शनिवार, 4 नवंबर 2017

उर्दू बह्र पर एक बातचीत : क़िस्त 33 [बह्र-ए-हज़ज कि मुज़ाहिफ़ बहूर-3]

उर्दू बहर पर एक बातचीत : क़िस्त 33 [ बहर-ए-हज़ज की मुज़ाहिफ़ बह्रें-3]

Discliamer clause -वही जो क़िस्त 1 में है

[क्षमाप्रार्थी हूँ विलम्ब से उपस्थित होने पर----

बिना पूछे जो अपनी सफ़ाई देता है
हो न हो मुजरिम दिखाई  देता  है

अत: विलम्ब के लिए आज सफ़ाई  पेश नहीं करूँगा। बस आप यूँ समझ लें ---कुछ तो मजबूरियाँ रही होंगी--वरना इतना ’विलम्ब’ नहीं होता। सच तो यह है कि बहर-ए-हज़ज के इतने मुज़ाहिफ़ बहर हैं कि उनके तज़्किरा [चर्चा ]करते करते मैं खुद ही बिखर गया --कि खुद को समेटूँ तो कहाँ से समेटूँ
ख़ैर--फिर एक कोशिश कर के आप के सामने हाज़िर हूँ --आप की दुआओं  का तलबगार हूँ


पिछले अक़्सात [क़िस्तों ] में  हम हज़ज की सालिम बह्र [मुरब: ,मुसद्दस.सालिम] की चर्चा कर चुके है  [क़िस्त30]
और इसकी मुज़ाहिफ़ बहर महज़ूफ़ और मक़्सूर की भी चर्चा कर चुके हैं      [क़िस्त 31[
साथ ही इसकी मुज़ाहिफ़ बहर मक्बूज़ ,मक़्फ़ूफ़,मक़्फ़ूफ़+महज़ूफ़+मक़्सूर आदि की भी चर्चा कर चुका हूँ   [क़िस्त  32]

ख़र्ब’ और ’कफ़’ ज़िहाफ़ एक साथ लेते है देखते हैं क्या होता है

आज हम और ज़िहाफ़ की चर्चा करेंगे जो हज़ज [रुक्न मुफ़ाईलुन -1222 ] पर लगता है
आप घबराईए नहीं । ये सब ज़िहाफ़ academic discussion के लिए हैं और आप की जानकारी के लिए कर रहे हैं अगर आप सब मिला कर देखेंगे तो ऐसे बहर की संख्या सैकड़ों में बैठती है लेकिन कोई भी शायर इन तमाम बहूर में शायरी नहीं करता । ’मीर’ ने लगभग 30 बह्र , ग़ालिब ने- लगभग 20 -और इक़बाल ने  लगभग 51 बह्र प्रयोग किया है।
आप भी अपनी मनपसन्द बहर को चुन सकते हैं मगर तमाम बहर को पढ़ने समझने के बाद ।

एक बात और--ये बह्र और वज़न तो शायरी का मात्र एक हिस्सा [अवयव] है फ़न-ए-शायरी मेअसल बात तो भाव और कला पक्ष की है

ज़िहाफ़ ख़र्ब- एक मुरक़्क़ब ज़िहाफ़ है [मिश्रित ज़िहाफ़] है जो दो ज़िहाफ़ से मिल कर बना है --कफ़+ ख़रम  । मुज़ाहिफ़ को आप -"मक्फ़ूफ़ अख़रम" भी कह सकते हैं---’अख़रब’ भी कह सकते है ।
बज़ाहिर  ’ख़र्ब’ ज़िहाफ़ से  रुक्न का अखरब शकल [221 मफ़ ऊलु]   हासिल होगा [क़िस्त-31] यानी -लु- [लाम मय हरकत यानी ’लाम’ मुतहर्रिक है]
’कफ़’ ज़िहाफ़--- से रुक्न का ’मक्फ़ूफ़’ शकल  [ मफ़ाईलु  1221 ] हासिल होगा यानी यहाँ भी -लु - मय हरकत है यानी ’लाम’ मुतहर्रिक है
यानी ये दोनो ज़िहाफ़ अरूज़ और जर्ब के मुक़ाम पर नहीं लाए जा सकते कारण कि दोनो में -लाम- मय हरकत है और कोई शे’र का हर्फ़ उल आखिर ’हरकत’ पर नहीं गिरता

और वैसे भी ज़िहाफ़ ;खर्ब’ और ख़रम  तो सदर/इब्तिदा के लिए मख़्सूस है

तो आख़िरी मुक़ाम [यानी अरूज़ और जर्ब पर अब क्या लाएं?  --कुछ नहीं बस हज़ज का सालिम रुक्न 1222 [मफ़ाईलुन] ही ला देते हैं -इसकी तो कोई मुमानियत [मनाही]  नहीं है और शे’र का  हर्फ़ उल आखिर लुन का नून साकिन है

अब बह्र का नाम होगा
[1] बहर-ए-हज़ज मुसम्मन अख़रब मक्फ़ूफ़ मक्फ़ूफ़ सालिम अल आख़िर [आप चाहें तो इसे ’मुसम्मन अख़रब मक्फ़ूफ़ सालिम अल आख़िर भी कह सकते है-कारण वहीं -जो मैने ऊपर लिखा है।
मगर
 बह्र के नाम करण में अन्य प्रकार से [allied way] से समझने की नौबत ही क्यों सीधे सीधे [explicit way] नाम से और ज़िहाफ़ के अमल से पहचाना जाये तो ज़्यादा आसान होगा
तो मैं इस बह्र को -बहर-ए-हज़ज मुसम्मन अख़रब मक्फ़ूफ़ मक्फ़ूफ़ सालिम अल आख़िर - नाम से पहचानना चाहूंगा।यानी जैसे जैसे ज़िहाफ़ का क्रम है वैसे वैसे ही ।
 आप की क्या राय है?
अच्छा ! तो फिर मुसम्मन या मुसद्दस क्यों  जोड़ रहें है? जब ;रुक्न’ की संख्या तो साफ़ साफ़ बता रही है कि रुक्न 3 है या 4 है? ठीक .बिल्कुल ठीक। मुरब्ब: मुसद्दस मुसम्मन जर्ब-उल-मिसाल की तरह ज़ुबान पर इतने चढ़ गये है कि छोड़ने का मन नहीं करता ।Double check का काम करेगा।
ख़ैर----

[क] बहर-ए-हज़ज मुसम्मन अख़रब मक्फ़ूफ़ मक्फ़ूफ़ सालिम अल आख़िर 
मफ़ऊलु----मफ़ाईलु---मफ़ाईलु------मफ़ाईलुन
221--------1221-------1221-------1222
उदाहरण
डा0 आरिफ़ हसन ख़ान साहब के हवाले से ही लेते है

दुनिया में कोई  दूसरा ऐसा नहीं ऎ हमदम
जैसा ये हसीं मेरा  वतन मेरा ये भारत है 
तक़्तीअ आसान है चाहे तो आप कर सक्ते है--इशारा मै कर देता हूं~

 दुन या   म   /कु ई  दूस /र ऐसा न /हीं ऎ हम दम   ---हर्फ़ गिरा कर दिखा दिया जो शायरी में जायज है

जै सा य / हसीं  मेर / वतन मेरा/ य भा रत है  ----  तदैव--
नोट-यह शे’र एक साख़्ता शे’र [समझाने की गरज से ]बनाया हुआ ]  है जो सिर्फ़  समझाने की गरज से लिखा गया है ---इसे आप कोई मयार का शे’र न समझ लें। चाहें तो आप भी ऐसे शे’र गढ़ सकते है ,कह सकते हैं।
ख़ैर-- ऊपर की वज़न को एक बार ज़रा ध्यान से देखें  मफ़ ऊलु-------मफ़ाईलु------बड़ी दिलचस्प बात निकलेगी। क्या है इसमे?? कुछ नहीं है--बस 2-रुक्न है और क्या । मगर मफ़ऊलु का ’लाम’
 मुतहर्रिक है--सामने म फ़ा.... का मीम और फ़े--मुतहर्रिक है यानी---[दो रुक्न में 3-मुतहर्रिक एक साथ आ गये तो- ’तख़्नीक़’’ का अमल लग जायेगा -अगर आप लगाना चाहें तो]।  तस्कीन-ए-औसत और अमल-ए-तख़्नीक़ के बारे में पहले ही बता चुका हूँ==चाहे तो एक बार आप देख लें -यानी बीच वाला ’मुतहर्रिक --मीम--[जो अभी मुतहर्रिक है] साकिन हो जायेगा। यानी लु म् [2] का हो जायेगा और बचा हुआ हिस्सा --फ़ा ---का वज़न 2 रहेगा
यानी एक नई बहर/वज़न मिल जायेगी
यानी नीचे लिखी बहर भी बरामद होगी [आप एक बार तख़्नीक़ का अमल [रुक्न 2 और 3 पर] करें

[ख] 221---1222---221--1222-  इस बहर का नाम होगा’हज़ज मुसम्मन अख़रब मक़्फ़ूफ़ मक़्फ़ूफ़ मुख़्नीक़ सालिम अल आख़िर" । मुख़्नीक़---लफ़्ज़ इस लिए जोड़ दिया गया है ताकि सनद रहे कि यह बहर ’तख़्नीक़’ के अमल से बरमद हुई है
एक बात और ---इस तर्तीब   221---1222   // 221---1222  को बह्र-ए-शिकस्ता भी कह्ते हैं  ,जहाँ शे’र के मध्यान्तर में ’अरूज़ी-वक़्फ़ा’ कहते हैं  । बह्र-ए-शिकस्ता के बारे में पहले भी चर्चा कर चुका हूं~
इस बह्र का एक उदाहरण लेते है--
अल्लामा इक़बाल का  एक शे’र है

फिर बाद-ए-बहार आई , इक़बाल ग़ज़ल्ख़्वाँ हो
गुंचा है अगर गुल हो ! गुल है तो गुलिस्तां  हो 

एक हिन्दी फ़िल्म [बारादरी -तलत महमूद का गाया हुआ] है -दो लाईन लिख रहा हूँ। यू ट्यूब पर उपलब्ध है  https://www.youtube.com/watch?v=eOnw5V1SPVs

तस्वीर बनाता हूँ     //तस्वीर नहीं बनती
इक ख़्वाब सा देखा है// ताबीर नही बनती

इसकी तक़्तीअ कर देता हूं~
 2    2  1 - 1 2 2 2   //  2    2   1--1 2 2 2             =  221---1222 // 221--1222
तस् वीर / बनाता हूँ     //तस् वीर / नहीं बन ती
2      2  1  - 1  2 2  2//  2  2 1 - 1 2 2   2 =221---1222 // 221--1222
इक ख़ाब  /स देखा  है// ,ता बीर  नही बन ती यहाँ -से- को -स- [1] की वज़न पर पढ़ लिया जो जायज़ है

अगर आप गाना सुने तो आप को पता चलेगा कि ये कितनी दिलकश बहर है
इसी बहर में इस हक़ीर का भी 1 शे’र बर्दास्त कर लें

देखा तो नहीं तुमको ,लेकिन हो ख़यालों में
सीरत की तेरी मैने ,तस्वीर बना  ली है

 आप तक़्तीअ कर के बता दीजियेगा कि कहीं यह शे’र मैने बहर[वज़न] से ख़ारिज़ तो नहीं कर दिया।
एक बात और--
ये जो बीच में [शे’र के मध्यान्तर मे ]  // का जो निशान देख रहे हैं उसे शायरी के भाषा में ’अरूज़ी वक्फ़ा" [शेर में ठहराव का मुकाम] कहते हैं और इस की ख़ासियत यह है कि जो बात आप कह रहें हो वो  //  के पहले ही ख़तम हो जानी चाहिए यानी दूसरे भाग  // के बाद जा कर बात खत्म न हो। ऐसी बहर को बहर-ए-शिकस्ता भी कहते हैं।  इस मक़ाम पर ऐसा कोई लफ़्ज़ न आ जाये कि तक़्तीअ करते वक़्त कुछ हर्फ़ तो  // के इस पार रहे और बाक़ी हर्फ़ // के उस पार चला जाये ।पहली स्थिति में बहर ’ना-शिकस्ता ’ कहलायेगी  ।।यूं शे’र ज़िन्दा तो रहेगा मगर  आहंग की ख़ूबसूरती ख़त्म हो जायेगी । इस विषय पर डा0 शम्स्सुर्हमान फ़ारूक़ी साहब ने अपनी किताब ---------में विस्तार से चर्चा की है ।ख़ैर --बात निकली तो बात कर ली--
ऊपर जो गाना लिखा है वो ’परफ़ेक्ट’  बहर-ए-शिकस्ता की मिसाल है

[ग] 221---1221----1221----122/1221  इस बहर का नाम होगा ---बहर-ए-हज़ज मुसम्मन अख़रब मक़्फ़ूफ़ महज़ूफ़/मक़्सूर

इस बहर की तुलना ऊपर की बहर [ख] से करें -आप को कोई विशेष अन्तर नहीं लगेगा । लगभग एक ही जैसा है -बस आख़िरी रुक्न में ज़रा सी तब्दीली है और वो तब्दीली है कि सालिम रुक्न ’ मफ़ाईलुन’ पर -’हज़्फ़’ और ’कस्र’ का ज़िहाफ़ लगा है और इसी लिए इसमें महज़ूफ़ और मक़्सूर जोड़ दिया है और इत्तिफ़ाक़न इन  दोनों का  आपस  में ख़ल्त जायज है
एक उदाहरण लेता हूँ [डा0 आरिफ़ हसन ख़ाँ साहब के हवाले से]

आशिक़ हूँ तेरा मैं तो ,मुझे चाहे न चाहे
मैने तुझे चाहा है ,निभाऊँगा हमेशा

मुझे उम्मीद है कि आप इस की तक़्तीअ कर सकते हैं ।चलिए एक कोशिश मैं भी करता हूँ आप भी करें
221-------/ 1221---/1221----/122
आशिक़ हूँ / तेरा मैं तो/ ,मुझे चाहे /न चाहे
221---/1221----/1 2 2 1    /1 2 2
मैने तु/ झे चाहा है /,निभाऊँगा /ह मे शा

[ बह्र की माँग पर यहाँ  मात्राएँ गिराई गईं है जो जायज भी है और रवा भी। आप भी चाहे तो ऐसा ही कोई मिसरा कह सकते हैं-
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अब हम बहर-ए-हज़ज की कुछ मज़ीद बहर पर बात करेंगे
[1] बहर-ए-ह्ज़ज मुसद्दस अखरब मक़्बूज़ सालिम अल आख़िर
    मफ़ऊलु-----मफ़ाइलुन----मफ़ाईलुन----   [ ध्यान रहे -लु- यानी -लाम- मय हरकत यानी मुतहर्रिक है]
    221---------1212--------1222--
उदाहरण---डा0 आरिफ़ हसन खां साहब के हवाले से

जब जब भी वफ़ा का ज़िक्र होता है
आती हैं ज़फ़ायें याद तेरी तब 
 इशारा मैं कर देता हूँ ,तक़्तीअ  आप कर के देख लें और निश्चिन्त हो जायें ----आप भी कुछ ऐसे ही मिसरा/शे’र कह सकते है --कोशिश तो करें।

जब जब भी /   वफ़ा का ज़िक / र होता है
आती हैं     /  ज़फ़ा ये या /    द तेरी तब

[2] बहर-ए-ह्ज़ज मुसद्दस अख़रब मक़्बूज़ 
मफ़ऊलु-----मफ़ाइलुन----मफ़ाइलुन
221------------1212-------1212            ----   [ ध्यान रहे यहां भी  -लु- यानी -लाम- मय हरकत यानी मुतहर्रिक है]

उदाहरण---उदाहरण कमाल अहमद सिद्दिक़ी साहब के हवाले से

जो बात यक़ीं से कह रहे हो तुम
बेलाग अगर नहीं तो कुछ  नहीं 

तक़्तीअ कर के देखते हैं
2    2  1 / 1 2  1  2    / 1 2 1 2
जो बात / यक़ीं से कह /रहे हो तुम   [ यहाँ पे -से- और-हो- से [वज़न] गिराया गया है जो रवा है जायज है

2  2 1 /  12 1 2  / 1 2  1  2 
बेलाग / अगर नहीं /तो कुछ  नहीं    [ यहाँ भी  -तो- से वज़न गिराया गया है

[3] बहर-ए-हज़ज  मुसद्दस अखरब मक्फ़ूफ़ सालिम अल आख़िर
    मफ़ऊलु------मफ़ाईलु------मफ़ाईलुन---
   221---------1221-----------1222- ----  [ध्यान रहे यहां भी  -लु- यानी -लाम- मय हरकत यानी मुतहर्रिक है]
उदाहरण ---डा0 आरिफ़ खाँ साहब के हवाले से

दुनिया ही बदल दी थी मेरी हमदम
जब तूने मुझे प्यार से देखा  था 

इशारा मैं कर देता हूँ तक़्तीअ आप कर लें--

दुनिया ही/   बदल दी थी / मिरी हमदम  [ यहाँ -ही- पर वज़न गिराया गया है जो रवा है और जायज़ है ]
जब तूने  /मुझे प्यार / से देखा  था         [ यहाँ -ने- और -से पर वज़न गिराया गया है जो रवा है और जायज़ है

अस्तु

अब अगले क़िस्त में बहर-ए-हज़ज के कुछ और ऐसी ही मुज़ाहिफ़ बह्रों पे चर्चा करेंगे

आप की टिप्पणी का इन्तज़ार रहेगा

--इस मंच पर और भी कई साहिब-ए-आलिम मौज़ूद हैं उनसे मेरी दस्तबस्ता [ हाथ जोड़ कर] गुज़ारिश है कि अगर कहीं कोई ग़लत बयानी या ग़लत ख़यालबन्दी  हो गई हो तो निशान्दिही ज़रूर फ़र्मायें ताकि मैं ख़ुद को  दुरुस्त कर सकूं ।बा करम मेरी मज़ीद [अतिरिक्त] रहनुमाई फ़र्माये ।मम्नून-ओ-शुक्रगुज़ार रहूँगा।

अभी नस्र के कुछ बयां और भी हैं..........
ज़िहाफ़ात् के कुछ निशां और भी हैं.....

एक बात बड़े ही अदब से एतराफ़ [स्वीकार] करता हूँ कि इन तमाम अक़्सात ,तज़्क़िरात  और तहरीर के लिए अपने आलिम अरूज़ी साहिबान  कमाल अहमद सिद्द्क़ी साहब , डा0 शम्सुर्र्हमान फ़ारुक़ी साहब ,आलिम जनाब  सरवर आलम राज़ ’सरवर ’ साहब  , अजीज  दोस्त डा0 आरिफ़ हसन ख़ान साहब  का तह-ए-दिल  से मम्नून-ओ-मश्कूर हूँ जिनकी किताबों से  कुछ पढ़ सका ,समझ सका और लिख सका ।वगरना इस हक़ीर इतनी  बिसात कहाँ  इतनी औक़ात कहां । इन तज़्क़िरात में  मेरा कुछ भी अपना नहीं है बस  आलिम साहिबान  के अरूज़ पर किए गए कामों का हिन्दी तर्जुमा समझिए........

[नोट् :- पिछले अक़सात  [क़िस्तों ]के आलेख [ मज़ामीन ]आप मेरे ब्लाग पर  भी देख सकते हैं 

www.urdu-se-hindi.blogspot.com
or
www.urdusehindi.blogspot.com
-आनन्द.पाठक-

आप अपनी राय से मुझे   akpathak3107@gmail.com पर अवगत करा सकते हैं।

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