शनिवार, 19 जनवरी 2019

उर्दू बह्र पर एक बातचीत : क़िस्त 60 [ बह्र-ए-रुबाई]

क़िस्त 60 : रुबाई की बह्रें


[नोट : कुछ  मित्रों का आग्रह था कि कभी ’रुबाई की बह्रों पर भी बातचीत की जाए। यह आलेख उसी सन्दर्भ में ]

रुबाई उर्दू शायरी की एक विधा है। यह विधा अरबी शायरी में नहीं पाई जाती है । इस का इज़ाद अहल-ए-इरान ने किया और फिर वहाँ से उर्दू शायरी में आई
आप जानते होंगे ,फ़ारसी के  शायर उमर ख़य्याम की रुबाईयात काफी मशहूर है और उनके  विश्व के कई भाषाओं में अनुवाद भी हो चुके हैं जिसमे अग्रेजी के कवि ’फिटजेराल्ड ’ का इंग्लिस  अनुवाद बहुत अच्छा माना जाता है
।उन रुबाईयात के हिन्दी में भी  कई अनुवाद हो चुके है  जिसमें  श्री हरिवंश राय ’बच्चन’ जी का हिन्दी अनुवाद बहुत अच्छा माना जाता है । बच्चन जी अनुवाद करते करते ख़य्याम की रुबाइयात से इतना प्रभावित हुए कि वो खुद ही बाद में मधुशाला मधुबाला मधु कलश आदि की रचना की ।
रुबाई की बह्रें [औज़ान] की चर्चा करने से पूर्व ,रुबाई के बारे में कुछ बात कर लेते हैं
रुबाई चार लाइन की एक रचना होती है जिसमें पहली--दूसरी--और चौथी पंक्ति तुकान्त [हम क़ाफ़िया] होती है ।तीसरी पंक्ति हम क़ाफ़िया या तुकान्त होना  ज़रूरी नहीं । और हो तो मनाही भी नहीं । न होना ही बेहतर माना जाता है ।रुबाई की पहली दो पंक्ति को ’मतला’ नहीं कहते बल्कि ’मुस्सरा’ कहते है । रुबाई का सारा सार ’चौथी पंक्ति" में होता है या आप यूँ कह लें चौथी पंक्ति में जो जान डाली गई है -पहले की तीन लाइनें उसमें मदद करती हैं। क्लासिकल उर्दू शायरी में यह विधा काफ़ी लोक प्रिय रही मगर ग़ज़ल जैसी मक़्बूलियत नहीं पा सकी। अमूमन हर पुराने हर शायर ने यथा ग़ालिब,मीर, ज़ौक़-दाग़-फ़िराक़ आदि कई शायरों ने कुछ न कुछ रुबाइयाँ कहीं है । परन्तु आजकल फ़ेसबुक व्हाट्स अप पर या यहाँ तक कि मुशायरों में भी रुबाइयाँ न के बराबर ही लिखी पढ़ी जाती हैं।  उसकी जगह ’चार लाइन’ के मुक्तक पढ़े जाते है ,जो रुबाई नहीं होते। ’मुक्तक’ नाम आदरणीय गोपाल दास’नीरज’ जी का दिया हुआ है ।

एक मुक्तक देख लें

[1] बात को मन के मन से तोलूँगा
इस से पहले ज़ुबाँ न खोलूँगा
चाहे दुनिया सुने सुने न सुने
मैं जहाँ हूँ वहीं  से बोलूँगा
बलवीर सिंह ’रंग’

एक रुबाई लिख रहा हूँ

[2] दुनिया के अलम  ’ज़ौक़’  उठा जाएँगे
हम क्या कहें  क्या आए थे क्या जाएँगे
जब आए थे रोते हुए आप  आए थे
जब जाएँगे औरों  को रुला  जाएँगे
-ज़ौक-
अब एक मतला और एक शे’र देख लें

[3] आज इतनी मिली है  ख़ुशी आप से
दिल मिला तो मिली ज़िन्दगी आप से
तीरगी राह-ए-उल्फ़त पे तारी न हो
छन के आती रहे रोशनी  आप से
-आनन-
आप ध्यान से देखें -सभी कलाम में चार पंक्तियाँ है ,सभी में पहली--दूसरी--और चौथी पंक्ति तुकान्त [हम काफ़िया है] और अमूमन सभी की ’चौथी’ पंक्ति में जान है मगर सभी ’रुबाई’ नहीं है --सिवा [2] के ज़ौक़ की रुबाई
इसी लिए कहते है हर चार लाईन की रचना ’रुबाई’ नहीं होती।मगर हर रुबाई ’चार लाईन’ की ही होती है । इसी रुबाई शब्द से ’मुरब्ब: ’ --[चार अर्कान वाले शेर]  बना है ।
कारण कि रुबाई की अपनी ख़ास बह्र होती है अपने ख़ास औज़ान होते हैं
यूँ तो ’रुबाई’ उत्पति के बारे में कुछ किंवदन्तियाँ  भी  है। यहाँ उल्लेख करने की कोई ज़रूरत नहीं । बस आप यहीं समझ लें कि रुबाई के बह्र की उत्पति ’बह्र-ए-हज़ज’ से हुआ है
बह्र-ए-हज़ज का बुनियादी रुक ’मुफ़ाईलुन ’[1222] होता है और यूँ तो इस पर कई ज़िहाफ़ लग सकते हैं मगर ’रुबाई’ के सन्दर्भ में  कुछ ख़ास ज़िहाफ़ ही लगते हैं ।जो नीचे लिख रहा हूं

मुफ़ाईलुन [1222} + ख़र्ब =अख़रब ’मफ़ऊलु- [221]  यानी लाम पर हरकत है[ ख़र्ब एक मुरक्कब ज़िहाफ़ है =[ख़रम +कफ़]=दोनो ज़िहाफ़ का अमल एक साथ होगा
** मुफ़ाईलुन [1222] +ख़रम =अख़रम ’मफ़ऊलुन’-[222]**
मुफ़ाईलुन [1222] +कफ़ =मक्फ़ूफ़ ’ ’मफ़ाईलु- [1221] यानी लाम पर हरकत है
मुफ़ाईलुन [1222]  +हतम =अहतम  ’फ़ऊलु ’[121] यानी लाम पर हरकत है [ हतम एक मुरक्कब ज़िहाफ़ है = बतर+क़ब्ज़+तसबीग़= तीनो ज़िहाफ़ का अमल एक साथ होगा
[** अख़रम के बारे में आगे चर्चा करेंगे]
 रुबाई की बह्र समझना बहुत आसान है-अगर आप ’तख़्नीक़’ का अमल समझ लिए हों तो
 उम्मीद है कि आप लोग "तस्कीन-ए-औसत" और तख़नीक़ का अमल जानते होंगे। जो पाठक प्रथम बार इस पॄष्ठ पर आए है उनके लिए एक बार दुहरा देता हूँ
तख़नीक़ का अमल = अगर किसी बह्र के दो adjacent & consecutive [समीपवर्ती रुक्न] में ’" तीन मुतहर्रिक हर्फ़ [हर्फ़ मय हरकत] एक साथ आ गए हो तो उस पर तख़्नीक का अमल हो सकता है और बीच वाला हर्फ़ ’साकिन’ माना जायेगा। इससे एक नया वज़न बरामद होता है

वैसे तो रुबाई की मूल बह्र तो 2- ही होती है मगर इसी ’तख़्नीक’ के अमल से 24 -औज़ान [ वज़्न का ब0व0] बरामद होते है।और वो दो मूल बह्र यूँ हैं

[A] मफ़ऊलु---मफ़ाईलु---मफ़ाईलु----फ़ अ’ल/ फ़ऊल
221---------1221----1221--------12  / 121
[B] मफ़ऊलु----मफ़ाइलुन---मफ़ाईलु-----फ़ अ’ल/फ़ऊलु
221----------1212-----1221-------12  / 121
ख़याल रहे -लु- मतलब -लाम मुतहर्रिक [यानी -लाम- मय हरकत]
-------------------     -----------------------------------     --------------------
अब मूल बह्र [A]  पर ’तख़्नीक़’ का अमल करते हैं फिर देखते हैं कि कितने ’मुतबादिल’ औज़ान बरामद होते हैं

  -a-----------b--      -- -c-        ---- d-
[A] मफ़ऊलु---मफ़ाईलु----मफ़ाईलु----फ़ अ’ल
221---------1221----1221--------12


[1] मफ़ऊलु---मफ़ाईलु----मफ़ाईलु----फ़ अ’ल
221---1221----1221---12  -no  operation-

[2] 221----1221---1222-----2 operation on c & d

[3] 221----1222----221----12 operation on b &  C

[4] 222---221---1221----12 operation  on a & b

[5] 221---1222---222---2 operation on  b --c---d

[6] 222---221---1222---2 operation on  [a--b]-[-c--d]

[7] 222---222---221---12 operation on  a-b--c

[8] 222---222---222---2 operation  a--b---c---d

यह तो 8-वज़न  सिर्फ़ अरूज़ और ज़र्ब में ’फ़ अ’ल [12] से ही बरामद हुए
ऐसे ही 8- वज़न अरूज़ और ज़र्ब में में जब ’फ़ऊल [121] लिखेंगे तो बरामद  होंगे
और यूँ भी अरूज़ /ज़र्ब के मुक़ाम पर ’फ़ अ’ल [12] की जगह ’फ़ऊल [121] लाया जा सकता है
और वैसे भी अगर किसी शे’र के आख़िर में एक साकिन [1] बढ़ा भी देते हैं तो शे’र के वज़न में कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता। आहंग मज़रूह नहीं होता।
और वो मज़ीद 8-वज़न आप लिख सकते हैं । चलिए आप के लिए मैं लिख देता हूँ same-to-same बस आख़िए में [1] साकिन जोड़ दूँगा ’फ़ऊल [121] दर्शाने के लिए

[1] मफ़ऊलु---मफ़ाईलु----मफ़ाईलु----फ़ऊल
221---1221----1221--           -121  -no  operation-

[2] 221----1221---1222-----21 [फ़ा अ’] operation on c & d

[3] 221----1222----221----121 operation on b &  C

[4] 222---221---1221----121 operation  on a & b

[5] 221---1222---222---21 operation on  b --c---d

[6] 222---221---1222---21 operation on  [a--b]-[-c--d]

[7] 222---222---221---121 operation on  a-b--c

[8] 222---222---222---21 operation  a--b---c---d

इस प्रकार
 रुबाई की पहले बुनियादी वज़न से --16- औज़ान बरामद हुए [ नोट करें]
--------------    -----------------------    --------------------
अब मूल बह्र [B]  पर ’तख़्नीक़’ का अमल करते हैं फिर देखते हैं कि कितने ’मुतबादिल’ औज़ान बरामद होते हैं
   a------------b-----------c------------d---
[B] मफ़ऊलु----मफ़ाइलुन---मफ़ाईलु-----फ़ अ’ल
221---------1212----1221--------12

[1] 221----1212   -----1221----12        -no operation-

[2] 222-----212-------1221---12 operation on -a- &-b-

[3] 221-----1212 ----1222----2 operation on  c & d

[4] 222------212-----1222-----2 operation  on [a & b]- [c &d]

जैसा कि ऊपर कह चुके हैं कि अगर शे;र के आख़िर में एक साकिन [1] और बढ़ा भी दें तो शे’र के वज़न में कोई फ़र्क नहीं पड़ेगा ।आहंग मज़रूह नहीं होता । और वैसे भी अरूज़ /ज़र्ब के मुक़ाम पर ’फ़ अ’ल [12] की जगह ’फ़ऊल [121] लाया जा सकता है
इस प्रकार 4 -वज़न  और बरामद होते हैं जो यूँ होंगे
[B] मफ़ऊलु----मफ़ाइलुन---मफ़ाईलु-----फ़ऊल
221---------1212----1221--------121


[1] 221----1212   -----1221----121        -no operation-

[2] 222-----212-------1221---121 operation on -a- &-b-

[3] 221-----1212 ----1222----21 operation on  c & d

[4] 222------212-----1222-----21 operation  on [a & b]- [c &d]

इस प्रकार रुबाई की दूसरी बुनियादी बह्र से कुल 8-औज़ान बरामद हुए

अब आप दोनो बुनियादी रुक्न के तमाम औज़ान जो बुनियादी है और जो ’मुख़्नीक़ ’ [ जो तख़नीक़ के अमल से बरामद हुए हैं] है कुल मिला दें तो
16+8 = 24 औज़ान होंगे और यही अरूज़ की किताबों में लिखा है --रुबाई के 24-औज़ान होते हैं। इन अर्कान को रटने की ज़रूरत नहीं है बस समझने की ज़रूरत है।

1 आप की सुविधा के लिए ये सभी 24-अर्कान एक साथ एक जगह एक क्रम से लिख रहा हूँ जिससे किसी रुबाई की तक्तीअ’ या वज़न पहचानने में सुविधा हो। नीचे का क्रम सुविधाजनक ढंग से लिखा  हुआ है, पर हैं वही 24-औज़ान जिसका ऊपर चर्चा कर चुका हूँ  । इन में से 12-औज़ान तो वही हैं जो अरूज़/ज़र्ब में ’फ़ अ’ल’ [12] या ’फ़े’ [2] वाले हैं । बाक़ी 12-औज़ान वो हैं जिसमें मात्र अरूज़/ज़र्ब के मुक़ाम पर -1-साकिन बढ़ा दिया गया है
2 इन 12-औज़ान में से 6-औज़ान तो  अख़रब  मफ़ऊलु [221] से शुरु होते है। बाक़ी 6-औज़ान मफ़ऊलुन [222] से शुरु होते है
3 मफ़ऊलु [221] से शुरु होने वाले 6 औज़ान में से 3-औज़ान तो ’फ़ अ’ल [12] पर खतम होते है और बाक़ी 3-औज़ान ’फ़े’ [2] पर
4 यही हाल ’मफ़ऊलुन [222] से शुरु होने वाले औज़ान के साथ भी लागू होता है
5 इसका मतलब यह हुआ कि रुबाई का मिसरा या तो मफ़ऊलु [221] से शुरु होगी या फिर ’मफ़ऊलुन’ [222] से
और खतम होगा ’फ़े/फ़ाअ’[ 2 /21] पे या फिर ’फ़ अ’ल’ /. फ़ऊल   [ 12 /121] पे

6 आप की सुविधा और सफ़ाई के लिहाज़ से इन अर्कान के नाम अलामत के ऊपर नहीं लिख रहे है ।आप चाहें तो मश्क़ कर अलग से लिख सकते हैं जैसे
221 =मफ़ऊलु
1212 =मफ़ाइलुन
1221 =मफ़ाईलु
1222 =मफ़ाईलुन
**222 =मफ़ऊलुन**
12 = फ़ अ’ल  [-लाम-साकिन ]
121 =फ़ऊल   [-लाम- साकिन]
2 =फ़े
21 =फ़ाअ’  [-ऐन- मुतहर्रिक]
** लेख के आरम्भ में कहा था कि ’मफ़ऊलुन’ [222] के बारे में बात में बात करेंगे। कहना यही थी कि यह ’मफ़ऊलुन’ [222] रुबाई में  मुख़्नीक़ [ तख़्नीक के अमल ] से हासिल होता है। न कि ’अख़रम’ ज़िहाफ़ से । अरूज़ की कई किताबों में इसे ’अख़रम’ ज़िहाफ़ से हासिल दिखाया /बताया गया है ।

R-1 221-- -1221----1221-- -12

R-2 221----1222----221----12

R-3 221----1212   --1221---12 
   
R-4 221----1221--- 1222-----2

R-5 221--- 1222--   -222--    -2

R-6 221----1212 ---1222----2
------       --------         ---------------     ----
R-7 222---  221--   -1221----12

R-8 222--  -222--  -221-   --12

R-9 222-----212- --1221---12

R-10 222-   --221-- -1222--  -2

R-11 222--  -222-  --222--   -2

R-12 222-----212- --1222-----2
----------------    ------------------     ----------

 अगले 12-अर्कान लगभग  समान ही होंगे -बस आखिर वाली रुक्न [अरूज़/ज़र्ब] मे -1-साकिन बढ़ाते जाइए।आप चाहें तो उसे पहचानने के लिए    R'1---R'2---R'3---  ---  R'12  Index कर सकते है जिससे पता चलता रहे कि ये वो औज़ान है जिसके अरूज़/ज़र्ब में -1-साकिन मज़ीद जुड़ा हुआ है ।
यह तमाम 24-औज़ान आपस में ’मुतबादिल’ [यानी एक की बदल/जगह दूसरा] लाया जा सकता है
्कारण इन तमाम 12 औज़ान की मात्रा जोड़िए ---सभी का योग एक जैसा है [20] बराबर
यानी रुबाई के चारों पंक्तियों में 4-अलग अलग वज़न [ इन्ही 24 में से कोई चार] हो सकते हैं । या किसी-एक ही वज़न में चारों पंक्तियाँ हो सकती है
उसी प्रकार बाक़ी 12 [जो अरूज़/ज़र्ब मेम -एक-साकिन बढ़ाने से हासिल होंगे] में कुल मात्रा भार 21 होगा
-----     ---------------------    -----------------------------   ----------
चलिए एक दो रुबाइयों की तक़्तीअ कर के देख लेते है -
[क] ज़ौक़ की रुबाई देख लेते हैं

दुनिया के अलम  ’ज़ौक़’  उठा जाएँगे
हम क्या कहें  क्या आए थे क्या जाएँगे
जब आए थे रोते हुए आप  आए थे
जब जाएँगे औरों  को रुला  जाएँगे
-ज़ौक-
इसकी तक़्तीअ कर के देख लेते हैं
2   2    1   / 1  2    2  1   / 1  2  2 2  / 2 R-4
दुनिया के /अलम  ’ज़ौक़’ / उठा जाएँ /गे
2     2     1 /  1 2 2 2  1 / 1 2 2 2  / 2 R-4
हम क्या क/हें  क्या आए/ थे क्या जाएँ /गे
2      2   1  / 1  2 2  1/1  2    2  2  /2 R-4   [ -आप आए-  में   अलिफ़ का वस्ल है और आपाए [222]
जब आए /थे रोते हु    /ए आप  आए /थे
2      2   1/ 1  2  2  1 / 1 2   2 2  /1 R-4
जब जाएँ /गे औरों  को /रुला  जाएँ /गे
-ज़ौक-
[ख] मीर अनीस लखनवी की एक बहुत ही मशहूर रुबाई है

दुनिया भी अजब सराय-ए-फ़ानी देखी
हर चीज़ यहाँ की आनी जानी देखी
जो आ के न जाए वो बुढ़ापा  देखा
जो जा के न आए वो  जवानी   देखी
-मीर अनीस लखनवी
तक़्तीअ’ कर के देख लेते हैं
   221     /  1212       / 1 2 2  2      / 2 =221-1212---1222--2 =  R-6
दुनिया भी /अजब सरा /य-ए-फ़ानी दे/खी
2    2   1 /  1  2  1  2   / 1 2  2  2  / 2 = 221-1212---1222--2 =  R-6
हर चीज़ / यहाँ की आ /नी जानी दे  /खी
 2    2   1 / 1  2 1 2  / 1 2 2 2    /2 =221-1212---1222--2 =  R-6
जो आ के/ न जाए वो  /बुढ़ापा  दे    /खा
2      2   1/ 1 2 1 2    / 1 2 2 2  / 2 = 221-1212---1222--2 =  R-6
जो जा के/ न आए वो  /जवानी   दे /खी
[नोट -इस रुबाई में एक ही वज़न चारों पंक्तियों में इस्तेमाल हुई है ]

बात हैरत की है कि औज़ान में  इतनी ’फ़ेक्सिबिल्टी ’ के बावजूद भी  रुबाइयाँ दौर-ए-हाज़िर में कम ही कही जा रही है और उनकी जगह मुक्तक या ’एक मतला-एक शे’र’ ने ले लिया है किसी मुशायरे को सरगर्म करने के लिए।
शायद एक कारण ये रहा हो कि रुबाई की गायकी [मौसिक़ी] ग़ज़ल के मुकाबले कमज़ोर हो या फिर शायर के सामने इतनी राहें [24] खुल जाती है कि वो भ्रमित हो जाता हो कि कौन सा वज़न इस्तेमाल करें। यह सब मेरा ख़याल है
बेहतर तो होगा कि यदि आप रुबाई कहना चाह्ते हैं तो सभी चार मिसरे एक या दो वज़न में ही कहें --कोई दिक्कत नहीं

अस्तु


-आनन्द.पाठक--

1 टिप्पणी:

  1. मेरा उर्दू भाषा का ज्ञान बहुत कम है। इसलिए समझना में बहुत मुश्किल लगा। यदि कोई अधिक हिन्दी वाले आपके लेख हों तो जानकारी दीजिए। मैं शायरी सीखने की कोशिश कर रहा हूँ।

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