शनिवार, 13 जनवरी 2018

उर्दू बहर पर एक बातचीत : क़िस्त 41 [कामिल की सालिम बहर ]

उर्दू बहर पर एक बातचीत : क़िस्त 41 [कामिल की सालिम बहर ]

Disclaimer Clause--वही जो क़िस्त 1 में हैं---

---बहर-ए-कामिल कि बुनियादी रुक्न है  " मुतफ़ाइलुन्" [11212] --यह भी एक 7-हर्फ़ी रुक्न है
ध्यान रहे यहाँ मु[मीम] और त[ते] मुतहर्रिक है  --फ़े तो ख़ैर है ही।

यह वज़न  भी दो- सबब और एक- वतद को  मिला कर बनता है जैसे बहर-ए-रजज़ का बुनियादी रुक्न ’मुस तफ़ इलुन [2212]
रजज़ --- मुस तफ़ इलुन्  =2 2 1 2= सबब+सबब+वतद
कामिल---मु त फ़ा इ्लुन् = 1 1 2 1 2= सबब+ सबब+ वतद

बस फ़र्क ये है कि ’रजज़ में दोनो  ’सबब’- सबब-ए-खफ़ीफ़ है जब कि कामिल में पहला सबब --सबब-ए-सक़ील है और दूसरा सबब--सबब-ए-खफ़ीफ़ है
यूँ तो सबब-ए-ख़फ़ीफ़ और सबब-ए-सक़ील के बारे में पहले भी चर्चा कर चुका हूं ,कुछ मित्रों के आग्रह पर संक्षेप में एक बार फिर दुहरा देता हूँ

सबब-ए-ख़फ़ीफ़ = वो दो हर्फ़ी कलमा जिस में पहला हर्फ़ ’मुतहर्रिक’ हो और दूसरा हर्फ़ साकिन हो [यानी  हरकत+साकिन] जैसे  आ--जा--अब --तब--्जब --दिल  हो -गा---मुतहर्रिक का मतलब है कि उस हर्फ़ पर ’ कोई ’हरकत ’ लगी हो [याने ज़ेर -जबर--पेश] लगा हो
    उर्दू का हर लफ़्ज़ ’मुतहर्रिक’ से प्रारम्भ होता है [हिन्दी में भी होता है ] और ’साकिन’ पर गिरता है यानी उर्दू का कोई जुमला या लफ़्ज़ ’साकिन’ से नहीं शुरु होता । हिन्दी में भी कोई शब्द ’तत्सम’ से प्रारम्भ नहीं होता। अगर कुछ नही होगा   तो पहले हर्फ़ पर ’ छोटा अलिफ़’ की हरकत तो होगी ही होगी । और शायरी में हम इसे [2] की वज़न पर लेते है
सबब-ए-सक़ील  = वो दो हर्फ़ी कलमा जिसमें दोनो हर्फ़ ’मुतहर्रिक’ हो यानी [हरकत+हरकत] । ऊपर कहे के हिसाब से उर्दू में ऐसा कोई कलमा होगा ही  नहीं जिसमें दोनो हर्फ़ पर ’हरकत’ हो । जी बिलकुल सही। लेकिन उर्दू में कुछ तरतीबे हैं[ जो फ़ारसी से आई हैं] जैसे इज़ाफ़त की और ’अत्फ़’ की । जैसे दर्द-ओ-ग़म , ग़म-ए-दौरां ,दिल-ए-नादाँ--शान-ओ-शौकत---------तमाम ऐसे जुमले हैं जो इस तरक़ीब से बन सकते है
अगर मात्र हम  दर्द----ग़म्---दौरान्---दिल्--शान्  कहें तो यक़ीनन आखिरे हर्फ़ -द्---म्---न्--ल्-- साकिन हैं
मगर इज़ाफ़त् या अत्फ़् की तर्क़ीब से पढ़ेंगे तो इन्ही  ----म----न---ल--- के आवाज़ सुनने पर एक ’भारीपन’ महसूस होता ’सक़ील’ महसूस होता है अत: ऐसे केस में --ग़म- या -दिल [1  1 ] का वज़न देगा  जो सबब्-ए-सक़ील् होगा
मु त [हरकत +हरकत ] [1+1] का वज़न देगा । हिन्दी में कभी कभी हम कह देते है --" दो लघु को एक गुरु हो जाता है" लेकिन उर्दू शायरी में ऐसा नहीं है। उर्दू में इन दोनो का treatment  अलग -अलग होता है
’फ़ा [ फ़े पर हरकत + अलिफ़ साकिन] [2] माना जायेगा  सबब-ए-ख़फ़ीफ़
’इलुन’ तो ख़ैर इलुन है -वतद -ए-मज्मुआ है [ ऐन पे हरकत+ (लाम पे हरकत +नून साकिन) ] =हरकत+ सबब-ए-ख़फ़ीफ़ (लुन]=1 2 वज़न माना जायेगा

अब मुत फ़ाइलुन [1 1 2 1 2 ] की चर्चा कर लेते है
मुतफ़ाइलुन [ 1 1 2 1 2 ]  = सबब-ए-सक़ील + सबब-ए-ख़फ़ीफ़+ वतद-ए-मज्मुआ
    =  मु त [ 1 1 ]     +   फ़ा  [ 2 ]          + इलुन [ 12 ]
     =  1  1   2  1 2
[नोट : ध्यान रखियेगा जो भी ज़िहाफ़/ज़िहाफ़ात लेगेंगे वो इन्हीं टुकड़ों पर लगेंगे यानी ’ सक़ील’--ख़फ़ीफ़--वतद पर लगेंगे  यानी --’मु त’ ---फ़ा----इलुन-- पर लगेंगे
 उर्दू की दो बह्रें ऐसी हैं जो अरबी छन्द-शास्त्र [अरूज़] से लाई गईं है जो आज भी मुस्तमिल और राइज़ हैं --वो हैं  बह्र-ए-वाफ़िर  और बह्र-ए-कामिल
बह्र-ए-कामिल का मुसम्मन सालिम आहंग इतना मधुर हैं कर्ण-प्रिय है कि उर्दू के ज़्यादातर शायरों ने इसमे अपनी तबअ’ आज़माई की है और आज भी कर रहे है

्कामिल पर लगने वाले एक ज़िहाफ़ की चर्चा अभी कर लेते है , बाक़ी ज़िहाफ़ात की चर्चा आगे करेंगे। वह  ज़िहाफ़ है ’इज़ाला’- अगर किसी रुक्न के अन्त में ’वतद-ए-मज्मुआ’ हो [ जैसे मुसतफ़ इलुन 2212-में -] तो आखिरी साकिन [नून] के पहले एक और साकिन रख देते है -तो ’मुस तफ़ इ ला न’ [2 2 1 2 1] हासिल होता है।इस अमल को   ’इज़ाला’ कहते है और बरामद मुज़ाहिफ़ को ’मज़ाल ’कहते है
उसी प्रकार जब मु त फ़ा इ लुन [ 1 1 2 1 2]  पर यही अमल करेंगे तो ’मु त फ़ा इ ला न [1 1 2 1 2 1] हासिल होगा जिसे ’मज़ाल ’ कहते हैं ।
तो बहर-ए-मुतदारिक [ फ़ा इलुन [2 1 2 ]  में? जी हाँ ,इस में भी लगेगा । जब इस पर ’इज़ाला’ का अमल होगा तो ’फ़ाइलान’ [2121] बरामद होगा जिसे ’मज़ाल’ कहते है
तो  बहर-ए-मुतक़ारिब [ फ़ ऊ लुन 122 ] में ?? जी नहीं ,इस पर नहीं लगेगा । क्यों? क्यों कि इसमें वतद --शुरु में है ,अन्त में नहीं ।
यह अरूज़ और ज़र्ब के लिए मख़्सूस [ख़ास] है और इसे सालिम रुक  [ मुत फ़ाइलुन]  11212 की जगह पर लाया जा सकता है -इजाज़त है।
एक बात औत --’मु त फ़ा इलुन ’[11212] मे 3-मुतहर्रिक [ मीम.ते.फ़े] एक साथ आ गया -तो क्या ’तस्कीन-ए-औसत ’ का अमल लग सकता है ?? नहीं? कदापि नहीं
तस्कीन -ए-औसत का अमल  हमेशा ’मुज़ाहिफ़’ रुक्न पर ही लगता है---सालिम रुक्न पर कभी नहीं लगता। ध्यान रहे।
पर हाँ --मु त फ़ा इ ला न [112121] पर लग सकता है क्योंकि यह मुज़ाहिफ़ है --इस पर लग सकता है  और 2 2 1 21 बरामद हो सकता है

कामिल की सालिम बहरें
[1] बह्र-ए-कामिल मुरब्ब: सालिम
मु त फ़ा इलुन----मु त फ़ा इलुन      [मिसरा में 2-बार ,शे;र में 4-बार]
1  1   2  2  2-----1  1  2 1 2
उदाहरण  : एक खुदसाख़्ता शे’र सुन लें

तू सवाल है कि जवाब है
मेरी ज़िन्दगी मुझे ये बता

अब तक़्तीअ भी देख लेते हैं
1  1  2 1 2    / 1  1 2 1 2
तू सवाल है   / कि जवाब है
1  1   2 1 2 /     1 1 21 2
मिरी ज़िन्दगी  / मुझे ये बता

[नोट ; आप को लगता है कि -तू- को यहाँ 2 की वज़न के बजाय 1 के वज़न पर क्यों लिया।
एक तो यहां बह्र की माँग है और दूसरे ’ते’ पर ’पेश की हरकत डाल दे तो -तू- मुतहर्रिक हो जायेगा 1 के वज़न पर। यही बात मेरी में है । -मीम और रे पर ज़ेर की हरकत है जिससे -’मिरि [हरकत ,हरकत {1,1] पर लिया जायेगा
एक बात और अरूज़ या ज़र्ब के मुक़ाम पर "मज़ाल ’ यानी मु त फ़ा इ लान [ 1 1 2 121] भी लाया जा सकता है। इजाज़त है}

[2] बह्र-ए-कामिल मुरब्ब: सालिम मज़ाल
मु त फ़ा इलुन----मु त फ़ा इलान      [मिसरा में 2-बार ,शे;र में 4-बार]
1  1   2  1  2-----1  1  2 1 2 1
उदाहरण : कमाल साहेब के हवाले से

ग़म-ए-रोज़गार का क्या इलाज
बजुज़ इसके ज़ुल्म पे अह्तजाज़

तक़्तीअ’ कर के देख लेते है
1  1     2 1 2  / 1  1   2   1 2 1
ग़म-ए-रोज़गा / र का क्या इलाज
1   1  2    1    2    / 1  1 2 1  2 1
ब जु जिस के ज़ुल् / म पे अह्तजाज़

[3]  बह्र-ए-कामिल मुसद्दस सालिम
मुतफ़ाइलुन---मुतफ़ाइलुन-----मुतफ़ाइलुन
11212-------11212---------11212      [ मिसर में 3-बार शे’र मैं 6 बार]
उदाहरण डा0 आरिफ़ हसन ख़ान साहब के हवाले से

ये रह-ए-हयात के फ़ासिले न कटेंगे यूं
मेरे साथ चल मेरे हमनशीं मेरे साथ चल

तक़्तीअ कर के देख लेते हैं
1 1  2 1  2  / 1  1   2 1 2/ 1 1 2 1  2
ये र हे ह या / त के फ़ासिले / न कटेंगे यूं
1  1  2 1  2 /   1  1  2  1 2 / 1 1 2 1 2
मेरे साथ चल / मेरे हमनशीं / मेरे साथ चल

[4]     बहर-ए-मुसद्दस सालिम मज़ाल - यानी अरूज़ और ज़र्ब के मुक़ाम पर सालिम की जगह मज़ाल [112121] लाया जा सकता है जैसा कि मुरब्ब: के केस में लिखा है
मुतफ़ाइलुन---मुतफ़ाइलुन-----मुतफ़ाइलान
11212-------11212---------112121      [ मिसर में 3-बार शे’र मैं 6 बार]

उदाहरण

मेरी ख्वाहिशों ,मेरी आरज़ूओं का है तिलिस्म
मैं जो देखता हूँ वो ख़्वाब है न है  वो शराब

तक़्तीअ कर के देख लेते हैं
  1  1     2  1 2   / 1 1   2 1 2 / 1  1   2  1  2     1
मेरी ख्वाहिशों ,/मेरी आरज़ू    / ओं का है त लिस म
             1   1  2 1 2    /   1  1  2 1 2 /   1 1 2 1 2 1
मैं जो देखता /  हूँ वो ख़्वाब है /  न है  वो शराब

[5]     बहर-ए-मुसम्मन सालिम : यह बहुत ही मक़्बूल[लोकप्रिय ] बहर है } कि किसी मुज़ाहिफ़ बहर की ज़रूरत ही नहीं पड़ती।  तमाम शायरों ने अपनी शायरी इस सालिम बहर में की है और बड़े तरन्नुम में सुनाते भी है । बशीर बद्र साहब का वो ग़ज़ल तो आप ने सुनी होगी-----"यूं ही बेसबब न फिरा करो----"
इस बहर के अर्कान हैं
   मुतफ़ाइलुन---मुतफ़ाइलुन-----मुतफ़ाइलुन----मुतफ़ाइलुन 
  11212-------11212---------11212      [ मिसर में 4-बार शे’र मैं 8 बार]
इस बहर में कई मक़्बूल ग़ज़लें है । कुछ की चर्चा कर देता हूँ । तक़्तीअ’ किसी एक का कर के दिखा दूंगा

[क] वो जो हम में तुम में क़रार था ,तुझे याद हो कि न याद हो
    मुझे याद है सब ज़रा ज़रा ,  तुझे   याद  हो  कि न याद  हो
-मोमिन-

[ख] कभी ऎ हक़ीक़त-ए-मुन्तज़र ,नज़र आ लिबास-ए-मजाज़ में
कि हज़ारों सजदे तड़प रहे हैं , मेरी  जबीन-ए-नियाज़  में

तू बचा बचा के न रख इसे ,तेरा आईना  है  वो आईना
कि शिकस्ता हो तो अज़ीजतर ,है निगाह-ए-आईनासाज़ मैं
-इक़बाल-

[ग[ शब-ए-वस्ल देखी जो ख़्वाब में ,तो सहर का सीना फ़िगार था
यही बस ख़याल था दम-ब-दम कि अभी तो पास वो  यार  था
ज़ुरअत
[घ] यूँ बेसबब न फिरा करो .कोई शाम घर भी रहा करो
वो ग़ज़ल की सच्ची किताब है ,उसे चुपके चुपके पढ़ा करो

कोई हाथ भी न मिलायेगा जो गले मिलोगे तपाक से
ये नए मिज़ाज का शहर है ,ज़रा फ़ासले से मिला करो
- बशीर बद्र
चलते चलते इस हक़ीर के भी दो मिसरे बर्दाश्त कर लें

[च] वो जो चढ़ रहा था सुरूर था ,जो उतर रहा है  खुमार है
वो नवीद थी तेरे आने की,  तेरे   जाने की  ये पुकार   है 
-आनन-
और भी बहुत सी ग़ज़लें है इस बहर में
चलिए [मोमिन] के एक  शे’र की तक़्तीअ कर के देख लेते है
1   1    2    1  2  / 1  1  2 1 2 /  1 2 2 1 2 / 1  1  2  1 2 =11212--11212--11212---11212
वो जो हम में तुम /में क़ रार था ,/तुझे याद हो / कि न या द हो
1  1  2  1  2  / 1  1 2  1  2   /   1  1  2  1 2    / 1 1  2  1 2 =11212---11212---11212--11212
    मुझे याद सब /   है  ज़रा ज़रा , /  तुझे   याद  हो  /कि न याद  हो

अच्छा एक काम करते है---मिसरा सानी को यूँ कहे तो क्या होगा?

" मुझे याद है सब ज़रा ज़रा--तुम्हे याद हो कि न याद हो"

भाव और अर्थ में तो कोई फ़र्क नहीं पड़ेगा --मगर मिसरा वज़न से ख़ारिज़ हो जायेगा । कैसे?
    1  1  2 1 2/ 2  1 2 1 2  / -----     /----
" मुझे याद है /सब ज़रा ज़रा/--तुम्हे याद हो /कि न याद हो"  --पहले हस्व में जहाँ ’मुतहर्रिक’ आना था वहाँ ’सब’ [ 2 सबब-ए-ख़फ़ीफ़] आ गया । ये होती है शे’र की बारिकियाँ

[6] बहर-ए-मुसम्मन सालिम मज़ाल
मुतफ़ाइलुन---मुतफ़ाइलुन-----मुतफ़ाइलुन----मुतफ़ाइलान 
  11212-------11212---------11212 -------11 2121
उदाहरण कमाल अहमद सिद्दीक़ी साहब के हवाले से

जो उजाल देगा हयात को ,है उस आफ़ताब का इन्तज़ार
जो करेगा ज़ुल्म का खात्मा ,है उस इन्क़लाब का इन्तज़ार

तक़्तीअ कर के देख लेते हैं
1   1   2 1 2  / 1 1 2 1 2  /  1 1  2  1 2   / 1 1  2   1 2  1
जो उजाल दे /गा हयात को / ,है उ सा फ़ता/ ब का इन् त ज़ार          [यहाँ उस+आफ़ताब = उ साफ़ताब =अलिफ़ का वस्ल हो गया है]
1    1  2 1   2    / 1  1    2 1 2  /    1 1  2  1    2   / 1  1  2  1  2 1
जो क रे गा ज़ुल् /म  का खा त् मा/  ,है उ सिन क ला/ ब का इन् त ज़ा र    [यहाँ   उस+इन        = उ सिन         = ज़ेर का वस्ल हो गया है ]

बहर-ए-कामिल के सालिम बह्र का बयान खतम हुआ
अब अगली क़िस्त में अब कामिल की मुज़ाहिफ़ बहूर की चर्चा करेंगे।

--इस मंच पर और भी कई साहिब-ए-आलिम मौज़ूद हैं उनसे मेरी दस्तबस्ता [ हाथ जोड़ कर] गुज़ारिश है कि अगर कहीं कोई ग़लत बयानी या ग़लत ख़यालबन्दी  हो गई हो तो निशान्दिही ज़रूर फ़र्मायें ताकि मैं ख़ुद को  दुरुस्त कर सकूं ।मेरी मज़ीद [अतिरिक्त] रहनुमाई फ़र्माये ।मम्नून-ओ-शुक्रगुज़ार रहूँगा।

अभी बह्र के कुछ बयां और भी हैं..........
ज़िहाफ़ात् के कुछ निशां और भी हैं.....

एक बात बड़े ही अदब से एतराफ़ [स्वीकार] करता हूँ कि इन तमाम अक़्सात ,तज़्क़िरात  और तहरीर के लिए अपने आलिम अरूज़ी साहिबान  कमाल अहमद सिद्द्क़ी साहब , डा0 शम्सुर्र्हमान फ़ारुक़ी साहब ,आलिम जनाब  सरवर आलम राज़ ’सरवर ’ साहब  , अजीज  दोस्त डा0 आरिफ़ हसन ख़ान साहब  का  और कुछ दीगर दोस्तों का तह-ए-दिल  से मम्नून-ओ-मश्कूर हूँ जिनकी किताबों से  कुछ पढ़ सका ,समझ सका और लिख सका ।वगरना इस हक़ीर में इतनी  बिसात कहाँ  इतनी औक़ात कहां । इन तज़्क़िरात में  मेरा कुछ भी अपना नहीं है बस  आलिम साहिबान  के अरूज़ पर किए गए कामों का फ़क़त हिन्दी तर्जुमा समझिए बस ........
एक बात और--

न आलिम ,न मुल्ला ,न उस्ताद ’आनन’
अदब से मुहब्ब्त ,अदब आशना  हूँ

[नोट् :- पिछले अक़सात  [क़िस्तों ]के आलेख [ मज़ामीन ]आप मेरे ब्लाग पर  भी देख सकते हैं 

www.urdu-se-hindi.blogspot.com
or
www.urdusehindi.blogspot.com
-आनन्द.पाठक-







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