शुक्रवार, 31 मार्च 2017

उर्दू बह्र पर एक बातचीत : क़िस्त 27 [ बह्र-ए-मुतदारिक-2]

उर्दू बह्र पर एक बातचीत : क़िस्त 27 [बह्र-ए-मुतदारिक-2]

Discliamer clause -वही जो क़िस्त 1 में है 

पिछली क़िस्त में  हम  मुतदारिक की सालिम बह्र --यानी मुरब्ब:---मुसद्दस--मुसम्मन   --और इनकी मुज़ाअफ़ [दो गुनी] बहूर पर चर्चा कर चुके हैं
आज हम बहर-ए-मुतदारिक पर लगने वाले ज़िहाफ़ात का ज़िक्र करेंगे

बहर-ए-मुतदारिक की बुनियादी रुक्न है -’फ़ाइलुन’ [ 212]
यानी  सबब [2] +वतद [1 2] से मिल कर बना है यानी 2 12 = फ़ाइलुन।
ध्यान रहे -बह्र-ए-मुतक़ारिब [ फ़ऊ लुन  12 2 ] में ’सबब’ और ’वतद’ का क्रम उल्टा था यानी पहले वतद [फ़ऊ 12 ] था  बाद में सबब [लुन 2] था यानी 12 2 था

अब रुक्न ’फ़ाइलुन’ पर वही ज़िहाफ़ लगेंगे जो सबब-ए-ख़फ़ीफ़ से शुरु होने वाले और वतद-ए-मज़्मुआ पर ख़तम होने वाले ज़ुज [टुकड़े]  पर पर लगते हैं जिसकी चर्चा हम पिछले अक़्सात [क़िस्तों] में कर भी चुके है ।फिर भी एक बार दुहरा देता हूँ
 वो ज़िहाफ़ हैं
(क) सबब-ए-ख़फ़ीफ़ से शुरु होने वाले टुकड़े पर लगने वाले ज़िहाफ़ =ख़ब्न-- यह आम ज़िहाफ़ है

(ख) वतद-ए-मज़्मुआ से ख़त्म होने टुकड़े  पर लगने वाले ज़िहाफ़       = क़तअ--अरज ----ह्ज़ज़---तम्स-----इज़ाला---तर्फ़ील--खलअ

(ग)  मुरक़्क़ब ज़िहाफ़   = ख़ब्न+इज़ाला ----ख़ब्न+तर्फ़ील----

(घ)  और बरामद मुज़ाहिफ़ पर लगने वाले ’तसकीन’ या ’ तख़नीक़’ की अमल से बरामद होने वाले रुक्न

इन ज़िहाफ़ात पर गुज़िस्तां अक़सात [पिछले क़िस्तों में ] चर्चा कर चुके है

फ़ाइलुन [2 1 2] का ख़ब्न   = मख़्बून है----------- [फ़े इलुन =112]
 फ़ाइलुन [2 1 2  का क़तअ = मक़्तूअ है----------[फ़अ लुन =2 2 ]  
फ़ाइलुन [2 1 2] का हज़ज़   = महज़ूज़ या अहज़ है - [फ़अ-------...=2]   यहाँ  ’ऐन- साकिन है
फ़ाइलुन [2 1 2] का अरज    =अरज  है      --------[फ़अ लान -- 2 2 1]  यहाँ भी -ऐन - साकिन है
फ़ाइलुन [2 1 2] का इज़ाला = मज़ाल है   --------[ फ़ाइलान =2121 ] 
फ़ाइलुन [2 1 2] का  तर्फ़ील = मुरफ़्फ़ल है------[फ़ाइलातुन = 2122 ]
इसके अलावा -फ़ाइलुन- [2 1 2] पर मुरक़्क़ब ज़िहाफ़ [दो या दो से ज़्यादा ज़िहाफ़ का एक साथ अमल ] भी लगते है मुरक़्क़ब ज़िहाफ़ की चर्चा हम पिछले क़िस्त में कर चुके हैं हम यहां चर्चा उन्हीं मुरक़्क़ब  ज़िहाफ़ पर महदूद [सीमित] रखेंगे
(1) ख़ब्न+ तसकीन 
(2) ख़ब्न+तर्फ़ील
(3) ख़ब्न + मज़ाल
(4} ख़ब्न+ तर्फ़ील + तस्कीन
(5} ख़ब्न + मज़ाल + तस्कीन

चूँकि मुतदारिक बह्र के मुरब्ब: और मुसद्दस शकल कम दस्तयाब [प्राप्य] हैं ज़्यादातर मुसम्मन शकल ही मिलती है अत: उदाहरण भी मुसम्मन या मुसम्मन मुज़ाअफ़ में ही ज़्यादा मिलता है

[क]  बहर-ए-मुतदारिक की academically and technically तमाम मुम्किनात [ सभी संभावित] मुज़ाहिफ़ बह्र की चर्चा तो कर दी है पर हक़ीकत [सच] तो यह है शो;अरा [शायर बन्धु]  मुतदारिक बहर की इन तमाम मुज़ाहिफ़ या मुज़ाअफ़ बह्र में शायरी नहीं करते । अमूमन जो इसमे मक़्बूल [लोकप्रिय]  बहर है जैसे --मुतदारिक मुसम्मन सालिम /मुसद्दस सालिम /,मुसम्मन मख्च्बून./मुसद्दस मक्तूअ या इनकी मुज़ाइफ़ बह्र में ही शायरी करते हैं
बह्र-ए-मुतदारिक के कुछ  मानूस बह्र की सूची लिख रहा हूं-  इसका मतलब कत्तई  यह न समझा जाये कि निम्न लिखित बह्र के अलावा मुतदारिक की कोई और बहर ही  नहीं । होती हैं--यह आप के ज़ौक़-ओ-शौक़ पर निर्भर करता है कि आप कौन सी बह्र  में शायरी करना या तबअ आज़माई करना पसन्द करते हैं --

[1] बहर-ए-मुतदारिक मुसम्मन सालिम --- इस बह्र पर पिछले क़िस्त में चर्चा कर चुका हूं एक बार फिर कर  लेता हूं -
फ़ाइलुन---फ़ाइलुन-----फ़ाइलुन----फ़ाइलुन
212-------212--------212--------212
आप को एक हिन्दी फ़िल्म का गाना सुनाते है --आप ने सुना होगा - यह ग़ज़ल नहीं है बस गीत है ’यू -ट्यूब’ पर मिल जायेगा ळिन्क लगा रहा हूँ
https://www.youtube.com/watch?v=_A-BAt4k2gU

इक चमेली के मड़्वे तले

मैकदे से ज़रा दूर उस मोड़ पर
दो बदन प्यार की आग में जल गए

इक चमेली के मड़वे तले 
  यह मशहूर गीत --शायर  मुहिद्दीन ’मख़्दूम’ साहब की एक मशहूर आज़ाद नज़्म है जिसे आशा भोसले और रफ़ी साहब ने बड़ी दिलकश आवाज़ में गाया है और मौसिकी की तो बात ही न पूछिए

ज़रा सोचिए कि यह मिसरा किस बहर मे है ??? एक मिसरे की तक़्तीअ कर के देखते हैं
2     1  2  /   2 1 2     / 2 1 2    =  2 1 2----212----2 1 2  [ बहर-ए-मुतदारिक मुसद्दस] की शकल
इक च मे  /ली के मड़/ वे तले
मगर दूसरा मिसरा
   मै कदे        /से ज़रा     /दूर उस /मोड़ पर
 2   1   2   /  2   1  2 /  2 1 2 / 2 1  2 = 212---212---212---212 [ बहर-ए-मुतदारिक मुसम्मन ] की शकल में
 दो ब दन  / प्यार की/ आग में /जल ग ए

यानी एक ही गीत में  दो या दो से ज़्यादा बहर का इस्तेमाल किया गया है फिर भी मधुरता में कोई कमी नही आई }गीत दिलकश बन पड़ा। इसी तरह ’माहिया ’ में भी दो-मुख़्तलिफ़ बहर का इस्तेमाल होता है मगर गायकी मौसिक़ी या रवानी में फ़र्क़ नही आता ।
क्यों??
वो इस लिये कि शायरी के बहर गीत संगीत मौसिक़ी पर ही तराशे गए है ’डिजाइन’ किया गया है। एक भी हर्फ़ या लफ़्ज़ इधर से उधर हुआ कि ताल बेताल हो जायेगा सुर ,बेसुर हो जायेगा मिसरा बह्र से ख़ारिज़ हो जायेगा  । कहने का तात्पर्य यह कि मुक्त छन्द में भी रुक्न अर्कान वज़न बहर लय गति का समावेश किया जा सकता है और दिलकशी बरक़रार रखी जा सकती है} मगर हिन्दी में आजकल ’मुक्त छन्द"या अतुकान्त कविता के नाम पर नस्र की लाइनों को तोड़ तोड़ कर कविता  के नाम पर जो कुछ पेश  किया जा रहा है ---अल्लाह अल्लाह ख़ैर सल्ला....। वो तो बात चली तो बात निकल आई।

इस बहर की मुज़ाअफ़ [दो गुनी-16 रुक्नी) शकल भी मुमकिन है
इस बहर की  मुरब्ब: शक्ल -यानी  212---212-- भी मुमकिन है ,,,,,...." मुसद्दस शकल " यानी  212---212--212- भी मुमकिन है

इस पर चर्चा पिछली क़िस्त में कर चुका हूँ चाहे तो एक बार आप देख सकते हैं
[2] बहर--ए-मुतदारिक मुसम्मन मज़ाल  -- 
फ़ाइलुन---फ़ाइलुन-----फ़ाइलुन----फ़ाइलान
212-------212--------212--------2121
यह बहर ऊपर की बहर का extended form समझ लें यानी मुतदारिक मुसम्मन के आखिरी रुक्न [जो अरूज़ और जर्ब के मुकाम पर है] पर इज़ाला की इज़ाफ़त लगी हुई है जिस से  फ़ाइलुन [212]--- फ़ाइलान [2121] हो गया मुज़ाहिफ़ को मज़ाल कहते हैं
[नोट --आप ’मुज़ाहिफ़" और ’मुज़ाअफ़’ से confuse न होइएगा। "मुज़ाहिफ़"---ज़िहाफ़ से बना है जब कि मुज़ाअफ़ ---मुज़ाअफ़ से बना है जिसकी  मानी होती  है दो गुना करना
उदाहरण - [’सरवर’ साहेब की किताब ’आसान अरूज़ और निकात-ए-शायरी के हवाले से ---

जाँ निसार अख्तर [जी हाँ ,वही जावेद अख़्तर के वालिद जान] का एक शे’र है आप भी तुत्फ़ अन्दोज़ होइए-

और क्या है सियासत के बाज़ार मे 
कुछ खिलौने बचे है दुकानों के बीच

इस बहर पर चर्चा पिछली क़िस्त [26] में भी कर चुका हूँ । कुछ चर्चा वहाँ बाक़ी रह गई थी सो अब यहां कर रहा हूं~
अख़्तर साहब के शे’र की अगर आप तक़्तीअ करेंगे  तो आप पायेंगे कि
मिसरा उला का वज़न ---212---212---212---212- [यानी सालिम ] पर उतर रहा है जब कि मिसरा सानी का वज़न 212---212---212--2121 [यानी मज़ाल ] पर उतर रहा है । घबराने की कोई बात नही है --शे’र फिर भी वज़न में है
कारण ? ज़िहाफ़ इज़ाला [ मुज़ाहिफ़ मज़ाल] एक ख़ास ज़िहाफ़ है जो शे’र के अरूज़ और जर्ब के लिए ही ख़ास है और किसी शे’र के आख़िर में एक साकिन बढ़ाने से वज़न में फ़र्क नहीं पड़ता -वज़न वही रहता है ।अत: मिसरा [उला या सानी में]   ’मज़ाल ’ का ख़ल्त [मिलावट) ज़ायज है
-------
[3] बहर-ए-मुतदारिक मुसम्मन मक़्तूअ अल आखिर    ---इस का बुनियादी वज़न है 
फ़ाइलुन---फ़ाइलुन---फ़ाइलुन--फ़अ लुन 
     212---212-------212-----22
यानी फ़ाइलुन [212]  पर ’क़ता’  का ज़िहाफ़ लगाएगे तो  ’फ़अ लुन [2 2]  बरामद होगा और चूंकि ’क़ता’ एक ख़ास ज़िहाफ़ है जो अरूज़ और जर्ब के मुक़ाम पर ही आता है और जो यहाँ आया भी है । इसी लिए इसे मक़्तूअ अल आख़िर लिखा है। न भी लिखेंगे तो भी चलेगा। कारण कि आप ने मुसम्मन कह दिया तो मिसरा में 4-रुक्न ही होगा और .मक़्तूअ’ कह दिया तो एक रुक्न पर ज़िहाफ़ लगा है और मक़्तूअ हमेशा ’अरूज़ या जर्ब’ के मुक़ाम के लिए मख़्सूस होता है तो ’अल आख़िर ’ही होगा allied way  से ।हाँ ’अल आख़िर’ लिख देने से इतनी माथा-पच्ची नहीं करनी पड़ेगी explicit way से सीधा समझ में आ जायेगा।
कमाल अहमद सिद्दिक़ी साहब के हवाले से एक उदाहरण लेते हैं

राह में हो मुलाक़ात ,नामुमकिन
हो कभी ये करामात ,ना मुमकिन

अब इसकी तक़्तीअ भी कर लेते हैं
2  1  2 / 2 1  2/ 2 1  2  /  2  2  = 212---212---212---22
राह में /हो मुला/क़ात ,ना /मुम किन
2   1  2   / 2 1 2 / 2 1 2/  2  2
हो कभी /ये करा /मात ,ना/  मुम किन = 212---212---212---22
यह बहर--मुतदारिक मुसम्मन  मक़्तूअ अल आखिर है

[4] बहर-ए-मुतदारिक मुसद्दस मख़्बून --इसका बुनियादी वज़न है
फ़ इलुन---फ़ इलुन---फ़ इलुन [-ऐन- मय हरकत यानी मिसरा में तीन बार
1 1 2-----1 1 2------1 1 2-
फ़िलवक़्त तो कोई शे’र ज़ेहन में नहीं आ रहा है .कभी ज़ेर-ए-नज़र आया तो ज़रूर लगा दूंगा

अगर आप की नज़र से गुज़री हो तो ज़रूर बताइएगा
[5] बह्र-ए-मुतदारिक मुसम्मन मख़्बून 

फ़ इलुन---फ़ इलुन---फ़ इलुन----फ़ इलुन [-ऐन- मय हरकत] यानी मिसरा में चार बार
1 1 2-----1 1 2------1 1 2-----1 1 2
ऊपर लिख चुका हूँ कि ’फ़ाइलुन’ [212] का मख़्बून होता है  ’फ़ इलुन [1 1 2 ] यहां -ऐन {इ) मुतहर्रिक है

जनाब आरिफ़ हसन ख़ान साहब के हवाले से एक उदाहरण लेता हूं

तुझे चाह के चाहा किसी को न फिर
तुझे देख के देखा किसी को न फिर

इसकी तक़्तीअ कर के देखते हैं
1  1   2  / 1  1 2     /1 1   2    / 1 1 2 =112---112---112---112
 तु झे चा/ह  के  चा / हा  कि सी /को न फिर
1  1  2 /1  1  2  /1  1   2    / 1 1  2 =112---112---112---112
तु  झे  दे /ख के दे / खा कि सी  /को  न फिर

आप यहाँ देख रहे हैं कि बहर की माँग पर -झे--के---हा--को--खा  ---सब की मात्रा गिरा कर -1- की वज़न पर लिया गया है [जो शायरी में जायज है] अगर बहर में किसी जगह अगर -2- के वज़न की ज़रूरत पड़ती तो यही शब्द फिर -2- का वज़न देते} सब बह्र की माँग पर निर्भर करता है

[तक़्तीअ के असूल पर किसी क़िस्त में कभी विस्तार से चर्चा करेंगे।
नोट-इस बह्र को  मुज़ाअफ़  शकल में भी इस्तेमाल कर सकते हैं

इस बहर की मुज़ाअफ़ शकल  भी देख लें
[6]  बहर-ए-मुतदारिक मुसम्मन मख़्बून मुज़ाइफ़ [16-रुक्नी]  मिसरा में 8-रुक्न

फ़इलुन----फ़इलुन-----फ़इलुन----फ़इलुन---फ़इलुन---फ़इलुन---फ़इलुन----फ़इलुन
1 1 2-----1 1 2------1 1 2-----1 1 2---1 1 2-----1 1 2------1 1 2-----1 1 2
कमाल अहमद सिद्द्क़ी साहब की किताब के हवाले से [उन्हीं की एक ख़ुदसाख़्ता शे’र से\

उसे नाज़ था अपनी इनायतों पर ,उसे फ़ख़्र था अपनी नवाज़िशों पर
मेरे हाथ में भीख का कासा न था,न तो मेरे लबों पे सवाल ही था  

इसकी तक़्तीअ कर के देखते हैं
1  1  2  / 1  1    2  / 1 1  2  / 1 1  2 /   1 1   2    / 1  1  2  / 1 1 2  / 1  1  2   = 112--112--112--112--112-112---112---112-
उसे ना / ज़ था अप/ नी इ ना /य तों पर /,उ से फ़ख़/ र था अप /नी न वा /ज़ि शों पर
1  1 2  / 1 1 2  / 1  1  2  / 1  1  2/  1  1  2  / 1 1 2 / 1  1 2  / 1 1  2   = 112--112--112--112--112--112--112--112-
मेरे हा /थ में भी /ख का का/सा न था /,न तो मे /रे ल बों /पे स वा / ल ही था

यहां भी वही बात--बहर के माँग के मुताबिक़ -से--था---नी---तो----नी---शो-----रे---मे---का---पे---ही---- इन सब पर मात्रा गिराई है । मेरी व्यक्तिगत राय है कि वो शे’र उम्दा होता है जिसमें कम से कम minimum poetic liscence  की छूट लेनी पड़े ।इस बहर की एक ख़ास विशेषता भी है

आप ध्यान से देखें ---फ़ा इ लुन [2 1 2] का ’मख़्बून’ है ------ फ़ इ लुन [1 1 2]  जो मुज़ाहिफ़ है और इस में --फ़े--ऐन--लाम   तीन मुतहर्रिक [ हरकत लगे हर्फ़] एक साथ आ गए तो अब इस पर ’तस्कीन-ए-औसत’ का अमल हो सकता है । तस्कीन-ए-औसत का अमल तो आप जानते होंगे- जो ’मुज़ाहिफ़’ शकल पर ही लगता है । पहले भी चर्चा कर चुका हूं~ इस पर । चलिए एक बार फिर चर्चा कर देता हूँ याद दिहानी के लिए
’जब किसी " मुज़ाहिफ़ रुक्न " 3- मुतहर्रिक एक साथ आ जायें तो  बीच वाला हर्फ़ ’साकिन’  किया जा सकता है -। यह Obligatory है   Mandatory नहीं । आप चाहें तो अमल करे न चाहें तो अमल न करें।
अब आप इस बहर [ऊपर चर्चा कर चुका हूं~]

फ़ इलुन---फ़ इलुन---फ़ इलुन----फ़ इलुन
112--------112-----112-------112--
 पर तस्कीन-ए-औसत के अमल से  ’फ़ इलुन’[1 1 2] ,   --फ़अ लुन [2 2] में बदल जायेगा  यानी बीच वाला -ऐन- साकिन हो जायेगा  जो अपने से पहले वाले -फ़े- से मिल कर [हरकत+ सबब = 2= सबब-ए-ख़फ़ीफ़] हो गया  और तस्कीन के अमल से बहर के वज़न पर कोई फ़र्क नहीं पड़ता और ये अर्कान बाहम मुतबादिल [आपस में बदले भी जा सकते हैं ] होते है
 इसका अमल  हम अगर मिसरा के  चौथे मुक़ाम पर [ जो अरूज़ और जर्ब का मुक़ाम है} लगा दे तो...? तो वज़न की सूरत हो जायेगी
फ़ इलुन----फ़ इलुन--फ़ इ लुन--फ़अ लुन      [ -ऐन- बसकून यानी ऐन साकिन है]
112--         -112-------112------22
और इस बहर का नाम होगा---मुतदारिक मुसम्मन मख़्बून मुस्सकिन क्योंकि यह ’तस्कीन-ए-औसत ’ के अमल से बरामद हुई है
क्यो?
क्योंकि मुतदारिक की बुनियादी वज़न ’फ़ाइलुन’[2 1 2] पर ’ख़ब्न’ का ज़िहाफ़ लगा है सो मख़्बून हो गया और इस ’मख़्बून’ के आख़िरी रुक्न [ जो अरूज़ और जर्ब के मुक़ाम पर है] तस्कीन का अमल कर दिया तो ’फ़अ लुन’ [2 2] हो गया सो मुस्सकिन लिख दिया और चूँकि मिसरा मे चार रुक्न [ शे’र में 8 रुक्न होंगे] तो मुसम्मन लिख दिया --तो पूरे बहर का नाम -मुतदारिक मुसम्मन मख़्बून मुस्सकिन लिख दिया
आप को एक बात खटक रही होगी कि हम बार बार बात बात में  मुसम्मन ,,,मुसद्दस..अरूज--जर्ब--चार रुक्न--आठ रुक्न क्यों लिख रहे हैं ---कई बार तो लिख चुके हैं । जी सही कहा आप ने। मैं भी जब टी0वी0 पे समाचार देखता हूँ तो एक ही बात को न्यूज रीडर बार बार दुहराता है। एक बार मैने "ऎंकर" से पूछ ही लिया--भईया एक ही बात को आप बार दुहरा कर क्यों सता रहे हो?
ऎंकर ने बताया -- ये आप के लिए नहीं दुहरा रहा हूँ मैं उनके लिए दुहरा रहा हूँ जो ’अभी-अभी-’ टी0 वी0 खोले हैं,,,,... उनके लिए
बात साफ़ हो गई ---बार बार इस लिए दुहरा रहा हूँ जो "अभी-अभी-" मेरे ब्लाग पर आयें होंगे--उनके लिए दुहरा रहा हूँ -आप के लिए नहीं । ख़फ़ा न होइए ,सर !

हमारा इरादा तो कुछ भी न था
नज़र आप की क्यूँ ख़फ़ा हो गई
" ख़ता बख़्श दो गर ख़ता हो गई

जब तक आप का गुस्सा ठंडा न हो जाये तब तक.....

बात बात में -इस गाने की तक़्तीअ ही कर लेते है ---122--122--122-12 अरे यह तो बहर-ए- मुतक़ारिब मुसम्मन महज़ूफ़ का वज़न आ गया [ इस वज़न की चर्चा पिछले क़िस्त में कर चुका हूँ]
चलिए अब एक बार फिर बहर-मुतदारिक मुसम्मन मख़्बून मुस्सकिन पर आते है
यानी 112---112-----112------22
 फ़ इलुन---फ़ इलुन--फ़ इलुन--फ़अ लुन
या
 22---22-----22----22
फ़अ लुन---फ़अ लुन--फ़अ लुन--फ़अ लुन
या ऐसी ही और वज़न जो  ’तस्कीन-ए-औसत ’ के अमल से बरामद हो -कहलायेंगी सभी  -- बहर-मुतदारिक मुसम्मन मख़्बून मुस्सकिन ’-ही कहलायेगा । ये बात दीगर है कि तस्कीन का अमल किस किस मुकाम पर हो रहा है

एक बात -ख़ब्न [मक़्बून] -एक आम ज़िहाफ़ है जो शे’र के किसी मुकाम ---सदर/इब्तिदा....हस्व....अस्व...अरूज़/जर्ब किसी मुकाम पर आ सकता है
अगर यह अमल सिर्फ़ पहले मुकाम [सदर/इब्तिदा] पर अमल करते हैं तो बहर बरामद होगी -
22--112---112----112-
और दूसरे मुक़ाम पर करें तो
112---22---112---112-
इस प्रकार ्तस्कीन के अमल से
112---112---22---112-
और
112----112---112---22   इस प्रकार कुल मिला कर मुसम्मन  के केस में 4-और मज़ीद [अतिरिक्त] बहर बरामद हो सकती है
अब आप अगर दो-दो- रुक्न पर अमल करें तो कितनी बहर बरामद हो सकती है या तीन--तीन रुक्न पर एक साथ अमल करें तो कितनी रुक्न बरामद हो सकती है-इसकी गणना आप स्वयं करें तो बेहतर ..आत्म विश्वास बढेगा

या चारों रुक्न पर एक साथ तस्कीन--ए-औसत का मल करें तो? तो क्या ? एक ही बहर बरामद होगी और वो होगी  22--22--22--22 --इस पर चर्चा अगली क़िस्त में  करेंगे
अभी तो हम आप बहरों से खेल रहे है
चलिये आप यही अमल [तस्कीन-ए-औसत का] मुज़ाअफ़ बहर -[16-रुक्नी बहर ] यानी
112---112---112---112---112---112---112---112
112---112---112----112---112---112---112---112  पर इसी तरतीब से लगायें और बताएं कि कितनी मज़ीद बहर आप बरामद कर सकते है ?

दो चार बहर तो मैं ही बरामद कर देता हूं-आप के लिए
112---22---112----22-----112-----22----112---22

22---112-----22----112----22---112------22---112
22---22---22--22---22---22---22----22-
तस्कीन -ए-औसत के अमल से और भी औज़ान बरामद हो सकते है -आप कोशिश तो करें।

यह सिर्फ़ खेल नही है---ये तमाम मुस्तनद बह्र हैं जिसमें आप चाहे तो शे’र-ओ-शायरी कर सकते है यह आप पर निर्भर करता है और लोग करते भी है

मजाज़  लखनवी की एक मशहूर गज़ल है आप ने भी सुना होगा } चन्द अश’आर लेते हैं

कुछ तुझ को ख़बर है हम क्या क्या ,ऐ शोरिश-ए-दौरां भूल गए
वो जुल्फ़-ए-परिशां भूल गए ,वो दीदा-ए-गिरियां    भूल गए

सब का तो मुदावा कर डाला , औरअपना  मुदावा कर न सके
सब के तो गरेबां सी डाले  ,अपना ही गरेबां   भूल गए 

एक शे’र की तक़्तीअ कर के देखते हैं---
2   2     / 1 1 2  / 2  2     /2 2   //   2  2       / 1 1 2   / 2 2    / 1 1 2 = 22---112---22---22-//--22---112---22---112
सब का / त मु दा /वा कर / डाला // अर ,अप / न मु दा / वा कर/  न सके
2     2  /  1 1 2   / 2  2  / 2 2   //   2   2   / 1 1 2 / 2   2  / 1 1 2 = 22---112---22--22-//  22---112---22----112-
सब के /  त गरी ’/बां सी  / डाले // ,अप ना / ह गरी / बां   भू / ल गए

जो ऊपर बहर बरामद की है यह ’ फ़ इ लुन ’ पर  तस्कीन-ए-औसत के अमल से बरामद हुई है और यह भी एक दुरुस्त बहर है
अब मैं समझता हूँ कि मतला की तक़्तीअ अब आप कर सकते हैं
एक बात और-- 16-रुक्नी बहर की और उर्दू शायरी की एक ख़ास मिजाज़ यह भी है कि हर चार रुक्न के बाद एक ठहराव-सा आ रहा है जिसे अरूज़ की भाषा में ’अरूज़ी वक़्फ़ा’ कहते है और यह लाजमी भी है ऐसी बहरों को "बहर-ए-शिकस्ता" भी कहते हैं
एक उदाहरण और लेते हैं

नज़ीर अकबराबादी की एक नज़्म है-बंजारा नामा- बड़ी मशहूर नज़्म है आप ने भी सुनी होगी---चन्द अश’आर पेश कर रहा हूँ आप भी लुत्फ़ अन्दोज़ होइए

टुक हिर्सो-हवा को छोड़ मियां मत देश विदेश फिरे मारा
कज़्ज़ाक़ अजल का लूटे हैं दिन रात बजा कर नक़्क़ारा
क्या बधिया ,भैसा,बैल ,शुतुर , क्या गौने ,गल्ला सर भारा
क्या गेहूँ चावल मोठ मटर ,क्या आग धुआँ और  अंगारा
सब ठाठ पड़ा रह जायेगा जब लाद चलेगा  बंजारा

नामा बहुत लम्बा है मगर बहुत दिलकश  है
पहले शे’र की तक्तीअ कर के देखते हैं ----
 2     2    / 1 1  2 /  2  2   /1  1   2  /  2   2  / 1 1 2   / 1 1 2   / 2 2   = 22---112---22--112 // 22 -112---112--22
टुक हिर् / स-हवा /को छो / ड़ मि यां /  मत दे / श वि दे / श फिरे/  मारा
 2     2   / 1   1    2  /    2  2   /2 2 / 2     2  / 1 1 2  /  2   2    /2 2    = 22---112---22---22--//-22---112---22---22
क़ज़ ज़ा / क अ  जल/  का लू / टे हैं /  दिन रा /त ब जा / कर नक़ / क़ारा

यह भी  बहर--ए-मुतदारिक मख़्बून की एक वज़न है और दुरुस्त वज़न है
बाक़ी शे’र की तक़्तीअ आप भी कर सकते है--

चलते चलते-----एक दिलचस्प बात
ऊपर हम दो वज़न की चर्चा  कर चुके है
[अ] बहर-ए-मुतदारिक मुसम्मन मक़्त्तूअ  अल आख़िर  जिसका वज़न था
212---212---212---22
[ब]  बहर-ए-मुतदारिक मुसम्मन मख़्बून मुस्सकिन अल आखिर जिसका वज़न था
212--212---212----22
देखने में तो दोनो वज़न एक जैसा है तो  फिर  नाम  क्यों जुदा जुदा है? जी बिलकुल सही । आम पाठक को फ़र्क नहीं पड़ता कि ऐसे बहर को ’मक़्तूअ अल आखिर’ कहें या ’मख़्बून मुस्सकिन अल आखिर कहे? मगर अरूज़ के जानकार को फ़र्क़ पड़ता है।
दोनो बहर भले  ही देखने में एक जैसी लगती हो ,जुड़वा लगती हो,सीता-गीता जैसी लगती हो मगर  दोनो बहर में बुनियादी फ़र्क़ है
1- बहर [अ] ’क़ता’ के ज़िहाफ़ के अमल से बरामद हुई है -अत: अब इसके ऊपर और कोई ज़िहाफ़ नहीं लग सकता
जब कि बहर [ब]  पहले ’ख़ब्न’ ज़िहाफ़ से बरामद हुई फिर उस के  बाद ’तस्कीन’ के अमल से बरामद हुई अर्थात इस वज़न पर 2- आपरेशन किया गया है
2- बहर [अ] में जिहाफ़ ’क़ता’ -ख़ास ज़िहाफ़ है जो शे’र में  ’सिर्फ़ अरूज़ और जर्ब” के मुक़ाम के लिए ख़ास है जब कि ’ख़ब्न’ एक आम ज़िहाफ़ है  जिस पर फिर तस्कीन का अमल किया गया है जो शे’र के किसी मुक़ाम पर आ सकता है -अरूज़ और जर्ब पर भी आ सकता है  -जो मैने यहाँ लगा कर दिखा भी दिया [ कि बात दिलचस्प बन जाये] और इस तरह ’जुड़वा बहन’ सामने आ गई -’सीता-गीता”की तरह
इस वाक़या का बयान  कमाल अहमद सिद्दिक़ी साहब ने बड़े मज़ाहिया ढंग से किया है --आप भी सुन ले
’----यूँ समझ लें कि जिस तरह ’ मख़्बून मुस्सकिन ’ फ़अ लुन [22] और ’मक़्तूअ ’फ़अ लुन [22] हम शकल हैं -उसी तरह -दो जुड़वा- बहनें -जो हम शकल हों-उनके मक़ाम अपने शौहरों की ज़िन्दगी में अलग-अलग हैं----"
अगर आप ने ’सीता- गीता’   हेमा मालिनी वाली  हिन्दी फ़िल्म देखी हों तो यह बात स्पष्ट हो जायेगी । फ़िल्म के अन्त में दोनो हीरो को अपनी अपनी रुक्न[बेगम]  के बारे में ’कन्फ़ुज़न ’ था कि ये न कि वो?? मगर हीरोइनों को अपने अपने शौहर के बारे में कोई ’कन्फ़ुजन’ नही था वो साफ़ थीं

अगले किस्त में इस बह्र -बहर-ए-मुतदारिक के सिलसिले को जारी रखते हुए इस की और मुज़ाहिफ़ बह्र पर चर्चा करेंगे।

मुझे उमीद है कि मुतदारिक के इस मुज़ाहिफ़ बहर से बाबस्ता कुछ हद तक मैं अपनी बात कह सका हूँ । बाक़ी आप की टिप्पणी का इन्तज़ार रहेगा

--इस मंच पर और भी कई साहिब-ए-आलिम मौज़ूद हैं उनसे मेरी दस्तबस्ता [ हाथ जोड़ कर] गुज़ारिश है कि अगर कहीं कोई ग़लत बयानी या ग़लत ख़यालबन्दी  हो गई हो तो निशान्दिही ज़रूर फ़र्मायें ताकि मैं ख़ुद को  दुरुस्त कर सकूं ।बा करम मेरी मज़ीद [अतिरिक्त] रहनुमाई फ़र्माये ।मम्नून-ओ-शुक्रगुज़ार रहूँगा।

अभी नस्र के कुछ बयां और भी हैं..........
ज़िहाफ़ात् के कुछ निशां और भी हैं.....

एक बात बड़े ही अदब से एतराफ़ [स्वीकार] करता हूँ कि इन तमाम अक़्सात ,तज़्क़िरात  और तहरीर के लिए अपने आलिम अरूज़ी साहिबान  कमाल अहमद सिद्द्क़ी साहब , डा0 शम्सुर्र्हमान फ़ारुक़ी साहब ,आलिम जनाब  सरवर आलम राज़ ’सरवर ’ साहब  , अजीज  दोस्त डा0 आरिफ़ हसन ख़ान साहब  का तह-ए-दिल  से मम्नून-ओ-शुक्र गुज़ार हूँ जिनकी किताबों से  कुछ पढ़ सका ,समझ सका और लिख सका ।वगरना इस हक़ीर इतनी  बिसात कहाँ  इतनी औक़ात कहां । इन तज़्क़िरात में  मेरा कुछ भी अपना नहीं है बस  आलिम साहिबान  के अरूज़ पर किए गए कामों का हिन्दी तर्जुमा समझिए........

[नोट् :- पिछले अक़सात  [क़िस्तों ]के आलेख [ मज़ामीन ]आप मेरे ब्लाग पर  भी देख सकते हैं 

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-आनन्द.पाठक-
0880092 7181

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