सोमवार, 6 मार्च 2017

उर्दू बहर पर एक बातचीत : क़िस्त 26 [बह्र-ए-मुतदारिक-1]

उर्दू बह्र पर एक बातचीत : क़िस्त 26 [बह्र-ए-मुतदारिक-1]

Discliamer clause -वही जो क़िस्त 1 में है 


बह्र-ए-मुतदारिक का बुनियादी रुक्न है -’फ़ा इलुन’ [ 2 12 ] =सबब-ए-ख़फ़ीफ़ [2 ]+वतद-ए-मज़्मुआ [1 2]

बहर-ए-मुतदारिक की सालिम बह्रें

1-बह्र-ए-मुतदारिक मुरब्ब: सालिम  [212 -212] 
फ़ाइलुन---फ़ाइलुन   [मिसरा में दो बार यानी  शे’र  में चार बार ]
बहुत छोटी बहर होने के कारण इस बहर में बहुत कम अश’आर कहे गये हैं , छोटे बहर में  मयार के ग़ज़ल/शे’र कहना बहुत मुश्किल काम होता है । फिर समझाने के लिए एक उदाहरण लेता हूँ

 ऎ   मेरे   हम नशीं 
चल कहीं और चल

इसकी तक़्तीअ कर के देखते है
 2 1 2       /   2  1 2   =212---212
ऎ मिरे       / हम नशीं
2    1   2  /  2 1  2   =212---212
चल कहीं / औ र चल

 दो मिसरा और सुने
 ढूँढते ढूँढते मैं
कहाँ आ गया
अब इसकी तक़्तीअ कर के देखते हैं

212 /212 =212---212
ढूँढते   ढूँढते
2 1 2   /  212 = 212-212
मैं कहां /आ गया

शे’र  मे अरूज़ और जर्ब के मुक़ाम पर ’ फ़ाइलान ’ यानी  2121 भी लाया जा सकता है
इस बात की चर्चा आगे करेंगे जब मुतदारिक बह्र पर ज़िहाफ़ात की चर्चा करेंगे

2- बह्र-ए-मुतदारिक मुसद्दस सालिम  [212-212--212] 
  फ़ाइलुन--फ़ाइलुन--फ़ाइलुन  [मिसरा में 3-बार और शे/र में 6-बार ]

उदाहरण -कमाल अहमद सिद्दिक़ी साहब के हवाले से

जब नज़र से नज़र मिल गई 
 दिल की गोया कली खिल गई

इसकी तक़्तीअ कर के देखते हैं
2    1  2   / 2  1  2   / 2  1  2 =212---212---212
जब नज़र / से नज़र  /मिल गई
2       1    2  / 2 1  2   /2   1  2 =212---212---212
 दिल कि गो / या कली / खिल गई

इस हक़ीर फ़क़ीर का भी इसी बहर में एक -दो ग़ैर मयारी शे’र बर्दाश्त कर लें ,गर नागवार न गुज़रे तो

मुठ्ठियां इन्क़लाबी रही
पाँव लेकिन फ़िसलता गया

जिससे ’आनन’ को उम्मीद थी
वो भरोसे  को छलता  गया

 बात स्पष्ट करने के लिए -एक शे’र की तक़्तीअ कर रहा हूँ
2    1   2   / 2  1    2/  2  1 2   =  212---212---212
मुठ् ठि या / इन क ला /बी रही
2  1  2 / 2     1    2     / 2 1 2  =   212---212--212
पाँ व ले/ किन फ़ि सल  /ता गया

एक शे’र और मुलाहिज़ा फ़र्माएं

अब तो उठिए  बहुत सो लिए
खिड़कियाँ तो ज़रा खोलिए

 जो मिला प्यार से हम मिले
बाद उस के ही हम हो लिए 

एक शे’र की तक़्तीअ कर रहा हूं~
 2     1    2 / 2 1   2   /  2 1 2 =212---212---212
अब त उठि/ ए  ब हुत / सो लिए
2      1   2  / 2   1 2  /  2 1 2 =212---212---212
खिड़ कि याँ /तो ज़रा   /खोलिए

शे’र  मे अरूज़ और जर्ब के मुक़ाम पर ’ फ़ाइलान ’ यानी  2121 भी लाया जा सकता है
इस बात की चर्चा आगे करेंगे जब मुतदारिक बह्र पर ज़िहाफ़ात की चर्चा करेंगे

दूसरे शे’र की तक़्तीअ आप खुद कर  मुतमुईन [निश्चिन्त] हो जाये
ख्याल रहे बहर की माँग के मुताबिक --के--से--है--तो--को---पर मात्रा गिराई जा सकती है

इस बहर की मुज़ाइफ़ शकल  भी हो सकती है यानी  बह्र-ए-मुतदारिक मुसद्दस सालिम मुज़ाइफ़  [ 212--212---212--212---212----212-] यानी एक मिसरा मे 6-रुक्न और शे’र मे 12 रुक्न]

3- बह्र-ए-मुतदारिक मुसम्मन सालिम [ 212--212--212---212 ]
फ़ाइलुन---फ़ाइलुन---फ़ाइलुन---फ़ाइलुन 

हम पहले भी कह चुके हैं कि ये दोनो बह्र .मुतक़ारिब और मुतदारिक जिन्हे 5-हर्फ़ी [ख़म्मासी ] रुक्न कहते है उर्दू शायरी में हिन्दी से बाद में आई [यानी रमल,रज़ज,हजज़,कामिल वाफ़िर-7-रुक्नी वज़न जिसे सुबाई रुक्न भी कहते है के बाद]
और इन दोनो में  भी मुतदारिक पहले आया  जब कि मुतक़ारिब वज़न बाद में आया । शायद इसका कारण ये हो कि हिन्दी गीतों में यह छन्द  संस्कॄत में [फिर बाद में हिन्दी में] उर्दू रुक्न से बहुत पहले से प्रचलन  में था। याद करे
हिन्दी छन्द शास्त्र में दशाक्षरी सूत्र -यमाताराजभानसलगा -[यगण--मगण--तगण--रगण---] पहले से था

यगण= यमाता = 1 2 2 = फ़ऊलुन
यमाता--यमाता--यमाता--यमाता
122--122----122----122
यगण----यगण---यगण----यगण

फ़ऊलुन--फ़ऊलुन--फ़ऊलुन--फ़ऊलुन = बहर-ए-मुतक़ारिब मुसम्मन का वज़न है

और यही बात
रगण  = राजभा = 212 = फ़ाइलुन
राजभा--राजभा---राजभा---राजभा
रगण---रगण---रगण--रगण
212---212---212---212--
फ़ाइलुन---फ़ाइलुन--फ़ाइलुन--फ़ाइलुन = बहर-ए-मुतदारिक मुसम्मन सालिम है

इसी तरह इसी दशाक्षरी सूत्र से हम बहर-ए-मुतदारिक मुसद्दस सालिम या मुरब्ब: सालिम भी परिभाषित कर सकते है जैसे

रगण---रगण--रगण
राजभा----राजभा---राजभा
212-------212------212-
इन दोनो में फ़र्क़ यही है कि एक ’मात्रिक छन्द’ पर आधारित है जब कि दूसरा ’वार्णिक छन्द’ पर आधारित है
उर्दू शायरी में तक़्तीअ ’तलफ़्फ़ुज़’ [उच्चारण] के आधार पर चलती है  यानी " मल्फ़ूज़ी ग़ैर मक़्तूबी ’[यानी उच्चारण में तो आये पर लिखने में न आये ] पर आधारित है ,न कि मक़्तूबी ग़ैर मल्फ़ूज़ी’ [यानी लिखने में लिखा तो जाये पर उच्चारण मे न आए ]
इन दोनो पर चर्चा कभी बाद में करेंगे

आ0 कवि कुँवर जी ’बेचैन’ जी ने अपनी किताब -ग़ज़ल का व्याकरण ’-में और हमारे कुछ  फ़ेसबुक के मित्र  इस दिशा में कार्य कर रहे हैं  और ग़ज़ल को गीतिका का नाम भी दिया है कि उर्दू की बहर और हिन्दी के छन्द को एक प्लेट फ़ार्म पर लाया जा सके
खैर हम यहाँ  अपनी बातचीत उर्दू के रुक्न तक ही महदूद [सीमित] रखेंगे

हम पहले भी कह चुके हैं कि यह दोनो बहूर [ मुतक़ारिब और मुतदारिक] बड़ी ही मानूस /लोकप्रिय बह्र है और उसमें भी ’मुसम्मन’ और मुसम्मन मुज़ाइफ़’ का तो जवाब ही नहीं \दौर-ए-क़दीम [पुराने समय ]का तो नहीं मालूम ,मगर दौर-ए-हाज़िर [वर्तमान काल ]
के अमूमन सभी शो;अरा  ने इस बहर में शायरी की है
बह्र-ए मुतदारिक मुसम्मन के चन्द उदाहरण पेश करते है

आज फिर से मुहब्बत की बातें करो
दिल है तनहा  रफ़ाकत की बाते करो

बाद मुद्दत के आए हो ’आनन’ के घर
पास बैठो न रुख़सत  की बाते करो

एक शे’र की तक़्तीअ कर के दिखा रहा हूँ
 2  1    2    /  2  1  2  / 2   1  2   / 2 1 2  = 212---212---212----212
आज फिर / से  मु ह्ब /बत क बा /तें क रो
2     1    2  /  2  1 2 / 2  1     2  / 2 1 2   =2 12---212---212---212
दिल है तन/ हा  र फ़ा/कत क बा /ते क रो

एक दूसरा उदाहरण लेते है -फ़ना कानपुरी साहब  का एक शे’र है

इन बुतों की मुहब्बत भी क्या चीज़ है
दिल्लगी दिल्लगी  में ख़ुदा  मिल गया

इसकी तक़्तीअ पेश करते है
2   1    2  /   2  1  2  / 2   1  2    /  2 1 2  =  212---212---212---212
इन बु तों /  की मु ह्ब /बत भी क्या /ची ज़ है
 2    1   2  /  2   1   2   / 2  1 2  / 2   1  2 =   212---212---212---212
दिल ल गी / दिल ल गी  /में ख़ु दा / मिल ग या

एक बात और
शे’र  मे अरूज़ और जर्ब के मुक़ाम पर ’ फ़ाइलान ’ यानी  2121 भी लाया जा सकता है
इस बात की चर्चा आगे करेंगे जब मुतदारिक बह्र पर ज़िहाफ़ात की चर्चा करेंगे

  212--212--2121
फ़ाइलुन---फ़ाइलुन--फ़ाइलान

 जाँ निसार अख्तर साहब का एक शे’र मुलाहिज़ा फ़र्माएं

और क्या है सियासत के बाज़ार में
कुछ खिलौने सजे हैं दुकानों के बीच

अब इस की तक़्तीअ देखते है
   2 1  2   / 2 1  2  / 2   1   2  / 2 1 2     = 212---212---212---212
औ र क्या /है सि या/ सत क बा /ज़ा र में
  2    1   2   / 2 1 2  / 2 1  2 / 2 1  2 1  = 212---212---212---2121
कुछ खि लौ/ने स जे /हैं दु का /नों के बीच

मुसम्मन सालिम  का मुज़ाइफ़ वज़न भी होता है

4- बह्र-ए-मुतदारिक मुसम्मन सालिम मुज़ाइफ़ [ 212--212--212--212---212---212--212--212 ] इसे 16-रुक्नी बहर भी कहते है
फ़ाइलुन---फ़ाइलुन----फ़ाइलुन---फ़ाइलुन---फ़ाइलुन---फ़ाइलुन----फ़ाइलुन---फ़ाइलुन
[यानी एक मिसरा में 8-रुक्न और पूरे शे’र मे 16-रुक्न ]

सरवर आलम राज़ ’सरवर’ के हवाले से राज़ इलाहाबादी का एक शे’र पेश करता हूँ

आशियाँ जल गया गुलिस्ताँ लुट गया ,हम क़फ़स से निकल कर किधर जायेंगे
इतने मानूस सैय्याद से हो गए  , अब रिहाई मिली भी तो  मर जायेंगे

[मानूस = परिचित]
अब इसकी तक्तीअ कर के देख लेते है कि यह शे’र कहाँ तक वज़न में या बह्र में है
 2 1    2   / 2   1   2 / 2    1   2  ’  2   1  2 / 2   1   2     / 2  1  2    / 2   1    2   / 2  1 2    =  212---212---212---212---212---212--212---212
आ शि याँ /जल ग या /गुल सि ताँ  /लुट ग या /,हम क़ फ़स /से नि कल /कर कि धर /जा ये गे
2     1  2  / 2 1 2/ 2 1 2 /  2  1 2 /   2  1    2  / 2 1 2/   2  1   2   /  2 1 2   =    212---212--212----212---212---212--212--212
इत ने मा/नू स सै/या  द से / हो ग ए  /, अब रि हा/ई मि ली /भी तो  मर/ जायेंगे

16-रुक्नी बहर के बारे में एक बात ध्यान देने की है कि मिसरा में हर चार रुक्न के बाद एक ’ठहराव’ होना ज़रूरी है जिसे अरूज़ की भाषा में ’अरूज़ी वक़्फ़ा’ कहते हैं हिन्दी में इसे आप ’मध्यान्तर ’ कह सकते हैं।कारण कि उर्दू शायरी का मिजाज़ ही ऐसा है इसका मतलब यह हुआ कि आप को जो बात कहनी है वह वक़्फ़ा के पहले हिस्से में [पूर्वार्ध मे] कह लीजिये और दूसरी बात वक़्फ़ा के दूसरे हिस्से [यानी उत्तरार्ध में] कहिए। यानी ये नही होगा कि आप की बात ”चौथे और पाँचवे’ रुक्न मिलाकर पूरी हो या
spill over हो जाये ।यदि ऐसा है तो बहर  ’शिकस्ता’ कहलायेगी और अगर ऐसा नहीं है तो बहर ’शिकस्ता ना-रवा’ कहलायेगी

इस क़िस्त मे हमने बहर-ए-मुतदारिक की सालिम वज़न और उनकी मुरब्ब: ,मुसद्दस मुसम्मन और मुज़ाइफ़ शकल पर चर्चा की है । आप को अगर मुरब्ब: की और मिसाल कहीं से दस्तयाब [प्राप्य] हो तो इस राक़िम उल हरूफ़ [लेखक] को ज़रूर बताइएगा कि मेरी डायरी में ऐसे अश’आर का इज़ाफ़ा हो सके
अब आप को कम अज कम मुतक़ारिब और  मुतदारिक बहर की पहचान करने में आसानी हो जायेगी
अगली किस्त में हम बहर--मुतदारिक की मुज़ाहिफ़ बहर यानी इस पर लगने वाले ज़िहाफ़ात की चर्चा करेंगे

मुझे उमीद है कि मुतदारिक के सालिम बहर से बाबस्ता कुछ हद तक मैं अपनी बात कह सका हूँ । बाक़ी आप की टिप्पणी का इन्तज़ार रहेगा

--इस मंच पर और भी कई साहिब-ए-आलिम मौज़ूद हैं उनसे मेरी दस्तबस्ता [ हाथ जोड़ कर] गुज़ारिश है कि अगर कहीं कोई ग़लत बयानी या ग़लत ख़यालबन्दी  हो गई हो तो निशान्दिही ज़रूर फ़र्मायें ताकि मैं ख़ुद को  दुरुस्त कर सकूं ।बा करम मेरी मज़ीद [अतिरिक्त] रहनुमाई फ़र्माये ।मम्नून-ओ-शुक्रगुज़ार रहूँगा।

अभी नस्र के कुछ बयां और भी हैं..........
ज़िहाफ़ात् के कुछ निशां और भी हैं.....

एक बात बड़े ही अदब से एतराफ़ [स्वीकार] करता हूँ कि इन तमाम अक़्सात ,तज़्क़िरात  और तहरीर के लिए अपने आलिम अरूज़ी साहिबान  कमाल अहमद सिद्द्क़ी साहब , डा0 शम्सुर्र्हमान फ़ारुक़ी साहब ,आलिम जनाब  सरवर आलम राज़ ’सरवर ’ साहब  , अजीज  दोस्त डा0 आरिफ़ हसन ख़ान साहब  का तह-ए-दिल  से मम्नून-ओ-शुक्र गुज़ार हूँ जिनकी किताबों से  कुछ पढ़ सका ,समझ सका और लिख सका ।वगरना इस हक़ीर इतनी  बिसात कहाँ  औक़ात कहां । इन तज़्क़िरात में  मेरा कुछ भी अपना नहीं है बस  आलिम साहिबान  के अरूज़ पर किए गए कामों का हिन्दी तर्जुमा समझिए........

[नोट् :- पिछले अक़सात  [क़िस्तों ]के आलेख [ मज़ामीन ]आप मेरे ब्लाग पर  भी देख सकते हैं 

www.urdu-se-hindi.blogspot.com
or
www.urdusehindi.blogspot.com
-आनन्द.पाठक-
0880092 7181



2 टिप्‍पणियां:

  1. बेहद उम्दा पोस्ट, बहुत बहुत शुक्रिया

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  2. 'फ़ायलातुन मुफ़ाइलुन' बहर में "वो निगाहें सलीब हैं,
    हम बहुत बदनसीब हैं।" दुष्यंत कुमार की ग़ज़ल है।
    बहरों की सूची में भी यह बहर नहीं दिखी। कृपया जानकारी दें।

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