाइलातुन--फ़इलातुन----फ़ इलातुन---फ़अ लुन [ फ़अ लुन [22]--में -ऐन-साकिन]
2122------1122--------1122---------22
[F] फ़इलातुन--फ़इलातुन----फ़ इलातुन---फ़इलुन
1122-------1122-----1122---------22 [ फ़ाइलातुन [2122] की जगह फ़इलुन [1122] लाया जा सकता है]
-----------------------------------
[G] बहर-ए-रमल मुसम्मन मख़्बून मक़्सूर मुसक्कन
फ़ाइलातुन--फ़इलातुन----फ़ इलातुन---फ़अ लान [फ़अ लान[221] में -ऐन साकिन है]
2122------1122-------1122-------221
[H] फ़इलातुन--फ़इलातुन----फ़ इलातुन---फ़अ लान
1122----1122--------1122-------221 [ फ़ाइलातुन [2122] की जगह फ़इलुन [1122] लाया जा सकता है]।
नोट- यह चारो वज़न [E]---[F]----[G]---[H] आपस में मुतबादिल है यानी एक दूसरे के स्थान पर लाए जा सकते है
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उदाहरण --
यूँ तो किसी शे’र के दोनो मिसरों को किसी भी एक वज़न में बांधा जा सकता है मनाही नही है और उसी वज़न में पूरी की पूरी ग़ज़ल भी कही जा सकती है। पर यह आप के फ़न-ए-शायरी और कमाल-ओ-हुनर पर निर्भर करेगा। मगर ज़्यादातर शायरों ने अपनी ग़ज़ल मे इन तमाम औज़ान [वज़नों] का ख़ल्त किया है और जायज भी है। हम कुछ उदाहरण में ग़ालिब की ग़ज़लों के चन्द अश’आर से लेते है जिससे बात साफ़ हो जाये। और मिसरा के अन्त में वज़न की निशान्दिही A B C D ----भी कर देंगे। ग़ालिब का एक शे’र है--आप ने भी सुना होगा
नुक़्ताचीं है ग़म-ए-दिल उसको सुनाए न बने
क्या बने बात जहाँ बात बनाए न बने
इश्क़ पर जोर नहीं है ये वो आतिश ’ग़ालिब’
कि लगाए न लगे और बुझाए न बुझे
इसकी तक़्तीअ भी देख लेते हैं--
2 1 2 2 / 1 1 2 2 / 1 1 2 2 / 1 1 2 ---[A]
नुक़ त चीं है / ग़म-ए-दिल उस /को सु ना ए /न ब ने
2 1 2 2 / 1 1 2 2 / 1 1 2 2 / 1 1 2 --[A]
क्या बने बा / त जहाँ बा / त ब ना ए /न ब ने
2 1 2 2 / 1 1 2 2 / 1 1 2 2 / 2 2 --[E]
इश् क़ पर जो /र नहीं है / ये वो आतिश /’ग़ालिब’
1 1 2 2 /1 1 2 2 / 1 1 2 2 / 1 1 2 ----[F]
कि लगाए /न लगे औ /र बुझाए / न बु झे
दोनो शे’र एक ही ग़ज़ल के है --पहले शे’र में कोई ख़ल्त नहीं है
चूँकि मतला के दोनो मिसरा में ’मक्सूर’ बाँध दिया गया है [ख़ास तौर से मिसरा सानी में ]अत: बह्र का नाम होगा ’बहर-ए-रमल मुसम्मन मख्बून मक्सूर’
मगर दूसरे शे’र [मक़्ता] में मिसरा ऊला के सदर मे 2122[सालिम] और मिसरा सानी के इब्तिदा मे 1122 [मख़्ब्बून] लाया गया है जो जायज़ है
साथ ही अरूज़ में [22] और जर्ब में 112 लाया गया है जो जायज है
ग़ालिब के ही दो -तीन अश’आर और देखते हैं--
इशरत-ए-क़त्ल गहे अहले तमन्ना न पूछ
ईद-ए-नज़्ज़ारा है शमशीर का उरियां होना
दिल हुआ कश्मकश -ए-चारा-ए-जहमत में तमाम
मिट गया घिसने से इस उक़्दे का वा हो जाना
मुँद गई खोलते ही खोलते आँखें ’ग़ालिब’
यार लाए मेरी बाली पे उसे , पर किस वक़्त
तक़्तीअ कर के देखते है
2 1 2 2 / 1 1 2 2 / 1 1 2 2 / 1 12 ---- A
इश र ते क़त्/ ल ग हे अह / ल त मन ना / न पूछ
1 1 2 2 / 1 1 2 2 / 1 1 2 2 / 2 2 -----F
ईद-ए-नज़ ज़ा / रा है शम शी / र का उरि यां / होना
2 1 2 2 / 1 1 2 2 / 1 1 2 2 / 1 1 2 1 ----C
दिल हुआ कश/ म क शे-चा / रा-ए-जह मत /में तमाम
2 1 2 2 / 1 1 2 2 / 1 1 2 2 / 2 2 ---E
मिट गया घिस / ने से इस उक़ / दे का वा हो /जाना
2 1 2 2 / 1 1 2 2 / 1 1 2 2 / 2 2 ---E
मुँद गई खो / ल ते ही खो /ल ते आँखें / ’ग़ालिब’
2 1 2 2 / 1 1 2 2 / 1 1 2 2 / 2 2 1 ---G
यार लाए / मेरी बाली / पे उ से , पर / किस वक़् त
आप चाहें तो आप भी इसी वज़न में अश’आर कह सकते है
एक बात और
फ़इलातुन [1122] में तस्कीन-ए-औसत का अमल हो सकता है तब इसकी शकल " मफ़ऊलुन’ [222] हो जायेगी। यानी फ़इलातुन [1122] की जगह मफ़ऊलुन [222] भी लाया जा सकता है मगर शर्त यह कि बहर न बदल जाये। इस पर नीचे विस्तार से चर्चा कर दिया है
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[9] बहर-ए-रमल मुसम्मन मख़्बून : ज़ाहिर है कि इस वज़न में हर रुक्न ’मख्बून’ का ही होगा -यानी
फ़इलातुन--फ़इलातुन----फ़ इलातुन---फ़इलातुन
1122-------1122-----1122---------1122
यही बात [तस्कीन-ए-औसत की ]यहां भी लागू होगी
उदाहरण-- डा0 आरिफ़ हसन खान साहब के हवाले से
मेरी आवाज़ पे क्या बाँध लगायेगा ज़माना
मैं हूं ’आरिफ़’ कोई तुग़यानी पे आया हुआ दरिया
इसकी तक़्तीअ कर के भी देख लेते हैं
1 1 2 2 / 1 1 2 2 / 1 1 2 2 / 1 1 2 2
मेरी आवा / ज़ पे क्या बाँ/ ध ल गाये /गा ज़माना [ यहाँ मेरी को ’मि रि ’ को 1 1 के वज़न पर लिया गया है ,कोई को कु इ [1 1] के वज़न पर लिया गया है और बाक़ी जगह बह्र की माँग पर मात्रायें गिराई गई है।
1 1 2 2 / 1 1 2 2 / 1 1 2 2 / 1 1 2 2
मैं हूं ’आरिफ़’/ कोई तुग़ या / नी पे आया / हुआ दरिया
एक बात और --
अगर आप ध्यान से देखें तो ’फ़इलातुन [1 1 2 2 ] में तीन मुतहर्रिक [फ़े --ऐन---लाम ] एक साथ आ गये हैं जिस पर ’तस्कीन-ए-औसत का अमल लग सकता है जिससे ’ फ़ इलातुन [1122] --- ’मफ़ ऊ लुन [2 2 2] हो सकता है
इस हिसाब से किसी एक मख़्बून या सभी मख़्बून को ’मफ़ उ लुन ’[2 2 2] से बदला जा सकता है शर्त यह कि बह्र न बदल जाये
मतलब यह कि ऊपर दिखाये गये अगर सभी मख़्बून [1122] को मफ़ ऊ लुन [222] से बदल दे तो ?
बहर हो जायेगी
मफ़ ऊ लुन------मफ़ ऊ लुन-----मफ़ ऊ लुन-----मफ़ऊलुन
222-------------222-------------222-----------222
यानी आहंग अब ’मुतक़ारिब’ का हो जायेगा } अत: हम "मख़्बून’ के सभी रुक्न को ’मफ़ऊलुन’[222] से नहीं बदल सकते । क्यों कि बहर बदल जायेगी
अगर हम [बहर-ए-रमल मुसम्मन मख़्बून] के आखिरी रुक्न [जो अरूज़ और जर्ब के मुक़ाम पर है ] पर तस्कीन-ए-औसत का अमल लागाये तो? बहर हो जायेगी --
"[10] रमल मुसम्मन मख़्बून मुसक्कन अल आखिर"
फ़इलातुन--फ़इलातुन----फ़ इलातुन---फ़ऊलुन
1122-------1122-----1122---------222
इस का दूसरा नाम ’रमल मुसम्मन मख़्बून मुश’अश भी है क्योंकि ठीक यही वज़न ज़िहाफ़ ’तश’इश’ ले अमल से बरामद हो सकती है\ मगर पहला नाम और अमल ज़्यादा आसान है} हमे तो आम खाने से मतलब है पेड़ गिनने से क्या !
एक उदाहरण भी देख लेते हैं [ डा0 आरिफ़ हसन खान साहब के हवाले से ही]
गली कूचों से कोई जोड़ नहीं इन महलों का
मेरे हमदम मैं तेरा साथ नहीं दे सकता हूँ
तक़्तीअ भी देख लेते हैं
1 1 2 2 / 1 1 2 2 / 1 1 2 2 / 2 2 2
गली कूचों / से कु ई जो / ड़ न हीं इन / मह लों का
1 1 2 2 / 1 1 2 2 / 1 1 2 2 /2 2 2
मि रे हम दम / मैं तिरा सा / थ न हीं दे /सक ता हूँ
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अब ज़रा ज़िहाफ़ ’शकल’ की भी चर्चा कर लेते हैं --फ़ाइलातुन [2122] पे
पिछले क़िस्त 37 में -लिखा था
फ़ाइलातुन [2122] +शकल ज़िहाफ़ = फ़इलातु [1121] बरामद होगा जो ’फ़ाइलातुन ’का मुज़ाहिफ़ है -मश्कूल है --ध्यान रहे -तु- मुतहार्रिक है और किसी मिसरा या शेर के अन्त में -कोई ’मुतहर्रिक’ नहीं आता यानी आखिरी हर्फ़ ’मुतहर्रिक’ पर नहीं गिरता ।अत: हम दूसरे शब्दों में कह सकते हैं कि शे’र में अरूज़ और जर्ब के मुक़ाम पर फ़ इलातु[1121] नहीं लाया जा सकता।मगर सदर और इब्तिदा या हश्व के मुक़ाम पर तो मनाही नहीं है । ख़ैर---
"शक्ल"--एक मुरक्क्ब ज़िहाफ़ है जो दो ज़िहाफ़ [ ख़ब्न + कफ़] से मिल कर बना है और इन दोनो ज़िहाफ़ का अमल ’फ़ाइलातुन [2122] पर "एक साथ’ होता है तो ’फ़इलातु [ 1121] बरामद होता है जिसे ’मश्कूल’ कहते है । यद्दपि इस की चर्चा पिछले किसी क़िस्त में कर चुके हैं।
[11] बहर-ए-रमल मुसम्मन मश्कूल
फ़ इलातु-------फ़ाइलातुन----फ़ इलातु---फ़ाइलातुन
1121---------2122----//------1121------2122
उदाहरण - कमाल सिद्दीक़ी साहब के हवाले से
ये ज़मीन भी पुरानी ,ये ख़याल भी पुराना
है कुछ और फ़न ग़ज़ल का,कि ग़ज़ल मिसल नही है
तक़्तीअ भी देख लेते हैं---
1 1 2 1 / 2 1 2 2 // 1 1 2 1/ 2 1 2 2
ये ज़मीन / भी पुरानी // ,ये ख़याल / भी पुराना
1 1 2 1 / 2 1 2 2 // 1 1 2 1 / 2 1 2 2
है कु छौ र / फ़न ग़ज़ल का // ,कि ग़ज़ल मि/ सल नही है [यहाँ --कुछ और- वस्ल हो कर ’कु छौर ’ का तलफ़्फ़ुज़ दे रहा ह इ इस लिए इसे [121] की वज़न पर लिया गया
इस बहर के बारे में कुछ बातें और करनी है
[1] पहली बात -यह बहर एक ’शिकस्ता’ बह्र भी है । शिकस्ता बहर के बारे में पहले भी चर्चा कर चुका हूं । एक बार फिर कर देता हूँ । ऐसी बहर जिसका मिसरा ठीक दो बराबर भागों में बँट जाये [तक़्सीम हो जाये] और आप की एक बात मिसरा के पूर्वार्द्ध में .और दूसरी बात मिसरा की उत्तरार्द्ध में मुकम्मल हो जाये --- को बह्र-ए-शिकस्ता कहते है ।और उसे --//- के निशान से दिखाते हैं । अगर ऐसा नही है तो फिर ’शिकस्ता -ना रवा’ कहते है । ख़ैर--
[2] दूसरी बात-इस बहर में भी--’फ़इलातु[ [1121] पर तस्कीन का अमल हो सकता है । क्यों ? कारण कि यहाँ भी [ फ़े ऐन--लाम --तीन मुतहर्रिक एक साथ आ गये ] और वज़न ’मफ़ ऊलु [ 2 2 1] बरामद किया जा सकता है और इस से एक बहर और बरामद की जा सकती है और ’फ़ इलातु- [1121] की जगह मफ़ऊलु [221] लाया जा सकता है
[क] 221-----2122--// 221---2122
मगर यह बहर तो "मुज़ारे मुसम्मन अख़रब" की बह्र है [जिसकी चर्चा मैं ’मुरक़्क़ब बहूर’ के वक़्त आने वाले क़िस्त में करेंगे ] अर्थात तस्कीन के अमल से बह्र बदल गई तो इस तस्कीन का अमल जायज नहीं है अत: ऊपर कही हुई बात रद्द की जाती है ]
बह्र-"मुज़ारिअ मुसम्मन अख़रब " की चर्चा उर्दू शायरी की बहुत मक़्बूल बहर है और तमाम शो"अरा ने इस बह्र में शायरी की है --इस बहर की चर्चा उदाहरण सहित आइनदा अक़सात में उचित मौक़े पर करूँगा ]
इस बिन्दु की तरफ़ मेरे मित्र एवं नियमित पाठक जो अरूज़ के अच्छे जानकार है श्री अजय तिवारी जी ने ध्यान दिलाया -मैं उनका आभारी हूँ
यह बात और है कि उर्दू शायरी में इस बहर में बहुत कम शे’र मिलते है --लगभग न के बराबर। आप चाहें तो एक प्रयास कर सकते है }क्षेत्र अछूता है।
[3] तीसरी बात-अरूज़ और जर्ब के मुक़ाम पर सालिम की जगह ’ फ़ाइलिय्यान. [ 21221] जिसे मुसब्बीग़ भी कहते हैं , लाया जा सकता है
रमल मुसम्मन की एक बहर और देख लेते है
[12]रमल मुसम्मन मक्फ़ूफ़, मख्बून मुसक्कन, मकफ़ूफ़, मख़्बून मुसक्कन
फ़ा इलातु ,---- मफ़ऊलुन // फ़ाइलातु -----, मफ़ऊलुन
2121----------222-----// 2121---------222
ज़ाहिर है कि फ़ाइलातुन [2122] पर ’ कफ़’ का ज़िहाफ़ लगा है और इसका मकफ़ूफ़ --फ़ाइलातु [2121]--- होता है। और जब मख़्बून फ़इलातुन [1122] पर तस्कीन का अमल करते है तो -मफ़ ऊ लुन - [222] बरामद होती है । यह बात तो आप जानते ही हैं --कोई नई बात नही है --वही ऊपर लिखा भी है ।
एक उदाहरण डा0 आरिफ़ हसन खान साहब के हवाले से देख लेते है
ज़िन्दगी के सहरा में हर तरफ़ है बेमहरी
जिस तरफ़ नज़र डालूँ दश्त-ए-करबला देखूँ
अब तक़्तीअ भी देख लेते हैं
2121 / 222 // 2 1 2 1 / 2 2 2
ज़िन्दगी के / सहरा में // हर तरफ़ है/ बे मह री
2 1 2 1 / 2 2 2 // 2 1 2 1 / 2 2 2
जिस तरफ़ न / ज़र डालूँ // दश्त-ए-करब/ ला देखूँ
यह बह्र भी शिकस्ता है।
एक रुक्न और देख लेते हैं
[13] रमल मुसम्मन मख़्बून सालिम मख़्बून सालिम
फ़ इलातुन ------फ़ाइलातुन // फ़ इलातुन-----फ़ाइलातुन
1122------------2122----// 1122---------2122
उदाहरण [डा0 आरिफ़ हसन खान साहब के ही हवाले से]
मेरी कश्ती फँस गई है , जो मसाइब के भंवर में
मेरे मौला तू बचा ले , तुझे सदक़ा मुस्तफ़ा का
तक़्तीअ भी देख लेते है
1 1 2 2 / 2 1 2 2 // 1 1 2 2 / 2 1 2 2
मेरी कश् ती / फँस गई है ,// जो म सा इब / के भं वर में
1 1 2 2 / 2 1 2 2 // 1 1 2 2 / 2 1 2 2
मेरे मौला / तू बचा ले // , तुझे सदक़ा / मुस तफ़ा का
यह बह्र भी ’शिकस्ता बह्र ’ है
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हम यह दावा तो नही कर सकते कि रमल मुसम्मन की तमाम बहरे हमने cover कर ली
और भी बहुत से वज़न और बहर रमल की बरामद हो सकती है कभी फ़र्द ज़िहाफ़ के अमल से कभी मुतक्कब ज़िहाफ़ की अमल से कभी तस्कीन के अमल से} वो सब बहरे academic discussion and knowledge के लिए तो ठीक हैं मगर उर्दू शायरी में न ही उतनी मक़्बूल है और न ही राइज़ है }आप चाहें तो ऐसी तमाम बह्रें किसी मुसतनद अरूज़ की किताब में देख सकते है } ग़ालिब ने भी उन कम राइज बह्रों का इस्तेमाल नहीं किया। ख़ैर---
चलते चलते एक बहर पर और चर्चा करना चाहूँगा जो सैद्धान्तिक रूप से संभव तो है मगर कहीं कोई ग़जल या शे’र मेरी निगाह से अभी तक गुज़रा नहीं } डा0 आरिफ़ हसन खान साहब ने अपनी मुस्तनद किताब ’मेराज-उल-अरूज़’ में इस का ज़िक्र किया है। और वो बहर है----
[14] रमल मुसम्मन मख़्बून मुज़ाइफ़ [16-रुक्नी बहर]--बहर आसान है मगर है बहुत लम्बी --सच्चा शे’र कहना मुश्किल। ख़ैर--
फ़इलातुन----फ़इलातुन---फ़इलातुन---फ़इलातुन--//-फ़इलातुन---फ़इलातुन---फ़इलातुन---फ़इलातुन
1122--------1122--------1122-------1122---//--1122-------1122-------1122------1122
उदाहरण भी डा0 साहब ने खुद साख़्ता शे’र से दिया है ,उन्ही के हवाले से---
मेरे हमदम तेरी जुल्फ़ों की घनी छांव मयस्सर न थी जब तक तू मेरे जीने का मक़सद न था कुछ भी
तुझे देखा तो मेरे दिल ने कहा मुझ से यही है तेरे जीने का सहारा तेरा मक़सद तेरी मन्ज़िल
अब तक़्तीअ भी देख लेते हैं
1 1 2 2 / 1 1 2 2 / 1 1 2 2 / 1 1 2 2 / 1 1 2 2 / 1 1 2 2 / 1 1 2 2 / 1 1 2 2
मिरे हमदम / तिरी जुल् फ़ो / की घनी छां / व मयस्सर// न थी जब तक / तू मिरे जी / ने का मक़सद / न था कुछ भी
1 1 2 2 / 1 1 2 2 / 1 1 2 2 / 1 1 2 2/ 1 1 2 2/ 1 1 2 2 / 1 1 2 2 / 1 1 2 2
तुझे देखा / तो मिरे दिल / ने कहा मुझ / से यही है // तिरे जीने / का सहारा / तिरा मक़सद / तिरी मन् ज़िल
यहाँ बहर की माँग पर वही मात्रायें गिराई गई है जो शायरी में रवा है
इस बहर पर डा0 साहब ने एक हिदायत भी की है --उन्ही के शब्दों में--"ग़लती से नावाक़िफ़ लोग इसे बहर-ए-तवील कहते है"
जब बह्र-ए-तवील की चर्चा करेंगे तब की तब देखेंगे।
एक बात और ---डा0 साहब ने यह तो नहीं लिखा है कि यह बहर ’शिकस्ता बहर’ भी है । अमूमन ऐसी बहर ’शिकस्ता ’ होतीं हैं --मैं समझता हूँ कि यह बहर [16-रुक्नी] भी बह्र-ए-शिकस्ता है
ख़ुदा ख़ुदा कर के बह्र-ए-रमल का बयान मुकम्मल हुआ
अब अगली किस्त में --"बह्र-ए-रजज़" कुछ चर्चा करेंगे
आप की टिप्पणी का इन्तज़ार रहेगा
--इस मंच पर और भी कई साहिब-ए-आलिम मौज़ूद हैं उनसे मेरी दस्तबस्ता [ हाथ जोड़ कर] गुज़ारिश है कि अगर कहीं कोई ग़लत बयानी या ग़लत ख़यालबन्दी हो गई हो तो निशान्दिही ज़रूर फ़र्मायें ताकि मैं ख़ुद को दुरुस्त कर सकूं ।मेरी मज़ीद [अतिरिक्त] रहनुमाई फ़र्माये ।मम्नून-ओ-शुक्रगुज़ार रहूँगा।
अभी बह्र के कुछ बयां और भी हैं..........
ज़िहाफ़ात् के कुछ निशां और भी हैं.....
एक बात बड़े ही अदब से एतराफ़ [स्वीकार] करता हूँ कि इन तमाम अक़्सात ,तज़्क़िरात और तहरीर के लिए अपने आलिम अरूज़ी साहिबान कमाल अहमद सिद्द्क़ी साहब , डा0 शम्सुर्र्हमान फ़ारुक़ी साहब ,आलिम जनाब सरवर आलम राज़ ’सरवर ’ साहब , अजीज दोस्त डा0 आरिफ़ हसन ख़ान साहब का और कुछ दीगर दोस्तों का तह-ए-दिल से मम्नून-ओ-मश्कूर हूँ जिनकी किताबों से कुछ पढ़ सका ,समझ सका और लिख सका ।वगरना इस हक़ीर में इतनी बिसात कहाँ इतनी औक़ात कहां । इन तज़्क़िरात में मेरा कुछ भी अपना नहीं है बस आलिम साहिबान के अरूज़ पर किए गए कामों का फ़क़त हिन्दी तर्जुमा समझिए बस ........
एक बात और--
न आलिम ,न मुल्ला ,न उस्ताद ’आनन’
अदब से मुहब्ब्त ,अदब आशना हूँ
[नोट् :- पिछले अक़सात [क़िस्तों ]के आलेख [ मज़ामीन ]आप मेरे ब्लाग पर भी देख सकते हैं
www.urdu-se-hindi.blogspot.com
or
www.urdusehindi.blogspot.com
-आनन्द.पाठक-
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