उर्दू बह्र पर एक बातचीत : क़िस्त 40 [ बहर-ए-रजज़ की मुज़ाहिफ़ बहरें]
Discliamer clause -वही जो क़िस्त 1 में है
--रजज़ का बुनियादी रुक्न है --’मुस् तफ़् इलुन्’ [2212]--[यानी सबब + सबब+वतद]
सबब से मेरी मुराद ’सबब-ए-ख़फ़ीफ़’ से है और वतद से मेरी मुराद ’ वतद-ए-मज्मुआ’ से है
और् जो भी ज़िहाफ़ लगेगा ,वो इसी सालिम रुक्न पर लगेगा [ यानी इसके ’सबब’ और’वतद’ वाले टुकड़े पर लगेगा]
वैसे तो एकल ज़िहाफ़ [फ़र्द] ,मिश्रित ज़िहाफ़ [ मुरक़्कब] या फिर साकिन के अमल से बनने वाले मुज़ाहिफ़ ,कुल मिलाकर इसके ज़िहाफ़ात लगभग 25-30 के आस-पास बैठता है ।
कुछ फ़र्द ज़िहाफ़ जो ’मुस तफ़ इलुन’[2212] पर लगेंगे वो हैं-----
[1] ख़ब्न ---तय्यी---क़तअ--रफ़अ---जदअ--हज़ज़----इज़ाला ---वग़ैरह वग़ैरह
कुछ मुरक़्क़ब ज़िहाफ़ जो ’मुस तफ़ इलुन’ [2212] पर लगेंगे वो निम्न है} [मुरक़्क़ब ज़िहाफ़ वो ज़िहाफ़ होते है जो दो या दो से अधिक फ़र्द ज़िहाफ़ से मिल कर बनते है और ’मुस तफ़ इलुन" के अवयव [टुकड़े सबब या वतद पर] एक साथ अमल करते है
[2] ख़ब्ल [=ख़ब्न +तय्यी]
तय्यी+क़तअ
ख़लअ [=ख़ब्न+क़तअ]
जदअ+क़तअ
ख़ब्न+इज़ाला
्वग़ैरह---वग़ैरह--
[3] मुज़ाहिफ़ रुक्न पर तस्कीन का अमल होगा जहाँ किसी मुज़ाहिफ़ रुक्न में " तीन साकिन’ एक साथ जमा हो जायें जैसे--मुफ़तइलुन[2112]
वैसे भी कोई शायर इन तमाम मुज़ाहिफ़ बहूर में एक साथ शायरी तो नही करता।उन तमाम ज़िहाफ़ की चर्चा करना Academic discussion लिहाज़ से तो ठीक है ,मगर जो ख़ास ख़ास और मक़्बूल ज़िहाफ़ हैं उन्हीं पर यहाँ चर्चा करना मुनासिब होगा ।
मुस् तफ़् इलुन् [2212] पर् लगने वाले ख़ास ख़ास ज़िहाफ़ --
मुस् तफ़् इलुन् [2212] +ख़ब्न =मख़्बून =मफ़ाइलुन [ 1212]
मुस् तफ़् इलुन् [2212] +तय्यी =मुतव्वी = मुफ़तइलुन [ 2112]
मुस् तफ़् इलुन् [2212] +तय्यी+तस्कीन =मुतव्वी मुसक्किन= मफ़ऊलुन [222] = यह आम ज़िहाफ़ है
मुस् तफ़् इलुन् [2212] +क़तअ = मक़्तूअ =मफ़ऊलुन [222] = यह ज़िहाफ़ अरूज़ और ज़र्ब के लिए ख़ास है
मुस् तफ़् इलुन् [2212] +ख़लअ =मख़्लूअ = फ़ऊलुन [122]
मुस् तफ़् इलुन् [2212] +रफ़अ = मरफ़ूअ=फ़ाइलुन [ 212] = यह सदर और इब्तिदा के लिए मख़्सूस है
मुस् तफ़् इलुन् [2212] +इज़ाला =मज़ाल = मुफ़ त इलान [ 21121] = यह अरूज़ और ज़र्ब के लिए मख़्सूस है
मुस् तफ़् इलुन् [2212] + तरफ़ील =मुरफ़्फ़ल=मुस् तफ़्इलातुन् [ 22122]
मुस् तफ़् इलुन् [2212]+ तय्यी+तरफ़ील = मुतव्वी मुरफ़्फ़ल= मुफ़ त इलातुन = 21122
मुस् तफ़् इलुन् [2212]+ खब्न+तरफ़ील = मख़्बून मुरफ़्फ़ल = मफ़ाइलातुन = 12122
रजज़ कीसालिम बहरों पर चर्चा पिछले क़िस्त 39 में कर चुके हैं । अब इनकी मुज़ाहिफ़ बहूर की चर्चा करेंगे।
मुरब्ब: मुज़ाहिफ़:-
[1] बहर-ए-रजज़ मुरब्ब: मुतव्वी /मज़ाल
मुफ़तइलुन-------मुफ़तइलुन--/मुफ़त इलान
2 1 1 2---------2 112 ’/ 2 1 1 2 1
उदाहरण :
तीर-ए-नज़र दिल पे लगी
हाय ! ख़ुदा ख़ैर करे
तक़्तीअ’ भी देख लेते है
2 1 1 2 / 2 1 1 2
तीर--नज़र / दिल पे लगी
2 1 1 2 / 2 1 1 2
हाय ! ख़ुदा/ ख़ैर करे
मज़ाल का भी एक मिसाल देख लेते हैं [कमाल साहब के हवाले से]
देख ये अन्जाम-ए-बहार
चारो तरफ़ ख़ार ही ख़ार
अब तक़्तीअ’ भी देख लेते है
2 1 1 2 / 2 1 1 2 1
देख ये अन / जाम-ए-बहार
2 1 1 2 / 2 1 1 2 1
चा रू तरफ़ / ख़ार ही ख़ार
अरूज़ और ज़र्ब में मुफ़ त इलुन [2 1 1 2 ] की जगह ’मज़ाल’ मुफ़ त इलान [ 21121] या मज़ाल मुफ़त इलान[21121] की जगह मुफ़ त इलुन [ 2112] लाया जा सकता है -इजाज़त है
इसकी ’मुज़ाइफ़’ [दो गुनी] शकल भी मुमकिन है
अच्छा ,लगे हाथ -तस्कीन के अमल की भी चर्चा कर लेते है
चूँकि मुफ़ त इलुन [2 1 1 2] में 3-मुतहर्रिक एक साथ आ गया है तो ’तस्कीन’ का अमल हो सकता है यानी ’मुस त फ़ लुन" [ 2 1 1 2 ] तब 222 हो जायेगा और इसे ’मफ़ऊलुन’ [222] से बदल लेंगे यानी
2112-----222- भी एक वज़न हो सकता है या [अगर अरूज़/ज़र्ब पर तस्कीन का अमल करते है तो]
और बहर का नाम होगा---बहर-ए-रजज़ मुरब्ब: मुतव्वी मुसक्किन /मज़ाल
222-----2112 भी एक वज़न हो सकता हौ [ अगर सदर/इब्तिदा पर तस्कीन का अमल करते है तो ]
मगर ख़याल रहे --तस्कीन का अमल एक साथ दोनो मुक़ाम पर एक साथ नहीं कर सकते । क्यों?
वो इस लिए कि --अगर आप दोनो रुक्न पर ’तस्कीन’ का अमल एक साथ करेंगे तो बहर हो जायेगी
222---222- या 22--22--22--यानी बहर बदल जायेगी और वज़न ’मुतक़ारिब’ या ’मुतदारिक" की कोई मुज़ाहिफ़ बह्र हो जायेगी। और आप जानते ही हैं कि तस्कीन के अमल में एक शर्त [क़ैद] यह भी है कि अमल से बहर न बदल जाये। अत: तस्कीन का अमल दोनो मुक़ाम पर एक साथ नहीं हो सकता। यही बात ’मुसद्दस’ या ’मुसम्मन’ पर भी लागू होगा।
[2] बहर-ए-रजज़ मुसद्दस मुतव्वी /मज़ाल
मुफ़ त इलुन----मुफ़ त इलुन----,मुफ़ त इलुन / मुफ़ त इलान
2 1 1 2 ------2 1 1 2-------2 1 1 2 / 2 1 1 2 1
[ -ते- ऐन--लाम मुतहर्रिक है ---यानी 3-मुतहर्रिक एक साथ आ गया है यहाँ]
उदाहरण डा0 आरिफ़ हसन ख़ान साहब के हवाले से
मेरी मुहब्बत का हसीं ख़्वाब हो तुम
अपनी निगाहों में बसाया है तुम्हें
तक़्तीअ’ कर के देख लेते है जिससे बात साफ़ हो जाये
2 1 1 2 / 2 1 1 2 / 2 1 1 2
मेरी मु हब् /बत का हसीं / ख़ाब हो तुम
2 1 1 2 / 2 1 1 2 / 2 1 1 2
अप नी निगा / हों में बसा / या है तु मे
अरूज़ और ज़र्ब में मुफ़ त इलुन [2 1 1 2 ] की जगह ’मज़ाल’ [ 21121] या मज़ाल [21121] की जगह मुफ़ त इलुन [ 2112] लाया जा सकता है -इजाज़त है
और अरूज़ और ज़र्ब के मुक़ाम पर जो ’मुफ़ त इलुन’ [2112] दिख रहा है वो ’तस्कीन-ए-औसत की अमल से [222] "मफ़ ऊ लुन ’ भी किया जा सकता है । तब बह्र के नाम में ’मुसक्किन’ लफ़्ज़ और बढ़ जायेगा।
यहाँ भी ’तस्कीन’ के अमल से अतिरिक्त वज़न प्राप्त किया जा सकता है अगरचे यहाँ पर वो सभी मज़ीद वज़न दिखाया नहीं गया है मगर आप कर सकते है।
[3] बह्र-ए-रजज़ मुतवी मरफ़ूअ’ .मज़ाल
मुफ़तइलुन----मुफ़त इलुन--- फ़ाइलुन \फ़ाअ लान
2 1 1 2 ---2 1 1 2------212 \2121
उदाहरण : मीर का एक शे’र है
इश्क़ में नै ख़ौफ़-ओ-ख़तर चाहिए
जान को देने को जिगर चाहिए
ख़ौफ़ क़यामत का यही है कि ’मीर’
हम को जिया बार-ए-दीगर चाहिए
तक़्तीअ कर के देख लेते है
2 1 1 2 / 2 1 1 2 / 2 1 2
इश् क में नै / ख़ौफ़--ख़तर /चाहिए
2 1 1 2 / 2 1 1 2 / 2 1 2
जान को दे /ने को जिगर / चाहिए
2 1 1 2 / 2 1 1 2 / 2 1 2 1
ख़ौफ़ क़या/ मत का यही / है कि ’मीर’
2 1 1 1 / 2 1 1 2 / 2 1 2
हम को जिया / बार-- दिगर /चाहिए
[ नोट :- उर्दू में शे’र के वज़न को मिलाने के लिए ’न’ [1] को कभी कभी ’नै’ या ’नइ’ [2] के वज़न पर लिखते है और बोलते है। यहां मतला के मिसरा उला में उसी का प्रयोग हुआ है।
[ नोट : मकता के मिसरा उला में अरूज़ के मुक़ाम पर मुज़ाहिफ़ "मरफ़ूअ’ मज़ाल’" का प्रयोग किया गया है जो रवा है।
[यहाँ भी ’मुफ़ त इलुन" 2112 पर तस्कीन का अमल हो सकता है ।
[4] बहर-ए-रजज़ मुसम्मन मुतव्वी / मज़ाल
मुफ़ त इलुन----मुफ़ त इलुन----,मुफ़ त इलुन -----मुफ़ त इलुन----/मुफ़त इलान
2 1 1 2 -----2112-----------2112----------2112---------/ 21121
उदाहरण : डा0 आरिफ़ हसन खान साहब के हवाले से
अपनी निगाहों से मुझे यार गिराना न कभी
ख़्वाब मेरी चाह का मिट्टी में मिलाना न कभी
अब तक़्तीअ कर के देखते हैं
2 1 1 2 / 2 1 1 2/ 2 1 1 2/ 2 1 1 2
अप नि निगा / हों से मुझे / यार गिरा /ना न कभी
2 1 1 2 / 2 1 1 2 / 2 1 1 2 / 2 1 1 2
ख़ा ब मिरी / चाह का मिट् / टी में मिला / ना न कभी
अरूज़ और ज़र्ब में मुफ़ त इलुन [2 1 1 2 ] की जगह ’मज़ाल’ [ 21121] या मज़ाल [21121] की जगह मुफ़ त इलुन [ 2112] लाया जा सकता है -इजाज़त है
यहाँ भी ’तस्कीन’ के अमल से अतिरिक्त वज़न प्राप्त किया जा सकता है
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अब ज़रा ,"ख़ब्न और तय्यी" ज़िहाफ़ की भी चर्चा कर लेते हैं
[5] बहर-ए-रजज़ मुरब्ब: मुतव्वी मख़्बून \ मख़्बून मज़ाल
मुफ़ तइलुन---मफ़ा इलुन \मफ़ाइलान
2 1 1 2-----12 12 \ 1 2 1 21
आप जानते है कि ’मुस तफ़ इलुन"[ 2 2 12 ] का मुतव्वी-- मुफ़ त इलुन [ 2 1 12] है , इसका ’मख़्बून -मुफ़ाइलुन’[1212] है और मज़ाल - मुफ़त इलान [ 12121] है --ऊपर देखे
अब बहर आसान हो गई होगी समझने में
कमाल अहमद सिद्दिक़ी साहब के हवाले से
ऐन हजूम-ए-फ़िक्र में
आप का आ गया ख़याल
तक़्तीअ कर के भी देख लेते हैं
2 1 1 2 / 1 2 1 2
ऐन हजू / में -फ़िक् र में
2 1 1 2 / 1 2 1 2 1
आप का आ/ गया ख़याल
यहाँ ज़र्ब में ’मज़ाल’ मुज़ाहिफ़ का प्रयोग हुआ है । यहाँ मफ़ा इलुन [1212] भी लाया जा सकता है .इजाज़त है।
[6] बहर-ए-रजज़ मुसम्मन मुतवी मख्बून
मुफ़तइलुन---मफ़ा इलुन----//मुफ़ त इलुन ---मफ़ाइलुन
2112-------1212----------// 2112---------1212
यह बहर शिकस्ता है -बहर-ए-शिकस्ता के बारे में पहले भी चर्चा कर चुका हूं
मफ़ाइलुन [1212] की जगह मफ़ाइलान [ 12121] लाने की इजाज़त है
उदाहरण :- ग़ालिब की एक ग़ज़ल है आप ने भी सुनी होगी
दिल ही तो है न संग-ओ-ख़िश्त दर्द से भर न आए क्यों
रोयेंगे हम हज़ार बार कोई हमें सताए क्यों
दैर नहीं ,हरम नहीं ,दर नहीं ,आस्तां नहीं
बैठे हैं रह गुज़र पे हम ,ग़ैर हमें उठाए क्यों
एक शे;रकी तक़्तीअ कर के देखते है
2 1 1 2 / 1 2 1 2 // 2 1 1 2 / 1 2 1 2
दैर नहीं /,ह रम नहीं ,// दर नहीं ,आ /स् ताँ नहीं
2 1 1 2 / 1 2 1 2 // 2 1 1 2 / 1 2 1 2
बैठे हैं रह / गु ज़र पे हम //,ग़ैर हमें / उठाए क्यों
एक बात ध्यान दें---मिसरा सानी में अगर ---" बैठे हैं रहगुज़र पर हम----" कह दें तो क्या हो जायेगा? मानी मैं तो कोई फ़र्क़ नहीं पड़ेगा मगर शे;र वज़न से ’खारिज़’ हो जायेगा } क्यों ?
क्यों कि -पे’ जहाँ है वहाँ मुतहर्रिक हर्फ़ की माँग है --"पर" का वज़न [सबब-ख़फ़ीफ़ [2] का हो जायेगा । और यही होती है शे’र और वज़न की बारीक़ियाँ
बहर-ए-शिकस्ता इस लिए कि बात इस अलामत // के पहले ही ख़त्म हो जाती है .तक़्तीअ में कोई लफ़्ज़ का हर्फ़ // के उस पार नहीं जा रहा है
बाक़ी की तक़्तीअ आप कर लें -आसान है।
[7] बहर-ए-रजज़ मुसम्मन मख़्बून मुतव्वी
मफ़ाइलुन------मुफ़ त इलुन------// मफ़ाइलुन----मुफ़ त इलुन
1212------------2112--------// 1212------2 1 1 2
बहर [5] और बहर [6] ध्यान से देखें -- कुछ नहीं किया बस ’मुतव्वी’ और ’मख़्बून’ का स्थान एक दूसरे से बदल दिया और नाम उसी के अनुसार रख दिया
यह बह्र भी शिकस्ता है। शिकस्ता बह्र के बारे पहले ही चर्चा कर चुका हूँ । अरूज़ और ज़र्ब में मुतवी की जगह ’मुतव्वी मज़ाल [ मफ़ाइलान=12121] भी लाया जा सकता है
उदाहरण-डा0 आरिफ़ हसन खान साहब के हवाले से
सुनो सुनो हम वतनो //,ज़रा सुनो मेरी जुबान
बताओ सच तुम को क़सम //,कभी सुनी ऐसी जुबान
तक़्तीअ कर के देख लेते हैं
1 2 1 2 / 2 1 1 2 // 1212 / 12 1 2
सुनो सुनो / हम वतनो //,ज़रा सुनो /मिरी जुबाँ
1 2 1 2 / 2 1 1 2 // 1 2 1 2 / 1 2 1 2
बताओ सच / तुम को क़सम //,कभी सुनी / ऐसी जुबाँ
इस में अरूज़ और ज़र्ब के मुक़ाम पर ’मुफ़ त इलान’ [21121] भी लाया जा सकता है चाहे आप एक मुक़ाम पे लाएँ या दोनो मुक़ाम पे लाएँ।
उदाहरण -- बिलकुल आप के सामने है \ कहीं दूर जाने की ज़रूरत नही हैं] ,ऊपर के उदाहरण में अरूज़ और ज़र्ब के मुक़ाम पर जो ’ मिरी ज़ुबाँ’ [1212] है , बस उसे ’ मिरी’जुबान’ [12 121] लिख दें । कितना आसान है।
[8] बहर-ए-रजज़ मुसम्मन मरफ़ूअ मख़्बून
फ़ाइलुन---मफ़ाइलुन----// फ़ाइलुन----मफ़ाइलुन
212---------1212-----// 212-------1212
आप जानते हैं कि मुस तफ़ इलुन [ 2212] का मरफ़ूअ [ रफ़अ ज़िहाफ़ लगा हुआ] फ़ाइलुन [212] है [ऊपर देखें] और यह सदर और इब्तिदा ले लिए मख़्सूस है
[अत: बहर [5] और [6] की तरह यहाँ " मख़्बून---मरफ़ूअ’ की तरतीब नहीं कर सकते कारण मरफ़ूअ जब भी आयेगा तो सदर और इब्तिदा के मुक़ाम पर ही आयेगा न कि हस्व के मुक़ाम पर]
उदाहरण : डा0 ख़ान साहब के ही हवाले से
हक़ से हूँ मै बेख़बर मुझ को रास्ता देखा
मुझ को हर गुनाह से ऎ मेरे ख़ुदा बचा
अब तक़्तीअ कर के भी देख लेते हैं
2 1 2/ 1 2 1 2 // 2 1 2 / 1 2 1 2
हक़ से हूँ / मै बे ख़बर // मुझ को रा / स ता दिखा
2 1 2 / 1 2 1 2 // 2 1 2 / 1 2 1 2
मुझ को हर / गुनाह से // ऎ मिरे / ख़ुदा बचा
[9] बहर-ए-रजज़ मुसद्दस मख़्बून मरफ़ूअ मख़्लूअ
मफ़ाइलुन-----फ़ाइलुन----फ़ऊलुन
1212----------212-------122
उम्मीद है कि अब तो आप " मुसतफ़इलुन" [2212] का मख़्बून और मरफ़ूअ तो आप समझ गए होंगे ,ऊपर चर्चा कर चुका है } हाँ ’मुसतफ़ इलुन [ 2 2 12] पर ’ख़लअ ’ ज़िहाफ़ लगाने पर मुज़ाहिफ़ मख़्लूअ ’फ़ऊलुन’ [122] होता है
अत: बह्र का नाम भी उसी अनुसार लिखा जाता है
उदाहरण-डा0 आरिफ़ हसन ख़ान साहब के हवाले से
जला रहे हैं जो घर को मेरे
वो मेरे भाई हैं जानता हूं
तक़्तीअ’ कर के देख लेते हैं
1 2 1 2 / 2 1 2 / 1 2 2
जला रहे/ हैं जो घर / को मेरे
1 2 1 2 / 2 1 2 / 1 2 2
वो मेरे भा/ ई हैं जा / नता हूं
[10] बहर-ए-रजज़ मुसम्मन मख़्बून मुरफ़्फ़ल
मफ़ाइलातुन----मफ़ाइलातुन---मफ़ाइलातुन---मफ़ाइलातुन
12122---------12122-------12122---------12122
उदाहरण ; ’अदम’ का एक शे’र
ग़म-ए-ज़माना सता रहा है ,ग़म-ए-ज़माना मसल रहा है
मगर मेरे दिन गुज़र रहे हैं ,मगर मेरा वक़्त टल रहा है
अब तक़्तीअ भी कर के देख लेते हैं
12 122 /12 122 / 1 2 122 / 1 2 1 2 2
ग़मे ज़माना / सता रहा है / ,ग़मे ज़माना / म सल रहा है
1 2 1 2 2 / 1 2 122 / 12 1 2 2 / 1 2 1 2 2
म गर मिरे दिन /गुज़र रहे हैं ,/ मगर मिरा वक़्/ त टल रहा है
जोश मलीहाबादी का एक शे’र है
मिला जो मौक़ा तो रोक दूँगा जलाल रोज़-ए-हिसाब तेरा
पढूँगा रहमत का वो क़सीदा कि हँस पड़ेगा इताब तेरा
अब तक़्तीअ भी कर के देख लेते हैं
1 2 1 2 2 / 1 2 1 2 2 / 1 2 1 2 2 / 1 2 1 2 2
मिला जो मौक़ा / तो रो क दूँगा / जला ल रोज़े /हिसा ब तेरा
1 2 1 2 2 / 1 2 1 2 2 / 1 2 1 2 2 / 1 2 1 2 2
पढूँ गा रहमत / का वो क़सीदा / कि हँस पड़ेगा / इता ब तेरा
हम यह तो नहीं कहा सकते है कि " मुसतफ़इलुन" [ 2212] पर लगने वाले सभी ज़िहाफ़ की चर्चा कर लिया हूं । अभी भी बहुत से ज़िहाफ़ हैं फ़र्द भी मुरक्क़ब भी मुसक्किन भी जो ’ मुस तफ़ इलुन ’ [2212] पर लगाए जा सकते हैं और लगते भी हैं। आप किसी भी प्रमाणित अरूज़ की किताब में देखी जा सकती है । यहाँ पर सभी की चर्चा करना मुनासिब न होगा ।अत: मात्र मक़्बूल ज़िहाफ़ की ही चर्चा की है
चलते चलते एक वज़न की और चर्चा करते चलते हैं--जो ग़ैर मुनासिब न होगा
एक वज़न है
[11] बहर-ए-रजज़ मुसम्मन मुतव्वी मुरफ़्फ़ल
मुफ़तइलातुन -----मुफ़तइलातुन ------मुफ़तइलातुन -----मुफ़तइलातुन
21122 ---------21122-------------21122------------21122 [ ध्यान रहे-- ते---ऐन-- लाम तीन मुतहर्रिक एक साथ आ गये है अत: ’तस्कीन-ए-औसत’ का अमल लग सकता है । पर चारों मुक़ाम पर एक साथ नहीं लग सकता ,कारण कि तब यह बह्र बदल जायेगी - 22-22--22-22----22-22---22-22
या तो मुतदारिक के वज़न में चली जायेगी या मुतक़ारिब के वज़न में चली जायेगी
अगर आप तस्कीन-ए-औसत का अमल ’एक के बाद एक’ मुक़ाम पर किया जाय तो आप ख़ुद देख लें कि कितना अतिरिक्त वज़न बरामद हो सकता है
एक बात और
21122 को [21-112] में तोड़ा जा सकता है अत: ऊपर के वज़न को इस प्रकार भी लिख सकते है
21--122 ---------21--122-------------21--122------------21--122 --यह मुतक़ारिब के वज़न में आ गया यानी
[फ़अ लु---फ़ऊलुन]---[फ़अ लु---फ़ऊलुन]-----[फ़अ लु---फ़ऊलुन]----[फ़अ लु---फ़ऊलुन]
अब आप चाहें तो इस वज़न को रजज़ के अन्तर्गत रखें या मुतक़ारिब के तहत
ख़ैर इस बहर का एक उदाहरण कमाल अहमद सिद्दीक़ी साहब के हवाले से देख लेते हैं
दार पे मरना नंग नहीं है ,ख़ून है वो मेरा रंग नहीं है
ये न छूटेगा ,ये न कटॆगा ,ये न हटॆगा , ज़ंग नहीं है
तक़्तीअ’ कर के देख लेते हैं
2 1 1 2 2 / 2 1 1 2 2 / 2 1 1 2 2 / 2 1 1 2 2
दार पे मरना / नंग नहीं है / ,ख़ून है मेरा /रंग नहीं है
2 1 1 2 1 / 2 1 1 2 2 / 2 1 1 2 2 / 2 1 1 2 2
ये न छटेगा /,ये न कटॆगा ,/ये न हटॆगा ,/ ज़ंग नहीं है
तस्कीन-ए-औसत के अमल से और भी बहुत सी वज़न बरामद हो सकती है बस नाम में ’मुसक्कन’ जोड़ देगे।
आप के मश्क़ [मिहनत] और फ़न-ए-शायरी पर निर्भर करेगा
मैं यह तो नहीं कह सकता कि रजज़ के मुज़ाहिफ़ बहर का बयान मुकम्मल हुआ पर हाँ काफी बहर पर चर्चा कर लिया जो मक़्बूल-ओ-मारूफ़ हैं } और भी बहर बरामद हो सकती है क्योंकि अभी और भी ज़िहाफ़ात बाक़ी है । तस्कीन के अमल से कई बहर और बरामद हो सकती थी --मगर मैने आप की सुविधा के लिए कि कही आप ’बोर’ न हो जायें या उलझ न जाये और तवालत से बचने के लिए चर्चा नहीं किया। ऐसे बहूर किसी भी अरूज़ की किताब में दस्तयाब [प्राप्य] हो जायेंगी} शायरी /शे’र या गज़ल कहने के लिए ये भी ज़ख़ीरा कम तो नहीं ।
अब अगले क़िस्त में ’बहर-ए-कामिल’ पर चर्चा करेंगे
आप की टिप्पणी का इन्तज़ार रहेगा
--इस मंच पर और भी कई साहिब-ए-आलिम मौज़ूद हैं उनसे मेरी दस्तबस्ता [ हाथ जोड़ कर] गुज़ारिश है कि अगर कहीं कोई ग़लत बयानी या ग़लत ख़यालबन्दी हो गई हो तो निशान्दिही ज़रूर फ़र्मायें ताकि मैं ख़ुद को दुरुस्त कर सकूं ।मेरी मज़ीद [अतिरिक्त] रहनुमाई फ़र्माये ।मम्नून-ओ-शुक्रगुज़ार रहूँगा।
अभी बह्र के कुछ बयां और भी हैं..........
ज़िहाफ़ात् के कुछ निशां और भी हैं.....
एक बात बड़े ही अदब से एतराफ़ [स्वीकार] करता हूँ कि इन तमाम अक़्सात ,तज़्क़िरात और तहरीर के लिए अपने आलिम अरूज़ी साहिबान कमाल अहमद सिद्द्क़ी साहब , डा0 शम्सुर्र्हमान फ़ारुक़ी साहब ,आलिम जनाब सरवर आलम राज़ ’सरवर ’ साहब , अजीज दोस्त डा0 आरिफ़ हसन ख़ान साहब का और कुछ दीगर दोस्तों का तह-ए-दिल से मम्नून-ओ-मश्कूर हूँ जिनकी किताबों से कुछ पढ़ सका ,समझ सका और लिख सका ।वगरना इस हक़ीर में इतनी बिसात कहाँ इतनी औक़ात कहां । इन तज़्क़िरात में मेरा कुछ भी अपना नहीं है बस आलिम साहिबान के अरूज़ पर किए गए कामों का फ़क़त हिन्दी तर्जुमा समझिए बस ........
एक बात और--
न आलिम ,न मुल्ला ,न उस्ताद ’आनन’
अदब से मुहब्ब्त ,अदब आशना हूँ
[नोट् :- पिछले अक़सात [क़िस्तों ]के आलेख [ मज़ामीन ]आप मेरे ब्लाग पर भी देख सकते हैं
www.urdu-se-hindi.blogspot.com
or
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-आनन्द.पाठक-
Discliamer clause -वही जो क़िस्त 1 में है
--रजज़ का बुनियादी रुक्न है --’मुस् तफ़् इलुन्’ [2212]--[यानी सबब + सबब+वतद]
सबब से मेरी मुराद ’सबब-ए-ख़फ़ीफ़’ से है और वतद से मेरी मुराद ’ वतद-ए-मज्मुआ’ से है
और् जो भी ज़िहाफ़ लगेगा ,वो इसी सालिम रुक्न पर लगेगा [ यानी इसके ’सबब’ और’वतद’ वाले टुकड़े पर लगेगा]
वैसे तो एकल ज़िहाफ़ [फ़र्द] ,मिश्रित ज़िहाफ़ [ मुरक़्कब] या फिर साकिन के अमल से बनने वाले मुज़ाहिफ़ ,कुल मिलाकर इसके ज़िहाफ़ात लगभग 25-30 के आस-पास बैठता है ।
कुछ फ़र्द ज़िहाफ़ जो ’मुस तफ़ इलुन’[2212] पर लगेंगे वो हैं-----
[1] ख़ब्न ---तय्यी---क़तअ--रफ़अ---जदअ--हज़ज़----इज़ाला ---वग़ैरह वग़ैरह
कुछ मुरक़्क़ब ज़िहाफ़ जो ’मुस तफ़ इलुन’ [2212] पर लगेंगे वो निम्न है} [मुरक़्क़ब ज़िहाफ़ वो ज़िहाफ़ होते है जो दो या दो से अधिक फ़र्द ज़िहाफ़ से मिल कर बनते है और ’मुस तफ़ इलुन" के अवयव [टुकड़े सबब या वतद पर] एक साथ अमल करते है
[2] ख़ब्ल [=ख़ब्न +तय्यी]
तय्यी+क़तअ
ख़लअ [=ख़ब्न+क़तअ]
जदअ+क़तअ
ख़ब्न+इज़ाला
्वग़ैरह---वग़ैरह--
[3] मुज़ाहिफ़ रुक्न पर तस्कीन का अमल होगा जहाँ किसी मुज़ाहिफ़ रुक्न में " तीन साकिन’ एक साथ जमा हो जायें जैसे--मुफ़तइलुन[2112]
वैसे भी कोई शायर इन तमाम मुज़ाहिफ़ बहूर में एक साथ शायरी तो नही करता।उन तमाम ज़िहाफ़ की चर्चा करना Academic discussion लिहाज़ से तो ठीक है ,मगर जो ख़ास ख़ास और मक़्बूल ज़िहाफ़ हैं उन्हीं पर यहाँ चर्चा करना मुनासिब होगा ।
मुस् तफ़् इलुन् [2212] पर् लगने वाले ख़ास ख़ास ज़िहाफ़ --
मुस् तफ़् इलुन् [2212] +ख़ब्न =मख़्बून =मफ़ाइलुन [ 1212]
मुस् तफ़् इलुन् [2212] +तय्यी =मुतव्वी = मुफ़तइलुन [ 2112]
मुस् तफ़् इलुन् [2212] +तय्यी+तस्कीन =मुतव्वी मुसक्किन= मफ़ऊलुन [222] = यह आम ज़िहाफ़ है
मुस् तफ़् इलुन् [2212] +क़तअ = मक़्तूअ =मफ़ऊलुन [222] = यह ज़िहाफ़ अरूज़ और ज़र्ब के लिए ख़ास है
मुस् तफ़् इलुन् [2212] +ख़लअ =मख़्लूअ = फ़ऊलुन [122]
मुस् तफ़् इलुन् [2212] +रफ़अ = मरफ़ूअ=फ़ाइलुन [ 212] = यह सदर और इब्तिदा के लिए मख़्सूस है
मुस् तफ़् इलुन् [2212] +इज़ाला =मज़ाल = मुफ़ त इलान [ 21121] = यह अरूज़ और ज़र्ब के लिए मख़्सूस है
मुस् तफ़् इलुन् [2212] + तरफ़ील =मुरफ़्फ़ल=मुस् तफ़्इलातुन् [ 22122]
मुस् तफ़् इलुन् [2212]+ तय्यी+तरफ़ील = मुतव्वी मुरफ़्फ़ल= मुफ़ त इलातुन = 21122
मुस् तफ़् इलुन् [2212]+ खब्न+तरफ़ील = मख़्बून मुरफ़्फ़ल = मफ़ाइलातुन = 12122
रजज़ कीसालिम बहरों पर चर्चा पिछले क़िस्त 39 में कर चुके हैं । अब इनकी मुज़ाहिफ़ बहूर की चर्चा करेंगे।
मुरब्ब: मुज़ाहिफ़:-
[1] बहर-ए-रजज़ मुरब्ब: मुतव्वी /मज़ाल
मुफ़तइलुन-------मुफ़तइलुन--/मुफ़त इलान
2 1 1 2---------2 112 ’/ 2 1 1 2 1
उदाहरण :
तीर-ए-नज़र दिल पे लगी
हाय ! ख़ुदा ख़ैर करे
तक़्तीअ’ भी देख लेते है
2 1 1 2 / 2 1 1 2
तीर--नज़र / दिल पे लगी
2 1 1 2 / 2 1 1 2
हाय ! ख़ुदा/ ख़ैर करे
मज़ाल का भी एक मिसाल देख लेते हैं [कमाल साहब के हवाले से]
देख ये अन्जाम-ए-बहार
चारो तरफ़ ख़ार ही ख़ार
अब तक़्तीअ’ भी देख लेते है
2 1 1 2 / 2 1 1 2 1
देख ये अन / जाम-ए-बहार
2 1 1 2 / 2 1 1 2 1
चा रू तरफ़ / ख़ार ही ख़ार
अरूज़ और ज़र्ब में मुफ़ त इलुन [2 1 1 2 ] की जगह ’मज़ाल’ मुफ़ त इलान [ 21121] या मज़ाल मुफ़त इलान[21121] की जगह मुफ़ त इलुन [ 2112] लाया जा सकता है -इजाज़त है
इसकी ’मुज़ाइफ़’ [दो गुनी] शकल भी मुमकिन है
अच्छा ,लगे हाथ -तस्कीन के अमल की भी चर्चा कर लेते है
चूँकि मुफ़ त इलुन [2 1 1 2] में 3-मुतहर्रिक एक साथ आ गया है तो ’तस्कीन’ का अमल हो सकता है यानी ’मुस त फ़ लुन" [ 2 1 1 2 ] तब 222 हो जायेगा और इसे ’मफ़ऊलुन’ [222] से बदल लेंगे यानी
2112-----222- भी एक वज़न हो सकता है या [अगर अरूज़/ज़र्ब पर तस्कीन का अमल करते है तो]
और बहर का नाम होगा---बहर-ए-रजज़ मुरब्ब: मुतव्वी मुसक्किन /मज़ाल
222-----2112 भी एक वज़न हो सकता हौ [ अगर सदर/इब्तिदा पर तस्कीन का अमल करते है तो ]
मगर ख़याल रहे --तस्कीन का अमल एक साथ दोनो मुक़ाम पर एक साथ नहीं कर सकते । क्यों?
वो इस लिए कि --अगर आप दोनो रुक्न पर ’तस्कीन’ का अमल एक साथ करेंगे तो बहर हो जायेगी
222---222- या 22--22--22--यानी बहर बदल जायेगी और वज़न ’मुतक़ारिब’ या ’मुतदारिक" की कोई मुज़ाहिफ़ बह्र हो जायेगी। और आप जानते ही हैं कि तस्कीन के अमल में एक शर्त [क़ैद] यह भी है कि अमल से बहर न बदल जाये। अत: तस्कीन का अमल दोनो मुक़ाम पर एक साथ नहीं हो सकता। यही बात ’मुसद्दस’ या ’मुसम्मन’ पर भी लागू होगा।
[2] बहर-ए-रजज़ मुसद्दस मुतव्वी /मज़ाल
मुफ़ त इलुन----मुफ़ त इलुन----,मुफ़ त इलुन / मुफ़ त इलान
2 1 1 2 ------2 1 1 2-------2 1 1 2 / 2 1 1 2 1
[ -ते- ऐन--लाम मुतहर्रिक है ---यानी 3-मुतहर्रिक एक साथ आ गया है यहाँ]
उदाहरण डा0 आरिफ़ हसन ख़ान साहब के हवाले से
मेरी मुहब्बत का हसीं ख़्वाब हो तुम
अपनी निगाहों में बसाया है तुम्हें
तक़्तीअ’ कर के देख लेते है जिससे बात साफ़ हो जाये
2 1 1 2 / 2 1 1 2 / 2 1 1 2
मेरी मु हब् /बत का हसीं / ख़ाब हो तुम
2 1 1 2 / 2 1 1 2 / 2 1 1 2
अप नी निगा / हों में बसा / या है तु मे
अरूज़ और ज़र्ब में मुफ़ त इलुन [2 1 1 2 ] की जगह ’मज़ाल’ [ 21121] या मज़ाल [21121] की जगह मुफ़ त इलुन [ 2112] लाया जा सकता है -इजाज़त है
और अरूज़ और ज़र्ब के मुक़ाम पर जो ’मुफ़ त इलुन’ [2112] दिख रहा है वो ’तस्कीन-ए-औसत की अमल से [222] "मफ़ ऊ लुन ’ भी किया जा सकता है । तब बह्र के नाम में ’मुसक्किन’ लफ़्ज़ और बढ़ जायेगा।
यहाँ भी ’तस्कीन’ के अमल से अतिरिक्त वज़न प्राप्त किया जा सकता है अगरचे यहाँ पर वो सभी मज़ीद वज़न दिखाया नहीं गया है मगर आप कर सकते है।
[3] बह्र-ए-रजज़ मुतवी मरफ़ूअ’ .मज़ाल
मुफ़तइलुन----मुफ़त इलुन--- फ़ाइलुन \फ़ाअ लान
2 1 1 2 ---2 1 1 2------212 \2121
उदाहरण : मीर का एक शे’र है
इश्क़ में नै ख़ौफ़-ओ-ख़तर चाहिए
जान को देने को जिगर चाहिए
ख़ौफ़ क़यामत का यही है कि ’मीर’
हम को जिया बार-ए-दीगर चाहिए
तक़्तीअ कर के देख लेते है
2 1 1 2 / 2 1 1 2 / 2 1 2
इश् क में नै / ख़ौफ़--ख़तर /चाहिए
2 1 1 2 / 2 1 1 2 / 2 1 2
जान को दे /ने को जिगर / चाहिए
2 1 1 2 / 2 1 1 2 / 2 1 2 1
ख़ौफ़ क़या/ मत का यही / है कि ’मीर’
2 1 1 1 / 2 1 1 2 / 2 1 2
हम को जिया / बार-- दिगर /चाहिए
[ नोट :- उर्दू में शे’र के वज़न को मिलाने के लिए ’न’ [1] को कभी कभी ’नै’ या ’नइ’ [2] के वज़न पर लिखते है और बोलते है। यहां मतला के मिसरा उला में उसी का प्रयोग हुआ है।
[ नोट : मकता के मिसरा उला में अरूज़ के मुक़ाम पर मुज़ाहिफ़ "मरफ़ूअ’ मज़ाल’" का प्रयोग किया गया है जो रवा है।
[यहाँ भी ’मुफ़ त इलुन" 2112 पर तस्कीन का अमल हो सकता है ।
[4] बहर-ए-रजज़ मुसम्मन मुतव्वी / मज़ाल
मुफ़ त इलुन----मुफ़ त इलुन----,मुफ़ त इलुन -----मुफ़ त इलुन----/मुफ़त इलान
2 1 1 2 -----2112-----------2112----------2112---------/ 21121
उदाहरण : डा0 आरिफ़ हसन खान साहब के हवाले से
अपनी निगाहों से मुझे यार गिराना न कभी
ख़्वाब मेरी चाह का मिट्टी में मिलाना न कभी
अब तक़्तीअ कर के देखते हैं
2 1 1 2 / 2 1 1 2/ 2 1 1 2/ 2 1 1 2
अप नि निगा / हों से मुझे / यार गिरा /ना न कभी
2 1 1 2 / 2 1 1 2 / 2 1 1 2 / 2 1 1 2
ख़ा ब मिरी / चाह का मिट् / टी में मिला / ना न कभी
अरूज़ और ज़र्ब में मुफ़ त इलुन [2 1 1 2 ] की जगह ’मज़ाल’ [ 21121] या मज़ाल [21121] की जगह मुफ़ त इलुन [ 2112] लाया जा सकता है -इजाज़त है
यहाँ भी ’तस्कीन’ के अमल से अतिरिक्त वज़न प्राप्त किया जा सकता है
============================
अब ज़रा ,"ख़ब्न और तय्यी" ज़िहाफ़ की भी चर्चा कर लेते हैं
[5] बहर-ए-रजज़ मुरब्ब: मुतव्वी मख़्बून \ मख़्बून मज़ाल
मुफ़ तइलुन---मफ़ा इलुन \मफ़ाइलान
2 1 1 2-----12 12 \ 1 2 1 21
आप जानते है कि ’मुस तफ़ इलुन"[ 2 2 12 ] का मुतव्वी-- मुफ़ त इलुन [ 2 1 12] है , इसका ’मख़्बून -मुफ़ाइलुन’[1212] है और मज़ाल - मुफ़त इलान [ 12121] है --ऊपर देखे
अब बहर आसान हो गई होगी समझने में
कमाल अहमद सिद्दिक़ी साहब के हवाले से
ऐन हजूम-ए-फ़िक्र में
आप का आ गया ख़याल
तक़्तीअ कर के भी देख लेते हैं
2 1 1 2 / 1 2 1 2
ऐन हजू / में -फ़िक् र में
2 1 1 2 / 1 2 1 2 1
आप का आ/ गया ख़याल
यहाँ ज़र्ब में ’मज़ाल’ मुज़ाहिफ़ का प्रयोग हुआ है । यहाँ मफ़ा इलुन [1212] भी लाया जा सकता है .इजाज़त है।
[6] बहर-ए-रजज़ मुसम्मन मुतवी मख्बून
मुफ़तइलुन---मफ़ा इलुन----//मुफ़ त इलुन ---मफ़ाइलुन
2112-------1212----------// 2112---------1212
यह बहर शिकस्ता है -बहर-ए-शिकस्ता के बारे में पहले भी चर्चा कर चुका हूं
मफ़ाइलुन [1212] की जगह मफ़ाइलान [ 12121] लाने की इजाज़त है
उदाहरण :- ग़ालिब की एक ग़ज़ल है आप ने भी सुनी होगी
दिल ही तो है न संग-ओ-ख़िश्त दर्द से भर न आए क्यों
रोयेंगे हम हज़ार बार कोई हमें सताए क्यों
दैर नहीं ,हरम नहीं ,दर नहीं ,आस्तां नहीं
बैठे हैं रह गुज़र पे हम ,ग़ैर हमें उठाए क्यों
एक शे;रकी तक़्तीअ कर के देखते है
2 1 1 2 / 1 2 1 2 // 2 1 1 2 / 1 2 1 2
दैर नहीं /,ह रम नहीं ,// दर नहीं ,आ /स् ताँ नहीं
2 1 1 2 / 1 2 1 2 // 2 1 1 2 / 1 2 1 2
बैठे हैं रह / गु ज़र पे हम //,ग़ैर हमें / उठाए क्यों
एक बात ध्यान दें---मिसरा सानी में अगर ---" बैठे हैं रहगुज़र पर हम----" कह दें तो क्या हो जायेगा? मानी मैं तो कोई फ़र्क़ नहीं पड़ेगा मगर शे;र वज़न से ’खारिज़’ हो जायेगा } क्यों ?
क्यों कि -पे’ जहाँ है वहाँ मुतहर्रिक हर्फ़ की माँग है --"पर" का वज़न [सबब-ख़फ़ीफ़ [2] का हो जायेगा । और यही होती है शे’र और वज़न की बारीक़ियाँ
बहर-ए-शिकस्ता इस लिए कि बात इस अलामत // के पहले ही ख़त्म हो जाती है .तक़्तीअ में कोई लफ़्ज़ का हर्फ़ // के उस पार नहीं जा रहा है
बाक़ी की तक़्तीअ आप कर लें -आसान है।
[7] बहर-ए-रजज़ मुसम्मन मख़्बून मुतव्वी
मफ़ाइलुन------मुफ़ त इलुन------// मफ़ाइलुन----मुफ़ त इलुन
1212------------2112--------// 1212------2 1 1 2
बहर [5] और बहर [6] ध्यान से देखें -- कुछ नहीं किया बस ’मुतव्वी’ और ’मख़्बून’ का स्थान एक दूसरे से बदल दिया और नाम उसी के अनुसार रख दिया
यह बह्र भी शिकस्ता है। शिकस्ता बह्र के बारे पहले ही चर्चा कर चुका हूँ । अरूज़ और ज़र्ब में मुतवी की जगह ’मुतव्वी मज़ाल [ मफ़ाइलान=12121] भी लाया जा सकता है
उदाहरण-डा0 आरिफ़ हसन खान साहब के हवाले से
सुनो सुनो हम वतनो //,ज़रा सुनो मेरी जुबान
बताओ सच तुम को क़सम //,कभी सुनी ऐसी जुबान
तक़्तीअ कर के देख लेते हैं
1 2 1 2 / 2 1 1 2 // 1212 / 12 1 2
सुनो सुनो / हम वतनो //,ज़रा सुनो /मिरी जुबाँ
1 2 1 2 / 2 1 1 2 // 1 2 1 2 / 1 2 1 2
बताओ सच / तुम को क़सम //,कभी सुनी / ऐसी जुबाँ
इस में अरूज़ और ज़र्ब के मुक़ाम पर ’मुफ़ त इलान’ [21121] भी लाया जा सकता है चाहे आप एक मुक़ाम पे लाएँ या दोनो मुक़ाम पे लाएँ।
उदाहरण -- बिलकुल आप के सामने है \ कहीं दूर जाने की ज़रूरत नही हैं] ,ऊपर के उदाहरण में अरूज़ और ज़र्ब के मुक़ाम पर जो ’ मिरी ज़ुबाँ’ [1212] है , बस उसे ’ मिरी’जुबान’ [12 121] लिख दें । कितना आसान है।
[8] बहर-ए-रजज़ मुसम्मन मरफ़ूअ मख़्बून
फ़ाइलुन---मफ़ाइलुन----// फ़ाइलुन----मफ़ाइलुन
212---------1212-----// 212-------1212
आप जानते हैं कि मुस तफ़ इलुन [ 2212] का मरफ़ूअ [ रफ़अ ज़िहाफ़ लगा हुआ] फ़ाइलुन [212] है [ऊपर देखें] और यह सदर और इब्तिदा ले लिए मख़्सूस है
[अत: बहर [5] और [6] की तरह यहाँ " मख़्बून---मरफ़ूअ’ की तरतीब नहीं कर सकते कारण मरफ़ूअ जब भी आयेगा तो सदर और इब्तिदा के मुक़ाम पर ही आयेगा न कि हस्व के मुक़ाम पर]
उदाहरण : डा0 ख़ान साहब के ही हवाले से
हक़ से हूँ मै बेख़बर मुझ को रास्ता देखा
मुझ को हर गुनाह से ऎ मेरे ख़ुदा बचा
अब तक़्तीअ कर के भी देख लेते हैं
2 1 2/ 1 2 1 2 // 2 1 2 / 1 2 1 2
हक़ से हूँ / मै बे ख़बर // मुझ को रा / स ता दिखा
2 1 2 / 1 2 1 2 // 2 1 2 / 1 2 1 2
मुझ को हर / गुनाह से // ऎ मिरे / ख़ुदा बचा
[9] बहर-ए-रजज़ मुसद्दस मख़्बून मरफ़ूअ मख़्लूअ
मफ़ाइलुन-----फ़ाइलुन----फ़ऊलुन
1212----------212-------122
उम्मीद है कि अब तो आप " मुसतफ़इलुन" [2212] का मख़्बून और मरफ़ूअ तो आप समझ गए होंगे ,ऊपर चर्चा कर चुका है } हाँ ’मुसतफ़ इलुन [ 2 2 12] पर ’ख़लअ ’ ज़िहाफ़ लगाने पर मुज़ाहिफ़ मख़्लूअ ’फ़ऊलुन’ [122] होता है
अत: बह्र का नाम भी उसी अनुसार लिखा जाता है
उदाहरण-डा0 आरिफ़ हसन ख़ान साहब के हवाले से
जला रहे हैं जो घर को मेरे
वो मेरे भाई हैं जानता हूं
तक़्तीअ’ कर के देख लेते हैं
1 2 1 2 / 2 1 2 / 1 2 2
जला रहे/ हैं जो घर / को मेरे
1 2 1 2 / 2 1 2 / 1 2 2
वो मेरे भा/ ई हैं जा / नता हूं
[10] बहर-ए-रजज़ मुसम्मन मख़्बून मुरफ़्फ़ल
मफ़ाइलातुन----मफ़ाइलातुन---मफ़ाइलातुन---मफ़ाइलातुन
12122---------12122-------12122---------12122
उदाहरण ; ’अदम’ का एक शे’र
ग़म-ए-ज़माना सता रहा है ,ग़म-ए-ज़माना मसल रहा है
मगर मेरे दिन गुज़र रहे हैं ,मगर मेरा वक़्त टल रहा है
अब तक़्तीअ भी कर के देख लेते हैं
12 122 /12 122 / 1 2 122 / 1 2 1 2 2
ग़मे ज़माना / सता रहा है / ,ग़मे ज़माना / म सल रहा है
1 2 1 2 2 / 1 2 122 / 12 1 2 2 / 1 2 1 2 2
म गर मिरे दिन /गुज़र रहे हैं ,/ मगर मिरा वक़्/ त टल रहा है
जोश मलीहाबादी का एक शे’र है
मिला जो मौक़ा तो रोक दूँगा जलाल रोज़-ए-हिसाब तेरा
पढूँगा रहमत का वो क़सीदा कि हँस पड़ेगा इताब तेरा
अब तक़्तीअ भी कर के देख लेते हैं
1 2 1 2 2 / 1 2 1 2 2 / 1 2 1 2 2 / 1 2 1 2 2
मिला जो मौक़ा / तो रो क दूँगा / जला ल रोज़े /हिसा ब तेरा
1 2 1 2 2 / 1 2 1 2 2 / 1 2 1 2 2 / 1 2 1 2 2
पढूँ गा रहमत / का वो क़सीदा / कि हँस पड़ेगा / इता ब तेरा
हम यह तो नहीं कहा सकते है कि " मुसतफ़इलुन" [ 2212] पर लगने वाले सभी ज़िहाफ़ की चर्चा कर लिया हूं । अभी भी बहुत से ज़िहाफ़ हैं फ़र्द भी मुरक्क़ब भी मुसक्किन भी जो ’ मुस तफ़ इलुन ’ [2212] पर लगाए जा सकते हैं और लगते भी हैं। आप किसी भी प्रमाणित अरूज़ की किताब में देखी जा सकती है । यहाँ पर सभी की चर्चा करना मुनासिब न होगा ।अत: मात्र मक़्बूल ज़िहाफ़ की ही चर्चा की है
चलते चलते एक वज़न की और चर्चा करते चलते हैं--जो ग़ैर मुनासिब न होगा
एक वज़न है
[11] बहर-ए-रजज़ मुसम्मन मुतव्वी मुरफ़्फ़ल
मुफ़तइलातुन -----मुफ़तइलातुन ------मुफ़तइलातुन -----मुफ़तइलातुन
21122 ---------21122-------------21122------------21122 [ ध्यान रहे-- ते---ऐन-- लाम तीन मुतहर्रिक एक साथ आ गये है अत: ’तस्कीन-ए-औसत’ का अमल लग सकता है । पर चारों मुक़ाम पर एक साथ नहीं लग सकता ,कारण कि तब यह बह्र बदल जायेगी - 22-22--22-22----22-22---22-22
या तो मुतदारिक के वज़न में चली जायेगी या मुतक़ारिब के वज़न में चली जायेगी
अगर आप तस्कीन-ए-औसत का अमल ’एक के बाद एक’ मुक़ाम पर किया जाय तो आप ख़ुद देख लें कि कितना अतिरिक्त वज़न बरामद हो सकता है
एक बात और
21122 को [21-112] में तोड़ा जा सकता है अत: ऊपर के वज़न को इस प्रकार भी लिख सकते है
21--122 ---------21--122-------------21--122------------21--122 --यह मुतक़ारिब के वज़न में आ गया यानी
[फ़अ लु---फ़ऊलुन]---[फ़अ लु---फ़ऊलुन]-----[फ़अ लु---फ़ऊलुन]----[फ़अ लु---फ़ऊलुन]
अब आप चाहें तो इस वज़न को रजज़ के अन्तर्गत रखें या मुतक़ारिब के तहत
ख़ैर इस बहर का एक उदाहरण कमाल अहमद सिद्दीक़ी साहब के हवाले से देख लेते हैं
दार पे मरना नंग नहीं है ,ख़ून है वो मेरा रंग नहीं है
ये न छूटेगा ,ये न कटॆगा ,ये न हटॆगा , ज़ंग नहीं है
तक़्तीअ’ कर के देख लेते हैं
2 1 1 2 2 / 2 1 1 2 2 / 2 1 1 2 2 / 2 1 1 2 2
दार पे मरना / नंग नहीं है / ,ख़ून है मेरा /रंग नहीं है
2 1 1 2 1 / 2 1 1 2 2 / 2 1 1 2 2 / 2 1 1 2 2
ये न छटेगा /,ये न कटॆगा ,/ये न हटॆगा ,/ ज़ंग नहीं है
तस्कीन-ए-औसत के अमल से और भी बहुत सी वज़न बरामद हो सकती है बस नाम में ’मुसक्कन’ जोड़ देगे।
आप के मश्क़ [मिहनत] और फ़न-ए-शायरी पर निर्भर करेगा
मैं यह तो नहीं कह सकता कि रजज़ के मुज़ाहिफ़ बहर का बयान मुकम्मल हुआ पर हाँ काफी बहर पर चर्चा कर लिया जो मक़्बूल-ओ-मारूफ़ हैं } और भी बहर बरामद हो सकती है क्योंकि अभी और भी ज़िहाफ़ात बाक़ी है । तस्कीन के अमल से कई बहर और बरामद हो सकती थी --मगर मैने आप की सुविधा के लिए कि कही आप ’बोर’ न हो जायें या उलझ न जाये और तवालत से बचने के लिए चर्चा नहीं किया। ऐसे बहूर किसी भी अरूज़ की किताब में दस्तयाब [प्राप्य] हो जायेंगी} शायरी /शे’र या गज़ल कहने के लिए ये भी ज़ख़ीरा कम तो नहीं ।
अब अगले क़िस्त में ’बहर-ए-कामिल’ पर चर्चा करेंगे
आप की टिप्पणी का इन्तज़ार रहेगा
--इस मंच पर और भी कई साहिब-ए-आलिम मौज़ूद हैं उनसे मेरी दस्तबस्ता [ हाथ जोड़ कर] गुज़ारिश है कि अगर कहीं कोई ग़लत बयानी या ग़लत ख़यालबन्दी हो गई हो तो निशान्दिही ज़रूर फ़र्मायें ताकि मैं ख़ुद को दुरुस्त कर सकूं ।मेरी मज़ीद [अतिरिक्त] रहनुमाई फ़र्माये ।मम्नून-ओ-शुक्रगुज़ार रहूँगा।
अभी बह्र के कुछ बयां और भी हैं..........
ज़िहाफ़ात् के कुछ निशां और भी हैं.....
एक बात बड़े ही अदब से एतराफ़ [स्वीकार] करता हूँ कि इन तमाम अक़्सात ,तज़्क़िरात और तहरीर के लिए अपने आलिम अरूज़ी साहिबान कमाल अहमद सिद्द्क़ी साहब , डा0 शम्सुर्र्हमान फ़ारुक़ी साहब ,आलिम जनाब सरवर आलम राज़ ’सरवर ’ साहब , अजीज दोस्त डा0 आरिफ़ हसन ख़ान साहब का और कुछ दीगर दोस्तों का तह-ए-दिल से मम्नून-ओ-मश्कूर हूँ जिनकी किताबों से कुछ पढ़ सका ,समझ सका और लिख सका ।वगरना इस हक़ीर में इतनी बिसात कहाँ इतनी औक़ात कहां । इन तज़्क़िरात में मेरा कुछ भी अपना नहीं है बस आलिम साहिबान के अरूज़ पर किए गए कामों का फ़क़त हिन्दी तर्जुमा समझिए बस ........
एक बात और--
न आलिम ,न मुल्ला ,न उस्ताद ’आनन’
अदब से मुहब्ब्त ,अदब आशना हूँ
[नोट् :- पिछले अक़सात [क़िस्तों ]के आलेख [ मज़ामीन ]आप मेरे ब्लाग पर भी देख सकते हैं
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-आनन्द.पाठक-
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