उर्दू बह्र पर एक बातचीत : क़िस्त 17 [ज़िहाफ़ात]
[Disclaimer Clause : वही जो क़िस्त 1 में है]
{ अभी चर्चा उन ज़िहाफ़ात के बारे में चल रही है जो उर्दू शायरी में सालिम रुक्न के टुकड़े/खण्ड [ज़ुज]- वतद-मज्मुआ पर लगते हैं । पिछली क़िस्त [16] में हम ऐसे 5-ज़िहाफ़ का ज़िक़्र कर चुके है ,बाक़ी 5 ज़िहाफ़ पर बातचीत इस क़िस्त में करेंगे।वो बाक़ी 5-ज़िहाफ़ हैं --- अरज्......तम्स.........बतर्......इज़ाला....तरफ़ील्
ज़िहाफ़ ’अरज :- अगर किसी सालिम रुक्न के आख़िर में -वतद मज्मुआ -आ रहा हो तो दूसरे मुक़ाम पर जो हर्फ़ मुतहर्रिक है- को साकिन करना ;’अरज’ कहलाता है और मुज़ाहिफ़ को भी ’अरज’ कहते हैं और यह ज़िहाफ़ ’अरूज़/जर्ब ’ से मख़्सूस है
हम जानते हैं कि 8-सालिम रुक्न में से 3-रुक्न ऐसे हैं जिसके आख़िर में ’वतद मज्मुआ’ आता है और वो रुक्न हैं
मुस् तफ़् इलुन् [2 2 12].........................फ़ा इलुन् [ 2 12]........मु त फ़ा इलुन् [1 1 2 12]
मुस् तफ़् इलुन् [ 2 2 12] +’अरज् = मुस् तफ़् इल् न् [ 2 2 2 1] यानी ’इलुन्’[12][वतद् मज्मुआ] का दूसरा मुतहर्रिक् ’लु’ को साकिन् कर् दिया तो बचा ’ल्’[लाम् साकिन्] को इ के साथ् मिल् कर् ’इल्’ [2 सबब-ए-खफ़ीफ़् बन् गया] और् आखिरी ’न्’ तो साकिन् पहले से ही था । अब् इस् मुज़ाहिफ़् रुक्न् ’मुस् तफ़् इल् न् [2 2 2 1] को किसी मानूस् रुक्न् ’मफ़् ऊ लान् [2 2 2 1] से बदल् लिया
आलिम जनाब डा0 आरिफ़ हसन खान साहब के मेराज-उल-अरूज़ के हवाले से--रवाअती अरूज़ में इस ज़िहाफ़ का अमल तो सिर्फ़ ’मुस तफ़ इलुन’ पर ही कराया जाता है पर[technically ] इसे रुक्न फ़ाइलुन और म त फ़ा इलुन पर भी कराया जा सकता है जिस के ’आख़िर’ में ’इलुन’ [वतद-ए-मज्मुआ] आता है
देखते हैं -ज़िहाफ़ ’अरज’ का अमल इन दो रुक्न पर कैसे होता है।
फ़ा इलुन् [2 12] + अरज् = फ़ा इल् न् [ 2 2 1] यानी ’इलुन् [जो वतद्-ए-मज्मुआ है और् रुक्न के आख़िर् में भी आ रहा है ]- के दूसरे मक़ाम् जो मुतहर्रिक् ’लु’ है -को साकिन् कर् दिया तो ’ल्’ [लाम्’ साकिन् ] बचा जो उस् से पहले वाले -इ- से मिल् कर् इल् [2] बना लिया तो मुज़ाहिफ़् रुक्न् की शकल् हो गई ’फ़ा इल् न् [2 2 1] जिसे मफ़् ऊ ल् [2 2 1] से बदल् सकते हैं
मु त फ़ा इलुन् [1 1 2 12] + ’अरज् = मु त फ़ा इल् न् [ 1 1 2 2 1] -अमल् वैसे ही होगा जैसा ऊपर हुआ है और इस को रुक्न ’फ़े ’अ ला ता न्’[1 1 2 2 1 से बदल् लिया-ध्यान रहे यहाँ -’अ [ऎन -मुतहर्रिक है और 1- का वज़न दे रहा है ]
यह ज़िहाफ़ भी ’अरूज़ और जर्ब’ से मख़्सूस है
ज़िहाफ़ तम्स =-अगर किसी सालिम रुक्न के आखिर में वतद-ए-मज्मुआ हो और उसके पहले ’सबब-ए-ख़फ़ीफ़ हो तो वतद-ए-मज्मुआ के दोनो मुतहर्रिक को गिरा देना ’तम्स’ कहते हैं और मुज़ाहिफ़ को ’मत्मूस’ कहते है । यह ज़िहाफ़ भी शे’र के अरूज़ और जर्ब से मख़्सूस है
हम जानते है कि उर्दू के 8-सालिम रुक्न में 2 रुक्न् ऐसे है जिसके आखिर् में वतद-ए-मज्मुआ आता है उससे पहले सबब-ए-ख़फ़ीफ़ आता है और वो हैं...
मुस् तफ़् इलुन् [2 2 12] .....फ़ा इलुन्..[2 12]
मुस् तफ़् इलुन् [2 2 12]+ तम्स् = मुस् तफ़् न् [2 2 1] यानी वतद्-ए-मज्मुआ का -इ और् लु [जो कि मुतहर्रिक् है] गिरा दिया तो बाक़ी बचा मुस् तफ़् न् [2 2 1] जिसे मानूस् हम वज़्न् रुक्न् ’मफ़् ऊल्’[2 2 1] से बदल लिया
फ़ा इलुन् [2 12 ] + तम्स = फ़ा न् [2 1] यानी वतद्-ए-मज्मुआ का -इ और् लु [जो कि मुतहर्रिक् है] गिरा दिया तो बाक़ी बचा ’फ़ा न् [2 1] जिसे हम वज़्न् मानूस् रुक्न् -फ़ा’अ [2 1] से बदल् लिया ख्याल रहे यहाँ -’अ [ऐन्] साकिन् है -न्- की जगह्
ज़िहाफ़् बतर् :-अगर किसी सालिम रुक्न के आखिर में सबब-ए-ख़फ़ीफ़ हो और उस से पहले वतद-ए-मज्मुआ हो तो वतद-ए-मज्मुआ को गिरा देने का अमल ’बतर’ कहलाता है और मुज़ाहिफ़ को ’अबतर’ कहते हैं और यह ज़िहाफ़ भी अरूज़ और जर्ब से मख़्सूस है
हम जानते हैं कि उर्दू के 8-सालिम रुक्न में से 2- रुक्न ऐसे है जिसके आखिर में सबब-ए-ख़फ़ीफ़ आता है और उस से पहले वतद-ए-मज्मुआ आता है और वो रुक्न हैं
फ़ा इला तुन्.. [ 2 12 2 ]....फ़ऊ लुन्....[12 2] अब देखिए इन् पर ज़िहाफ़ बतर का अमल कैसे होता है
फ़ा इला तुन् [2 12 2] + बतर = फ़ा तुन् [2 2 ] यानी तुन् [सबब्-ए-ख़फ़ीफ़् -तुन् 2] से पहले वतद्-ए-मज्मुआ [इला 12] है -इसको गिरा दिया [साकित् कर् दिया] तो बाक़ी बचा ’फ़ातुन्’[22] जिसे हम् वज़न् मानूस् रुक्न् ’फ़े’अ लुन् ’ [2 2] से बदल् लिया
फ़ऊ लुन् [12 2]+ बतर् = लुन् [2] यानी लुन्[2] [सबब्-ए-ख़फ़ीफ़् ] से पहले वतद्-ए-मज्मुआ ’फ़ऊ [12] है को गिरा दिया तो बाक़ी बचा ’लुन्’[2] जिसे किसी हम वज़न् मानूस् रुक्न् ’फ़े’अ’ [2] [बसकून् ऐन् यानी ऎन् यहाँ साकिन् है ]से बदल् लिया
ये तो रहे वो ज़िहाफ़ात् जो वतद्-ए-मज्मुआ पर् लगते है और जिन जिन रुक्न पे लगे उन सबमें कोई न कोई हर्फ़ का नुक़सान हुआ ..कभी कोई साकिन हो गया ,,,कभी कोई साकित हो गया ..कभी कोई मुतहर्रिक हर्फ़ ही उड़ गया मतलब ये कि हर्फ़ का नुक़सान ही नुक़सान हुआ । यही बात सबब-ए-ख़फ़ीफ़ पर लगने वाले ज़िहाफ़ात पर भी हुई थी [जिसकी चर्चा यथा स्थान कर भी चुका हूँ ।पर हमेशा ऐसा नहीं होता । कुछ ज़िहाफ़ ऐसे भी है जो वतद पे लगते है तो वज़न या हर्फ़ में इज़ाफ़ा भी होता है और वो ज़िहाफ़ है---इज़ाला और तर्फ़ील ।
ज़िहाफ़् इज़ाला :- अगर् किसी रुक्न् के आख़िर् में वतद् मज्मुआ हो तो इसके साकिन् हर्फ़् से पहले एक् साकिन् हर्फ़् और् बढ़ा देते हैं । इसे ’इजाला’ कहते हैं और् मुज़ाहिफ़् को ”मज़ाल्’ कहते हैं और् यह् ज़िहाफ़् भी अरूज़् और् जर्ब् से मख़सूस् है
हम् जानते है कि 8-सालिम् रुक्न् में से 3-रुक्न् ऐसे हैं जिसके आख़िर् में ’वतद्-ए-मज्मुआ’ आता है और् वो रुक्न् हैं
फ़ाइलुन् [2 12]........मुस् तफ़् इलुन् [2 2 12].......मु त फ़ा इलुन् [1 1 2 12]
इन् तीनो रुक्न् के आख़िर् में ’इलुन्’ आ रहा है यानी [ऐन्+लाम्+नून्] जो वतद्-ए-मज्मुआ है और् नून् साकिन् है । बस् इसी नून् साकिन् के पहले एक् ’साकिन्’ हर्फ़् ’अलिफ़्’ और् बढ़ा देते [इज़ाफ़ा कर् देते हैं] है जिसे ’इज़ाला’ कहते हैं और् फिर् तीनों अर्कान् के मुज़ाहिफ़ सकल हो जायेंगे
फ़ाइलान् [2 12 1].....मुस् तफ़् इलान् [ 2 2 12 1].......मु त फ़ा इला न् [ 1 1 2 12 1]
ज़िहाफ़् तर्फ़ील् :- अगर् किसे रुक्न् के आख़िर् में वतद्-ए-मज्मुआ आता है तो उस के बाद् एक् ’सबब्-ए-ख़फ़ीफ़् [2] का इज़ाफ़ा कर् देना ही तर्फ़ील् कहलाता है और् मुज़ाहिफ़् को ’मुरफ़्फ़ल्’ कहते हैं
हम् जानते है कि 8-सालिम् रुक्न् में से 3-रुक्न् ऐसे हैं जिसके आख़िर् में ’वतद्-ए-मज्मुआ’ आता है और् वो रुक्न् हैं
फ़ाइलुन् [2 12]........मुस् तफ़् इलुन् [2 2 12].......मु त फ़ा इलुन् [1 1 2 12]
इन् तीनो रुक्न् के आख़िर् में ’इलुन्’ आ रहा है यानी [ऐन्+लाम्+नून्] जो वतद्-ए-मज्मुआ है बस इसी वतद् के बाद एक् सबब्-ए-ख़फ़ीफ़् [जैसे -तुन्-बढ़ा देते हैं। फ़िर् तीनों अरकान् के मुज़ाहिफ़् शकल् हो जायेंगे
फ़ाइलुन् तुन् [ 2122] जिसे हम वज़न् रुक्न् फ़ाइलातुन् [2 122 से बदल् लिया
मुस् तफ़् इलुन् तुन् [2 2 12 2] जिसे हम वज़न् रुक्न् मुस् तफ़् इलातुन् [2 2 12 2 से बदल् लिया
मु त् फ़ा इलुन् तुन् [1 1 2 12 2 ] जिसे हम वज़्न् रुक्न् मु त फ़ा इलातुन् [1 1 2 12 2 ] से बदल् लिया
यह् बह्र् उर्दू शायरी में कोई ख़ास् प्रयोग् में नहीं आती है ..बस् आप् की जानकारी के लिए लिख् दिया है
इस तरह वतद-ए-मज्मुआ पर लगने वाले ज़िहाफ़ात का ज़िक़्र खत्म हुआ । अब अगली क़िस्त में उन ज़िहाफ़ात का ज़िक़्र करेंगे जो ’वतद मफ़रूक़ ’ [हरकत+साकिन+हरकत ] पर लगते हैं ।
--इस मंच पर और भी कई साहिब-ए-आलिम मौज़ूद हैं उनसे मेरी दस्तबस्ता [ हाथ जोड़ कर] गुज़ारिश है कि अगर कहीं कोई ग़लत बयानी या ग़लत ख़यालबन्दी हो गई हो तो निशान्दिही ज़रूर फ़र्मायें ताकि मैं ख़ुद को दुरुस्त कर सकूं ।बा करम मेरी मज़ीद [अतिरिक्त] रहनुमाई फ़र्माये ।मम्नून-ओ-शुक्रगुज़ार रहूँगा।
अभी नस्र के कुछ बयां और भी हैं..........
ज़िहाफ़ात् के कुछ निशां और भी हैं.....
[नोट् :- पिछली क़िस्त के आलेख आप मेरे ब्लाग पर देख सकते हैं
www.urdu-se-hindi.blogspot.com
or
www.urdusehindi.blogspot.com
[Disclaimer Clause : वही जो क़िस्त 1 में है]
{ अभी चर्चा उन ज़िहाफ़ात के बारे में चल रही है जो उर्दू शायरी में सालिम रुक्न के टुकड़े/खण्ड [ज़ुज]- वतद-मज्मुआ पर लगते हैं । पिछली क़िस्त [16] में हम ऐसे 5-ज़िहाफ़ का ज़िक़्र कर चुके है ,बाक़ी 5 ज़िहाफ़ पर बातचीत इस क़िस्त में करेंगे।वो बाक़ी 5-ज़िहाफ़ हैं --- अरज्......तम्स.........बतर्......इज़ाला....तरफ़ील्
ज़िहाफ़ ’अरज :- अगर किसी सालिम रुक्न के आख़िर में -वतद मज्मुआ -आ रहा हो तो दूसरे मुक़ाम पर जो हर्फ़ मुतहर्रिक है- को साकिन करना ;’अरज’ कहलाता है और मुज़ाहिफ़ को भी ’अरज’ कहते हैं और यह ज़िहाफ़ ’अरूज़/जर्ब ’ से मख़्सूस है
हम जानते हैं कि 8-सालिम रुक्न में से 3-रुक्न ऐसे हैं जिसके आख़िर में ’वतद मज्मुआ’ आता है और वो रुक्न हैं
मुस् तफ़् इलुन् [2 2 12].........................फ़ा इलुन् [ 2 12]........मु त फ़ा इलुन् [1 1 2 12]
मुस् तफ़् इलुन् [ 2 2 12] +’अरज् = मुस् तफ़् इल् न् [ 2 2 2 1] यानी ’इलुन्’[12][वतद् मज्मुआ] का दूसरा मुतहर्रिक् ’लु’ को साकिन् कर् दिया तो बचा ’ल्’[लाम् साकिन्] को इ के साथ् मिल् कर् ’इल्’ [2 सबब-ए-खफ़ीफ़् बन् गया] और् आखिरी ’न्’ तो साकिन् पहले से ही था । अब् इस् मुज़ाहिफ़् रुक्न् ’मुस् तफ़् इल् न् [2 2 2 1] को किसी मानूस् रुक्न् ’मफ़् ऊ लान् [2 2 2 1] से बदल् लिया
आलिम जनाब डा0 आरिफ़ हसन खान साहब के मेराज-उल-अरूज़ के हवाले से--रवाअती अरूज़ में इस ज़िहाफ़ का अमल तो सिर्फ़ ’मुस तफ़ इलुन’ पर ही कराया जाता है पर[technically ] इसे रुक्न फ़ाइलुन और म त फ़ा इलुन पर भी कराया जा सकता है जिस के ’आख़िर’ में ’इलुन’ [वतद-ए-मज्मुआ] आता है
देखते हैं -ज़िहाफ़ ’अरज’ का अमल इन दो रुक्न पर कैसे होता है।
फ़ा इलुन् [2 12] + अरज् = फ़ा इल् न् [ 2 2 1] यानी ’इलुन् [जो वतद्-ए-मज्मुआ है और् रुक्न के आख़िर् में भी आ रहा है ]- के दूसरे मक़ाम् जो मुतहर्रिक् ’लु’ है -को साकिन् कर् दिया तो ’ल्’ [लाम्’ साकिन् ] बचा जो उस् से पहले वाले -इ- से मिल् कर् इल् [2] बना लिया तो मुज़ाहिफ़् रुक्न् की शकल् हो गई ’फ़ा इल् न् [2 2 1] जिसे मफ़् ऊ ल् [2 2 1] से बदल् सकते हैं
मु त फ़ा इलुन् [1 1 2 12] + ’अरज् = मु त फ़ा इल् न् [ 1 1 2 2 1] -अमल् वैसे ही होगा जैसा ऊपर हुआ है और इस को रुक्न ’फ़े ’अ ला ता न्’[1 1 2 2 1 से बदल् लिया-ध्यान रहे यहाँ -’अ [ऎन -मुतहर्रिक है और 1- का वज़न दे रहा है ]
यह ज़िहाफ़ भी ’अरूज़ और जर्ब’ से मख़्सूस है
ज़िहाफ़ तम्स =-अगर किसी सालिम रुक्न के आखिर में वतद-ए-मज्मुआ हो और उसके पहले ’सबब-ए-ख़फ़ीफ़ हो तो वतद-ए-मज्मुआ के दोनो मुतहर्रिक को गिरा देना ’तम्स’ कहते हैं और मुज़ाहिफ़ को ’मत्मूस’ कहते है । यह ज़िहाफ़ भी शे’र के अरूज़ और जर्ब से मख़्सूस है
हम जानते है कि उर्दू के 8-सालिम रुक्न में 2 रुक्न् ऐसे है जिसके आखिर् में वतद-ए-मज्मुआ आता है उससे पहले सबब-ए-ख़फ़ीफ़ आता है और वो हैं...
मुस् तफ़् इलुन् [2 2 12] .....फ़ा इलुन्..[2 12]
मुस् तफ़् इलुन् [2 2 12]+ तम्स् = मुस् तफ़् न् [2 2 1] यानी वतद्-ए-मज्मुआ का -इ और् लु [जो कि मुतहर्रिक् है] गिरा दिया तो बाक़ी बचा मुस् तफ़् न् [2 2 1] जिसे मानूस् हम वज़्न् रुक्न् ’मफ़् ऊल्’[2 2 1] से बदल लिया
फ़ा इलुन् [2 12 ] + तम्स = फ़ा न् [2 1] यानी वतद्-ए-मज्मुआ का -इ और् लु [जो कि मुतहर्रिक् है] गिरा दिया तो बाक़ी बचा ’फ़ा न् [2 1] जिसे हम वज़्न् मानूस् रुक्न् -फ़ा’अ [2 1] से बदल् लिया ख्याल रहे यहाँ -’अ [ऐन्] साकिन् है -न्- की जगह्
ज़िहाफ़् बतर् :-अगर किसी सालिम रुक्न के आखिर में सबब-ए-ख़फ़ीफ़ हो और उस से पहले वतद-ए-मज्मुआ हो तो वतद-ए-मज्मुआ को गिरा देने का अमल ’बतर’ कहलाता है और मुज़ाहिफ़ को ’अबतर’ कहते हैं और यह ज़िहाफ़ भी अरूज़ और जर्ब से मख़्सूस है
हम जानते हैं कि उर्दू के 8-सालिम रुक्न में से 2- रुक्न ऐसे है जिसके आखिर में सबब-ए-ख़फ़ीफ़ आता है और उस से पहले वतद-ए-मज्मुआ आता है और वो रुक्न हैं
फ़ा इला तुन्.. [ 2 12 2 ]....फ़ऊ लुन्....[12 2] अब देखिए इन् पर ज़िहाफ़ बतर का अमल कैसे होता है
फ़ा इला तुन् [2 12 2] + बतर = फ़ा तुन् [2 2 ] यानी तुन् [सबब्-ए-ख़फ़ीफ़् -तुन् 2] से पहले वतद्-ए-मज्मुआ [इला 12] है -इसको गिरा दिया [साकित् कर् दिया] तो बाक़ी बचा ’फ़ातुन्’[22] जिसे हम् वज़न् मानूस् रुक्न् ’फ़े’अ लुन् ’ [2 2] से बदल् लिया
फ़ऊ लुन् [12 2]+ बतर् = लुन् [2] यानी लुन्[2] [सबब्-ए-ख़फ़ीफ़् ] से पहले वतद्-ए-मज्मुआ ’फ़ऊ [12] है को गिरा दिया तो बाक़ी बचा ’लुन्’[2] जिसे किसी हम वज़न् मानूस् रुक्न् ’फ़े’अ’ [2] [बसकून् ऐन् यानी ऎन् यहाँ साकिन् है ]से बदल् लिया
ये तो रहे वो ज़िहाफ़ात् जो वतद्-ए-मज्मुआ पर् लगते है और जिन जिन रुक्न पे लगे उन सबमें कोई न कोई हर्फ़ का नुक़सान हुआ ..कभी कोई साकिन हो गया ,,,कभी कोई साकित हो गया ..कभी कोई मुतहर्रिक हर्फ़ ही उड़ गया मतलब ये कि हर्फ़ का नुक़सान ही नुक़सान हुआ । यही बात सबब-ए-ख़फ़ीफ़ पर लगने वाले ज़िहाफ़ात पर भी हुई थी [जिसकी चर्चा यथा स्थान कर भी चुका हूँ ।पर हमेशा ऐसा नहीं होता । कुछ ज़िहाफ़ ऐसे भी है जो वतद पे लगते है तो वज़न या हर्फ़ में इज़ाफ़ा भी होता है और वो ज़िहाफ़ है---इज़ाला और तर्फ़ील ।
ज़िहाफ़् इज़ाला :- अगर् किसी रुक्न् के आख़िर् में वतद् मज्मुआ हो तो इसके साकिन् हर्फ़् से पहले एक् साकिन् हर्फ़् और् बढ़ा देते हैं । इसे ’इजाला’ कहते हैं और् मुज़ाहिफ़् को ”मज़ाल्’ कहते हैं और् यह् ज़िहाफ़् भी अरूज़् और् जर्ब् से मख़सूस् है
हम् जानते है कि 8-सालिम् रुक्न् में से 3-रुक्न् ऐसे हैं जिसके आख़िर् में ’वतद्-ए-मज्मुआ’ आता है और् वो रुक्न् हैं
फ़ाइलुन् [2 12]........मुस् तफ़् इलुन् [2 2 12].......मु त फ़ा इलुन् [1 1 2 12]
इन् तीनो रुक्न् के आख़िर् में ’इलुन्’ आ रहा है यानी [ऐन्+लाम्+नून्] जो वतद्-ए-मज्मुआ है और् नून् साकिन् है । बस् इसी नून् साकिन् के पहले एक् ’साकिन्’ हर्फ़् ’अलिफ़्’ और् बढ़ा देते [इज़ाफ़ा कर् देते हैं] है जिसे ’इज़ाला’ कहते हैं और् फिर् तीनों अर्कान् के मुज़ाहिफ़ सकल हो जायेंगे
फ़ाइलान् [2 12 1].....मुस् तफ़् इलान् [ 2 2 12 1].......मु त फ़ा इला न् [ 1 1 2 12 1]
ज़िहाफ़् तर्फ़ील् :- अगर् किसे रुक्न् के आख़िर् में वतद्-ए-मज्मुआ आता है तो उस के बाद् एक् ’सबब्-ए-ख़फ़ीफ़् [2] का इज़ाफ़ा कर् देना ही तर्फ़ील् कहलाता है और् मुज़ाहिफ़् को ’मुरफ़्फ़ल्’ कहते हैं
हम् जानते है कि 8-सालिम् रुक्न् में से 3-रुक्न् ऐसे हैं जिसके आख़िर् में ’वतद्-ए-मज्मुआ’ आता है और् वो रुक्न् हैं
फ़ाइलुन् [2 12]........मुस् तफ़् इलुन् [2 2 12].......मु त फ़ा इलुन् [1 1 2 12]
इन् तीनो रुक्न् के आख़िर् में ’इलुन्’ आ रहा है यानी [ऐन्+लाम्+नून्] जो वतद्-ए-मज्मुआ है बस इसी वतद् के बाद एक् सबब्-ए-ख़फ़ीफ़् [जैसे -तुन्-बढ़ा देते हैं। फ़िर् तीनों अरकान् के मुज़ाहिफ़् शकल् हो जायेंगे
फ़ाइलुन् तुन् [ 2122] जिसे हम वज़न् रुक्न् फ़ाइलातुन् [2 122 से बदल् लिया
मुस् तफ़् इलुन् तुन् [2 2 12 2] जिसे हम वज़न् रुक्न् मुस् तफ़् इलातुन् [2 2 12 2 से बदल् लिया
मु त् फ़ा इलुन् तुन् [1 1 2 12 2 ] जिसे हम वज़्न् रुक्न् मु त फ़ा इलातुन् [1 1 2 12 2 ] से बदल् लिया
यह् बह्र् उर्दू शायरी में कोई ख़ास् प्रयोग् में नहीं आती है ..बस् आप् की जानकारी के लिए लिख् दिया है
इस तरह वतद-ए-मज्मुआ पर लगने वाले ज़िहाफ़ात का ज़िक़्र खत्म हुआ । अब अगली क़िस्त में उन ज़िहाफ़ात का ज़िक़्र करेंगे जो ’वतद मफ़रूक़ ’ [हरकत+साकिन+हरकत ] पर लगते हैं ।
--इस मंच पर और भी कई साहिब-ए-आलिम मौज़ूद हैं उनसे मेरी दस्तबस्ता [ हाथ जोड़ कर] गुज़ारिश है कि अगर कहीं कोई ग़लत बयानी या ग़लत ख़यालबन्दी हो गई हो तो निशान्दिही ज़रूर फ़र्मायें ताकि मैं ख़ुद को दुरुस्त कर सकूं ।बा करम मेरी मज़ीद [अतिरिक्त] रहनुमाई फ़र्माये ।मम्नून-ओ-शुक्रगुज़ार रहूँगा।
अभी नस्र के कुछ बयां और भी हैं..........
ज़िहाफ़ात् के कुछ निशां और भी हैं.....
[नोट् :- पिछली क़िस्त के आलेख आप मेरे ब्लाग पर देख सकते हैं
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