मंगलवार, 6 मई 2014

क़ाफ़िया : एक चर्चा 1

अहबाब-ए-ब्लाग
आदाब
हाल ही में ,अपने ब्लाग ’गीत ग़ज़ल गीतिका’ पर दर्ज़-ए-ज़ैल एक रवायती ग़ज़ल पेश किया था


ऐसे समा गये हो ,जानम मेरी नज़र में
तुम को ही ढूँढता हूँ हर एक रहगुज़र में

इस दिल के आईने में वो अक्स जब से उभरा
फिर उसके बाद कोई आया नहीं नज़र में

पर्दा तो तेरे रुख पर देखा सभी ने लेकिन
देखा तुझे नुमायां ख़ुरशीद में ,क़मर में

जल्वा तेरा नुमायां हर शै में मैने देखा
शम्स-ओ-क़मर में गुल में मर्जान में गुहर में

वादे पे तेरे ज़ालिम हम ऐतबार कर के
भटका किए हैं तनहा कब से तेरे नगर में

आये गये हज़ारों इस रास्ते पे ’आनन’
तुम ही नहीं हो तन्हा इस इश्क़ के सफ़र में

शब्दार्थ
शम्स-ओ-क़मर में =चाँद सूरज में
मर्जान में ,गुहर में= मूँगे में-मोती में

----मेरे एक दोस्त ने सवाल उठाया कि चूँकि मतले में क़ाफ़िया मैने ’नज़र’ और ’रहगुज़र ’ बाँधा है तो आइन्दा ’अश’आर के क़वाइफ़ भी ’ज़र’ पर ही ख़त्म होने चाहिए।अत:ग़ज़ल में क़ाफ़िया ’क़मर’... गुहर..सफ़र ...ना रवा और नादुरुस्त है
मैनें अपनी जानिब से वज़ाहत पेश कर दी है जो मैं अपने ब्लाग के पाठकों की जानकारी व सुविधा के लिए यहाँ भी लगा रहा हूँ
अगर इस वज़ाहत में अगर मुझ से कोई ग़लती हो गई हो तो दस्तबस्ता गुज़ारिश है कि आप मुझे ज़रूर मुतवज्जेह करायें जिस से मैं खुद को सही कर सकूँ

मैनें [जितना मुझे आता है या जितना मैं इधर-उधर से पढ़ा और समझ सका हूँ ] अपनी तरफ़ से वज़ाहत कर दी है मैं चाहूँगा कि इस मंच के अन्य आलिम मेम्बरान इस वज़ाहत पर मज़ीद रोशनी डाले तो दीगर मेम्बरान जो ग़ज़ल कहने और लिखने का ज़ौक़-ओ-शौक़ ्फ़र्माते हैं ,मुस्तफ़ीद हो सकें

आ0 ......
आदाब
पहले तो आप का शुक्रिया अदा कर दूँ कि इस ग़ज़ल को आप ने बड़ी शिद्दत और मुहब्बत से पढ़ा और अपनी राय ज़ाहिर की मतला में ’नज़र ’ के साथ ’रहगुज़र’ बाँधा है तो आने वाले अश’आर में ’ज़र’ क़ाफ़िया ही आना चाहिए
आप की निशानदिही कुछ हद तक सही है कि मतला में क़ाफ़िया अगर ’नज़र’ और रह गुज़र’ बाँधा है तो इल्तिज़ाम[लाज़िम] हो जाता है कि आईन्दा अश’आर में भी यही क़ाफ़िया ’ज़र’ मुस्तमिल हो।

ये सारा मुबहम [भ्रम] ’हिन्दी ग़ज़ल बनाम उर्दू ग़ज़ल" की है । मुस्तक़्बिल में एक मज़्मून इसी मौज़ू पर तफ़सील से राकिम करेंगे ।इन्शा अल्लाह।

फ़िलहाल ,अगर यह गज़ल उर्दू स्क्रिप्ट में लिखी गई होती तो उर्दू के निकात-ए-सुखन के मुताबिक़ इस ग़ज़ल में क़ाफ़िया ’ज़र’ नहीं ’र’ माकिब्ला जबर की हरकत  [’रे’ यहाँ हर्फ़-ए-रवी] है जो साकिन है और जो आईन्दा अश’आर में लाया भी गया है

मतला के मिसरा ऊला में नज़र को अगर उर्दू स्क्रिप्ट में लिखें तो [नून जोये रे ] से लिखेंगे यानी नज़र का ’ज़’ ज़ोये से है जब कि मिसरा सानी में रहगुज़र का ’ज़’ ’ज़े’ से है और दोनों ही मुख़्तलिफ़ हर्फ़ हैं और मुख़तलिफ़ आवाज़ भी है [ये बात दीगर है कि दोनो की सौत [आवाज़ों] में फ़र्क़ अमूमन महसूस नहीं होता और हिन्दी में सारे ’ज़’ एक जैसा ही सुनाई पड़ता है

इसी मुख़्तलिफ़ हर्फ़ की बिना पर ग़ालिब की 2-ग़ज़ल से बात वाज़ेह कर रहा हूँ

आह को चाहिए इक उम्र असर होने तक
कौन जीता है तेरी जुल्फ़ के सर होने तक

 जिसमें उन्होने मतला में काफ़िया "र’[हर्फ़ रे- हर्फ़-ए-रवी है और साकिन भी है] बाँधा है ’सर’ नहीं बाँधा ,सबब ये कि असर का ’स’ [अरबी वाला हर्फ़ ’से’ वाला है] जब कि ’सर’ का ’स’[हर्फ़ सीन वाला ’स’ है] और दोनो ही मुखतलिफ़ हर्फ़ हैं। इस लिए बाद में सर का क़ाफ़िया न लगा कर ’र’ का क़ाफ़िया लगाया है उन्होने।
फिर बाद में गुहर,जिगर,नज़र सहर बाँधा है जो ऐन क़वायद-ए-क़ाफ़िया के मुताबिक़ है
अगर आप बोर न हो रहे हों और अगर इजाज़त हो तो एक मिसाल और दे दूँ कि बात मज़ीद वाज़ेह हो जाय
’ग़ालिब’ का ही एक और मतला है

वो फ़िराक़ और वो विसाल कहाँ
वो शब-ओ-रोज़-ओ-माह-ओ-साल कहाँ

 फिर आइन्दा अश’आर में उन्होने ज़माल ख़त-ओ-ख़ाल ख़याल...वगैरह वग़ैरह बाँधा है -’साल’ नहीं तज़्वीज़ किया
कारण वही ’विसाल’ का ’स’[हर्फ़ सुवाद वाला है] जब कि ’साल’ का ’स’-हर्फ़ सीन वाला है। कहने का मतलब ये कि जब दोनों ही हर्फ़ मुखतलिफ़ है तो फिर ’र’ का क़ाफ़िया लाना जायज़ और दुरुस्त है

 अब अपनी ग़ज़ल के क़ाफ़िया पे आते है

मतला में नज़र और रहगुज़र बांधा हैं और दोनो का मक्तूबी ’ज़’ अलग अलग है नज़र का ’ज़’[ हर्फ़ ज़ोय वाला है जब कि गुज़र का ’ज़’ -हर्फ़ ’ ज़े’ वाला है और दोनो मुख़तलिफ़ है आइन्दा अश’आर मे ’र’ का ही क़ाफ़िया चलेगा ’ज़र’ का नहीं
और ’र’ यहाँ [ हर्फ़-ए-रवी है साकिन और मुक़य्यद भी है]

हाँ ,अगर मतला में ’नज़र’ के साथ मंज़र या ;मुन्तज़र’ लाता तो फिर लाज़िम होता कि ’आइन्दा अश’आर मे ’ज़र’ का ही क़ाफ़िया बाँधा जाये

ये तो रही बात निकात-ए-सुखन उर्दू ग़ज़ल की

हिन्दी ग़ज़ल में साकिन हर्फ़ का ्कोई concept नहीं है ज़्यादातर क़ाफ़िया ’सौती क़ाफ़िया’ [ सुनने के आधार पर ही बाँधते हैं या जैसा कि हिन्दी में बोला जाता है] ही बांधा जाता है
यही कारण है कि दुष्यन्त कुमार जी ’शहर’ का वज़न हिन्दी में [श हर 1-2]  में बाँधा है जब कि उर्दू वाले इसे [2-1 शह र] में बाँधते हैं

उम्मीद करता हू कि बात शायद वाज़ेह हो गई होगी । ये मेरा ज़ाती ख़याल है आप का इस से मुत्तफ़िक़ [सहमत] होना ज़रूरी नहीं

आप तो जानते है कि इल्म-ए-क़ाफ़िया खुद में एक तवील दर्स है और इधर उधर से थोड़ा बहुत मुताअला: कर सका हूँ समझ सका हूँ ,लिख दिया । हो सकता है कि मैं ग़लत भी होऊं

-आनन्द.पाठक


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