उर्दू बह्र पर एक बातचीत : क़िस्त 78 [ आहंग एक -नाम दो ][ भाग-1]
उर्दू शायरी में कभी कभी ऐसे मुक़ाम भी आ जाते हैं जब आहंग एक जैसे होते हैं मगर नाम
अलग अलग होते हैं । यह स्थिति कभी सालिम बह्र पर ज़िहाफ़ लगाने से हो जाती है तो कभी
किसी सालिम बह्र के मुज़ाहिफ़ शकल पर ’तस्कीन या तख़नीक़ के अमल से पैदा हो जाति है ।
आज हम ऐसी ही एक दो बह्रों पर चर्चा करेंगे।
एक बह्र है
1212---1212---1212---1212- यानी
मफ़ाइलुन --मफ़ाइलुन--मफ़ाइलुन--मफ़ाइलुन
देखते हैं कैसे ?
[क] आप यह बह्र तो पहचानते होंगे
2212-----2212-----2212----2212-
मुस तफ़ इलुन -- मुस तफ़ इलुन ---मुस तफ़ इलुन --मुस तफ़ इलुन यानी
बह्र-ए-रजज़ मुसम्मन सालिम
अब इस बह्र पर ’ख़ब्न का ज़िहाफ़ लगा कर देखते हैं क्या होता ?
आप जानते हैं कि तमाम ज़िहाफ़ात में से एक ज़िहाफ़ "ख़ब्न" भी होता है ।
इसके अमल के तरीक़े आप जानते होंगे। जो नहीं जानते हैं उनके लिए संक्षेप में यहाँ लिख दे रहा हूँ।
ज़िहाफ़ ख़ब्न = अगर कोई सालिम रुक्न सबब-ए-ख़फ़ीफ़ [ यहाँ मुस--] से शुरु हो रहा हो तो दूसरे हर्फ़ [ जो साकिन होगा] को गिराने का अमल ख़ब्न कहलाता है ।यानी आसान भाषा में --यदि कोई सालिम रुक्न -2- से शुरु हो रहा है तो ज़िहाफ़ ख़ब्न उसे -1-कर देगा।और जो मुज़ाहिफ़ रुक्न हासिल होगा उसे ’मख़्बून’ कहेंगे।
ख़ब्न का शब्दकोषीय अर्थ ही होता है कंधे पर पड़े चादर या अंगरखे को लपेट कर छोटा करना । अरूज़ के संदर्भ में सालिम रुक्न [ जो 2- से शुरु होता है ] को छोटा कर के -1-कर देना समझ लें।
यह एक आम ज़िहाफ़ है, जो शे’र के किसी मुक़ाम पर [यानी पहले-दूसरे--तीसरे यहाँ तक कि चौथे मुक़ाम पर भी] लाया जा सकता है।अर्थात
मुस तफ़ इलुन [2 2 1 2 ] + ख़ब्न = मख़्बून1 2 1 2 = मफ़ाइलुन
अब आप इस ज़िहाफ़ को [क] के सभी मुक़ाम पर लगा दें तो क्या होगा ? कुछ नहीं, नीचे वाला आहंग बरामद होगा
[का] 1 2 1 2---1 2 1 2 ---1 2 1 2 ---1 2 1 2
मफ़ाइलुन--मफ़ाइलुन--मफ़ाइलुन--मफ़ाइलुन और नाम होगा
बह्र-ए- रजज़ मख़्बून मुसम्मन
इस बह्र की मुसम्मन मुज़ाइफ़ [ दो-गुनी ]शकल भी होती है और शायरी भी होती है मगर बहुत कम । कहने का मतलब कि इस बह्र में शायरी की जा सकती है ।
एक ग़ज़ल ्के चन्द अश’आर इस बहर में उदाहरण के तौर पर लगा रहा हूँ । यह ग़ज़ल मेरे मित्र नीरज गोस्वामी [ जयपुर ] का है जो उनकी किताब
[*डाली मोगरे की*--संग्रह से साभार ]
ग़ज़ल
तुझे किसी से प्यार हो तो हो रहे तो हो रहे
चढ़ा हुआ ख़ुमार हो तो हो रहे तो हो रहे
जहाँ पे फूल हों खिले वहाँ तलक जो ले चलो
वो राह, ख़ारज़ार हो तो हो रहे तो हो रहे
उजास हौसलो को साथ में लिए चले चलॊ
घना जो अन्धकार हो तो हो रहे तो हो रहे
मेरा मिजाज़ है कि मैं खुली हवा में साँस लूँ
किसी को नागवार हो तो हो रहे तो हो रहे
तक़्तीअ’ आप कर के देख लें ।
एक शे’र की तक़्तीअ’ आप की सुविधा के लिए कर दे रहा हूँ।
1 2 1 2 / 1 2 1 2 / 1 2 1 2 / 1 2 1 2
तुझे किसी /से प्यार हो /तो हो रहे /तो हो रहे = 1212--1212--1212--1212
1 2 1 2 / 1 2 1 2 / 1 2 1 2 / 1 2 1 2
चढ़ा हुआ /ख़ुमार हो /तो हो रहे /तो हो रहे = 1 2 1 2 --1 2 1 2--1 2 1 2--1 2 1 2
=== ======== =======
अब एक दूसरी बह्र देखते हैं
[ख ] आप यह बह्र तो पहचानते होंगे
1222------1222-----1222-------1222 यानी
मफ़ाईलुन--मफ़ाईलुन---मफ़ाईलुन---मफ़ाईलुन यानी
बह्र-ए-हज़ज मुसम्मन सालिम
आप जानते हैं कि तमाम ज़िहाफ़ात में से एक ज़िहाफ़ ’कब्ज़’ भी होता है।
इसके अमल के तरीक़े आप जानते होंगे। जो नहीं जानते हैं उनके लिए संक्षेप में यहाँ लिख दे रहा हूँ।
ज़िहाफ़ कब्ज़ = अगर कोई सालिम रुक्न वतद-ए-मज्मुआ [ यहाँ मफ़ा --] से शुरु होता है और उसके ठीक बाद ’सबब--ए-ख़फ़ीफ़ [यहाँ -ई- ] हो तो ’पाँचवाँ ’ हर्फ़ [ जो साकिन होगा ] को गिराना-कब्ज़ का अमल कहलाता है ।और जो मुज़ाहिफ़ शकल बरामद होगी उसे ’मक़्बूज़’ कहते हैं
आसान भाषा में आप इसे यूँ समझ लें
--कि अगर कोई बह्र 1222 -से शुरु हो रहा है - तो तीसरे मक़ाम पर -2- को -1- कर देना कब्ज़ कहलाता है ।
अर्थात
मफ़ाईलुन [1222 ] + कब्ज़ = मक़्बूज़ 1 2 1 2 [ मफ़ाइलुन ]
यह एक आम ज़िहाफ़ है, जो शे’र के किसी मुक़ाम पर [यानी पहले-दूसरे--तीसरे यहाँ तक कि चौथे मुक़ाम पर भी] लाया जा सकता है।
हम इसे सभी मुक़ाम पर लगा कर देखते हैं । तो हासिल होगा
[खा] 1 2 1 2 - --1 2 1 2 -- -1 2 1 2 -- 1 2 1 2
मफ़ाइलुन---मफ़ाइलुन--मफ़ाइलुन--मफ़ाइलुन और नाम होगा
बह्र-ए-हज़ज मक्बूज़ मुसम्मन
इस बह्र में भी शायरी की जा सकती है । मगर लोग न जाने क्यों इस दिलकश बह्र में भी बहुत कम शायरी करते हैं
और इस बह्र की भी मुसम्मन मुज़ाइफ़ [ दो-गुनी ] शकल मुमकिन है ।
एक ग़ज़ल ्के चन्द अश’आर इस बहर में उदाहरण के तौर पर लगा रहा हूँ । यह ग़ज़ल मेरे मित्र नीरज गोस्वामी [ जयपुर ] का है जो उनकी किताब
[डाली मोगरे की--संग्रह से साभार ]
ग़ज़ल
चमक है जुगनूऒं में कम, मगर उधार की नहीं
तू चाँद आबदार हो तो हो रहे तो हो रहे
जहाँ उसूल दाँव पर लगे वहाँ उठा धनुष
न डर जो कारज़ार हो तो हो रहे तो हो रहे
फ़क़ीर है मगर कभी गुलाम मत हमे समझ
भले तू ताजदार हो तो हो रहे तो हो रहे
-नीरज गोस्वामी -
इन अश’आर की तक़्तीअ’ आप खुद कर के देख लें और निश्चिन्त हो लें ।
======
अब अपनी बात समेटते हुए
[का] 1 2 1 2 ---1 2 1 2 ----1 2 1 2 ----1 2 1 2
[खा] 1 2 1 2 - --1 2 1 2 -- -1 2 1 2 -- 1 2 1 2
दोनॊ आहंग एक जैसा --पर नाम अलग अलग
पहली बह्र ---रजज़ -+ ख़्बन से बरामद हुई
दूसरी बह्र --हज़ज + कब्ज़ से बरामद हुई
मगर आहंग -एक -है नाम अलग अलग है।
अच्छा अब एक बात और
1212--1212---1212---1212-- [ रजज़ बह्र का मख़्बून ----}
1212--1212---1212--1212 - [ हज़ज का मक़्बूज़-----]
और दोनों बह्रें अरूज़ के क़ायदे के मुताबिक़ ही बरामद की थी
मगर अरूज़ की किताबों में ’हज़ज के मक़्बूज़ मुज़ाहिफ़ वाले बह्र का चर्चा तो है । मगर
रजज़ के इस मख़्बून शकल [1212--1212--1212--1212-] की हू ब हू की कोई चर्चा नहीं मिलता।
जब कि रजज़ के दीगर मख़्बून शकल की चर्चा है।
पता नहीं क्यों ?
अपने अपने दलाइल [ दलीलें ] हो सकते हैं
शायद एक कारण यह हो कि दो बह्र का एक नाम या एक जैसे नाम से ’कन्फ़्यूजन ’ न पैदा हो इसलिए इस बह्र की चर्चा एक ही जगह [ हज़ज में ] की गई हो और यही मान्यता प्राप्त हो।हज़ज बह्र में ही इस बह्र की ही तर्ज़ीह दी गई है ।
आप लोगों की क्या राय है। बताइएगा ज़रूर।
सादर
-आनन्द.पाठक -
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें