उर्दू बह्र पर एक बातचीत : क़िस्त 21 [ज़िहाफ़ात]
[[Disclaimer Clause : वही जो क़िस्त 1 में है]
.............. पिछली कड़ियों में मैने ज़िहाफ़ात के बारे में कुछ चर्चा की थी जैसे सबब-ए-ख़फ़ीफ़ पर लगने वाले ज़िहाफ़ ,सबब-ए-सक़ील पर लगने वाले ज़िहाफ़ ,वतद-ए-मज्मुआ पर लगने वाले ज़िहाफ़ या वतद-ए-मफ़रुक़ पर लगने वाले ज़िहाफ़। साथ ही मुफ़र्द ज़िहाफ़ की चर्चा की और मुरक़्क़ब ज़िहाफ़ की भी। फिर आम ज़िहाफ़ और ख़ास ज़िहाफ़ क्या होते हैं पर भी बात चीत की । हम ये तो दावा नहीं कर सकते कि सारे ज़िहाफ़ात की चर्चा मुकम्मल हो गई मगर इतना ज़रूर है कि कुछ हद तक चर्चा हुई है जिससे ये समझा जा सकता है कि ज़िहाफ़ क्या होता है और कैसे अमल करता है।दो या दो से अधिक ज़िहाफ़ [मुरक़्क़ब ज़िहाफ़] कैसे किसी सालिम रुक्न के टुकड़े [अजज़ा] पर अमल [व्यवहॄत] होता है । विशेष जानकारी के लिए अरूज़ की किसी भी मुस्तनद [प्रमाणिक] किताब से सन्दर्भ लिया जा सकता है।
एक बात तो तय हैं कि ये सारे ज़िहाफ़ात उर्दू शायरी के ’सालिम’ रुक्न के अवयवों [ अजज़ा [जिनकी संख्या 8-है] पर ही लगता है।ये मुफ़र्द या मुरक़्क़ब] ज़िहाफ़ कभी ’मुज़ाहिफ़’ रुक्न पे अमल नहीं करते -ये अरूज़ की बुनियादी उसूल के ख़िलाफ़ होगा।
हाँ दो ज़िहाफ़ ऐसे हैं जो ’मुज़ाहिफ़’ पर अमल करते हैं -सालिम’-रुक्न पर नहीं और वो है
(1) तस्कीन-ए-औसत का अमल
(2) तख़्नीक़ का अमल
आज हम इन्ही दोनों तरक़ीब-ए-अमल पर चर्चा करेंगे
अर्कान का सारा खेल हर्फ़-ए-’हरकत-ओ-साकिन का है ।
तस्कीन-ए-औसत : अगर किसी -’एक ही मुज़ाहिफ़ रुक्न ’- में 3-मुत्तहर्रिक [ यानी हरकत लगा हुआ हर्फ़] लगातार और एक साथ आ जाये तो बीच का ’हर्फ़-ए-हरकत’ साकिन हो जाता है शर्त यह कि इस अमल से [ग़ज़ल या शे’र की ] बह्र का वज़न न बदल जाये ।और बरामद रुक्न को ,’मस्कून’ कहते हैं
[यही ’औसत’ गणित में भी बोलते है-यानी 3-संख्याओं का ’औसत’ निकालना यानी ’बीच’ वाला अंक]
अब कुछ ऐसे अल्फ़ाज की चर्चा कर लेते है जिस में 3-हर्फ़ मय हरकत आता ह॥ आखिरी वाला हर्फ़ तो ख़ैर ’साकिन’ होगा ही [कारण की उर्दू ज़बान में कोई लफ़्ज़ ’हरकत’ पर नहीं गिरता -बल्कि ’साकिन; पर ही गिरता है]
अकसर्----हरकत्----...कसरत्.........रमज़ान्....बरकत् वग़ैरह वग़ैरह । ज़ाहिर है कि इसमें शुरु के 3-हर्फ़ पर लगातार हरकत [जबर की हरकत है ]
अगर् अरूज़् की भाषा मे कहें तो [ सबब की परिभाषा अगर आप को याद हो तो ]
अकसर् = 1 1 2 =यानी सबब-ए-सक़ील [11]+सबब-ए-ख़फ़ीफ़[2]
हरकत् = 1 1 2 =यानी सबब-ए-सक़ील [11]+सबब-ए-ख़फ़ीफ़[2]
कसरत् =1 1 2 =यानी सबब-ए-सक़ील [11]+सबब-ए-ख़फ़ीफ़[2]
बरकत् =1 1 2 =यानी सबब-ए-सक़ील [11]+सबब-ए-ख़फ़ीफ़[2]
तस्कीन-ए-औसत के अमल से इसे हम पढ़ेंगे
अक् सर्.. ..........हर् कत्..........कस् रत् ........बर् कत् ...........
अक् सर् =2 2 =यानी सबब्-ए-ख़फ़ीफ़्
हर् कत् =2 2 =यानी सबब्-ए-ख़फ़ीफ़्
कस् रत्= 2 2 = यानी सबब्-ए-ख़फ़ीफ़्
बर् कत् = 2 2 =यानी सबब्-ए-ख़फ़ीफ़्
हालांकि 4-हर्फ़ी जुमला का यहाँ सबब से काम तो चल गया ।मगर अरूज़ में इसे ’ फ़ासिला’ कहते हैं ।इसकी चर्चा मैने पहले नहीं किया कारण कि ज़रूरत ही नहीं पड़ी ।थोड़ी सी चर्चा यहाँ कर लेते है। फ़ासिला की 2-क़िस्में होती है}
(1) फ़ासिला सुग़रा
(2) फ़ासिला कबरा
फ़ासिला सुग़रा = वो 4-हर्फ़ी जुमला/कलमा जिसमें हर्फ़ क्रमश: हरकत+हरकत+हरकत+साकिन हो
फ़ासिला कबरा = वो 5-हर्फ़ी जुमला/कलमा जिसमें हर्फ़ क्रमश: हरकत+हरकत +हरकत+हरकत+साकिन हो
[अरबी ज़ुबान , 5-हर्फ़ी जुमला या कलमा तो afford कर सकता परन्तु उर्दू जुबान में ऐसे लफ़्ज़ मुश्किल से मिलते है ,कम ही प्राप्य है।
मिलने को तो उर्दू जुबान में ’सबब-ए-सक़ील’ या वतद-ए-मफ़रुक़ के independent अल्फ़ाज़ भी नहीं मिलते है]
अब तस्कीन-ए-औसत पर एक बार फिर आते हैं
तस्कीन-ए-औसत :-अगर किसी -’एक ही मुज़ाहिफ़ रुक्न ’- में 3-मुत्तहर्रिक [ यानी हरकत लगा हुआ हर्फ़] लगातार और एक साथ आ जाये तो बीच का ’हर्फ़-साकिन हो जाता है शर्त यह कि इस अमल से [ग़ज़ल या शे’र की ] बह्र न बदल जाये ।
”एक ही मुज़ाहिफ़ रुक्न ’- से मेरा आशय है कि जब सालिम रुक्न पर हम मुफ़र्द[एकल] या मुरक़्क़ब[ मिश्रित] ज़िहाफ़ का अमल कर रहे थे तो अजब अजब क़िस्म और शकल की मुज़ाहिफ़ रुक्न बरामद हो रहा था और कभी कभी तो ऐसी भी शकल बरामद हो रही थी कि 3-मुतहर्रिक हर्फ़ एक साथ सिलसिलेवार भी मिल मिल रहा था } बस यहीं ’और ऐसी ही ’मुज़ाहिफ़ रुक्न की शकल ’पर तस्कीन-ए-औसत का अमल होता है । आप चाहे तो करें और एक नई रुक्न बना लें और न चाहें तो न करें -आप की मरजी।वज़न में कोई फ़र्क़ नहीं पड़ेगा।
आप ऊपर देख ही रहे हैं कि चाहे तस्कीन-ए-औसत का अमल करे न करे वज़न 4-ही रहेगा बस लफ़्ज़ की अदायगी बदल जायेगी
जब सालिम रुक्न ’फ़ा इला तुन [2 12 2]’ पर ज़िहाफ़ ख़ब्न का अमल किया था तो -फ़ इला तुन [1 12 2] मिला था यानी [ फ़े-ऐन-लाम-अलिफ़-ते- नून] जिसमे ’फ़े-ऐन-लाम’ 3-मुतहर्रिक है जो एक साथ लगातार आ गए।अब तस्कीन-ए-औसत का अमल [इस मुज़ाहिफ़ शकल पर} किया जा सकता है जिस की बदौलत जो बीच में -ऐन [मुतहर्रिक है] को साकिन किया जा सकता है ।
तब?
तब फ़े+ऐन [साकिन][2] ...,लाम+अलिफ़[साकिन][2] ..... ते+नून [साकिन][2] हो सकता है यानी तस्कीन-ए-औसत की अमल से एक रुक्न [2 2 2] भी बरामद की जा सकती है तब इसका रुक्न का नाम-’मख़्बून मस्कून’ होगा ।
मस्कून -शब्द जोड़ने से यह पता चलता है कि यह रुक्न तस्कीन-ए-औसत से बरामद हुई है । आगे की चर्चा में यथा स्थान जहाँ जहाँ इसकी ज़रूरत पड़ेगी हम निशान्दिही करते चलेंगे।
तस्कीन-ए-औसत की ताक़त का अन्दाज़ा आप इस बात से लगा सकते है कि इस के अमल से रुबाई की एक वज़न से 24- वज़न बरामद किए जा सकते हैं । कैसे ? इस बात की चर्चा हम आगे करेंगे जब रुबाई के अर्कान की चर्चा करेंगे
इसी प्रकार इसी अमल से ’माहिया’ के एक वज़न से 18-रुक्न बरामद किए जाते है
तख़्नीक़ का अमल :- अगर किसी दो {पास पास के )मुज़ाहिफ़ रुक्न में 3-मुतहर्रिक [यानी हरकत लगा हुआ हर्फ़] लगातार और एक साथ आ जाये तो बीच का मुतहर्रिक -साकिन हो जाता है शर्त यह कि इस अमल से बह्र न बदल जाए । अगर आप ध्यान से देखे तो दोनो का अमल लगभग एक जैसा ही है बस फ़र्क़ है तो मुज़ाहिफ़ रुक्न की position का।यानी इस परिभाषा को यूँ भी परिभाषित कर सकते है
अगर किसी मुज़ाहिफ़ रुक्न के आखिर में ’मुतहर्रिक’ हर्फ़ आता है और ठीक उसके सामने वाला रुक्न वतद-ए-मज्मुआ हो [बज़ाहिर दो हरकत होगा ही होगा] तब 3-मुतहर्रिक जमा हो गए तो सर-ए-वतद[जो अब बीच में आ गया ] को साकिन कर देगे जो अपने से सामने वाले रुक्न के मुतहर्रिक से जुड जायेगा और सबब-ए-ख़फ़ीफ़ का वज़न देखा । इस स्थिति में हासिल रुक्न को ’मुख़्निक़’ कहते है
इन दोनो ज़िहाफ़ात की चर्चा विस्तार से यहाँ करना ग़ैर मुनासिब होगा ।आगे की चर्चा में जब कहीं इस तर्क़ीब की ज़रूरत पड़ेगी तो बीच बीच में Hint करते चलेंगे।ख़ुदा ख़ुदा कर के तबसिरा-ए-ज़िहाफ़ात सरसरी तौर पे खत्म हुआ।
अब आगे की किस्त में-- उर्दू शायरी में प्रचलित 19- बहर की चर्चा अश’आर सहित करेंगे
--इस मंच पर और भी कई साहिब-ए-आलिम मौज़ूद हैं उनसे मेरी दस्तबस्ता [ हाथ जोड़ कर] गुज़ारिश है कि अगर कहीं कोई ग़लत बयानी या ग़लत ख़यालबन्दी हो गई हो तो निशान्दिही ज़रूर फ़र्मायें ताकि मैं ख़ुद को दुरुस्त कर सकूं और बा करम मेरी मज़ीद [अतिरिक्त] रहनुमाई भी फ़र्माये ।मम्नून-ओ-शुक्रगुज़ार रहूँगा।
अभी नस्र के कुछ बयां और भी हैं..........
ज़िहाफ़ात् के कुछ निशां और भी हैं.....
[नोट् :- पिछले अक़सात के आलेख आप मेरे ब्लाग पर भी देख सकते हैं
www.urdu-se-hindi.blogspot.com
or
www.urdusehindi.blogspot.com
[[Disclaimer Clause : वही जो क़िस्त 1 में है]
.............. पिछली कड़ियों में मैने ज़िहाफ़ात के बारे में कुछ चर्चा की थी जैसे सबब-ए-ख़फ़ीफ़ पर लगने वाले ज़िहाफ़ ,सबब-ए-सक़ील पर लगने वाले ज़िहाफ़ ,वतद-ए-मज्मुआ पर लगने वाले ज़िहाफ़ या वतद-ए-मफ़रुक़ पर लगने वाले ज़िहाफ़। साथ ही मुफ़र्द ज़िहाफ़ की चर्चा की और मुरक़्क़ब ज़िहाफ़ की भी। फिर आम ज़िहाफ़ और ख़ास ज़िहाफ़ क्या होते हैं पर भी बात चीत की । हम ये तो दावा नहीं कर सकते कि सारे ज़िहाफ़ात की चर्चा मुकम्मल हो गई मगर इतना ज़रूर है कि कुछ हद तक चर्चा हुई है जिससे ये समझा जा सकता है कि ज़िहाफ़ क्या होता है और कैसे अमल करता है।दो या दो से अधिक ज़िहाफ़ [मुरक़्क़ब ज़िहाफ़] कैसे किसी सालिम रुक्न के टुकड़े [अजज़ा] पर अमल [व्यवहॄत] होता है । विशेष जानकारी के लिए अरूज़ की किसी भी मुस्तनद [प्रमाणिक] किताब से सन्दर्भ लिया जा सकता है।
एक बात तो तय हैं कि ये सारे ज़िहाफ़ात उर्दू शायरी के ’सालिम’ रुक्न के अवयवों [ अजज़ा [जिनकी संख्या 8-है] पर ही लगता है।ये मुफ़र्द या मुरक़्क़ब] ज़िहाफ़ कभी ’मुज़ाहिफ़’ रुक्न पे अमल नहीं करते -ये अरूज़ की बुनियादी उसूल के ख़िलाफ़ होगा।
हाँ दो ज़िहाफ़ ऐसे हैं जो ’मुज़ाहिफ़’ पर अमल करते हैं -सालिम’-रुक्न पर नहीं और वो है
(1) तस्कीन-ए-औसत का अमल
(2) तख़्नीक़ का अमल
आज हम इन्ही दोनों तरक़ीब-ए-अमल पर चर्चा करेंगे
अर्कान का सारा खेल हर्फ़-ए-’हरकत-ओ-साकिन का है ।
तस्कीन-ए-औसत : अगर किसी -’एक ही मुज़ाहिफ़ रुक्न ’- में 3-मुत्तहर्रिक [ यानी हरकत लगा हुआ हर्फ़] लगातार और एक साथ आ जाये तो बीच का ’हर्फ़-ए-हरकत’ साकिन हो जाता है शर्त यह कि इस अमल से [ग़ज़ल या शे’र की ] बह्र का वज़न न बदल जाये ।और बरामद रुक्न को ,’मस्कून’ कहते हैं
[यही ’औसत’ गणित में भी बोलते है-यानी 3-संख्याओं का ’औसत’ निकालना यानी ’बीच’ वाला अंक]
अब कुछ ऐसे अल्फ़ाज की चर्चा कर लेते है जिस में 3-हर्फ़ मय हरकत आता ह॥ आखिरी वाला हर्फ़ तो ख़ैर ’साकिन’ होगा ही [कारण की उर्दू ज़बान में कोई लफ़्ज़ ’हरकत’ पर नहीं गिरता -बल्कि ’साकिन; पर ही गिरता है]
अकसर्----हरकत्----...कसरत्.........रमज़ान्....बरकत् वग़ैरह वग़ैरह । ज़ाहिर है कि इसमें शुरु के 3-हर्फ़ पर लगातार हरकत [जबर की हरकत है ]
अगर् अरूज़् की भाषा मे कहें तो [ सबब की परिभाषा अगर आप को याद हो तो ]
अकसर् = 1 1 2 =यानी सबब-ए-सक़ील [11]+सबब-ए-ख़फ़ीफ़[2]
हरकत् = 1 1 2 =यानी सबब-ए-सक़ील [11]+सबब-ए-ख़फ़ीफ़[2]
कसरत् =1 1 2 =यानी सबब-ए-सक़ील [11]+सबब-ए-ख़फ़ीफ़[2]
बरकत् =1 1 2 =यानी सबब-ए-सक़ील [11]+सबब-ए-ख़फ़ीफ़[2]
तस्कीन-ए-औसत के अमल से इसे हम पढ़ेंगे
अक् सर्.. ..........हर् कत्..........कस् रत् ........बर् कत् ...........
अक् सर् =2 2 =यानी सबब्-ए-ख़फ़ीफ़्
हर् कत् =2 2 =यानी सबब्-ए-ख़फ़ीफ़्
कस् रत्= 2 2 = यानी सबब्-ए-ख़फ़ीफ़्
बर् कत् = 2 2 =यानी सबब्-ए-ख़फ़ीफ़्
हालांकि 4-हर्फ़ी जुमला का यहाँ सबब से काम तो चल गया ।मगर अरूज़ में इसे ’ फ़ासिला’ कहते हैं ।इसकी चर्चा मैने पहले नहीं किया कारण कि ज़रूरत ही नहीं पड़ी ।थोड़ी सी चर्चा यहाँ कर लेते है। फ़ासिला की 2-क़िस्में होती है}
(1) फ़ासिला सुग़रा
(2) फ़ासिला कबरा
फ़ासिला सुग़रा = वो 4-हर्फ़ी जुमला/कलमा जिसमें हर्फ़ क्रमश: हरकत+हरकत+हरकत+साकिन हो
फ़ासिला कबरा = वो 5-हर्फ़ी जुमला/कलमा जिसमें हर्फ़ क्रमश: हरकत+हरकत +हरकत+हरकत+साकिन हो
[अरबी ज़ुबान , 5-हर्फ़ी जुमला या कलमा तो afford कर सकता परन्तु उर्दू जुबान में ऐसे लफ़्ज़ मुश्किल से मिलते है ,कम ही प्राप्य है।
मिलने को तो उर्दू जुबान में ’सबब-ए-सक़ील’ या वतद-ए-मफ़रुक़ के independent अल्फ़ाज़ भी नहीं मिलते है]
अब तस्कीन-ए-औसत पर एक बार फिर आते हैं
तस्कीन-ए-औसत :-अगर किसी -’एक ही मुज़ाहिफ़ रुक्न ’- में 3-मुत्तहर्रिक [ यानी हरकत लगा हुआ हर्फ़] लगातार और एक साथ आ जाये तो बीच का ’हर्फ़-साकिन हो जाता है शर्त यह कि इस अमल से [ग़ज़ल या शे’र की ] बह्र न बदल जाये ।
”एक ही मुज़ाहिफ़ रुक्न ’- से मेरा आशय है कि जब सालिम रुक्न पर हम मुफ़र्द[एकल] या मुरक़्क़ब[ मिश्रित] ज़िहाफ़ का अमल कर रहे थे तो अजब अजब क़िस्म और शकल की मुज़ाहिफ़ रुक्न बरामद हो रहा था और कभी कभी तो ऐसी भी शकल बरामद हो रही थी कि 3-मुतहर्रिक हर्फ़ एक साथ सिलसिलेवार भी मिल मिल रहा था } बस यहीं ’और ऐसी ही ’मुज़ाहिफ़ रुक्न की शकल ’पर तस्कीन-ए-औसत का अमल होता है । आप चाहे तो करें और एक नई रुक्न बना लें और न चाहें तो न करें -आप की मरजी।वज़न में कोई फ़र्क़ नहीं पड़ेगा।
आप ऊपर देख ही रहे हैं कि चाहे तस्कीन-ए-औसत का अमल करे न करे वज़न 4-ही रहेगा बस लफ़्ज़ की अदायगी बदल जायेगी
जब सालिम रुक्न ’फ़ा इला तुन [2 12 2]’ पर ज़िहाफ़ ख़ब्न का अमल किया था तो -फ़ इला तुन [1 12 2] मिला था यानी [ फ़े-ऐन-लाम-अलिफ़-ते- नून] जिसमे ’फ़े-ऐन-लाम’ 3-मुतहर्रिक है जो एक साथ लगातार आ गए।अब तस्कीन-ए-औसत का अमल [इस मुज़ाहिफ़ शकल पर} किया जा सकता है जिस की बदौलत जो बीच में -ऐन [मुतहर्रिक है] को साकिन किया जा सकता है ।
तब?
तब फ़े+ऐन [साकिन][2] ...,लाम+अलिफ़[साकिन][2] ..... ते+नून [साकिन][2] हो सकता है यानी तस्कीन-ए-औसत की अमल से एक रुक्न [2 2 2] भी बरामद की जा सकती है तब इसका रुक्न का नाम-’मख़्बून मस्कून’ होगा ।
मस्कून -शब्द जोड़ने से यह पता चलता है कि यह रुक्न तस्कीन-ए-औसत से बरामद हुई है । आगे की चर्चा में यथा स्थान जहाँ जहाँ इसकी ज़रूरत पड़ेगी हम निशान्दिही करते चलेंगे।
तस्कीन-ए-औसत की ताक़त का अन्दाज़ा आप इस बात से लगा सकते है कि इस के अमल से रुबाई की एक वज़न से 24- वज़न बरामद किए जा सकते हैं । कैसे ? इस बात की चर्चा हम आगे करेंगे जब रुबाई के अर्कान की चर्चा करेंगे
इसी प्रकार इसी अमल से ’माहिया’ के एक वज़न से 18-रुक्न बरामद किए जाते है
तख़्नीक़ का अमल :- अगर किसी दो {पास पास के )मुज़ाहिफ़ रुक्न में 3-मुतहर्रिक [यानी हरकत लगा हुआ हर्फ़] लगातार और एक साथ आ जाये तो बीच का मुतहर्रिक -साकिन हो जाता है शर्त यह कि इस अमल से बह्र न बदल जाए । अगर आप ध्यान से देखे तो दोनो का अमल लगभग एक जैसा ही है बस फ़र्क़ है तो मुज़ाहिफ़ रुक्न की position का।यानी इस परिभाषा को यूँ भी परिभाषित कर सकते है
अगर किसी मुज़ाहिफ़ रुक्न के आखिर में ’मुतहर्रिक’ हर्फ़ आता है और ठीक उसके सामने वाला रुक्न वतद-ए-मज्मुआ हो [बज़ाहिर दो हरकत होगा ही होगा] तब 3-मुतहर्रिक जमा हो गए तो सर-ए-वतद[जो अब बीच में आ गया ] को साकिन कर देगे जो अपने से सामने वाले रुक्न के मुतहर्रिक से जुड जायेगा और सबब-ए-ख़फ़ीफ़ का वज़न देखा । इस स्थिति में हासिल रुक्न को ’मुख़्निक़’ कहते है
इन दोनो ज़िहाफ़ात की चर्चा विस्तार से यहाँ करना ग़ैर मुनासिब होगा ।आगे की चर्चा में जब कहीं इस तर्क़ीब की ज़रूरत पड़ेगी तो बीच बीच में Hint करते चलेंगे।ख़ुदा ख़ुदा कर के तबसिरा-ए-ज़िहाफ़ात सरसरी तौर पे खत्म हुआ।
अब आगे की किस्त में-- उर्दू शायरी में प्रचलित 19- बहर की चर्चा अश’आर सहित करेंगे
--इस मंच पर और भी कई साहिब-ए-आलिम मौज़ूद हैं उनसे मेरी दस्तबस्ता [ हाथ जोड़ कर] गुज़ारिश है कि अगर कहीं कोई ग़लत बयानी या ग़लत ख़यालबन्दी हो गई हो तो निशान्दिही ज़रूर फ़र्मायें ताकि मैं ख़ुद को दुरुस्त कर सकूं और बा करम मेरी मज़ीद [अतिरिक्त] रहनुमाई भी फ़र्माये ।मम्नून-ओ-शुक्रगुज़ार रहूँगा।
अभी नस्र के कुछ बयां और भी हैं..........
ज़िहाफ़ात् के कुछ निशां और भी हैं.....
[नोट् :- पिछले अक़सात के आलेख आप मेरे ब्लाग पर भी देख सकते हैं
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इल्मे अरूज़ को आसान तरीके से सभी को बताने के लिए आपका तहे दिल से शुक्रगुज़ार हूँ. आप सलामत रहें यही दुआ है.
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