उर्दू बह्र पर एक बातचीत :क़िस्त 61 [बह्र-ए-माहिया]
उर्दू शायरी में माहिया के औज़ान ...
उर्दू शायरी में यूँ तो कई विधायें प्रचलित हैं जिसमें ग़ज़ल ,रुबाई, नज़्म क़सीदा आदि काफ़ी मशहूर है ,इस हिसाब से ’माहिया लेखन’ बिलकुल नई विधा है जो ’पंजाबी से उर्दू में आई है लेकिन उर्दू शे’र-ओ-सुख़न में अभी उतनी मक़्बूलियत हासिल नहीं हुई है
माहिया वस्तुत: पंजाबी लोकगीत की एक विधा है ,वैसे ही जैसे हमारे पूर्वांचल में कजरी ,चैता,फ़ाग,सोहर आदि । माहिया का शाब्दिक अर्थ होता है प्रेमिका से बातचीत करना ,अपनी बात कहना बिलकुल वैसे ही जैसी ग़ज़ल या शे’र में कहते हैं ।दोनो की रवायती ज़मीन मानवीय भावनाएँ और विषय एक जैसे ही है -विरह ,मिलन ,जुदाई,वस्ल-ए-यार ,शिकवा,गिला,शिकायत,रूठना,मनाना आदि। परन्तु समय के साथ साथ माहिया जीवन के और विषय पर राजनीति ,जीवन दर्शन ,सामाजिक विषय पर भी कहे जाने लगे।
माहिया पर जनाब हैदर क़ुरेशी साहब ने काफी शोध और अध्ययन किया है और काफी माहिया कहे हैं । उर्दू में माहिया के सन्दर्भ में उनका काफी योगदान है ।आप ने माहिया के ख़ुद के अपने संग्रह भी निकाले है आप पाकिस्तान के शायर हैं जो बाद में जर्मनी के प्रवासी हो गए।आप ने "उर्दू में माहिया निगारी" नामक किताब में माहिया के बारे में काफी विस्तार से लिखा है ।
हिन्दी फ़िल्म में सबसे पहले माहिया क़मर जलालाबादी ने लिखा [हिन्दी फ़िल्म फ़ागुन [1958] [भारत भूषण और मधुबाला] संगीत ओ पी नैय्यर का वो गीत ज़रूर सुना होगा जिसे मुहम्मद रफ़ी और आशा भोंसले जी ने गाया है]
" तुम रूठ के मत जाना
मुझ से क्या शिकवा
दीवाना है दीवाना
यूँ हो गया बेगाना
तेरा मेरा क्या रिश्ता
ये तू ने नहीं जाना
यह माहिया है ।
बाद में हिन्दी फ़िल्म ’नया-दौर’ [ दिलीप कुमार ,वैजयन्ती माला अभिनीत] में साहिर लुध्यानवी ने कुछ माहिया लिखे थे
दिल ले के दगा देंगे
यार है मतलब के
देंगे तो ये क्या देंगे
दुनिया को दिखा देंगे
यारो के पसीने पर
हम खून बहा देंगे
यह माहिया है
--------
माहिया 3-लाइन की [जैसे ;जापानी विधा ’हाइकू’ या हिन्दी का त्रि-पटिक’ छन्द। ] एक शे’री विधा है जो बह्र-ए-मुतदारिक [212- फ़ाइलुन] से पैदा हुआ है जिसमे पहला और तीसरा मिसरा आपस में ’हमक़ाफ़िया ’ होती है दूसरा मिसरा ;हमक़ाफ़िया’ हो ज़रूरी नहीं ।अगर है तो मनाही भी नही
पहली और तीसरी पंक्ति का एक ’ख़ास’ वज़न होता है और दूसरी पंक्ति में [ पहले और तीसरे मिसरा से ] एक सबब-ए-ख़फ़ीफ़ कम होता है । पुराने वक़्त में तीनो मिसरा एक ही वज़न का लिखा जाता रहा । मगर अब यह तय किया गया कि दूसरे मिसरा में -पहले और तीसरे मिसरे कि बनिस्बत एक सबब-ए-ख़फ़ीफ़ [2] कम होगा।
माहिया के औज़ान विस्तार से अब देखते है । यदि आप ’तस्कीन-ए-औसत’ का अमल समझ लिया है तो माहिया के औज़ान समझने में कोई परेशानी नहीं ।आप जानते हैं कि ’फ़ाइलुन[212] का मख़्बून मुज़ाहिफ़ ’फ़इ’लुन [ 112] होता है जिसमे [ फ़े--ऐन--लाम 3- मुतहर्रिक एक साथ आ गए] ख़ब्न एक ज़िहाफ़ होता है } अगर कोई रुक्न सबब-ए-ख़फ़ीफ़ से शुरु होता है [जैसे फ़ाइलुन में ’फ़ा--इलुन] तो सबब--ए-ख़फ़ीफ़ का साकिन [जैसी फ़ा का-अलिफ़-] को गिराने के अमल को ’ख़ब्न ’ कहते है और मुज़ाहिफ़ को मख़्बून कहते ।अगर ’फ़ाइलुन 212] में पहला अलिफ़ गिरा दें तो बचेगा फ़ इलुन [112] -यही मख़्बून है फ़ाइलुन का।
[1] पहले और तीसरे मिसरे की मूल बह्र [मुतक़ारिब म्ख़्बून]
--a---------b----------c-------/ c'
फ़ इलुन- -फ़ इलुन- -फ़ इलुन /फ़ इलान
1 1 2--------1 1 2-----1 1 2 / 1 1 2 1
अब इस वज़न पर तस्कीन-ए-औसत का अमल हो सकता है और इस से 16-औज़ान बरामद हो सकते है । देखिए कैसे । आप की सुविधा और clarity के लिए यहाँ 112--22--जैसे अलामत से दिखा रहा हूँ बाद में आप चाहें तो उस रुक्न का नाम भी उसके ऊपर लिख सकते हैं
फ़ इलुन- -फ़ इलुन- -फ़ इलुन
--a----------b------------c
[ A ] 1 1 2---1 1 2-- ---1 1 2 मूल बह्र -no operation
[ B ] 22-------112--------112 operarion on -a- only
[C ] 112---- -22------ --112 operation on -b- only
[D ] 112----112-------22 operation on -c- only
[E ] 22-------22----------112 operation on -a & -b-
[F ] 112--- 22-------22 operation on -b-&-c-
[G ] 22-- -112--------22 operation on -c-& -a-
[H ] 22--- ---22----------22 operation on -a-&-b-&-c
इस प्रकार माहिया के पहले मिसरे और तीसरे मिसरे के लिए 8-औज़ान बरामद हो गए।यहाँ पर कुछ ध्यान देने की बातें--
[1] यह सभी आठो वज़न आपस में बदले जा सकते है [बाहमी मुतबादिल हैं] कारण कि सभी वज़न का मात्रा योग -12- ही है
[2] मूल बह्र का हर रुक्न ’फ़ अ’लुन [112 ] है जिसमें 3- मुतहर्रिक हर्फ़ [-फ़े-ऐन-लाम-] एक साथ आ गए हैं अत: हर Individual रुक्न [ या एक साथ दो या दो से अधिक रुक्न पर भी एक साथ ]पर ’तस्कीन-ए-औसत ’ का अमल हो सकता है और एक नई रुक्न [ फ़ेलुन =22 ] बरामद हो सकती है जिसे हम यहाँ ’मख़्बून मुसक्किन" कहेंगे क्योंकि यह ’तस्कीन’ के अमल से बरामद हुआ है
[3] अब आप चाहें तो ऊपर की अलामत 22 की जगह ’मख़्बून मुसक्किन और 112 की जगह "फ़अ’लुन" लिख सकते है
एक बात और
आप जानते हों कि अगर किसी मिसरा के आखिर में -1- साकिन बढ़ा दिया जाए तो मिसरे के आहंग में कोई फ़र्क नहीं पड़ता है । अत: ऊपर के औज़ान में मिसरा के आख़िर में -1- साकिन बढ़ा दे तो 8-औज़ान और बरामद हो सकते हैं
जिसे हम 1121 को ’मख़्बून मज़ाल ’ कहेंगे
और 221 को ;मख़्बून मुसक्किन मज़ाल ’ कहेंगे
आप चाहें तो अलग से विस्तार से लिख कर देख सकते है
अत: पहले और तीसरे मिसरे के कुल मिला कर [8+8 ]=16 औज़ान बरामद हो सकते है
-------
दूसरे मिसरे की मूल बह्र [यह वज़न बह्र-ए-मुतक़ारिब से निकली हुई है
--a----------b--------c-----/ c'
फ़अ’ लु---फ़ऊलु---फ़ अ’ल /फ़ऊलु =21--------121-----1 2 / 121 [ इसका नाम मुतक़ारिब असरम मक़्बूज़ महज़ूफ़ /मक़सूर है] कुछ आप को ध्यान आ रहा है ? जी हाँ . बहर-ए-मीर की चर्चा करते समय इस प्रकार के वज़न का प्रयोग किया था।
ख़ैर
ध्यान से देखे --a--& --b और --b--& ---c यानी दो-दो रुक्न मिला कर 3- मुतहर्रिक [-लाम--फ़े---ऐन] एक साथ आ रहे हैं अत: इन पर ’तख़्नीक़’ का अमल हो सकता है और इस से 8-मुतबादिल औज़ान बरामद हो सकते हैं । देखिए कैसे?
--a----------b--------c-----
फ़अ’ लु---फ़ऊलु---फ़ अ’ल----मूल बह्र
21--------121-------12--
वही बात -आप की सुविधा और clarity के लिए यहाँ 112--22--जैसे अलामत से दिखा रहा हूँ बाद में आप चाहें तो उस रुक्न का नाम भी उसके ऊपर लिख सकते हैं
[I ] 21-----121-----12 मूल बह्र -no operation
[J ] 22-----21----12 operation on -a & b-
[K ] 21----122----2 operation on -b & c-
[L ] 22-----22----2 operation on a--b---c
इस प्रकार दूसरे मिसरे के 4-वज़न बरामद हुए
जैसा कि आप जानते हैं अगर किसी मिसरा के आखिर में -1- साकिन बढ़ा दिया जाए तो मिसरे के आहंग में कोई फ़र्क नहीं पड़ता है । अत: ऊपर के औज़ान में मिसरा के आख़िर में -1- साकिन बढ़ा दे तो 4-औज़ान और बरामद हो सकते हैं।
आप उसे i'--j'---k'--l' लिख सकते है -जिससे रुक्न पहचानने में सुविधा होगी
इस प्रकार दूसरे मिसरे के भी 4+4=8 औज़ान बरामद हो गए
जिसमे हम 121 को फ़ऊल [[मक़्सूर] कहेंगे
और 21 को ;फ़ाअ’[-ऐन साकिन] को " मक्सूर मुख़्न्निक़" ’ कहेंगे
आप चाहें तो अलग से विस्तार से लिख कर देख सकते है। मेरी व्यक्तिगत राय यही है कि 22 या 122 के बजाय रुक्न का नाम ही लिखना ही श्रेयस्कर होगा कारण कि आप को यह पता चलता रहे कि मिसरा के किस मुक़ाम पर साकिन होना चाहिए और किस मुक़ाम मुतहर्रिक ।
आप घबराइए नहीं --ये 24-औज़ान आप को रटने की ज़रूरत नहीं -बस समझने के ज़रूरत है --जो बहुत आसान है
[1] ज़्यादातर माहिया निगार पहले और तीसरे मिसरे के लिए G & H का ही प्रयोग करते है , और मिसरा के अन्त में Additional साकिन वाला केस तो बहुत जी कम देखने को मिलता है । बाक़ी औज़ान का प्रयोग कभी कभी ही करते है --जब कोई मिसरा ऐसा फ़ँस जाये तब
[2] दूसरे मिसरे के लिए K & L का ही प्रयोग करते हैं
[3] प्राय: हर मिसरा के आख़िर मे -एक सबब-ए-ख़फ़ीफ़- [2] या इलुन [12] आता है यानी मिसरा दीर्घ [2] पर ही गिरता है
माहिया के औज़ान के बारे में कुछ दिलचस्प बातें
[1] अमूमन उर्दू शायरी में --कोई शे’र या ग़ज़ल एक ही बहर या वज़न में कहे जाते है ,मगर यह स्निफ़ [विधा] दो बह्र इस्तेमाल करती है --यानी पहली पंक्ति में --मुतदारिक मख़्बून की ,और दूसरी पंक्ति -मुतक़ारिब की मुज़ाहिफ़
[2] यह स्निफ़ ’सालिम’ रुक्न इस्तेमाल नहीं करती --बस सालिम रुक्न की मुज़ाहिफ़ शकल ही इस्तेमाल करती है
[3] चूँकि यह स्निफ़[विधा] मुज़ाहिफ़ शजक ही इस्तेमाल करती है अत: 3-मुतहर्रिक एक साथ आने के मुमकिनात है--चाहे एकल रुक्न में या दो पास पास वाले मुज़ाहिफ़ रुक्न मिला कर }फिर तस्कीन या तख़्नीक़ का अमल हो सकता है इन रुक्न पर।
[4] हालाँ कि दूसरी लाइन में एक सबब-ए-ख़फ़ीफ़ कम होता है बनिस्बत पहली या तीसरी लाइन से ---शायद यह कमी ऎब न हो कर -यही माहिया को आहंग ख़ेज़ बनाती है--जैसे गाल में पड़े गढ्ढे नायिका के सौन्दर्य श्री में वॄद्धि देते है।
अब कुछ माहिया और उसकी तक़्तीअ देख लेते है
[1] " तुम रूठ के मत जाना
मुझ से क्या शिकवा
दीवाना है दीवाना
--क़मर जलालाबादी
तक़्तीअ देखते हैं -
2 2 / 1 1 2 / 2 2
तुम रू/ ठ के मत / जाना फ़े’लुन---फ़अ’लुन---फ़े’लुन = G
2 2 / 2 2 / 2
मुझ से /क्या शिक/वा फ़े’लुन----फ़े’लुन ---फ़े =L
2 2 / 1 1 2 / 2 2
दीवा/ ना है दी /वाना फ़े’लुन---फ़अ’लुन---फ़े’लुन =G
[2] दिल ले के दगा देंगे
यार है मतलब के
देंगे तो ये क्या देंगे
--साहिर लुध्यानवी
तक़्तीअ’ भी देख लेते हैं
2 2 / 1 1 2 / 2 2 22---112---22 = G
दिल ले /के द गा /दें गे
2 1 / 1 2 2 / 2 21---122---2 =K
यार /है मत लब /के
2 2 / 1 1 2 / 2 2 22---112---22 = G
देंगे/ तो ये क्या /देंगे
[3] अब इस हक़ीर का भी एक माहिया बर्दास्त कर लें
जब छोड़ के जाना था
क्यों आए थे तुम?
क्या दिल बहलाना था?
अब इसकी तक़्तीअ’ भी देख लें
2 2 / 1 1 2 / 2 2 =22---112---22 = G
जब छो /ड़ के जा /ना था
2 2 / 2 2 /2 = 22---22---2 =L
क्यों आ /ए थे/ तुम?
2 2 / 2 2 / 2 2 = 22---22---22 =H
क्या दिल/ बह ला /ना था?
एक बात चलते चलते
चूँकि उर्दू में माहिया निगारी एक नई विधा है --इस पर शायरों ने बहुत कम ही कहा है--लगभग ना के बराबर। कभी कहीं कोई शायर तबअ’ आज़माई के लिहाज़ से छिट्पुट तरीक़े से यदा-कदा लिख देते हैं
उर्दू रिसालों में भी इसकी कोई ख़ास तवज़्ज़ो न मिली ---मज़्मुआ --ए-माहिया तो बहुत कम ही मिलते है। डा0 आरिफ़ हसन ख़ान साहब ने माहिया पर एक मज़्मुआ " ख़्वाबों की किरचें "-मंज़र-ए-आम पे आया है।
उमीद करते है कि हमारे नौजवान शायर इस जानिब माइल होंगे और मुस्तक़बिल में माहिया पर काम करेंगे और कहेंगे । इन्ही उम्मीद के साथ---
अस्तु
-आनन्द.पाठक-
उर्दू शायरी में माहिया के औज़ान ...
उर्दू शायरी में यूँ तो कई विधायें प्रचलित हैं जिसमें ग़ज़ल ,रुबाई, नज़्म क़सीदा आदि काफ़ी मशहूर है ,इस हिसाब से ’माहिया लेखन’ बिलकुल नई विधा है जो ’पंजाबी से उर्दू में आई है लेकिन उर्दू शे’र-ओ-सुख़न में अभी उतनी मक़्बूलियत हासिल नहीं हुई है
माहिया वस्तुत: पंजाबी लोकगीत की एक विधा है ,वैसे ही जैसे हमारे पूर्वांचल में कजरी ,चैता,फ़ाग,सोहर आदि । माहिया का शाब्दिक अर्थ होता है प्रेमिका से बातचीत करना ,अपनी बात कहना बिलकुल वैसे ही जैसी ग़ज़ल या शे’र में कहते हैं ।दोनो की रवायती ज़मीन मानवीय भावनाएँ और विषय एक जैसे ही है -विरह ,मिलन ,जुदाई,वस्ल-ए-यार ,शिकवा,गिला,शिकायत,रूठना,मनाना आदि। परन्तु समय के साथ साथ माहिया जीवन के और विषय पर राजनीति ,जीवन दर्शन ,सामाजिक विषय पर भी कहे जाने लगे।
माहिया पर जनाब हैदर क़ुरेशी साहब ने काफी शोध और अध्ययन किया है और काफी माहिया कहे हैं । उर्दू में माहिया के सन्दर्भ में उनका काफी योगदान है ।आप ने माहिया के ख़ुद के अपने संग्रह भी निकाले है आप पाकिस्तान के शायर हैं जो बाद में जर्मनी के प्रवासी हो गए।आप ने "उर्दू में माहिया निगारी" नामक किताब में माहिया के बारे में काफी विस्तार से लिखा है ।
हिन्दी फ़िल्म में सबसे पहले माहिया क़मर जलालाबादी ने लिखा [हिन्दी फ़िल्म फ़ागुन [1958] [भारत भूषण और मधुबाला] संगीत ओ पी नैय्यर का वो गीत ज़रूर सुना होगा जिसे मुहम्मद रफ़ी और आशा भोंसले जी ने गाया है]
" तुम रूठ के मत जाना
मुझ से क्या शिकवा
दीवाना है दीवाना
यूँ हो गया बेगाना
तेरा मेरा क्या रिश्ता
ये तू ने नहीं जाना
यह माहिया है ।
बाद में हिन्दी फ़िल्म ’नया-दौर’ [ दिलीप कुमार ,वैजयन्ती माला अभिनीत] में साहिर लुध्यानवी ने कुछ माहिया लिखे थे
दिल ले के दगा देंगे
यार है मतलब के
देंगे तो ये क्या देंगे
दुनिया को दिखा देंगे
यारो के पसीने पर
हम खून बहा देंगे
यह माहिया है
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माहिया 3-लाइन की [जैसे ;जापानी विधा ’हाइकू’ या हिन्दी का त्रि-पटिक’ छन्द। ] एक शे’री विधा है जो बह्र-ए-मुतदारिक [212- फ़ाइलुन] से पैदा हुआ है जिसमे पहला और तीसरा मिसरा आपस में ’हमक़ाफ़िया ’ होती है दूसरा मिसरा ;हमक़ाफ़िया’ हो ज़रूरी नहीं ।अगर है तो मनाही भी नही
पहली और तीसरी पंक्ति का एक ’ख़ास’ वज़न होता है और दूसरी पंक्ति में [ पहले और तीसरे मिसरा से ] एक सबब-ए-ख़फ़ीफ़ कम होता है । पुराने वक़्त में तीनो मिसरा एक ही वज़न का लिखा जाता रहा । मगर अब यह तय किया गया कि दूसरे मिसरा में -पहले और तीसरे मिसरे कि बनिस्बत एक सबब-ए-ख़फ़ीफ़ [2] कम होगा।
माहिया के औज़ान विस्तार से अब देखते है । यदि आप ’तस्कीन-ए-औसत’ का अमल समझ लिया है तो माहिया के औज़ान समझने में कोई परेशानी नहीं ।आप जानते हैं कि ’फ़ाइलुन[212] का मख़्बून मुज़ाहिफ़ ’फ़इ’लुन [ 112] होता है जिसमे [ फ़े--ऐन--लाम 3- मुतहर्रिक एक साथ आ गए] ख़ब्न एक ज़िहाफ़ होता है } अगर कोई रुक्न सबब-ए-ख़फ़ीफ़ से शुरु होता है [जैसे फ़ाइलुन में ’फ़ा--इलुन] तो सबब--ए-ख़फ़ीफ़ का साकिन [जैसी फ़ा का-अलिफ़-] को गिराने के अमल को ’ख़ब्न ’ कहते है और मुज़ाहिफ़ को मख़्बून कहते ।अगर ’फ़ाइलुन 212] में पहला अलिफ़ गिरा दें तो बचेगा फ़ इलुन [112] -यही मख़्बून है फ़ाइलुन का।
[1] पहले और तीसरे मिसरे की मूल बह्र [मुतक़ारिब म्ख़्बून]
--a---------b----------c-------/ c'
फ़ इलुन- -फ़ इलुन- -फ़ इलुन /फ़ इलान
1 1 2--------1 1 2-----1 1 2 / 1 1 2 1
अब इस वज़न पर तस्कीन-ए-औसत का अमल हो सकता है और इस से 16-औज़ान बरामद हो सकते है । देखिए कैसे । आप की सुविधा और clarity के लिए यहाँ 112--22--जैसे अलामत से दिखा रहा हूँ बाद में आप चाहें तो उस रुक्न का नाम भी उसके ऊपर लिख सकते हैं
फ़ इलुन- -फ़ इलुन- -फ़ इलुन
--a----------b------------c
[ A ] 1 1 2---1 1 2-- ---1 1 2 मूल बह्र -no operation
[ B ] 22-------112--------112 operarion on -a- only
[C ] 112---- -22------ --112 operation on -b- only
[D ] 112----112-------22 operation on -c- only
[E ] 22-------22----------112 operation on -a & -b-
[F ] 112--- 22-------22 operation on -b-&-c-
[G ] 22-- -112--------22 operation on -c-& -a-
[H ] 22--- ---22----------22 operation on -a-&-b-&-c
इस प्रकार माहिया के पहले मिसरे और तीसरे मिसरे के लिए 8-औज़ान बरामद हो गए।यहाँ पर कुछ ध्यान देने की बातें--
[1] यह सभी आठो वज़न आपस में बदले जा सकते है [बाहमी मुतबादिल हैं] कारण कि सभी वज़न का मात्रा योग -12- ही है
[2] मूल बह्र का हर रुक्न ’फ़ अ’लुन [112 ] है जिसमें 3- मुतहर्रिक हर्फ़ [-फ़े-ऐन-लाम-] एक साथ आ गए हैं अत: हर Individual रुक्न [ या एक साथ दो या दो से अधिक रुक्न पर भी एक साथ ]पर ’तस्कीन-ए-औसत ’ का अमल हो सकता है और एक नई रुक्न [ फ़ेलुन =22 ] बरामद हो सकती है जिसे हम यहाँ ’मख़्बून मुसक्किन" कहेंगे क्योंकि यह ’तस्कीन’ के अमल से बरामद हुआ है
[3] अब आप चाहें तो ऊपर की अलामत 22 की जगह ’मख़्बून मुसक्किन और 112 की जगह "फ़अ’लुन" लिख सकते है
एक बात और
आप जानते हों कि अगर किसी मिसरा के आखिर में -1- साकिन बढ़ा दिया जाए तो मिसरे के आहंग में कोई फ़र्क नहीं पड़ता है । अत: ऊपर के औज़ान में मिसरा के आख़िर में -1- साकिन बढ़ा दे तो 8-औज़ान और बरामद हो सकते हैं
जिसे हम 1121 को ’मख़्बून मज़ाल ’ कहेंगे
और 221 को ;मख़्बून मुसक्किन मज़ाल ’ कहेंगे
आप चाहें तो अलग से विस्तार से लिख कर देख सकते है
अत: पहले और तीसरे मिसरे के कुल मिला कर [8+8 ]=16 औज़ान बरामद हो सकते है
-------
दूसरे मिसरे की मूल बह्र [यह वज़न बह्र-ए-मुतक़ारिब से निकली हुई है
--a----------b--------c-----/ c'
फ़अ’ लु---फ़ऊलु---फ़ अ’ल /फ़ऊलु =21--------121-----1 2 / 121 [ इसका नाम मुतक़ारिब असरम मक़्बूज़ महज़ूफ़ /मक़सूर है] कुछ आप को ध्यान आ रहा है ? जी हाँ . बहर-ए-मीर की चर्चा करते समय इस प्रकार के वज़न का प्रयोग किया था।
ख़ैर
ध्यान से देखे --a--& --b और --b--& ---c यानी दो-दो रुक्न मिला कर 3- मुतहर्रिक [-लाम--फ़े---ऐन] एक साथ आ रहे हैं अत: इन पर ’तख़्नीक़’ का अमल हो सकता है और इस से 8-मुतबादिल औज़ान बरामद हो सकते हैं । देखिए कैसे?
--a----------b--------c-----
फ़अ’ लु---फ़ऊलु---फ़ अ’ल----मूल बह्र
21--------121-------12--
वही बात -आप की सुविधा और clarity के लिए यहाँ 112--22--जैसे अलामत से दिखा रहा हूँ बाद में आप चाहें तो उस रुक्न का नाम भी उसके ऊपर लिख सकते हैं
[I ] 21-----121-----12 मूल बह्र -no operation
[J ] 22-----21----12 operation on -a & b-
[K ] 21----122----2 operation on -b & c-
[L ] 22-----22----2 operation on a--b---c
इस प्रकार दूसरे मिसरे के 4-वज़न बरामद हुए
जैसा कि आप जानते हैं अगर किसी मिसरा के आखिर में -1- साकिन बढ़ा दिया जाए तो मिसरे के आहंग में कोई फ़र्क नहीं पड़ता है । अत: ऊपर के औज़ान में मिसरा के आख़िर में -1- साकिन बढ़ा दे तो 4-औज़ान और बरामद हो सकते हैं।
आप उसे i'--j'---k'--l' लिख सकते है -जिससे रुक्न पहचानने में सुविधा होगी
इस प्रकार दूसरे मिसरे के भी 4+4=8 औज़ान बरामद हो गए
जिसमे हम 121 को फ़ऊल [[मक़्सूर] कहेंगे
और 21 को ;फ़ाअ’[-ऐन साकिन] को " मक्सूर मुख़्न्निक़" ’ कहेंगे
आप चाहें तो अलग से विस्तार से लिख कर देख सकते है। मेरी व्यक्तिगत राय यही है कि 22 या 122 के बजाय रुक्न का नाम ही लिखना ही श्रेयस्कर होगा कारण कि आप को यह पता चलता रहे कि मिसरा के किस मुक़ाम पर साकिन होना चाहिए और किस मुक़ाम मुतहर्रिक ।
आप घबराइए नहीं --ये 24-औज़ान आप को रटने की ज़रूरत नहीं -बस समझने के ज़रूरत है --जो बहुत आसान है
[1] ज़्यादातर माहिया निगार पहले और तीसरे मिसरे के लिए G & H का ही प्रयोग करते है , और मिसरा के अन्त में Additional साकिन वाला केस तो बहुत जी कम देखने को मिलता है । बाक़ी औज़ान का प्रयोग कभी कभी ही करते है --जब कोई मिसरा ऐसा फ़ँस जाये तब
[2] दूसरे मिसरे के लिए K & L का ही प्रयोग करते हैं
[3] प्राय: हर मिसरा के आख़िर मे -एक सबब-ए-ख़फ़ीफ़- [2] या इलुन [12] आता है यानी मिसरा दीर्घ [2] पर ही गिरता है
माहिया के औज़ान के बारे में कुछ दिलचस्प बातें
[1] अमूमन उर्दू शायरी में --कोई शे’र या ग़ज़ल एक ही बहर या वज़न में कहे जाते है ,मगर यह स्निफ़ [विधा] दो बह्र इस्तेमाल करती है --यानी पहली पंक्ति में --मुतदारिक मख़्बून की ,और दूसरी पंक्ति -मुतक़ारिब की मुज़ाहिफ़
[2] यह स्निफ़ ’सालिम’ रुक्न इस्तेमाल नहीं करती --बस सालिम रुक्न की मुज़ाहिफ़ शकल ही इस्तेमाल करती है
[3] चूँकि यह स्निफ़[विधा] मुज़ाहिफ़ शजक ही इस्तेमाल करती है अत: 3-मुतहर्रिक एक साथ आने के मुमकिनात है--चाहे एकल रुक्न में या दो पास पास वाले मुज़ाहिफ़ रुक्न मिला कर }फिर तस्कीन या तख़्नीक़ का अमल हो सकता है इन रुक्न पर।
[4] हालाँ कि दूसरी लाइन में एक सबब-ए-ख़फ़ीफ़ कम होता है बनिस्बत पहली या तीसरी लाइन से ---शायद यह कमी ऎब न हो कर -यही माहिया को आहंग ख़ेज़ बनाती है--जैसे गाल में पड़े गढ्ढे नायिका के सौन्दर्य श्री में वॄद्धि देते है।
अब कुछ माहिया और उसकी तक़्तीअ देख लेते है
[1] " तुम रूठ के मत जाना
मुझ से क्या शिकवा
दीवाना है दीवाना
--क़मर जलालाबादी
तक़्तीअ देखते हैं -
2 2 / 1 1 2 / 2 2
तुम रू/ ठ के मत / जाना फ़े’लुन---फ़अ’लुन---फ़े’लुन = G
2 2 / 2 2 / 2
मुझ से /क्या शिक/वा फ़े’लुन----फ़े’लुन ---फ़े =L
2 2 / 1 1 2 / 2 2
दीवा/ ना है दी /वाना फ़े’लुन---फ़अ’लुन---फ़े’लुन =G
[2] दिल ले के दगा देंगे
यार है मतलब के
देंगे तो ये क्या देंगे
--साहिर लुध्यानवी
तक़्तीअ’ भी देख लेते हैं
2 2 / 1 1 2 / 2 2 22---112---22 = G
दिल ले /के द गा /दें गे
2 1 / 1 2 2 / 2 21---122---2 =K
यार /है मत लब /के
2 2 / 1 1 2 / 2 2 22---112---22 = G
देंगे/ तो ये क्या /देंगे
[3] अब इस हक़ीर का भी एक माहिया बर्दास्त कर लें
जब छोड़ के जाना था
क्यों आए थे तुम?
क्या दिल बहलाना था?
अब इसकी तक़्तीअ’ भी देख लें
2 2 / 1 1 2 / 2 2 =22---112---22 = G
जब छो /ड़ के जा /ना था
2 2 / 2 2 /2 = 22---22---2 =L
क्यों आ /ए थे/ तुम?
2 2 / 2 2 / 2 2 = 22---22---22 =H
क्या दिल/ बह ला /ना था?
एक बात चलते चलते
चूँकि उर्दू में माहिया निगारी एक नई विधा है --इस पर शायरों ने बहुत कम ही कहा है--लगभग ना के बराबर। कभी कहीं कोई शायर तबअ’ आज़माई के लिहाज़ से छिट्पुट तरीक़े से यदा-कदा लिख देते हैं
उर्दू रिसालों में भी इसकी कोई ख़ास तवज़्ज़ो न मिली ---मज़्मुआ --ए-माहिया तो बहुत कम ही मिलते है। डा0 आरिफ़ हसन ख़ान साहब ने माहिया पर एक मज़्मुआ " ख़्वाबों की किरचें "-मंज़र-ए-आम पे आया है।
उमीद करते है कि हमारे नौजवान शायर इस जानिब माइल होंगे और मुस्तक़बिल में माहिया पर काम करेंगे और कहेंगे । इन्ही उम्मीद के साथ---
अस्तु
-आनन्द.पाठक-
वाह वाह पाठक जी मुबारकबाद क़ुबूल करें आपने बह्र-ए-माहिया को बहुत खूबसूरती तरीक़े से समझाया है
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