मंगलवार, 18 मार्च 2014

ग़ज़ल 041 :हयात मौत का ही ....

ग़ज़ल 041

हयात मौत का ही एक शाख़साना लगे
हमें ख़ुद अपनी हक़ीक़त भी इक फ़साना लगे

गुमान, आगही तू, मैं ,उमीद, नौ-उमीदी
हमें सभी ग़म-ए-हस्ती का कारख़ाना लगे

जो दर्द है वह तिरे कर्ब की निशानी है
जो साँस है वह तिरे याद का बहाना लगे

परे है सरहद-ए-इद्राक से वुजूद तिरा
अगर मैं सोचूँ तुझे ,मुझको इक ज़माना लगे

ये मेरी आरज़ूमन्दी !ये मेरी महरूमी
ख़ुदा ख़ुदा तो रहे पर ख़ुदा ख़ुदा ना लगे


खु़दी ने खोल दिए राज़-ए-बेख़ुदी हम पर
क़दम क़दम पे हमें तेरा आस्ताना लगे

वो तेरी याद की ख़ुश्बू ,उमीद का आहट
समंद-ए-शौक़ को गोया कि ताज़याना लगे

ज़माना तुझ को ख़िरदमंद लाख गर्दाने
मगर हमें तो ऐ "सरवर"! तू इक दिवाना लगे

-सरवर-

शाख़्साना =बात में बात/दूसरा रूप
कारख़ाना =झमेले की जगह
क़ुर्ब =पास रहने की/सोहबत की
सरह्द-ए-इद्राक =  अपनी समझ के बूते से बाहर
आस्ताना =चौखट
समंद--ए-शौक़ = तमन्नाओं के घोड़े
ताज़ियाना = चाबुक
ख़िरदमंद = अक़्ल मंद


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