क़िस्त 76 : तस्कीन-ए-औसत का अमल
इससे पहले हमने तख़नीक के अमल पर चर्चा की थी । आज तस्कीन-ए-औसत के अमल पर चर्चा करेंगे
वस्तुत: दोनो का अमल एक जैसा ही है फ़र्क़ बस यह है कि तक़नीक़ के अमल में ’दो consecutive रुक्न
में 3-मुतस्सिल मुतहर्रिक " आते हैं तब लगाते है जब कि ’तस्कीन के अमल में ’एक ही रुक्न मे" 3-मुतस्सिल
मुतहर्रिक आते हैं तब अमल दरामद होता है । शर्ते दोनो ही स्थिति में वही है
1- यह अमल हमेशा ’मुज़ाहिफ़ रुक्न [ ज़िहाफ़ शुदा रुक्न ] पर ही लगता है---सालिम रुक्न पर कभी नहीं
2- इस अमल से बह्र बदलनी नहीं चाहिए
अब आगे बढ़ते है --
मुतदारिक का एक आहंग है - मुतदारिक मुसम्मन सालिम = फ़ाइलुन--फ़ाइलुन--फ़ाइलुन--फ़ाइलुन
212---212---212---212-अगर इस पर ’ख़ब्न ’ का ज़िहाफ़ लगा दे तो रुक्न बरामद होगी
112---112---112---112---यानी
फ़’अलुन ---फ़’अलुन ---फ़’अलुन --फ़’अलुन यानी मुज़ाहिफ़ रुक्न --और तीन मुतहररिक ’एक ही ’
रुक्न "फ़’अलुन’ [ फ़े--ऎन--लाम ] और अब इस पर तस्कीन-ए-औसत का [ तख़नीक का नहीं ध्यान रहे ]
अमल हो सकता है
हम 112---112---112---112- को मूल बह्र कहेंगे क्यों कि इसी बह्र से हम कई मुतबादिल औज़ान [ वज़न का बहु वचन ]
बरामद करेंगे---जो आप बाअसानी कर सकते है ।
अब हम ’अदम ’ साहब की एक ग़ज़ल लेते हैं --जो इसी आहंग की ’मुज़ाइफ़ ’ [ दो-गुनी ] शकल है
यानी 112---112---112--112-// 112--112--112--112
मयख़ाना-ए-हस्ती में अकसर हम अपना ठिकाना भूल गए
या होश से जाना भूल गए या होश में आना भूल गए
असबाब तो बन ही जाते हैं तकदीर की ज़िद को क्या कहिए
इक जाम तो पहुँचा था हम तक ,हम जाम उठाना भूल गए
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मालूम नही आइने में चुपके से हँसा था कौन ’अदम’
हम जाम उठाना भूल गए ,वो साज़ बजाना भूल गए
[ पूरी ग़ज़ल गूगल पर मिल जायेगी ]
आप की सुविधा के लिए --मतला की तक़्तीअ’ कर दे रहे हैं ---बाक़ी अश’आर की तक़्तीअ आप कर लें --तो मश्क़
का मश्क़ हो जायेगा \
2 2 / 1 1 2 / 2 2 / 2 2 // 2 2 / 1 1 2 / 2 2/ 1 2 2
मय ख़ा/ न:-ए-हस/ ती में /अकसर //हम अप /ना ठिका/ना भू/ल गए = 22--112---22--22--//22--112--22---112
2 2 / 1 1 2 / 2 2/ 1 1 2 // 2 2 / 1 1 2 / 2 2 / 1 1 2 = 22----112---22-112-//22--112---22---112
या हो /श से जा/ना भू/ल गए // या हो/श में आ/ना भू/ल गए
इस में आवश्यकतानुसार --11 को 2 लिया गया है जो ’तस्कीन के अमल से जायज़ है ।
अब एक ग़ज़ल शकील बदायूनी वाली लेते है
करने दो अगर कत्ताल-ए जहाँ तलवार की बाते करते हैं
अर्ज़ा नही होता उनका लहू जो प्यार की बाते करते है
ग़म में भी रह एहसास-ए-तरब देखो तो हमारी नादानी
वीराने में सारी उम्र कटी गुलज़ार की बातेम करते हैं
ये अहल-ए-क़लम ये अहल-ए-हुनर देखो तो ’शकील’ इन सबके जिगर
फ़ाँकों से हई दिल मुरझाए हुए ,दिलदार की बातें करते हैं
[ पूरी ग़ज़ल गूगल पर मिल जायेगी ]
आप की सुविधा के लिए --मतला की तक़्तीअ’ कर दे रहे हैं ---बाक़ी अश’आर की तक़्तीअ आप कर लें --तो मश्क़
का मश्क़ हो जायेगा ।
2 2 / 1 1 2 / 2 2 / 1 1 2 // 2 2 / 1 1 2 / 2 2 / 2 2= 22--112---22---112--// 22--112---22--22
कर ने / दो अगर /कत ता /ल जहाँ //तल वा/र की बा/ते कर /ते हैं
2 2 / 1 1 2 / 2 2 / 1 1 2 // 2 2 / 1 1 2 / 2 2 / 2 2 = 22---112--22--112 // 22--112--22--22
अर् ज़ा /नही हो/ ता उन/का लहू /जो प्या/ र की बा/ते कर /ते है
यानी किसी भी रुक्न के 112 को हम 22 कर सकते है [ तस्कीन-ए-औसत की अमल से ]
मगत 22-- को 112 नहीं कर सकते । और करेंगे तो किस अमल से ??? यही मेरा सवाल है ---अजय तिवारी जी से
आप ऐसी ही 2-4 ग़ज़लो पर मश्क़ करते रहें इन्शा अल्लाह इसे भी सीखने में आप को कामयाबी मिलेगी
-आनन्द.पाठक-
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