एक चर्चा :-_बेबात की बात #ग़ालिब_के_एक_ग़ज़ल_की_तक़्तीअ’ [ क़िस्त 1]
आज बैठे ठाले सोचा कि बेबात की बात में ग़ालिब की एक ग़ज़ल की तक़्तीअ’ ही कर दें--
ग़ालिब की एक ग़ज़ल है, आप लोगों ने इसे ज़रूर पढ़ा होगा और सुना भी होगा ।
इस ग़ज़ल को कई गायकों ने अपने अपने अन्दाज़ में गाया है। यू-ट्यूब पर मिल जायेगा।
ग़ज़ल
नक़्श फ़रियादी है किसकी शोख़ी-ए-तहरीर का
काग़ज़ी है पैरहन हर पैकर-ए-तसवीर का । -1
काव काव-ए-सख़्तजानी हाय तनहाई न पूछ
सुबह करना शाम का लाना है जू-ए- शीर का । -2
जज़्बा-ए-बेअख्तियार-ए-शौक़ देखा चाहिए
सीना-ए-शमशीर से बाहर है दम शमशीर का ।-3
आगही दाम-ए-शुनीदन जिस क़दर चाहे बिछाए
मुद्दाआ’ अन्क़ा है अपने आलम-ए-तक़रीर का ।-4
बस कि हूँ ग़ालिब असीरी में भी आतिश ज़ेर-ए-पा
मू-ए-आतिश दीदा है हल्क़ा मेरी ज़ंजीर का । -5
-#ग़ालिब--
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तक़्तीअ’ [ बहुत से लोग इसे ’तख्ती’ लिखते हैं जो ग़लत है। सही शब्द है तक़्तीअ’ -जिसका अर्थ होता है --टुकड़े
टुकड़े करना । यह शब्द ’क़तअ’ से बना है जिसका अर्थ होता है ’कटा हुआ" ] किसी गज़ल [ शे’र ] का सही वज़न और बह्र जानने के लिए सबसे मुफ़ीद तरीक़ा ’तक़्तीअ’ करना ही होता हैजिससे पता चलता है कि कि शे’र वज़न से ख़ारिज़ है या किस हर्फ़ का वज़न कहाँ कहाँ गिराया या दबाया गया है जिसेहम आप मात्रा-पतन समझते हैं या छूट लेना समझते हैं।
वैसे अरूज़ में मात्रा-पतन का कोई कन्सेप्ट नहीं है क्योंकि वहाँ कोई हिंदी की तरह मात्रा तो होती नही । वहाँ सारा काम -ज़बर --ज़ेर-पेश तन्वीन --तस्दीद से या हर्फ़ के तलफ़्फ़ुज को दबा कर या खीच कर वज़न देते है ख़ास तौर से हरूफ़-ए-इल्लत [ अलिफ़-वाव-ये ] से या कभीहे-[ हा-ए-हूज़-यानी छोटी -हे- हा-ए-मुख्तफ़ी] के उच्चारण कॊ खींच कर या दबा कर वज़न मिलाते है।
चूँकि ग़ज़ल तो ग़ज़ल है चाहे हिंदी [ या देवनागरी में लिखी या कही गई हो या फिर उर्दू लिपि में लिखी गई हो। क़ानून या व्याकरण [ क़वाइद] अर्कान तोउर्दू का ही लगेगा हम नाम चाहे जो भी दें -भले -रुक्न/ फ़ेल /अफ़ाइल/तफ़ाइल/- "मापनी" / जो कह दें।
ख़ैर
किसी ग़ज़ल की तक़्तीअ’ करने के पहले हमें उस ग़ज़ल का सही सही मान्य व प्रामाणिक बह्र निकालना या जानना ज़रूरी है।
दिलचस्प बात यह कि --बह्र अगर पहले से मालूम हो तो --तक़्तीअ’ करना किसी ग़ज़ल का बह्र निकालना निस्बतन [अपेक्षाकृत ]आसान होता है -
ख़ैर
ग़ालिब के उक्त ग़ज़ल की बह्र है [ एक बार आप भी चेक कर लीजिएगा ]
2122---2122---2122---212--
[ फ़ाइलातुन---फ़ाइलातुन--फ़ाइलातुन- फ़ाइलुन ]
और नाम है - बह्र-ए-रमल मुसम्मन महज़ूफ़
[ यह नाम कैसे पड़ा--आप जानते होंगे ]]
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शे’र -1
2 1 2 2 / 2 1 2 2 / 2 1 2 2 / 2 1 2 = 2122--2122--2122--212
नक़्श फ़रिया/ दी है किसकी / शोख़ी-ए-तह/रीर का
काग़ज़ी है/ पैरहन हर/ पैकर-ए-तस/ वीर का ।
यहाँ शोख़ी-ए-तहरीर का वज़न 2122 क्यों लिया गया । पूछ सकते हैं आप ।
यह फ़ारसी की तरकीब है जिसमें दो या तीन ’फ़ारसी" शब्दों को जोड़ा जाता है । चूंकि इसे ’कसरा ’ [ उर्दू में ’ज़ेर’ [ , ] के निशान
से जोड़ा जाता है अत: इसे "कसरा-ए-इज़ाफ़त" कहते हैं । उर्दू फ़ारसी के शायरों को और ग़ालिब को इसमें महारत हासिल थी ।
ख़ैर अब उर्दू में यह ’फ़ारसी लफ़्ज़’ वाली क़ैद खत्म हो गई ।अब तो लोग उर्दू -हिंदी-यहाँ तक की अंग्रेजी के भी शब्दों को जोड़ने के लिए
इस तरक़ीब का इस्तेमाल करते हैं।
इस विषय पर मैने अपने ब्लाग -’ उर्दू बह्र पर एक बातचीत" -पर विस्तार से लिखा है। आप चाहें तो वहाँ देख सकते है।
ख़ैर--
सवाल यह कि ’शोखी-ए-तहरीर’ को 2 1 2 2 पर क्यों लिया गया?
कसरा-ए-इज़ाफ़त की वजह से == शोखी - को शोखि [ 21 ] के वज़न पर लिया गया - चूंकि यहाँ -ख़- पर बड़ी -इ- की मात्रा है कसरा ने उसे छोटा कर दिया ।
-ए- -2- का वज़न देगा [ ख़याल रहे यही-ए- कभी कभी और कहीं कहीं -1- का भी वज़न देता है और कहीं कहीं 2 का वज़न देता है , बह्र और रुक्न की मांग पर] -तह - तो वैसे भी 2 के वज़न का है । अत: शोख़ी-ए-तहरीर = 2 1 2 2
चूँकि लेख लम्बा न हो जाए और आप पढ़ते पढ़ते बोर न हो जाए -आज की चर्चा यहीं ख़त्म करते हैं
बाक़ी अश’आर की तक़्तीअ’ अगले क़िस्त में करेंगे ।
-आनन्द.पाठक-
[ नोट -- कुछ मित्रों की शिकायत रहती है कि मेरे ऐसे आलेख उनकी समझ से परे होते हैं , सर के ऊपर से निकल जाते हैं।्समझ में नहीं आते।
हो सकता है । चूंकि आप हर रोज़ ग़ज़ल लिखते हैं तो ग़ज़ल के बारे में ,ग़ज़ल के व्याकरण के बारे में थोड़ी बहुत जानकारी तो रखते ही होंगे, मज़ीद जानकारी
हो जाए तो बुरा क्या है। वैसे भी अब हिंदी ग़ज़लॊ में -इज़ाफ़त का प्रयोग लोग कम ही करते है और--का--के--की-- लगा कर ही काम चला लेते हैं
। मगर जो लोग ग़ालिब--मीर--दाग़--ज़ौक़--इक़बाल आदि की शायरी का ज़ौक़ फ़र्माते है उन्हे यह जानकारी ग़ज़ल के वज़न और बह्र समझने में फ़ायदा ही करेगी।
इस लेख को पढ़ने न पढ़ने से आप के ग़ज़ल लेखन पर कोई फ़र्क़ नहीं पड़ेगा। जैसे आप लिख रहे हैं वैसे ही लिखते रहें।
इस मंच के असातिज़ा से दस्तबस्ता [ करबद्ध ] गुज़ारिश है कि अगर तक़्तीअ’ करने में कुछ ग़लती हो गई हो तो निशानदिही ज़रूर फ़र्माएँ कि मैं ख़ुद को आइन्दा
दुरूस्त कर सकूँ}---सादर।
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